"मैथिलीशरण गुप्त": अवतरणों में अंतर

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==काव्यगत विशेषताएँ==
==काव्यगत विशेषताएँ==
गुप्त जी स्वभाव से ही लोकसंग्रही कवि थे और अपने युग की समस्याओं के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील रहे। उनका काव्य एक ओर वैष्णव भावना से परिपोषित था, तो साथ ही जागरण व सुधार युग की राष्ट्रीय नैतिक चेतना से अनुप्राणित भी था। [[लाला लाजपत राय]], [[बाल गंगाधर तिलक]], [[विपिनचंद्र पाल]], [[गणेश शंकर विद्यार्थी]] और [[मदनमोहन मालवीय]] उनके आदर्श रहे। [[महात्मा गांधी]] के भारतीय राजनीतिक जीवन में आने से पूर्व ही गुप्त जी का युवा मन गरम दल और तत्कालीन क्रान्तिकारी विचारधारा से प्रभावित हो चुका था। 'अनघ' से पूर्व की रचनाओं में, विशेषकर जयद्रथ वध और [[भारत भारती]] में कवि का क्रान्तिकारी स्वर सुनाई पड़ता है। बाद में [[महात्मा गांधी]], [[राजेन्द्र प्रसाद]], और [[विनोबा भावे]] के सम्पर्क में आने के कारण वह गांधीवाद के व्यावहारिक पक्ष और सुधारवादी आन्दोलनों के समर्थक बने।

===राष्ट्रीयता तथा गांधीवाद===
गुप्त जी के काव्य में [[राष्ट्रवाद|राष्ट्रीयता]] और [[गांधीवाद]] की प्रधानता है। इसमें भारत के गौरवमय अतीत के इतिहास और [[भारतीय संस्कृति]] की महत्ता का ओजपूर्ण प्रतिपादन है। आपने अपने काव्य में पारिवारिक जीवन को भी यथोचित महत्ता प्रदान की है और नारी मात्र को विशेष महत्व प्रदान किया है। गुप्त जी ने [[प्रबंध काव्य]] तथा [[मुक्तक काव्य]] दोनों की रचना की। शब्द शक्तियों तथा अलंकारों के सक्षम प्रयोग के साथ मुहावरों का भी प्रयोग किया है।
गुप्त जी के काव्य में [[राष्ट्रवाद|राष्ट्रीयता]] और [[गांधीवाद]] की प्रधानता है। इसमें भारत के गौरवमय अतीत के इतिहास और [[भारतीय संस्कृति]] की महत्ता का ओजपूर्ण प्रतिपादन है। आपने अपने काव्य में पारिवारिक जीवन को भी यथोचित महत्ता प्रदान की है और नारी मात्र को विशेष महत्व प्रदान किया है। गुप्त जी ने [[प्रबंध काव्य]] तथा [[मुक्तक काव्य]] दोनों की रचना की। शब्द शक्तियों तथा अलंकारों के सक्षम प्रयोग के साथ मुहावरों का भी प्रयोग किया है।



14:20, 20 अप्रैल 2019 का अवतरण

मैथिलीशरण गुप्त
चित्र:Maithilisharangupt.jpg
जन्म3 अगस्त 1886
चिरगाँव, उत्तर प्रदेश, ब्रिटिश भारत
मौतदिसम्बर 12, 1964 (78 वर्ष की आयु में)
पेशाकवि, राजनेता, नाटककार, अनुवादक
राष्ट्रीयताभारतीय
शिक्षाप्राथमिक-चिरगाँव, मिडिल - मैकडोनल हाई स्कूल
उल्लेखनीय कामपंचवटी, सिद्धराज, साकेत, यशोधरा, विश्ववेदना आदि
खिताब

हिन्दुस्तान अकादमी पुरस्कार (साकेत के लिए- ₹500) (1935)
मंगलाप्रसाद पुरस्कार (साकेत के लिए), हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा (1937)[1]
साहित्यवाचस्पति (1946)
पद्मभूषण (1954)

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त (३ अगस्त १८८६ – १२ दिसम्बर १९६४) हिन्दी के प्रसिद्ध कवि थे। हिन्दी साहित्य के इतिहास में वे खड़ी बोली के प्रथम महत्त्वपूर्ण कवि हैं।[2] उन्हें साहित्य जगत में 'दद्दा' नाम से सम्बोधित किया जाता था। उनकी कृति भारत-भारती (1912) भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के समय में काफी प्रभावशाली सिद्ध हुई थी और और इसी कारण महात्मा गांधी ने उन्हें 'राष्ट्रकवि' की पदवी भी दी थी।[3] उनकी जयन्ती ३ अगस्त को हर वर्ष 'कवि दिवस' के रूप में मनाया जाता है। सन १९५४ में भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया।[4]

महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की प्रेरणा से गुप्त जी ने खड़ी बोली को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया और अपनी कविता के द्वारा खड़ी बोली को एक काव्य-भाषा के रूप में निर्मित करने में अथक प्रयास किया। इस तरह ब्रजभाषा जैसी समृद्ध काव्य-भाषा को छोड़कर समय और संदर्भों के अनुकूल होने के कारण नये कवियों ने इसे ही अपनी काव्य-अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। हिन्दी कविता के इतिहास में यह गुप्त जी का सबसे बड़ा योगदान है। घासीराम व्यास जी उनके मित्र थे। पवित्रता, नैतिकता और परंपरागत मानवीय सम्बन्धों की रक्षा गुप्त जी के काव्य के प्रथम गुण हैं, जो 'पंचवटी' से लेकर 'जयद्रथ वध', 'यशोधरा' और 'साकेत' तक में प्रतिष्ठित एवं प्रतिफलित हुए हैं। 'साकेत' उनकी रचना का सर्वोच्च शिखर है।

जीवन परिचय

मैथिलीशरण गुप्त का जन्म ३ अगस्त १८८६ में पिता सेठ रामचरण कनकने और माता काशी बाई की तीसरी संतान के रूप में उत्तर प्रदेश में झांसी के पास चिरगांव में हुआ। माता और पिता दोनों ही वैष्णव थे। विद्यालय में खेलकूद में अधिक ध्यान देने के कारण पढ़ाई अधूरी ही रह गयी। रामस्वरूप शास्त्री, दुर्गादत्त पंत, आदि ने उन्हें विद्यालय में पढ़ाया। घर में ही हिन्दी, बंगला, संस्कृत साहित्य का अध्ययन किया। मुंशी अजमेरी जी ने उनका मार्गदर्शन किया। १२ वर्ष की अवस्था में ब्रजभाषा में कनकलता नाम से कविता रचना आरम्भ किया। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पर्क में भी आये। उनकी कवितायें खड़ी बोली में मासिक "सरस्वती" में प्रकाशित होना प्रारम्भ हो गई।

प्रथम काव्य संग्रह "रंग में भंग" तथा बाद में "जयद्रथ वध" प्रकाशित हुई। उन्होंने बंगाली के काव्य ग्रन्थ "मेघनाथ वध", "ब्रजांगना" का अनुवाद भी किया। सन् 1912 - 1913 ई. में राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत "भारत भारती" का प्रकाशन किया। उनकी लोकप्रियता सर्वत्र फैल गई। संस्कृत के प्रसिद्ध ग्रन्थ "स्वप्नवासवदत्ता" का अनुवाद प्रकाशित कराया। सन् १९१६-१७ ई. में महाकाव्य 'साकेत' की रचना आरम्भ की। उर्मिला के प्रति उपेक्षा भाव इस ग्रन्थ में दूर किये। स्वतः प्रेस की स्थापना कर अपनी पुस्तकें छापना शुरु किया। साकेत तथा पंचवटी आदि अन्य ग्रन्थ सन् १९३१ में पूर्ण किये। इसी समय वे राष्ट्रपिता गांधी जी के निकट सम्पर्क में आये। 'यशोधरा' सन् १९३२ ई. में लिखी। गांधी जी ने उन्हें "राष्टकवि" की संज्ञा प्रदान की। 16 अप्रैल 1941 को वे व्यक्तिगत सत्याग्रह में भाग लेने के कारण गिरफ्तार कर लिए गए। पहले उन्हेंपहले झाँसी और फिर आगरा जेल ले जाया गया। आरोप सिद्ध न होने के कारण उन्हें सात महीने बाद छोड़ दिया गया। सन् आगरा विश्वविद्यालय से उन्हें डी.लिट. से सम्मानित किया गया। १९५२-१९६४ तक राज्यसभा के सदस्य मनोनीत हुये। सन् १९५३ ई. में भारत सरकार ने उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद ने सन् १९६२ ई. में अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया तथा हिन्दू विश्वविद्यालय के द्वारा डी.लिट. से सम्मानित किये गये। १९५४ में साहित्य एवं शिक्षा क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। चिरगाँव में उन्होंने १९११ में साहित्य सदन नाम से स्वयं की प्रैस शुरू की और झांसी में १९५४-५५ में मानस-मुद्रण की स्थापना की।

इसी वर्ष प्रयाग में "सरस्वती" की स्वर्ण जयन्ती समारोह का आयोजन हुआ जिसकी अध्यक्षता गुप्त जी ने की। सन् १९६३ ई० में अनुज सियाराम शरण गुप्त के निधन ने अपूर्णनीय आघात पहुंचाया। १२ दिसम्बर १९६४ ई. को दिल का दौरा पड़ा और साहित्य का जगमगाता तारा अस्त हो गया। ७८ वर्ष की आयु में दो महाकाव्य, १९ खण्डकाव्य, काव्यगीत, नाटिकायें आदि लिखी। उनके काव्य में राष्ट्रीय चेतना, धार्मिक भावना और मानवीय उत्थान प्रतिबिम्बित है। 'भारत भारती' के तीन खण्ड में देश का अतीत, वर्तमान और भविष्य चित्रित है। वे मानववादी, नैतिक और सांस्कृतिक काव्यधारा के विशिष्ट कवि थे। हिन्दी में लेखन आरम्भ करने से पूर्व उन्होंने रसिकेन्द्र नाम से ब्रजभाषा में कविताएँ, दोहा, चौपाई, छप्पय आदि छंद लिखे। ये रचनाएँ 1904-05 के बीच वैश्योपकारक (कलकत्ता), वेंकटेश्वर (बम्बई) और मोहिनी (कन्नौज) जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। उनकी हिन्दी में लिखी कृतियाँ इंदु, प्रताप, प्रभा जैसी पत्रिकाओं में छपती रहीं। प्रताप में विदग्ध हृदय नाम से उनकी अनेक रचनाएँ प्रकाशित हुईं।

जयन्ती

मध्य प्रदेश के संस्कृति राज्य मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा ने कहा है कि राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की जयंती प्रदेश में प्रतिवर्ष तीन अगस्त को 'कवि दिवस' के रूप में व्यापक रूप से मनायी जायेगी। यह निर्णय राज्य शासन ने लिया है। युवा पीढ़ी भारतीय साहित्य के स्वर्णिम इतिहास से भली-भांति वाकिफ हो सके इस उद्देश्य से संस्कृति विभाग द्वारा प्रदेश में भारतीय कवियों पर केन्द्रित करते हुए अनेक आयोजन करेगा।

कृतियाँ [5]

  • महाकाव्य- साकेत, यशोधरा
  • खण्डकाव्य- जयद्रथ वध, भारत-भारती, पंचवटी, द्वापर, सिद्धराज, नहुष, अंजलि और अर्घ्य, अजित, अर्जन और विसर्जन, काबा और कर्बला, किसान, कुणाल गीत, गुरु तेग बहादुर, गुरुकुल , जय भारत, युद्ध, झंकार , पृथ्वीपुत्र, वक संहार [क], शकुंतला, विश्व वेदना, राजा प्रजा, विष्णुप्रिया, उर्मिला, लीला[ग], प्रदक्षिणा, दिवोदास [ख], भूमि-भाग
  • नाटक - रंग में भंग , राजा-प्रजा, वन वैभव [क], विकट भट , विरहिणी , वैतालिक, शक्ति, सैरन्ध्री [क], स्वदेश संगीत, हिड़िम्बा , हिन्दू, चंद्रहास
  • मैथिलीशरण गुप्त ग्रन्थावली (मौलिक तथा अनूदित समग्र कृतियों का संकलन 12 खण्डों में, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली से प्रकाशित, लेखक-संपादक : डॉ. कृष्णदत्त पालीवाल, पृष्ठ- 460, मूल्य- ₹9000, प्रथम संस्करण-2008) (ISBN 978-81-8143-755-6)
  • फुटकर रचनाएँ- केशों की कथा, स्वर्गसहोदर, ये दोनों मंगल घट (मैथिलीशरण गुप्त द्वारा लिखी पुस्तक) में संग्रहीत हैं।
  • अनूदित (मधुप के नाम से)-
  • संस्कृत- स्वप्नवासवदत्ता, प्रतिमा, अभिषेक, अविमारक (भास) (गुप्त जी के नाटक देखें), रत्नावली (हर्षवर्धन)
  • काविताओं का संग्रह - उच्छवास
  • पत्रों का संग्रह - पत्रावली

गुप्त जी के नाटक

उपरोक्त नाटकों के अतिरिक्त गुप्त जी ने चार नाटक और लिखे जो भास के नाटकों पर आधारित थे। निम्नलिखित तालिका में भास के अनूदित नाटक और उन पर आधारित गुप्त जी के मौलिक नाटक दिए हुए हैं[6]:-

गुप्त जी के मौलिक नाटक भास जी के अनूदित नाटक
अनघ स्वप्नवासवदत्ता
चरणदास प्रतिमा
तिलोत्तमा अभिषेक
निष्क्रिय प्रतिरोध आविमारक

काव्यगत विशेषताएँ

गुप्त जी के काव्य में राष्ट्रीयता और गांधीवाद की प्रधानता है। इसमें भारत के गौरवमय अतीत के इतिहास और भारतीय संस्कृति की महत्ता का ओजपूर्ण प्रतिपादन है। आपने अपने काव्य में पारिवारिक जीवन को भी यथोचित महत्ता प्रदान की है और नारी मात्र को विशेष महत्व प्रदान किया है। गुप्त जी ने प्रबंध काव्य तथा मुक्तक काव्य दोनों की रचना की। शब्द शक्तियों तथा अलंकारों के सक्षम प्रयोग के साथ मुहावरों का भी प्रयोग किया है।

भारत भारती में देश की वर्तमान दुर्दशा पर क्षोभ प्रकट करते हुए कवि ने देश के अतीत का अत्यंत गौरव और श्रद्धा के साथ गुणगान किया। भारत श्रेष्ठ था, है और सदैव रहेगा का भाव इन पंक्तियों में गुंजायमान है-

भूलोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला-स्थल कहाँ?
फैला मनोहर गिरि हिमालय और गंगाजल कहाँ?
संपूर्ण देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है?
उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है।

दार्शनिकता

गुप्त जी का दर्शन उनके कलाकार के व्यक्तित्व पक्ष का परिणाम न होकर सामाजिक पक्ष का अभिव्यक्तिकरण है। वे बहिर्जीवन के दृष्टा और व्याख्याता कलाकार हैं, अन्तर्मुखी कलाकार नहीं। कर्मशीलता उनके दर्शन की केन्द्रस्थ भावना है। साकेत में भी वे राम के द्वारा कहलाते हैं-

सन्देश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया
इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया ।२२।

राम अपने कर्म के द्वारा इस पृथ्वी को ही स्वर्ग जैसी सुन्दर बनाना चाहते हैं। राम के वनगमन के प्रसंग पर सबके व्याकुल होने पर भी राम शान्त रहते हैं, इससे यह ज्ञान होता है कि मनुष्य जीवन में अनन्त उपेक्षित प्रसंग निर्माण होते हैं अतः उसके लिए खेद करना मूर्खता है। राम के जीवन में आनेवाली सम तथा विषम परिस्थितियों के अनुकूल राम की मनःस्थिति का सहज स्वाभाविक दिग्दर्शन करते हुए भी एक धीरोदात्त एवं आदर्श पुरुष के रूप में राम का चरित्रांकन गुप्त जी ने किया है। लक्ष्मण भी जीवन की प्रत्येक प्रतिक्रिया में लोकोपकार पर बल देते हैं। उनकी साधना 'शिवम्' की साधना है। अतः वे अत्यन्त उदारता से कहते हैं-

मैं मनुष्यता को सुरत्व की
जननी भी कह सकता हूँ
किन्तु पतित को पशु कहना भी
कभी नहीं सह सकता हूँ ।२३।

रहस्यात्मकता एवं आध्यात्मिकता

गुप्त जी के परिवार में वैष्णव भक्ति भाव प्रबल था। प्रतिदिन पूजा-पाठ, भजन, गीता पढ़ना आदि सब होता था। यही कारण है कि गुप्त जी के जीवन में भी यह आध्यात्मिक संस्कार बीज के रूप में पड़े हुए थे जो धीरे-धीरे अंकुरित होकर रामभक्ति के रूप में वटवृक्ष हो गया।

'साकेत' की भूमिका में निर्गुण परब्रह्म सगुण साकार के रूप में अवतरित होता है । आत्मश्रय प्राप्त कवि के लिए जीवन में ही मुक्ति मिल जाने से मृत्यु न तो विभीषिका रह जाती है और न उसे भय या शोक ही दे सकती है। गुप्त जी ने ‘साकेत' में राम के प्रति अपनी भक्ति भावना प्रकट की है। ‘साकेत' में मुख्य रूप से उनका प्रयोजन उर्मिला की व्यथा को चित्रित करना था। पर साथ में ही राम की भक्ति भावना के गुण गाने में पीछे नहीं हटे। साकेत में हम जिस रामचरित के दर्शन करते हैं उसमें आधुनिकता की छाप अवश्य है, किन्तु उसकी आत्मा में राम के आधि दैविक रूप की ही झाँकी है और ‘साकेत' की मूल प्रेरणा है। जिस युग में राम के व्यक्तित्व को ऐतिहासिक महापुरुष या मर्यादा पुरुषोत्तम तक सीमित मानने का आग्रह चल रहा था गुप्त जी की वैष्णव भक्ति ने आकुल होकर पुकार की थी।

राम, तुम मानव हो? ईश्वर नहीं हो क्या?
विश्व में रमे हुए नहीं सभी कही हो क्या?
तब मैं निरीश्वर हूँ, ईश्वर क्षमा करे,
तुम न रमो तो मन तुम में रमा करे ।

'साकेत' पूजा का एक फूल है, जो आस्तिक कवि ने अपने इष्टदेव के चरणों पर चढ़ाया है। राम के चित्रांकन में गुप्त जी ने जीवन के रहस्य को उद्घाटित किया है। राम के जन्म हेतु उन्होंने कहा है-

किसलिए यह खेल प्रभु ने है किया ।
मनुज बनकर मानवी का पय पिया ॥
भक्त वत्सलता इसी का नाम है।
और वह लोकेश लीला धाम है ।१६।

मैथिलीशरण गुप्त को आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी का मार्गदर्शन प्राप्त था । आचार्य द्विवेदी उन्हें कविता लिखने के लिए प्रेरित करते थे, उनकी रचनाओं में संशोधन करके अपनी पत्रिका 'सरस्वती' में प्रकाशित करते थे। मैथिलीशरण गुप्त की पहली खड़ी बोली की कविता 'हेमन्त' शीर्षक से सरस्वती (१९०७ ई०) में छपी थी।

उनकी द्वारा लिखित खंडकाव्य पंचवटी निम्न पंक्तियाँ आज भी कविता प्रेमियों के मानस पटल पर सजीव हैं-

चारुचंद्र की चंचल किरणें, खेल रहीं हैं जल थल में,
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अम्बरतल में।
पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से,
मानों झीम रहे हैं तरु भी, मन्द पवन के झोंकों से॥
पंचवटी की छाया में है, सुन्दर पर्ण-कुटीर बना,
जिसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर, धीर-वीर निर्भीकमना,
जाग रहा यह कौन धनुर्धर, जब कि भुवन भर सोता है?
भोगी कुसुमायुध योगी-सा, बना दृष्टिगत होता है॥
किस व्रत में है व्रती वीर यह, निद्रा का यों त्याग किये,
राजभोग्य के योग्य विपिन में, बैठा आज विराग लिये।
बना हुआ है प्रहरी जिसका, उस कुटीर में क्या धन है,
जिसकी रक्षा में रत इसका, तन है, मन है, जीवन है!
मर्त्यलोक-मालिन्य मेटने, स्वामि-संग जो आई है,
तीन लोक की लक्ष्मी ने यह, कुटी आज अपनाई है।
वीर-वंश की लाज यही है, फिर क्यों वीर न हो प्रहरी,
विजन देश है निशा शेष है, निशाचरी माया ठहरी॥
कोई पास न रहने पर भी, जन-मन मौन नहीं रहता;
आप आपकी सुनता है वह, आप आपसे है कहता।
बीच-बीच मे इधर-उधर निज दृष्टि डालकर मोदमयी,
मन ही मन बातें करता है, धीर धनुर्धर नई नई
क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा;
है स्वच्छन्द-सुमंद गंध वह, निरानंद है कौन दिशा?
बंद नहीं, अब भी चलते हैं, नियति-नटी के कार्य-कलाप,
पर कितने एकान्त भाव से, कितने शांत और चुपचाप!
है बिखेर देती वसुंधरा, मोती, सबके सोने पर,
रवि बटोर लेता है उनको, सदा सवेरा होने पर।
और विरामदायिनी अपनी, संध्या को दे जाता है,
शून्य श्याम-तनु जिससे उसका, नया रूप झलकाता है।
सरल तरल जिन तुहिन कणों से, हँसती हर्षित होती है,
अति आत्मीया प्रकृति हमारे, साथ उन्हींसे रोती है!
अनजानी भूलों पर भी वह, अदय दण्ड तो देती है,
पर बूढों को भी बच्चों-सा, सदय भाव से सेती है॥
तेरह वर्ष व्यतीत हो चुके, पर है मानो कल की बात,
वन को आते देख हमें जब, आर्त्त अचेत हुए थे तात।
अब वह समय निकट ही है जब, अवधि पूर्ण होगी वन की।
किन्तु प्राप्ति होगी इस जन को, इससे बढ़कर किस धन की!
और आर्य को, राज्य-भार तो, वे प्रजार्थ ही धारेंगे,
व्यस्त रहेंगे, हम सब को भी, मानो विवश विसारेंगे।
कर विचार लोकोपकार का, हमें न इससे होगा शोक;
पर अपना हित आप नहीं क्या, कर सकता है यह नरलोक! [7]

सन्दर्भ

  1. "मैथिली शरण गुप्त" (एचटीएमएल). मिलनसागर. अभिगमन तिथि 3 जनवरी 2007.
  2. मैथिलीशरण गुप्त सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय कवि थे
  3. राष्ट्रकवि व उनकी भारत भारती
  4. "Padma Awards" (PDF). Ministry of Home Affairs, Government of India. 2015. Archived from the original (PDF) on 15 November 2014. Retrieved 21 July 2015.
  5. "Rashtrakavi Maithili Sharan Gupt". अभिगमन तिथि 20 अप्रैल 2019.
  6. "मैथिलीशरण गुप्त#प्रमुख कृतियाँ#प्रमुख नाटक". bharatdiscovery.org. अभिगमन तिथि 20 अप्रैल 2019.
  7. "चारुचन्द्र की चंचल किरणें". kavitakosh.org. अभिगमन तिथि 20 अप्रैल 2019.

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ

टिप्पणी

   क.    ^ महाभारत कथानक के आधार पर लिखे तीन खंडकाव्य वन-वैभव, वकसंहार और सैरन्ध्री त्रिपथगा नामक ग्रन्थ में संग्रहीत हैं।

   ख.    ^ दिवोदास पृथ्वीपुत्र का एक अंश है।
   ग.    ^ साकेत महाकाव्य रामायण की कथानक की पूर्ति हेतु लीला की रचना हुई।
   घ.    ^ मैथिलीशरण गुप्त ने एडवर्ड फिट्जगेराल्ड द्वारा किए गए रुबाइयात उमर खय्याम के आंग्लिक अनुवाद का हिन्दी पद्यानुवाद किया था।