"अद्वैत वेदान्त": अवतरणों में अंतर

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शंकराचार्य का ‘एकोब्रह्म, द्वितीयो नास्ति’ मत था। सृष्टि से पहले परमब्रह्म विद्यमान थे। ब्रह्म सत और सृष्टि जगत असत् है। शंकराचार्य के मत से ब्रह्म निर्गुण, निष्क्रिय, सत-असत, कार्य-कारण से अलग इंद्रियातीत है। ब्रह्म आंखों से नहीं देखा जा सकता, मन से नहीं जाना जा सकता, वह ज्ञाता नहीं है और न ज्ञेय ही है, ज्ञान और क्रिया के भी अतीत है। माया के कारण जीव ‘अहं ब्रह्म’ का ज्ञान नहीं कर पाता। आत्मा विशुद्ध ज्ञान स्वरूप निष्क्रिय और अनंत है, जीव को यह ज्ञान नहीं रहता।
शंकराचार्य का ‘एकोब्रह्म, द्वितीयो नास्ति’ मत था। सृष्टि से पहले परमब्रह्म विद्यमान थे। ब्रह्म सत और सृष्टि जगत असत् है। शंकराचार्य के मत से ब्रह्म निर्गुण, निष्क्रिय, सत-असत, कार्य-कारण से अलग इंद्रियातीत है। ब्रह्म आंखों से नहीं देखा जा सकता, मन से नहीं जाना जा सकता, वह ज्ञाता नहीं है और न ज्ञेय ही है, ज्ञान और क्रिया के भी अतीत है। माया के कारण जीव ‘अहं ब्रह्म’ का ज्ञान नहीं कर पाता। आत्मा विशुद्ध ज्ञान स्वरूप निष्क्रिय और अनंत है, जीव को यह ज्ञान नहीं रहता।
<ref> ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या nikhil duniya url।http://nikhilduniya.com/brahm-satya-jagat-mithya/ </ref>
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ब्रह्मलीन == ब्रह्म को समझ जाना ही ब्रह्मलीन हो जाना है ।
साधारणतः हर हिन्दू ब्रह्म के बारे में नहीं जानता है उस ब्रह्म को जाने के लिए ही सम्पूर्ण हिन्दू धर्म की कथा है सभी देव असुर उसी के ही अंश है वेदों में ब्रह्म को ही समझने के लिए ज्ञान है ।

मैं ही ब्रह्म हूँ क्योंकि सम्पूर्ण विश्व की परिकल्पना मुझ से ही है ।
तुम ही ब्रह्म हो क्योकिं तुमने विश्व की परिकल्पना की है ।
आत्मा ही ब्रह्म है क्योंकि आत्मा स्वतः जागृत होकर विश्व की परिकल्पना की है ।
ज्ञान ही ब्रह्म है अर्थात ये भाव इच्छा ही ब्रह्म है ।
सम्पूर्ण विश्व ही ब्रह्म है ।

सभी मनुष्य विश्व में स्वयं की इच्छा की पूर्ति के लिए ही जीते है क्योंकि वे अपने इच्छा के कारण ही परिवार देश दुनिया का विकास सुख सुविधा सुरक्षा करते है या फिर हिंसा अत्याचार हत्या करते है ।
सभी मनुष्य एक समान है उनमें कोई अंतर नहीं है दुष्ट सज्जन व सामान्य हो या फिर किसी भी उम्र लिंग संस्कृति राष्ट्र का हो सभी अपना कर्म कर रहे है सभी किसी ना किसी जन्म में अमीरी-गरीबी उच्च-निम्न व ज्ञानी-अज्ञानी होकर जीवन जिये है जियेगे या फिर जी रहे है ।


== सन्दर्भ ==
== सन्दर्भ ==

09:43, 15 मार्च 2019 का अवतरण

अद्वैत वेदान्त वेदान्त की एक शाखा। अहं ब्रह्मास्मि अद्वैत वेदांत यह भारत में प्रतिपादित दर्शन की कई विचारधाराओँ में से एक है, जिसके आदि शंकराचार्य पुरस्कर्ता थे।[1] भारत में परब्रह्म के स्वरूप के बारे में कई विचारधाराएं हैँ। जिसमें द्वैत, अद्वैत या केवलाद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत जैसी कई सैद्धांतिक विचारधाराएं हैं। जिस आचार्य ने जिस रूप में ब्रह्म को जाना उसका वर्णन किया। इतनी विचारधाराएं होने पर भी सभी यह मानते है कि भगवान ही इस सृष्टि का नियंता है। अद्वैत विचारधारा के संस्थापक शंकराचार्य हैं, जिसे शांकराद्वैत या केवलाद्वैत भी कहा जाता है। शंकराचार्य मानते हैँ कि संसार में ब्रह्म ही सत्य है। बाकी सब मिथ्या है (ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या)। जीव केवल अज्ञान के कारण ही ब्रह्म को नहीं जान पाता जबकि ब्रह्म तो उसके ही अंदर विराजमान है। उन्होंने अपने ब्रह्मसूत्र में "अहं ब्रह्मास्मि" ऐसा कहकर अद्वैत सिद्धांत बताया है। वल्लभाचार्य अपने शुद्धाद्वैत दर्शन में ब्रह्म, जीव और जगत, तीनों को सत्य मानते हैं, जिसे वेदों, उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र, गीता तथा श्रीमद्भागवत द्वारा उन्होंने सिद्ध किया है। अद्वैत सिद्धांत चराचर सृष्टि में भी व्याप्त है। जब पैर में काँटा चुभता है तब आखोँ से पानी आता है और हाथ काँटा निकालनेके लिए जाता है। ये अद्वैत का एक उत्तम उदाहरण है।

शंकराचार्य का ‘एकोब्रह्म, द्वितीयो नास्ति’ मत था। सृष्टि से पहले परमब्रह्म विद्यमान थे। ब्रह्म सत और सृष्टि जगत असत् है। शंकराचार्य के मत से ब्रह्म निर्गुण, निष्क्रिय, सत-असत, कार्य-कारण से अलग इंद्रियातीत है। ब्रह्म आंखों से नहीं देखा जा सकता, मन से नहीं जाना जा सकता, वह ज्ञाता नहीं है और न ज्ञेय ही है, ज्ञान और क्रिया के भी अतीत है। माया के कारण जीव ‘अहं ब्रह्म’ का ज्ञान नहीं कर पाता। आत्मा विशुद्ध ज्ञान स्वरूप निष्क्रिय और अनंत है, जीव को यह ज्ञान नहीं रहता। [2]

ब्रह्मलीन == ब्रह्म को समझ जाना ही ब्रह्मलीन हो जाना है । साधारणतः हर हिन्दू ब्रह्म के बारे में नहीं जानता है उस ब्रह्म को जाने के लिए ही सम्पूर्ण हिन्दू धर्म की कथा है सभी देव असुर उसी के ही अंश है वेदों में ब्रह्म को ही समझने के लिए ज्ञान है ।

मैं ही ब्रह्म हूँ क्योंकि सम्पूर्ण विश्व की परिकल्पना मुझ से ही है । तुम ही ब्रह्म हो क्योकिं तुमने विश्व की परिकल्पना की है । आत्मा ही ब्रह्म है क्योंकि आत्मा स्वतः जागृत होकर विश्व की परिकल्पना की है । ज्ञान ही ब्रह्म है अर्थात ये भाव इच्छा ही ब्रह्म है । सम्पूर्ण विश्व ही ब्रह्म है ।

सभी मनुष्य विश्व में स्वयं की इच्छा की पूर्ति के लिए ही जीते है क्योंकि वे अपने इच्छा के कारण ही परिवार देश दुनिया का विकास सुख सुविधा सुरक्षा करते है या फिर हिंसा अत्याचार हत्या करते है । सभी मनुष्य एक समान है उनमें कोई अंतर नहीं है दुष्ट सज्जन व सामान्य हो या फिर किसी भी उम्र लिंग संस्कृति राष्ट्र का हो सभी अपना कर्म कर रहे है सभी किसी ना किसी जन्म में अमीरी-गरीबी उच्च-निम्न व ज्ञानी-अज्ञानी होकर जीवन जिये है जियेगे या फिर जी रहे है ।

सन्दर्भ

  1. आदि शंकराचार्य
  2. ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या nikhil duniya url।http://nikhilduniya.com/brahm-satya-jagat-mithya/