"पेशवा": अवतरणों में अंतर

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[[मराठा साम्राज्य]] के प्रधानमंत्रियों को '''पेशवा''' ([[मराठी]]: ''पेशवे'') कहते थे। ये राजा के सलाहकार परिषद [[अष्टप्रधान]] के सबसे प्रमुख होते थे। राजा के बाद इन्हीं का स्थान आता था। [[शिवाजी]] के [[अष्टप्रधान]] मंत्रिमंडल में प्रधान मंत्री अथवा वजीर का [[पर्यायवाची]] पद था। 'पेशवा' [[फारसी]] शब्द है जिसका अर्थ 'अग्रणी' है।
[[मराठा साम्राज्य]] के प्रधानमंत्रियों को '''पेशवा''' ([[मराठी]]: ''पेशवे'') कहते थे। ये राजा के सलाहकार परिषद [[अष्टप्रधान]] के सबसे प्रमुख होते थे। राजा के बाद इन्हीं का स्थान आता था। [[शिवाजी]] के [[अष्टप्रधान]] मंत्रिमंडल में प्रधान मंत्री अथवा वजीर का [[पर्यायवाची]] पद था। 'पेशवा' [[फारसी]] शब्द है जिसका अर्थ 'अग्रणी' है।<ref>भूमिका में नाममात्र के परिवर्तन के सिवा अग्रलिखित यह पूरा लेख [[हिंदी विश्वकोश]], भाग-7, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, संस्करण-1966, पृष्ठ-338 से 341 तक से प्रायः यथावत (संदर्भ ग्रंथ के नाम सहित) उद्धृत है, जिसके लेखक (हिंदी विश्वकोश में) डाॅ० राजेंद्र नागर हैं।</ref>


पेशवा का पद वंशानुगत नहीं था। आरंभ में, संभवत: पेशवा मर्यादा में अन्य सदस्यों के बराबर ही माना जाता था। छत्रपति [[राजाराम]] के समय में पंत-प्रतिनिधि का नवनिर्मित पद, राजा का प्रतिनिधि होने के नाते पेशवा से ज्येष्ठ ठहराया गया था। पेशवाई सत्ता के वास्तविक संस्थापन का, तथा पेशवा पद को वंशपरंपरागत रूप देने का श्रेय ऐतिहासिक क्रम से सातवें पेशवा, बालाजी विश्वनाथ को है। किंतु, यह परिवर्तन [[छत्रपति शाहू]] के सहयोग और सहमति द्वारा ही संपन्न हुआ, उसकी असमर्थता के कारण नहीं। यद्यपि बालाजी विश्वनाथ के उत्तराधिकारी बाजीराव ने मराठा साम्राज्य के सीमाविस्तार के साथ साथ अपनी सत्ता को भी सर्वोपरि बना दिया, तथापि वैधानिक रूप से पेशवा की स्थिति में क्रांतिकारी परिवर्तन शाहू की मृत्यु के बाद, बाजीराव के पुत्र बालाजी के समय में हुआ। अल्पवयस्क छत्रपति रामराजा की अयोग्यता के कारण समस्त राजकीय शक्ति संगोला के समझौते (२५ सितंबर १७५०) के अनुसार, पेशवा को हस्तांतरित हो गई, तथा शासकीय केंद्र [[सातारा]] की अपेक्षा [[पुणे]] निर्धारित किया गया। किंतु पेशवा माधवराव के मृत्युपरांत जैसा सातारा राजवंश के साथ हुआ, वैसा ही पेशवा वंश के साथ हुआ। माधवराव के उत्तराधिकारियों की नितांत अयोग्यता के कारण राजकीय सत्ता उनके अभिभावक [[नाना फडनवीस]] के हाथों में केंद्रित हो गई। किंतु आँग्ल शक्ति के उत्कर्ष के कारण इस स्थिति में भी शीघ्र ही महान परिवर्तन हुआ। अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय को [[वसई की संधि]] के अनुसार (३१ दिसम्बर १८०२) अंग्रेजों का प्रभुत्व स्वीकार करना पड़ा; १३ जून १८१७, की संधि के अनुसार मराठा संघ पर उसे अपना अधिकार छोड़ना पड़ा; तथा अंत में [[आंग्ल-मराठा युद्ध|तृतीय आंग्ल मराठा युद्ध]] की समाप्ति पर, मराठा साम्राज्य के विसर्जन के बाद, पदच्युत होकर अंग्रेजों की पेंशन ग्रहण करने के लिये विवश होना पड़ा।
पेशवा का पद वंशानुगत नहीं था। आरंभ में, संभवत: पेशवा मर्यादा में अन्य सदस्यों के बराबर ही माना जाता था। छत्रपति [[राजाराम]] के समय में पंत-प्रतिनिधि का नवनिर्मित पद, राजा का प्रतिनिधि होने के नाते पेशवा से ज्येष्ठ ठहराया गया था। पेशवाई सत्ता के वास्तविक संस्थापन का, तथा पेशवा पद को वंशपरंपरागत रूप देने का श्रेय ऐतिहासिक क्रम से सातवें पेशवा, बालाजी विश्वनाथ को है। किंतु, यह परिवर्तन [[छत्रपति शाहू]] के सहयोग और सहमति द्वारा ही संपन्न हुआ, उसकी असमर्थता के कारण नहीं। यद्यपि बालाजी विश्वनाथ के उत्तराधिकारी बाजीराव ने मराठा साम्राज्य के सीमाविस्तार के साथ साथ अपनी सत्ता को भी सर्वोपरि बना दिया, तथापि वैधानिक रूप से पेशवा की स्थिति में क्रांतिकारी परिवर्तन शाहू की मृत्यु के बाद, बाजीराव के पुत्र बालाजी के समय में हुआ। अल्पवयस्क छत्रपति रामराजा की अयोग्यता के कारण समस्त राजकीय शक्ति संगोला के समझौते (२५ सितंबर १७५०) के अनुसार, पेशवा को हस्तांतरित हो गई, तथा शासकीय केंद्र [[सातारा]] की अपेक्षा [[पुणे]] निर्धारित किया गया। किंतु पेशवा माधवराव के मृत्युपरांत जैसा सातारा राजवंश के साथ हुआ, वैसा ही पेशवा वंश के साथ हुआ। माधवराव के उत्तराधिकारियों की नितांत अयोग्यता के कारण राजकीय सत्ता उनके अभिभावक [[नाना फडनवीस]] के हाथों में केंद्रित हो गई। किंतु आँग्ल शक्ति के उत्कर्ष के कारण इस स्थिति में भी शीघ्र ही महान परिवर्तन हुआ। अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय को [[वसई की संधि]] के अनुसार (३१ दिसम्बर १८०२) अंग्रेजों का प्रभुत्व स्वीकार करना पड़ा; १३ जून १८१७, की संधि के अनुसार मराठा संघ पर उसे अपना अधिकार छोड़ना पड़ा; तथा अंत में [[आंग्ल-मराठा युद्ध|तृतीय आंग्ल मराठा युद्ध]] की समाप्ति पर, मराठा साम्राज्य के विसर्जन के बाद, पदच्युत होकर अंग्रेजों की पेंशन ग्रहण करने के लिये विवश होना पड़ा।

07:13, 14 जनवरी 2018 का अवतरण

दरबारियों के साथ पेशवा


मराठा साम्राज्य के प्रधानमंत्रियों को पेशवा (मराठी: पेशवे) कहते थे। ये राजा के सलाहकार परिषद अष्टप्रधान के सबसे प्रमुख होते थे। राजा के बाद इन्हीं का स्थान आता था। शिवाजी के अष्टप्रधान मंत्रिमंडल में प्रधान मंत्री अथवा वजीर का पर्यायवाची पद था। 'पेशवा' फारसी शब्द है जिसका अर्थ 'अग्रणी' है।[1]

पेशवा का पद वंशानुगत नहीं था। आरंभ में, संभवत: पेशवा मर्यादा में अन्य सदस्यों के बराबर ही माना जाता था। छत्रपति राजाराम के समय में पंत-प्रतिनिधि का नवनिर्मित पद, राजा का प्रतिनिधि होने के नाते पेशवा से ज्येष्ठ ठहराया गया था। पेशवाई सत्ता के वास्तविक संस्थापन का, तथा पेशवा पद को वंशपरंपरागत रूप देने का श्रेय ऐतिहासिक क्रम से सातवें पेशवा, बालाजी विश्वनाथ को है। किंतु, यह परिवर्तन छत्रपति शाहू के सहयोग और सहमति द्वारा ही संपन्न हुआ, उसकी असमर्थता के कारण नहीं। यद्यपि बालाजी विश्वनाथ के उत्तराधिकारी बाजीराव ने मराठा साम्राज्य के सीमाविस्तार के साथ साथ अपनी सत्ता को भी सर्वोपरि बना दिया, तथापि वैधानिक रूप से पेशवा की स्थिति में क्रांतिकारी परिवर्तन शाहू की मृत्यु के बाद, बाजीराव के पुत्र बालाजी के समय में हुआ। अल्पवयस्क छत्रपति रामराजा की अयोग्यता के कारण समस्त राजकीय शक्ति संगोला के समझौते (२५ सितंबर १७५०) के अनुसार, पेशवा को हस्तांतरित हो गई, तथा शासकीय केंद्र सातारा की अपेक्षा पुणे निर्धारित किया गया। किंतु पेशवा माधवराव के मृत्युपरांत जैसा सातारा राजवंश के साथ हुआ, वैसा ही पेशवा वंश के साथ हुआ। माधवराव के उत्तराधिकारियों की नितांत अयोग्यता के कारण राजकीय सत्ता उनके अभिभावक नाना फडनवीस के हाथों में केंद्रित हो गई। किंतु आँग्ल शक्ति के उत्कर्ष के कारण इस स्थिति में भी शीघ्र ही महान परिवर्तन हुआ। अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय को वसई की संधि के अनुसार (३१ दिसम्बर १८०२) अंग्रेजों का प्रभुत्व स्वीकार करना पड़ा; १३ जून १८१७, की संधि के अनुसार मराठा संघ पर उसे अपना अधिकार छोड़ना पड़ा; तथा अंत में तृतीय आंग्ल मराठा युद्ध की समाप्ति पर, मराठा साम्राज्य के विसर्जन के बाद, पदच्युत होकर अंग्रेजों की पेंशन ग्रहण करने के लिये विवश होना पड़ा।

पेशवाओं का शासनकाल-
  • बालाजी विश्वनाथ पेशवा (१७१४-१७२०)
  • प्रथम बाजीराव पेशवा (१७२०-१७४०)
  • बालाजी बाजीराव पेशवा ऊर्फ नानासाहेब पेशवा (१७४०-१७६१)
  • माधवराव बल्लाल पेशवा ऊर्फ थोरले माधवराव पेशवा (१७६१-१७७२)
  • नारायणराव पेशवा (१७७२-१७७४)
  • रघुनाथराव पेशवा (अल्पकाल)
  • सवाई माधवराव पेशवा (१७७४-१७९५)
  • दूसरे बाजीराव पेशवा (१७९६-१८१८)
  • दूसरे नानासाहेब पेशवा (सिंहासन पर नहीं बैठ पाए)

बालाजी विश्वनाथ

पेशवाओं के क्रम में सातवें पेशवा किंतु पेशवाई सत्ता तथा पेशवावंश के वास्तविक संस्थापक, चितपावन ब्राह्मण, बालाजी विश्वनाथ का जन्म १६६२ ई. के आसपास श्रीवर्धन नामक गाँव में हुआ था। उनके पूर्वज श्रीवर्धन गाँव के मौरूसी देशमुख थे। (धनाजी घोरपडे के सहायक के रूप में तारा रानी के दरबार में लिपिक वर्ग से इन्होंने अपने करियर की शुरुआत की एवं जल्द ही अपनी बौद्धिक प्रतिभा के बल पर दौलताबाद के सर-सुभेदार नियुक्त किये गए।) सीदियों के आतंक से बालाजी विश्वनाथ को किशोरावस्था में ही जन्मस्थान छोड़ना पड़ा, किंतु अपनी प्रतिभा से उन्होंने उत्तरोत्तर उन्नति की तथा साथ में अमित अनुभव भी संचय किया। औरंगजेब के बंदीगृह से मुक्ति पा राज्यारोहण के ध्येय से जब महाराजा शाहू ने महाराष्ट्र में पदार्पण किया, तब बालाजी विश्वनाथ ने उसका पक्ष ग्रहण कर उसकी प्रबल प्रतिद्वंद्विनी ताराबाई तथा प्रमुख शत्रु चंद्रसेन जाघव, ऊदाजी चव्हाण और दामाजी योरट को परास्त कर न केवल शाहू को सिंहासन पर आरूढ़ किया, वरन् उसकी स्थिति सुदृढ़ कर महाराष्ट्र को पारस्परिक संघर्ष से ध्वस्त होने से बचा लिया। फलत: कृतज्ञ शाहू ने १७१३ में बालाजी विश्वनाथ को पेशवा नियुक्त किया। तदनंतर, पेशवा ने सशक्त पोतनायक कान्होजी आंग्रे से समझौता कर (१७१४) शाहू की मर्यादा तथा राज्य की अभिवृद्धि की। उसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य मुगलों से संधिस्थापन था, जिसके परिणामस्वरूप मराठों को दक्खिन में चौथ तथा सरदेशमुखी के अधिकार प्राप्त हुए (१७१९)। इसी सिलसिले में पेशवा की दिल्ली यात्रा के अवसर पर मुगल वैभव के खोखलेपन की अनुभूति हो जाने पर महाराष्ट्रीय साम्राज्यवादी नीति का भी बीजारोपण हुआ। अद्भुत कूटनीतिज्ञता उनकी विशेषता मानी जाती है। (बालाजी विश्वनाथ की पत्नी का नाम राधा बाई था। उनके दो पुत्र एवं दो कन्याएँ थीं। उनके पुत्र-पुत्रियों के नाम हैं: बाजीराव जो उनके पश्चात पेशवा बने और चिमनाजी अप्पा। दो पुत्रिया भी थीं उनके नाम भयू बाई साहिब और अनु बाई साहिब।)

बाजीराव प्रथम

जन्म १७०० ई. : मृत्यु१७४०। जब महाराज शाहू ने १७२० में बालाजी विश्वनाथ के मृत्यूपरांत उसके १९ वर्षीय ज्येष्ठपुत्र बाजीराव को पेशवा नियुक्त किया तो पेशवा पद वंशपरंपरागत बन गया। अल्पव्यस्क होते हुए भी बाजीराव ने असाधारण योग्यता प्रदर्शित की। उनका व्यक्तित्व अत्यंत प्रभावशाली था; तथा उनमें जन्मजात नेतृत्वशक्ति थी। अपने अद्भुत रणकौशल, अदम्य साहस और अपूर्व संलग्नता से, तथा प्रतिभासंपन्न अनुज चिमाजी अप्पा के सहयोग द्वारा शीघ्र ही उसने मराठा साम्राज्य को भारत में सर्वशक्तिमान् बना दिया। शकरलखेडला (Shakarkhedla) में श्रीमंत बाजीराव ने मुबारिज़खाँ को परास्त किया। (१७२४)। मालवा तथा कर्नाटक पर प्रभुत्व स्थापित किया (१७२४-२६)। पालखेड़ में महाराष्ट्र के परम शत्रु निजामउलमुल्क को पराजित कर (१७२८) उससे चौथ तथा सरदेशमुखी वसूली। फिर मालवा और बुंदेलखंड पर आक्रमण कर मुगल सेनानायक गिरधरबहादुर तथा दयाबहादुर पर विजय प्राप्त की (१७२८)। तदनंतर मुहम्मद खाँ बंगश (Bangash) को परास्त किया (१७२९)। दभोई में त्रिंबकराव को नतमस्तक कर (१७३१) उन्होंने आंतरिक विरोध का दमन किया। सीदी, आँग्रिया तथा पुर्तगालियों को भी विजित किया। दिल्ली का अभियान (१७३७) उनकी सैन्यशक्ति का चरमोत्कर्ष था। उसी वर्ष भोपाल में उन्होंने फिरसे निजाम को पराजय दी। अंतत: १७३९ में उन्होनें नासिरजंग पर विजय प्राप्त की। अपने यशोसूर्य के मध्याह्नकाल में ही २८ अप्रैल १७४० को अचानक रोग के कारण श्रीमंत बाजीराव की असामयिक मृत्यु हुई। मस्तानी नामक मुसलमान स्त्री से उनके संबंध के प्रति विरोधप्रदर्शन के कारण उनके अंतिम दिन क्लेशमय बीते। उनके निरंतर अभियानों के परिणामस्वरूप निस्संदेह, मराठा शासन को अत्यधिक भार वहन करना पड़ा, मराठा साम्राज्य सीमातीत विस्तृत होने के कारण असंगठित रह गया, मराठा संघ में व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएँ प्रस्फुटित हुईं, तथा मराठा सेनाएँ विजित प्रदेशों में असंतुष्टिकारक प्रमाणित हुईं; तथापि श्रीमंत बाजीराव की लौह लेखनी ने निश्चय ही मराठा-इतिहास का गौरवपूर्ण परिच्छेद रचा।

बालाजी बाजीराव उर्फ नाना साहेब

जन्म १७२१ ई. मृत्यु १७६१। श्रीमंत बाजीराव के ज्येष्ठ पुत्र नाना साहेब १७४० में पेशवा नियुक्त हुए। वे अपने पिता से भिन्न प्रकृति के थे। वे दक्ष शासक तथा कुशल कूटनीतिज्ञ तो थे ; किंतु सुसंस्कृत, मृदुभाषी तथा लोकप्रिय होते हुए भी वे दृढ़निश्चयी नहीं थे। उनके आलसी और वैभवप्रिय स्वभाव का मराठा शासन तथा मराठा संघ पर अवांछनीय प्रभाव पड़ा। पारस्परिक विग्रह, विशेषत: सिंधिया तथा होल्कर के संघर्ष को नियंत्रित करने में, वे असफल रहे। दिल्ली राजनीति पर आवश्यकता से अधिक ध्यान केंद्रित करने के कारण उसने अहमदशाह दुर्रानी से अनावश्यक शत्रुता मोल ली। उसने आंग्ल शक्ति के गत्यवरोध का कोई प्रयत्न नहीं किया और इन दोनों ही कारणों से महाराष्ट्र साम्राज्य पर विषम आघात पहुँचा।

नाना साहेब के पदासीन होने के समय शाहू के रोगग्रस्त होने के कारण आंतरिक विग्रह को प्रोत्साहन मिला। इन कुचक्रों से प्रभावित हो शाहू ने नाना साहेब को पदच्युत कर दिया। (१७४७), यद्यपि तुरंत ही उसकी पुनर्नियुक्ति कर शाहू ने स्वभावजन्य बुद्धिमत्ता का भी परिचय दिया। १५ दिसम्बर १७४९ में शाहू की मृत्यु के कारण मराठा शासनविधान के राज्यधिकरों में नई मान्यता स्थापित हुई। रामराजा की अयोग्यता के कारण राजकीय सत्ता पेशवा के हाथों में केंद्रित हो गई। सतारा की सत्ता समाप्त होकर पूना शासनकेंद्र बन गया।

नाना साहेब की सैनिक विजयों का अधिकांश श्रेय पेशवा के चचेरे भाई सदाशिवराव भाऊ की है। इस काल मुगलों से मालवा प्राप्त हुआ (१७४१); मराठों ने बंगाल पर निरंतर आक्रमण किए (१७४२-५१), भाऊ ने पश्चिमी कर्नाटक पर प्रभुत्व स्थापित किया (१७४९) तथा यामाजी रविदेव को पराजित कर संगोला में क्रांतिकारी वैधानिक व्यवस्था स्थापित की (१७५०) जिससे सतारा की अपेक्षा पेशवा का निवासस्थल पूना शासकीय केंद्र बना। भाऊ न ऊदगिर में निजामअली को पूर्ण पराजय दी (१७६०)। किंतु अहमदशाह दुर्रानी के भारत आक्रमण पर भयंकर अनिष्ट की पूर्व सूचना के रूप में दत्ताजी सिघिंया की हार हुई (१७६०)। तदनंतर, पानीपत के रणक्षेत्र पर मराठों की भीषण पराजय हुई (१७६१)। इस मर्मांतक आघात को सहन न कर सकने के कारण पेशवा की मृत्यु हो गयी।

माधवराव प्रथम

मृत्यु १७७२। बालाजी बाजीराव के ज्येष्ठ पुत्र माधवराव ने सोलह वर्ष की अल्पावस्था में पेशवापद ग्रहण किया; तथा सत्ताईस वर्ष की आयु में वह दिवंगत हुआ। पानीपत की पराजय के मर्मांतक आघात से पीड़ित महाराष्ट्र में माधवराव के ग्यारह वर्षीय शासन में दो वर्ष गृहयुद्ध में बीते, तथा अंतिम वर्ष यक्ष्मा के घातक रोग में व्यतीत हुआ। स्वतंत्र रूप से सक्रिय होने के केवल आठ वर्ष उसे मिले। इतने समय में उसने साम्राज्य का विस्तार किया, तथा शासनव्यवस्था सुसंगठित की। इसी कारण वह पेशवाओं में सर्वोत्कृष्ट गिना जाता है।

चरित्र में माधवराव धार्मिक, शुद्धाचरण सहिष्णु, निष्कपट, कर्तव्यनिष्ठ, तथा जनकल्याण की भावना से अनुप्राणित था। उसका व्यक्तिगत जीवन निर्दोष था। उसकी प्रतिभा जन्मजात थी। वह सफल राजनीतिज्ञ, दक्ष सेनानी तथा कुशल व्यवस्थापक था। उसमें बाला जी विश्वनाथ की दूरदर्शिता, बाजीराव की नेतृत्वशक्ति तथा संलग्नता एवं अपने पिता की शासकीय क्षमता थी। चारित्रिक उच्चादर्श में वह तीनों से श्रेष्ठ था।

माधवराव के पदासीन होने पर उसकी अल्पावस्था से लाभ उठाने के ध्येय से निजाम ने महाराष्ट्र पर आक्रमण किया। माधव के महत्वाकांक्षी किंतु स्वार्थी चाचा रघुनाथराव ने अपने भतीजे को अपने अधीन रखने के ध्येय से मराठों के परमशत्रु निजाम से गठबंधन कर, माधवराव को आलेगाँव में परास्त कर (१२ नवम्बर १७६२) उसे बंदी बना लिया किंतु वह माधवराव का गत्यवरोध करने में असफल रहा। पेशवा ने राक्षसभुवन में निजाम को पूर्णतया पराजित किया (१७६३)। युद्धक्षेत्र से लौटकर उसने अपने अभिभावक रघुनाथराव के प्रभुत्व से अपने से मुक्त किया। रघुनाथराव तथा जानोजी भोंसले के विरोध का दमन कर उसने आंतरिक शांति की स्थापना की। हैदरअली, जिसके शौर्य और रणचातुर्य से अंगरेज सेनानायक भी घातंकित हुए थे, चार अभियानों में माधवराव द्वारा परास्त हुआ। मालवा तथा बुंदेलखंड पर मराठों का प्रभुत्व स्थापित हुआ। राजपूत राजा विजित हुए। जाट तथा रुहेलों का दमन हुआ। मराठा सेना ने दिल्ली तक अभियान कर मुगल सम्राट् शाहआलम को पुन: सिंहासनासीन किया। इस प्रकार जैसे पानीपत के युद्ध के पूर्व वैसे ही इस बार भी, मराठा साम्राज्य भारत में सर्वशक्तिशाली प्रमाणित हुआ। किंतु माधवराव की असामयिक मृत्यु सचमुच ही महाराष्ट्र के लिये पानीपत की पराजय से कम घातक नहीं साबित हुई। माधवराज के पश्चात् महाराष्ट्र साम्राज्य पतनोन्मुख होता गया।

पेशवा नारायणराव

जन्म, १७५५ ई. : मृत्यु १७७३। माधव राव के निस्संतान होने के कारण, उसकी मृत्यु पर, उसका अनुज नारायणराव पेशवा घोषित हुआ (१३ दिसम्बर १७७२)। वह प्रकृति से अस्थिर, उद्धत तथा विलासी था। एक तो उसका महत्वाकांक्षी चाचा रघुनाथराव बंदी होने के कारण अपनी परिस्थिति से असंतुष्ट था, दूसरे, उसकी वक्र बुद्धि पत्नी आनंदीबाई तथा पेशवा की माता गोपिकाबाई में घोर वैमनस्य था। अत: अपनी पत्नी से प्रोत्साहित हो रघुनाथराव ने पेशवा के विरुद्ध षड्यंत्र आयोजित किया। संभवत: आरंभ में उसका ध्येय केवल पेशवा को बंदी बनाने का था। किंतु ३० अगस्त १७७३ के मध्याह्न में पेशवामहल में नारायणराव के घेरे जाने पर, संभवत: आनंदीबाई के ही इशारे पर, रघुनाथराव के अनुयायियों ने उसकी हत्या कर दी।

रघुनाथराव उर्फ राघोबा

जन्म १७३४ : मृत्यु १७८४। पेशवा बालाजी बाजीराव का अनुज रघुनाथराव महत्वाकांक्षी तथा साहसी तो था; किंतु साथ ही स्वार्थी, लालची और दंभी भी था। बालाजीराव के समय में राघोबा के नेतृत्व में उत्तरी भारत के दो सैनिक अभियानों की असफलता, पानीपत के युद्ध की पृष्ठभूमि के रूप में, महाराष्ट्र के लिये बड़ी अनिष्टकारक प्रमाणित हुई। अल्पव्यस्क किंतु प्रतिभासंपन्न माधवराव के पदासीन होने पर उसे अपने प्रभुत्व में रखने के ध्येय से राघोबा ने मराठों के परम शत्रु निजाम से समझौता कर, आलेगाँव मे माधवराव को पराजित कर (१७६२), उसे बंदी बना लिया। किंतु माधवराव ने शीघ्र ही अपनी पूर्ण सत्ता स्थापित कर ली (१७६३)। राघोबा को बड़े अनुशासन में रहना पड़ा। माधवराज के मृत्युपरांत नारायणराव के पेशवा बनने पर राघोवा ने उसके विरुद्ध षड्यंत्र आयोजित किया, जिससे उसकी हत्या हो गई (१७७३)। अब राघोबा का पेशवा घोषित होने का स्वप्न सार्थक हुआ (१० अक्टूबर १७७३)। किंतु तत्काल ही नारायणराव की विधवा के पुत्र होने पर नानाफड़नवीस के नेतृत्व में राघोवा के विरुद्ध सफल विरोध उठ खड़ा हुआ। राघोबा ने अँग्रेजों की सहायता से पदासीन होने के उद्देश्य से उनसे सूरत की संघि की (१७७५) जिससे आंग्ल-मराठा युद्ध का सूत्रपात हुआ, किंतु वह अँग्रेजों की कठपुतली मात्र बना रहा। अंतत: युद्ध की समाप्ति पर सालबाई की संधि (१७८२) के अनुसार पेशवा दरबार द्वारा राघोबा को पच्चीस हजार रूपए मासिक पेंशन प्रदान की गई। भग्नहृदय राघोबा की ४८ वर्ष की आयु में मृत्यु हो गई।

माधवराव द्वितीय

जन्म १७७४ : मृत्यु १७९५। नारायणराव की हत्या के बाद राघोबा अपने को पेशवा घोषित करने में सफल हुआ। किंतु तत्काल ही नारायणराव की विधवा के पुत्र उत्पन्न हो जाने पर (१८ अप्रैल १७७४) जनमत के सहयोग से नाना फड़नवीस ने राघोबा को पदच्युत कर एक महीने अट्ठारह दिन के बालक माधवराव द्वितीय को पदासीन किया (२८ मई)। समस्त राजकीय सत्ता अब पेशवा के अभिभावक नाना फडनवीस के हाथों में केंद्रित हो गई। शक्तिलोलुप नाना ने माधवराव का व्यक्तित्व विकसित न होने दिया। न तो उसकी शिक्षा दीक्षा ही संतोषजनक हो सकी और कुछ न वह कुछ अनुभव ही संचय कर सका। निजाम के विरुद्ध खरड़ा के युद्ध में (१७९५) वह केवल कुछ क्षणों के लिये ही उपस्थित था। आकस्मिक रूप से हो, या आत्महत्या हो, अपने महल के छज्जे से गिरने के कारण उसकी मृत्यु हो गई।

चिमनाजी अप्पा

जन्म, १७८४ ई. : मृत्यु १८३०। माधवराव द्वितीय की आकस्मिक मृत्यु के बाद महाराष्ट्र में अव्यवस्था तीव्रतर हो उठी। प्राय: सात महीने तक उत्तराधिकारी का प्रश्न समस्या बना रहा। माधवराव के निस्संतान होने के कारण वास्तव में राज्याधिकार राघोबा के ज्येष्ठ पुत्र बाजीराव द्वितीय का था। किंतु नाना फड़नवीस उसके विपक्ष मे था। अत: नाना ने बाजीराव के अनुज चिमनाजी को उसकी अस्वीकृति पर भी पदासीन करने का निश्चय किया। उसकी नियुक्ति वैध ठहरने के लिये प्रथमत: उसे माधवराव की विधवा यशोदाबाई से गोद लिवाया गया (२५ मई १७९६)। तदनंतर २ जून को उसका पदारोहण हुआ। किंतु तत्काल ही आंतरिक विग्रह से प्रभावित हो नाना फड़नवीस ने बाजीराव के पक्ष में तथा चिमनाजी के विरुद्ध षड्यंत्र आयोजित किया। फलत: चिमनाजी बंदी हुआ, बाजीराव पेशवा नियुक्त हुआ। (६ दिसम्बर १७९६)। अंतिम आँग्ल-मराठा-युद्ध की समाप्ति पर जब बाजीराव ने अंग्रेजों के सम्मुख आत्मसमर्पण किया, चिमनाजी बनारस जाकर रहने लगा, जहाँ १८३० में उसकी मृत्यु हो गई।

बाजीराव द्वितीय

जन्म १७७५ ई. : मृत्यु १८५१। रघुनाथराव तथा मराठा दरबार के अभिभावक नाना फड़णवीस में तीव्र मनोमालिन्य था। अत: माधवराव द्वितीय की मृत्यु पर नाना ने बाजीराव की अपेक्षा उसके अनुज चिमनाजी अप्पा को पेशवा घोषित किया (२ जून १७९६) किंतु आंतरिक दाँव पेचों से प्रभावित हो, नाना ने तुरंत ही चिमनाजी को पदच्युत कर बाजीराव को पेशवा घोषित किया। (६ दिसम्बर १७९६)। बाजीराव का अधिकांश जीवन बंदीगृह में व्यतीत होने के कारण उसकी शिक्षा दीक्षा नितांत अधूरी रही। उसकी प्रकृति भी कटु और विकृत हो गई। अयोग्य तथा अनुभवहीन होने के अतिरिक्त वह स्वभाव से दुर्मति तथा विश्ववासघाती था। अपने उपकारी नाना के विरुद्ध षड्यंत्र रचकर उसने उसके अंतिम दिवस कष्टप्रद कर दिए। १८०० में नाना की मृत्यु से बाजीराव पर रहा-सहा नियंत्रण हट जाने पर बाजीराव के दुर्व्यवहार तथा महाराष्ट्र की विच्छृंखला में वृद्धि होने लगी। पेशवा द्वारा विठोजी होल्कर की हत्या (१८०१) ने यशवंतराव होल्कर को पेशवा कर आक्रमण करने के लिये उत्तेजित किया। पेशवा तथा सिंधिया की पराजय हुई। पेशवा की अँगरेजों से बेसीन की संधि (१८०२) के उपरांत बाजीराव पुन: पुणे पहुंचा। इसी क्रम में द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध छिड़ गया। परिणामस्वरूप बाजीराव को अँगरेजों का प्रभुत्व स्वीकार करना पड़ा, तथा महाराष्ट्र की स्वतंत्रता भी समाप्त हो गई। अंतिम आँग्ल-मराठा-युद्ध में अँगरेजों ने पुन: बाजीराव को संधि के लिये विवश किया (५ नवम्बर १८१७) जिससे उसे मराठा संघ पर अपना राज्यअधिकार त्यक्त करना पड़ा। अंतत: युद्ध की समाप्ति पर मराठा साम्राज्य ही अँग्रेजों के अधिकार में हो गया। बाजीराव अँगरेजों की पेंशन ग्रहण कर विठूर (उत्तर प्रदेश) जाकर निवास करने लगा।

नाना साहेब द्वितीय

१८५७ के स्वतंत्रता संग्राम में अँगरेजों के विरुद्ध लड़े।

सन्दर्भ ग्रन्थ

  • (१) ग्रांट डफ : हिस्ट्री ऑव द मराठाज;
  • (२) जी. एस. सरदेसाई : हिस्ट्री ऑव द मराठाज;
  • (३) डॉ॰ जदुनाथ सरकार : फाल ऑव द मुगल एंपाएर;
  • (४) डॉ॰ वी. जी. दिघे : पेशवा बाजीराव ऐंड मराठा एक्स्पेंशन;
  • (५) अनिलचंद्र बैनर्जी : पेशवा माधवराव प्रथम;
  • (६) डॉ॰ आर. डी. चोक्से : द लास्ट फ्रेज ;
  • (७) एच. एन. सिन्हा : राइज ऑव द पेशवाज;
  • (८) केंब्रिज हिस्ट्री ऑव इंडिया, जिल्द ५;
  • (९) डॉ॰ सुरेद्रनाथ सेन : ऐडमिनिस्ट्रेटिव सिस्टम ऑव द मराठाज।
  1. भूमिका में नाममात्र के परिवर्तन के सिवा अग्रलिखित यह पूरा लेख हिंदी विश्वकोश, भाग-7, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, संस्करण-1966, पृष्ठ-338 से 341 तक से प्रायः यथावत (संदर्भ ग्रंथ के नाम सहित) उद्धृत है, जिसके लेखक (हिंदी विश्वकोश में) डाॅ० राजेंद्र नागर हैं।