"खेल द्वारा शिक्षा": अवतरणों में अंतर

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जो अभिभावक और पालनकर्ता खेल का महत्व समझते हैं, वे बच्चों को ऐसा-वातावरण दे सकते हैं जिसमें खेल को बढ़ावा मिले चाहे उनका सामाजिक वर्ग, शिक्षा स्तर या परिस्थिति कैसी भी क्यों न हो।
जो अभिभावक और पालनकर्ता खेल का महत्व समझते हैं, वे बच्चों को ऐसा-वातावरण दे सकते हैं जिसमें खेल को बढ़ावा मिले चाहे उनका सामाजिक वर्ग, शिक्षा स्तर या परिस्थिति कैसी भी क्यों न हो।

==खेल की परिभाषा==
खेल के बारे में आम धारणा यह है कि यह काम का [[विलोम]] है। खेल एक ऐसी स्थिति है जिसमें लोग कोई उपयोगी या विशिष्ट काम नहीं कर रहे होते हैं। खेल के बारे में एक सोच यह भी है कि यह आनन्ददायक, मुक्त और अनायास होता है। यह दृष्टिकोण छोटे बच्चे के विकास में खेल के महत्व को नकारता है। कई सालों से कई मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तकार बच्चे के विकास में खेल के महत्व पर जोर देने लगे हैं। इन्होंने खेल के अनेक पक्षों पर बल दिया है और बताया है कि खेल कैसे मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं को प्रभावित करता है।

===खेल का मनोविश्लेषणात्मक दृष्टिकोण===
एरिक्सन (Erikson) और अन्ना फ्रायड (Anna Freud) के अनुसार खेल अपूर्ण रह गयी इच्छाओं का स्थानापन्न और अतीत की घातक घटनाओं से मुक्ति और पुनर्जीवन का एक रास्ता है। मनोविश्लेषणात्मक पद्धति खेल के सामाजिक संवेगात्मक पक्षों पर बल देती है। खेल के द्वारा बच्चा माता-पिता के साथ अपने मानसिक द्वन्द्वों और विवेकहीन, भयों का समाधान करता है। एक बच्ची राक्षस-राक्षस खेल कर अंधेरे के भय पर काबू पाती है, एक बच्चा अपनी गुड़िया को किसी नियम के कल्पित उल्लंघन के लिये उसी तरह सजा देता है जैसे एक माता-पिता उसको सजा देते हैं। एरिक्सन की दृष्टि में प्रीस्कूल चरण के दौरान खेल एक बच्चे के लिये खोज, पहल और स्वतंत्रता का रास्ता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से खेल विरेचक अनुभव में माध्यम से आक्रामकता को दिशा देने का एक तरीका है। यह अतीत के लिये एक प्रतिक्रिया और अतीत की घटनाओं की ओर लौटने की प्रक्रिया का एक तन्त्र भी है।


[[श्रेणी:शिक्षा]]
[[श्रेणी:शिक्षा]]

10:21, 8 दिसम्बर 2017 का अवतरण

रेत भरे मैदान (प्लेग्राउण्ड सैंडबॉक्स) में खेलते बच्चे

खेल, बच्चे की स्वाभाविक क्रिया है। भिन्न-भिन्न आयु वर्ग के बच्चे विभिन्न प्रकार के खेल खेलते हैं। ये विभिन्न प्रकार के खेल बच्चों के समपूर्ण विकास में सहायक होते हैं। खेल से बच्चों का शारीरिक विकास, संज्ञानात्मक विकास, संवेगात्मक विकास, सामाजिक विकास एवम् नैतिक विकास को बढ़ावा मिलता है किन्तु अभिभावकों की खेल के प्रति नकारात्मक अभिवृत्ति एवम् क्रियाकलाप ने बुरी तरह प्रभावित किया हैं। अतः यह अनिवार्य है कि शिक्षक और माता-पिता खेल के महत्व को समझें।

खेलों के प्रकारों में अन्वेषणात्मक खेल, संरचनात्मक खेल, काल्पनिक खेल और नियमबद्ध खेल शामिल हैं। खेलों में सांस्कृतिक विभिन्नताएं भी देखी जाती हैं।

खेल से मनुष्य की मनोवैज्ञानिक जरूरतें पूरी होती हैं तथा वह मनुष्य को सामाजिक कौशलों के विकास का भी अवसर देता है। पियाजे के अनुसार खेल बच्चों की मानसिक क्षमताओं के विकास में भी एक बड़ी भूमिका निभाते हैं। पहले चरण में बच्चा वस्तुओं के साथ संवेदन प्राप्त करने व कार्य संचालन करने का प्रयास करता है। दूसरे चरण में बच्चा कल्पनाओं को रूप देने के लिए वस्तुओं को किसी के प्रतीक के रूप में उपयोग करने लगता है। अन्तिम चरण में (7 से 11 वर्ष) काल्पनिक भूमिकाओं के खेलों की तुलना में बच्चा नियमबद्ध खेल (या क्रीड़ाओं) में संलग्न रहता है। खेलों से तार्किक क्षमता व स्कूल सम्बन्धी कौशलों को विकसित होने में मदद मिलती है।

वाइगोत्स्की के अनुसार - जटिल भूमिकाओं वाले खेलों में बच्चों का अपने व्यवहार को संगठित करने का बेहतर व सुरक्षित अवसर मिलता है जो वास्तविक स्थितियों में नहीं मिलता। इस तरह खेल बच्चे के लिए निकट विकास का क्षेत्र बनाते है। स्कूली स्थिति की तुलना में खेल के दौरान बच्चों की एकाग्रता, स्मृति आदि उच्चतर स्तर पर काम करती हैं। खेल में बच्चे की नई विकासमान दक्षताएँ पहले उभर कर आती हैं। खेल-नाटकों में बच्चा अपने आन्तरिक विचार के अनुसार काम करता है और मूर्त रूप में दिखने वाली वस्तुओं से बँधा नहीं रहता। यहीं से उसमें अमूर्त चिन्तन व विचार करने की तैयारी होने लगती है। यह लेखन की भी तैयारी होती है क्योंकि लिखित रूप में शब्द वस्तु जैसा नहीं होता, उसके विचार का प्रतीक होता है।

जितनी उम्र तक खेल में जटिल और विस्तृत भूमिकाओं व भाषा का प्रयोग होता है वह बच्चे के विकास के लिए एक प्रमुख गतिविधि बना रहता है। यह स्थिति 10-11 साल तक के बच्चों में काम रह सकती है। धीरे-धीरे इसका महत्व कम होने लगता है। शिक्षक बच्चों को खेलने का पर्याप्त समय व साधन देकर विषयों का सुझाव देकर, झगड़ों का समाधान करके खेल को और समृद्ध बना सकते हैं।


बच्चा खेल क्यों खेलता है?

सभी बच्चे खेलते हैं। यदि बच्चे मिलकर चुपचाप बैठे रहें और कुछ भी न करें, तो क्या आपको आश्चर्य नहीं होगा। अगर कोई बालिका अकेली भी हो तब भी वह कुछ न कुछ खेलने के लिए ढूँढ ही लेती है। केवल बच्चे ही नहीं अपितु वयस्क भी खेलते हैं।

कुछ उदाहरण

तीन वर्षीय अभिनव बगीचे में टहलते हुए पौधों में पानी देने वाली पाइप उठाता है। वह पाइप को जमीन से थोड़ा ऊपर उठा कर घास पर गिरते हुए पानी को ध्यान से देखता है। फिर वह पाइप के अंतिम छोर को एकाग्र होकर देखता है और उसमें अपनी अंगुली डाल देता है। इससे पानी चारों ओर फव्वारे की तरह गिरने लगता है। पाइप से निकलकर कुछ पानी उसके ऊपर और कुछ पौधों पर गिरता है। कुछ देर बाद अभिनव अपनी अंगुली बाहर निकालता है और फिर वापिस पाइप के मुँह में डाल देता है। अगले दस मिनट तक वह इसी क्रिया में तल्लीन रहता है।

पांच महीने की शशि जमीन पर बिछी चादर पर लेटी हुई है और अपनी टांगों और बाहों को मिला रही है। ऐसा करते हुए चादर का एक कोना उसके हाथ में आ जाता है। शशि उसे मुँह में डालने की कोशिश करती है। तभी माँ आकर उसके मुँह से चादर निकाल देती है और उसे खिलौना दे देती है। शशि उसे भी मुँह में डाल लेती है। फिर वह खिलौना हाथ से दबाती है। और पुनः मुँह में डालने की कोशिश करती है।

खेल की विशेषताएँ

अगर किसी दर्शक से यह पूछा जाए कि उपर्युक्त भिन्न-भिन्न स्थितियों में बच्चे क्या कर रहे हैं तो शायद यही उत्तर मिलेगा कि, ‘‘वे खेल रहे हैं‘‘। दर्शकों में इस बात पर आम सहमति होती है कि कौन-सा कार्यकलाप खेल है और कौन-सा नहीं। परंतु जब खेल को परिभाषित करने के लिए कहा जाता है तो कोई भी विशेषज्ञ खेल की किसी एक परिभाषा पर सहमत नहीं होते। इस मतभेद के बावजूद भी खेल की कुछ विशेषताएँ होती हैं जिनके आधार पर खेल माने जाने वाले गतिविधियों को पहचानने में मदद मिलती है।

खेल की सबसे पहली विशेषता है कि खेल आमोद-प्रमोद है। खेल में मजा आता है। कोई भी ऐसा कार्यकलाप जिससे बच्चों को आनंद मिलता है, खेल है।

एक ही कार्यकलाप किसी के लिए खेल हो सकता है और वही दूसरे के लिए कार्य। उदाहरणतः जब बच्चे कक्षा में सिक्कों को पहचानना सीख रहे हैं तो वह कार्य कर रहे हैं। परन्तु जब वे सब्जी खरीदने और बेचने का खेल खेलते हैं और इस प्रक्रिया से स्वयं ही सिक्कों की पहचान करना सीख जाते हैं तब यह गतिविधि खेल बन जाती है।

दूसरा, खेल अपने आप में ही आनंददायक है। खेलने से बच्चों को बहुत संतोष मिलता है। जब बच्ची बार-बार सीढ़ी पर चढ़ती है और उससे कूदती है तो ऐसा वह इसलिए करती है क्योंकि उसे मजा आता है। न तो यह क्रिया वह अपना कौशल दिखाने के लिए कर रही है, न ही ईनाम पाने के लिए। आनंद के साथ-साथ ऐसा करते समय बालिका के शारीरिक और क्रियात्मक कौशलों का अनायास ही विकास हो रहा है जबकि यह उसका उद्देश्य नहीं है।

अंतिम बात, खेल ऐसी क्रिया है जिसमें बालिका स्वेच्छा और खुशी से हिस्सा लेती है अर्थात् खेलने के लिए उस पर दबाव नहीं डाला जाता है। खेल में उसका योगदान सक्रिय होता है।

वयस्क प्रायः ऐसा मानते हैं कि जब बच्चे खेल रहे हैं तो उस क्रिया के बारे में गंभीर नहीं होते। यह धारणा बिल्कुल गलत है। बच्चे अपने खेल को बहुत संजीदगी से लेते हैं। अगर उनके खेल में कोई व्यक्ति हस्तक्षेप करे या उसमें बदलाव करे, तो बच्चे इसे पसंद नहीं करते। बच्चों के अपनी खेल क्रियाओं के अलग नियम होते हैं।

शोधकर्ताओं ने यह जानने की कोशिश की है कि बच्चे और वयस्क अपना काफी समय खेल में क्यों व्यतीत करते हैं। इस बारे में अलग-अलग विचार हैं। कुछ शोधकर्ताओं के मतानुसार खेल और जीवन की समस्याओं और वास्तविकताओं से पलायन है और दुखों को भुलाने का एक माध्यम है। कुछ व्यक्ति खेल को एक विश्रामदायक क्रिया के रूप में भी देखते हैं। अन्य लोगों का दृष्टिकोण यह है कि खेल द्वारा हमारे शरीर की अतिरिक्त ऊर्जा खर्च होती है। बच्चों के खेल के बारे में एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण यह है कि इसके द्वारा बच्चे वयस्कों की भूमिका निभाने के लिए तैयार होते हैं।

सभी शोधकर्ता इस बात से सहमत हैं कि बच्चे खेल द्वारा बहुत कुछ सीखते हैं और खेल से विकास को गति मिलती है। अध्ययनों से यह प्रमाणित होता है कि जिन बच्चों को खेलने के अवसर और प्रेरणा नहीं मिलते वे विकास के हर क्षेत्र में पिछ़ड जाते हैं। अनाथालय और इसी प्रकार की संस्थाओं में रहने वाले बच्चों के अवलोकन द्वारा कुछ प्रमाण मिले हैं। इस प्रकार की सभी संस्थाएंँ बच्चों को भोजन, आश्रय, शारीरिक देखभाल, कपड़ा और शिक्षा प्रदान करती हैं। परन्तु शोध से यह पता चलता है कि अधिकतर मामलों में यह संस्थाएँ अनुकूलतम विकास के लिए उचित वातावरण प्रदान नहीं कर पाती। प्रायः एक ही पालनकर्ता बहुत सारे बच्चों की देखभाल करती है और इस कारण हर बच्चे को पर्याप्त समय नहीं दे पाती। वहाँ न तो शिशुओं से कोई अतिरिक्त बात करता है, न उन्हें दुलारता है और न ही कोई उनसे खेलता है। ऐसे मौकों पर कम से कम अंतःक्रिया होती है। ऐसी स्थिति में पालनकर्ता और बालिका में परस्पर स्नेह का अभाव रहता है और बालिका अपने आप को भावात्मक रूप से सुरक्षित महसूस नहीं कर पाती। ऐसी कई संस्थाओं में यह भी देखा गया कि शिशुओं को जिन पालनों में लिटाया गया था वे चारों ओर से कपड़े से ढका गया था जिसके कारण शिशु पालने के बाहर कुछ नहीं देख पाते थे। बच्चों के पास पालने से लटके खिलौनों के अतिरिक्त कोई खिलौने नहीं थे और यह खिलौने भी इतनी दूर लटके हुए थे कि बच्चे इन तक पहुँच नहीं पाते थे। बच्चों का सारा दिन पालने में पड़े-पड़े बीतता था और उन्हें कुछ नया देखने, सुनने या छूने को नहीं मिलता था। अवलोकन में यह पाया गया कि इन बच्चों की संज्ञानात्मक, भाषा संबंधी और शारीरिक विकास की गति अन्य बच्चों की तुलना में धीमी थी।

विकास में खेल का महत्व

खेल संज्ञानात्मक विकास को आगे बढ़ाता है

बच्चे जिज्ञासु प्रकृति के होते हैं। खेलते हुए बच्चों को वस्तुएँ छूने, उन्हें ध्यान से देखने और आसपास के वातावरण की छानबीन करने का मौका मिलता है और इससे उन्हें अपने मन में उठते हुए अनेक प्रश्नों के उत्तर मिलते हैं। खेल क्रियाओं के माध्यम से वे आम घटनाओं के घटित होने के कारण भी समझने लगते हैं। बच्चों को इच्छानुसार खेलने के अवसर देने से हम उनकी सीखने में मदद करते हैं। खेल बच्चों को खोज करने और उसके द्वारा स्वयं सीखने का अवसर प्राप्त होता है। खोज का अर्थ है घटनाओं और वस्तुओं के बारे में स्वयं पता लगाना। आइए, इस तथ्य को हम राधा का उदाहरण लेकर समझें। निम्नलिखित घटना यह दर्शाती है कि किस प्रकार चार वर्षीय राधा ने खेल ही खेल में मिट्टी के बर्तन की विशेषताओं के बारे में जाना।

राधा दीवार के सहारे खड़ी सीढ़ी पर खेल रही थी। खेलते हुए उसने पास पड़ा एक मिट्टी का बर्तन देखा और उससे खेलने लगी। राधा उसमें मिट्टी भरती और फिर खाली कर देती। कुछ समय बाद उसने बर्तन को सीढ़ी के आखिरी कदम पर रखने की कोशिश की। बर्तन गिर कर टूट गया। उसने टूटे हुए टुकड़ों की ओर थोड़ी देर तक देखा। फिर उसने एक टुकड़ा उठाया और दोबारा सीढ़ी पर रख दिया। वह टुकड़ा भी गिर गया और उसके कई छोटे-छोटे टुकड़े हो गए। राधा ने इनमें से एक छोटे टुकड़े पर पुनः वह प्रयोग किया। इस बार जब टुकड़ा गिरा तो टूटा नहीं। राधा ने यह टुकड़ा उठाया, उसे थोड़ी देर ध्यान से देखा और फिर उसे फेंक कर वह घर के अंदर चली गई।

राधा ने कई बार टुकड़े को संतुलित करने की कोशिश की और उसे गिरते हुए देखा-इससे यह स्पष्ट होता है कि उसकी जिज्ञासा जागृत हो गई थी। शायद उसके मस्तिष्क में यह सवाल उठे हों,‘ ‘‘क्या वह टुकड़ा भी गिरेगा?‘‘ ‘‘अगर गिरा तो क्या यह भी टूट जाएगा?‘‘ और इसलिए उसने उस टुकड़े को बार-बार सीढ़ी पर स्थिर रखने की कोशिश की। जब तीसरी बार टुकड़ा नहीं टूटा तब वह उतनी ही उत्सुक थी। शायद अपने ही ढंग से वह यह समझ गई कि बहुत छोटा टुकड़ा नहीं टूटता है पर निश्चय ही वह यह जानने के लिए उत्सुक होगी। संभव है वह किसी से पूछे कि हर बार टुकड़े नीचे क्यों गिरे और टूट गए और आखिरी टुकड़ा क्यों नहीं टूटा? यह तो निश्चित है कि खेलों के दौरान उसे ऐसे ही कई अनुभव होंगे जो उसे यह समझाने में सहायक होंगे कि वस्तुओं के गिरने पर क्या होता है।

यह सत्य है कि अगर उस छोटे टुकड़े को जोर से फेंका जाए तो वह भी टूट जाएगा और हो सकता है एक बड़ा बच्चा यह कोशिश करके देखता। परन्तु राधा में अभी इस बात को समझने की क्षमता नहीं है और इस कारण उसने वह टुकड़ा ज़ोर से नहीं फेंका। इससे यह स्पष्ट होता है कि बालिका वही सीखती है जिसके लिए वह ज्ञानात्मक रूप से तैयार है। जैसा कि यह बात इस तथ्य से भी संबंधित है कि बालिका को जो प्रेरक लगता है वह उसके ज्ञानात्मक कौशलों पर निर्भर करता है।

खेल किस प्रकार विकास में सहायक होता है, अब इसके दूसरे मुद्दे पर विचार करें। खेल में बालिका को अपनी रूचि के अनुसार क्रियाएँ चुनने की स्वतंत्रता होती है इस कारण वह ऐसे खेल चुनती है जो उसके लिए न तो बहुत सरल हों न ही बहुत कठिन परन्तु चुनौतीपूर्ण हों। इस प्रकार वह उन चीजों को सीखती है जिन्हें सीखने के लिए वह तैयार होती हैं। इस प्रकार सीखने की प्रक्रिया बोझ न बनकर आनंददायक हो जाती है। साथ ही साथ बच्चे खेल में क्रियाकलाप द्वारा सीखते हैं। ऐसा करने से संकल्पनाओं को अधिक अच्छी तरह समझा जा सकता है। यदि बच्चों को किसी संकल्पना के बारे में केवल मौखिक रूप में बताया जाए और स्वयं करने को मौका नहीं दिया जाए तो वह उसे इतनी अच्छी तरह नहीं समझ पाएंगे। यह बात आपने स्वयं अनुभव भी की होगी। उदाहरण के लिए अपने किसी मित्र के मुख से पकवान बनाने की विधि सुनकर उतना नहीं सीखा जा सकता जितना कि स्वयं पकवान बनाकर। उसी प्रकार अगर आपने राधा को केवल बताया ही होता कि मिट्टी से बना एक छोटा सा टुकड़ा गिरने पर नहीं टूटेगा तो यह लगभग निश्चित है कि राधा को यह बात समझ नहीं आती और वह इस जानकारी में रूचि भी नहीं लेती

पालनकर्ता की भूमिका

यह तथ्य कि ‘बच्चे कुछ करने से ही सीखते है‘ का अर्थ यह नहीं है कि पालनकर्ता की उसमें कोई भूमिका ही नहीं है। सबसे पहले पालनकर्ता की आवश्यकता इसलिए है कि वह बच्चों को उनकी खोज समझाने में मदद कर सके। शायद राधा यह समझ गई हो कि छोटे-टुकड़े नहीं टूटते हैं पर यह हम निश्चित रूप से नहीं कह सकते। यह तो है ही कि ऐसे अन्य अवसर मिलने पर वह यह बात समझ जाएगी। परन्तु पालनकर्ता यह सीखने में उसकी मदद कर सकती है। उदाहरणतः अगर पालनकर्ता राधा के साथ होती तो वह राधा का ध्यान उन संभावनाओं की ओर केन्द्रित कर सकती थी जिसके बारे में राधा ने सोचा नहीं था। वह यह कह सकती थी कि, ‘‘राधा, क्या तुमने यह देखा कि बरतन तो टूट गया पर छोटे टुकड़े नहीं टूटे?‘‘

द्वितीय पालनकर्ता बच्चे की खोज को विस्तृत कर सकती है। वह राधा से नए प्रयोग करने को कह सकती थी जैसे कि, ‘‘राधा, अब इस छोटे टुकड़े को मुलायम सतह पर फेंको जैसे घास, रेत या पानी और देखो कि क्या होता है।‘‘ इससे यह प्रयोग अन्य खोज का कारण बनता, जैसे घास में मिट्टी का टुकड़ा नहीं टूटता इत्यादि। इसके साथ-साथ पालनकर्ता को चाहिए कि बच्चों को खोज के लिए अवसर प्रदान करे। बच्चे नया सीखते हैं जब उन्हें खेल सामग्री से खेलने दिया जाता है और स्वयं कुछ करने के लिए प्रोत्साहित किया जाए।

अंत में, पालनकर्ता को सदैव इस बात की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए कि बच्चे स्वयं कुछ भी करें। उसे बच्चों के लिए ऐसी परिस्थितियों का आयोजन करना चाहिए जिनके द्वारा बच्चे नया सीख सकें। जब पालनकर्ता ऐसा कर रही हो तो उसे बच्चों की रूचि और संज्ञानात्मक विकास के स्तर को भी ध्यान में रखना चाहिए। उदाहरणतः पानी से खेले जाने वाले खेलों को लीजिए। बच्चों को पानी से भरा बर्तन और कुछ अलग-अलग तरह की वस्तुएँ -जिसमें से कुछ पानी में तैरेंगे और कुछ डूबने वाली हों, दीजिए। जब बच्चे इन चीजों को पानी में डालेंगे तो वे देखेंगे कि कुछ जैसे-पत्ते, टहनियाँ और कागज के टुकड़े तो पानी के ऊपर तैरते हैं जबकि चम्मच, पत्थर आदि पानी में डूब जाते हैं। तत्पश्चात् आप बच्चों से इस विषय पर चर्चा कर सकते हैं कि क्यों कुछ वस्तुएँ डूब जाती हैं और कुछ क्यों तैरती रहती हैं।

इस प्रकार पालनकर्ता बच्चों को खेल के माध्यम से रंग, आकार, अंक, मौसम, विभिन्न प्रकार की चिड़ियों और पौधों इत्यादि के बारे में जानने में मदद कर सकती है। खेल द्वारा बच्चे छोटी, लंबी और ठिगनी, हलकी और भारी जैसी संकल्पनाओं से भी परिचित होते हैं। जिस प्रकार ज्ञानात्मक विकास के लिए पालनकर्ता को क्रियाकलाप आयोजित करना है उसी प्रकार अन्य क्षेत्रों में विकास प्रोत्साहित करने के लिए भी पालनकर्ता को विकास अनुसार क्रियाकलाप आयोजित करने चाहिए।

पालनकर्ता
  • (१) बच्चे की खोज को विस्तार दे सकता है, नया करने के सुझाव दे सकता है।
  • (२) बच्चों को उनकी खोज समझने में मदद कर सकता है।
  • (३) पालनकर्त्ता गतिविधियों का आयोजन कर सकता है जिनमें बच्चे नया सीखें।
  • (४) बच्चों की खोज और अनुभव के लिए शब्द व भाषा दे सकता है।

खेल कल्पनाशीलता और सृजनात्मक को बढ़ावा देता है

खेल में बच्चे कल्पना द्वारा अलग-अलग भूमिकाएँ निभाते हैं। ऐसा करते हुए उनकी बुद्धि और व्यवहार उसी व्यक्ति के अनुसार होता है जिनकी वह भूमिका कर रहे हैं। इस कारण वे उन व्यक्तियों के विचार और भावनाओं को भी प्रदर्शित करते हैं। उदाहरणतः खेल बालिका गिड़या की माँ बनकर गुड़िया को कहती है कि उसे टॉफी नहीं मिलेगी क्योंकि उसके लिए हानिकारक है। शायद उसने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि जब बालिका ने देखा-‘खेल में माँ की नकल करके उचित व्यवहार सीख रही है।

नाटक करना बच्चों के खेल का एक अभिन्न हिस्सा है। खेल में बालिका वास्तविकता से कट और बहुत कुछ सृजनात्मक करती है। एक टूटी प्लेट तीन वर्षीय बालिका के लिए टेबल बन जाती है और एक दस वर्षीय बालक के लिए अंतरिक्ष यान। माचिस के डिब्बों की पंक्ति रेलगाड़ी बन जाती है और इस रेलगाड़ी से खेलते हुए बच्चे जंगल से गुजरने नदी पार करने और डकैतों से लड़ने का नाटक करते हैं। आप यह देखकर हैरान हो जाएंगे कि रेल पटरी पर न चल सड़क पर ही चल रही है। यह आवश्यक नहीं है कि खेल यथार्थ ही दर्शाए। खेल कल्पना शक्ति को विकसित करता है और यह बच्चों को दैनिक स्थितियों से जूझने में मदद करता है।

खेल शारीरिक और क्रियात्मक विकास को बढ़ावा देता है

शारीरिक और क्रियात्मक कौशलों का विकास अभ्यास करने पर निर्भर करता है। खेल ऐसी क्रिया है जो बच्चों को अभ्यास के पर्याप्त अवसर प्रदान करती है। निम्नलिखित घटना इस बात को स्पष्ट करती है-

एक माँ जब चार महीने के शिशु के आगे एक झुनझुना रख देती है। शिशु का ध्यान झुनझुना की तरफ आकर्षित होता है। और वह अपनी पीठ से पेट पर पलट कर उस तक पहुँचने की कोशिश करता है। यह करने के लिये माँसपेशियों का समन्वय जरूरी है। बार-बार झुनझुने तक पहुँचने के प्रयास में शिशु को मिट्टी खाने का अवसर मिलता है और धीरे-धीरे वह आसानी से कर लेता है।

बच्चे जब ईंटों की एक पंक्ति पर चलने की कोशिश करते हैं, दीवार फाँदते हैं, सीढ़ी चढ़ते हैं, झूलों में लटकते हैं, दौड़ने के खेल खेलते हैं, साइकिल की सवारी करते हैं तो उनकी बहुत माँसपेशियों का समन्वय बढ़ता है। खेल-खेल में जमीन में गड्ढे खोदने, फूलों के हार बनाने, चित्र बनाने और उनमें रंग भरने में बच्चों की लघु माँसपेशियों का विकास होता है।

खेल भाषायी विकास में सहायक होता है

बच्चे खेल-खेल में बोलना कैसे सीखते हैं? यह तो स्पष्ट है कि भाषा जानने के लिए उनका भाषा को सुन पाना और बोल पाना आवश्यक है। पालनकर्ता के साथ विनोदशील क्रियाओं में बच्ची को भाषा सुनने के बहुत अवसर मिलते हैं जो उसे बोलने के लिए प्रेरित करते हैं। जब बालिका करीब नौ महीने की होती है तब वह ‘‘गा गा गा‘‘, ‘‘बे बे बे‘‘, ‘‘मा मा मा‘‘, ‘‘मम मम‘‘, जैसे कई स्वर निकालती है। इनमें से कुछ वयस्कों की भाषा की शुरूआत हैं। इस अंतः क्रिया के दौरान बालिका विभिन्न ध्वनियों के बीच बोलना सीखती है। यह क्षमता उसे बाद में ‘‘अब्बा‘‘ और ‘‘अम्मा‘‘ जैसे शब्दों में भेद करने मदद करती है और वह उन्हें अलग-अलग शब्दों के रूप में पहचान पाती है।

बच्चे चौकोर, गोल, सीधी और वक्र रेखा जैसी विभिन्न आकृतियों को भी समझने लगते हैं जो बाद में उन्हें भिन्न अक्षरों को पहचानने में मदद करते हैं। खेलते हुए बच्चे यह देखते हैं कि काला और लाल वृत्त या छोटा और बड़ा वृत्त सभी गोलाकार हैं। इससे उन्हें समझने में मदद मिलेगी कि ‘क‘ अक्षर ‘क‘ ही रहता है चाहें वह शब्द के शुरू में हो या अंत में। खेल में वह पहले और बाद, बाएँ और दाएँ, ऊपर और नीचे जैसी संकल्पनाओं का अर्थ सीखती है जो कि लिखना और पढ़ना सीखने के लिए अति आवश्यक हैं। आपने यह देखा कि खेल क्रियात्मक विकास में सहायक होते हैं जो कि लिखना सीखने के लिए आवश्यक होता है।

बच्चे सहजता से वही सीखते हैं जिनमें उनकी रूचि होती है। यह बात लिखना और पढ़ना सीखने के लिए भी सत्य है। कहानियाँ सुनने से बच्चों में स्वयं उन्हें पढ़ने के लिए इच्छा जागृत होगी और वह पढ़ने और लिखने के लिए प्रेरित होंगे। अगर बालिका को लिखना नहीं आता और पालनकर्ता उस पर लिखने के लिए दबाव डालती है तो सम्भवतः लिखना सीखने की प्रक्रिया को यदि खेल बना दिया जाए जिसमें बालिका जमीन पर लिखे हुए ‘क‘ पर छोटे-छोटे पत्थर रखे, उसकी रूपरेखा पर चले या ‘क‘ अक्षर के बिन्दुओं को जोड़ कर ‘क‘ लिखे तो वह धीरे-धीरे ‘क‘ की रूपरेखा से परिचित हो जाएगी। इस प्रकार उसे मज़ा भी आएगा और वह बिना दबाव के लिखना सीख जाएगी।

खेल द्वारा बच्चे सामाजिक होना सीखते हैं

जब माँ शिशु को नहलाती है, कपड़े पहनाती है, सुलाती है और उसकी अन्य सभी आवश्यकताओं का ध्यान रखती है तो इन अंतः क्रियाओं के दौरान बालिका माँ को पहचानने लगती है। उसका माँ से लगाव भी बढ़ता है। आप जानते हैं कि यह शिशु का पहला सामाजिक संबंध है, जिसका उसके भावी संबंधों पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है।

जीवन के प्रारंभिक वर्षां में बच्ची अपने हाथों पैरों से तथा आसपास की वस्तुओं से खेलती है। इससे शिशु को यह पता चलता है कि उसका शरीर आसपास की वस्तुओं से अलग है। ऐसा अनुभवों के द्वारा उसकी अपने बारे में धारणा विकसित होती है। खेल के दौरान बालिका यह समझती है कि लोगों और वस्तुओं पर क्या प्रभाव पड़ सकता है। वह यह समझने लगती है कि रोने पर माँ उसके पास आएगी, जब वह हँसेगी तो माँ भी हँसेगी और उसे गोद में उठा लेगी। जब वह डिब्बे को धक्का देती है तो वह उससे दूर हो जाता है। इससे बच्चे को पता चलता है कि किस तरह उसकी गतिविधियां वातावरण पर असर डालती है। परिवेश को जानने और विभिन्न स्थितियों से जूझने से बालिका का आत्मविश्वास बढ़ता है और उसे स्वावलंबी होने का अहसास होता है। जैसे-जैसे बालिका बड़ी होती है वह अन्य बच्चों के साथ खेलती है। उनके साथ खेलते हुए आपस में चीजें बाँटना, नियमों का पालन करना, अपनी बारी की प्रतीक्षा करना सीखती है। इस प्रकार वह अन्य लोगों के दृष्टिकोण को ध्यान में रखना और उनको महत्व देना भी सीखती है।

खेलते समय बच्चे अक्सर वयस्कों की नकल करते हैं। इस प्रकार से उपयुक्त व्यवहार और उन भूमिकाओं को सीखते हैं जो कि उन्हें बड़े होकर निभानी होंगी। खेलते हुए परस्पर क्रिया में वे विभिन्न प्रकार के कार्यों, त्यौहारों, धारणाओं के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं।

खेल भावात्मक विकास में सहायक होता है

खेल क्रियाएँ बच्चों को हर्ष उल्लास, क्रोध, भय और दुख व्यक्त करने का अवसर प्रदान करती हैं। खेल में कुछ भी मनचाहा करने की छूट होती है बशर्ते कि उससे किसी को हानि न पहुँचे। खेल उन भावनाओं और संवेगों को व्यक्त करने का मौका देता है जो अन्य स्थितियों में अभिव्यक्त नहीं किए जा सकते। उदाहरणतः खेल में पिता की भूमिका का अभिनय करते हुए बालिका दूसरे बच्चे को अपनी आज्ञा का पालन करने के लिए कह सकती हैं। ऐसा वह अन्य स्थितियों में शायद न कर सके। लड़ाई का दृश्य खेलते समय वह जोर से चिल्ला सकती है, वस्तुएँ इधर-उधर पटक सकती है जिसकी अनुमति उसे आमतौर पर नहीं मिलती। चार वर्षीय रजा को अकसर अपने माता-पिता से मामूली सा नियम तोड़ने पर भी डाँट पड़ती थी। छोटी-से-छोटी गलती के लिए उसे पिता से थप्पड़ खाना पड़ता था। पिता उसे कमर की पेटी से पीटते थे। यह बच्चा प्रायः कुर्सी पर बैठ कर कल्पना करता कि कुर्सी घोड़ा है और कुर्सी को पेटी से मारते हुए कहता ‘‘तेज़ चलो, और भी तेज़‘‘। इससे स्पष्ट है कि बच्चे का मन अपने पिता के प्रति गुस्से और कुढ़न से भरा हुआ है परंतु इन भावनाओं को वह यथार्थ रूप में अपने पिता के प्रति व्यक्त नहीं कर सकता। यह काल्पनिक खेल-स्थिति उसे अपने गुस्से और भावनाओं को व्यक्त करने का मौका देती है। इस तरह खेल द्वारा अव्यक्त भावनाएँ उभर कर सामने आती हैं। उपर्युक्त उदाहरणों में आपने देखा कि बच्चों के खेल में उनकी भावनाएँ और मनोदशाएँ स्पष्ट रूप से झलकती हैं। इसीलिए खेल उन बच्चों के लिए उपचार या चिकित्सा है जो परिस्थिति के अनुसार सामान्य भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं दर्शाते।

खेल बच्चों के विकास में मदद करके उन्हें भविष्य की भूमिकाओं के लिए तैयार करते हैं। खेल-खेल में सीखी गई संकल्पनाएँ पढ़ने-लिखने के कौशल और समूह खेल में हिस्सा लेने की क्षमता तथा बाद में स्कूल में समायोजन में मदद करते हैं। अतः खेल औपचारिकता शिक्षा की तैयारी में सहायक होता है। खेल प्रश्न पूछने और खोजबीन करने की मनोवृत्ति को भी परिपोषित करता है। जैसे-जैसे बच्चे नई चीजें सीखते हैं और उनमें निपुणता प्राप्त करते हैं वह अपने बारे में आश्वस्त होते हैं। यह बढ़ता हुआ आत्म-विश्वास उन्हें चुनौतियाँ स्वीकार करने के लिए तैयार करता है।

खेलों के प्रकार

बच्चों की खेल क्रियाओं को कई प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है। कुछ वर्गीकरण खेल के स्थान का ध्यान में रखते हुए किए जाते हैं, कुछ खेल क्रियाओं की विषयवस्तु पर आधारित होते हैं और अन्य खेल क्रियाओं पर। इन क्रियाओं के सुविधानुसार भिन्न-भिन्न वर्गीकरण किए गए हैं। वस्तुतः सभी वर्गीकरण कुछ अंश तक परस्पर संबद्ध हैं।

मुक्त खेल तथा संरचनात्मक खेल

पालनकर्ता लक्ष्यों और उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए कई खेल क्रियाएँ आयोजित करते हैं। इन क्रियाओं में बच्चे को पालनकर्ता के अनुदेशों का पालन करना पड़ता है। उसके पास खेल क्रिया को बदलने की अधिक स्वतन्त्रता नहीं होती। अपने ढंग से खेलने के लिये बालिका स्वतंत्र है या उसे पालनकर्ता द्वारा बताए गए नियमों का पालन करना पड़ता है-इस आधार पर खेल को मुक्त और संरचनात्मक खेलों में वर्गीकृत किया गया है। उदाहरणतः जब बालिका मिट्टी के साथ किसी वयस्क के हस्तक्षेप/निर्देशन के बिना ही खेल रही हो तब इसे मुक्त खेल कहते हैं। दूसरी ओर आकृति की संकल्पना समझाने के लिये बालिका को जब पालनकर्ता निर्देश देती है जैसे ‘‘चलो बाहर चलकर मिट्टी के कटोरे और थाली बनाएँ‘‘ तब खेल संरचित कहलाता है। इस चर्चा का यह अर्थ नहीं है कि मुक्त खेल से बच्चे कुछ नहीं सीखते। सभी प्रकार के खेलों से बच्चों को सीखने में बढ़ावा मिलता है। अंतर केवल यह है कि संरचित खेल क्रिया से जिस उपलब्धि की आशा होती है वह पालनकर्ता द्वारा पहले से निर्धारित होती है।

दोनों प्रकार के खेल बच्चों के लिए अनिवार्य हैं। मुक्त खेल जिज्ञासा और पहल को बनाये रखता है। और बच्चों को खोज करने के लिए प्रोत्साहित करता है। संरचनात्मक खेल में पालनकर्ता बालिका का ध्यान कुछ विशेष पहलुओं की ओर आकर्षित कर सकती है जिसके बारे में उसने सोचा न हो। इस प्रकार संरचनात्मक खेल विशेष लक्ष्य की प्राप्ति में मदद करता है। पालनकर्ता को यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि दोनों ही प्रकार की खेल क्रियाओं में बच्चों को आनन्द आए।

बाहरी खेल तथा भीतरी खेल

जैसा कि नाम से स्पष्ट है, खुले मैदान में खेले जाने वाले खेल बाहरी खेल व घर में खेले जाने वाले खेल, भीतरी खेल कहलाते हैं।

घर के बाहर खेले जाने वाले खेलों में क्रियाओं के अवसर मिलते हैं क्यों क यहाँ स्थान अधिक व बाधाएँ कम होती हंे। घर के अंदर खेले जाने वाले खेलों के लिए स्थान सीमित होता है और गतिविधियों की स्वतंत्रता अपेक्षाकृत कम होती है। वैसे तो बाहरी व भीतरी खेलों में भिन्नता बहुत कम होती है। कई भीतरी खेल बाहर खेले जा सकते हैं, और बाहरी खेल भी थोडे ़ से परिवर्तन के साथ अंदर खेले जा सकते हैं। कभी-कभी भीतरी खेल क्रिया को बाहर करने से नीरसता दूर होती है और बच्चे के लिए वही क्रिया नई और रूचिकर बन जाती है।

वैयक्तिक खेल और सामूहिक खेल

जब बालिका स्वयं अकेले खेलती है तो यह वैयक्तिक खेल कहलाता है। जब वह दो या अधिक बच्चों के साथ खेलती है तो वह सामूहिक खेल कहलाता है। समूह में खेलने के लिए आवश्यक है कि बच्ची दूसरों के दृष्टिकोण को ध्यान में रखे और खेल के नियमों का पालन करे। जैसा कि आप पढ़ चुके हैं ये योग्यताएँ उम्र के साथ विकसित होती हैं। तीन-चार साल की उम्र तक बच्चे अधिकतर अकेले ही खेलते हैं। अन्य बच्चों के साथ वे केवल थोड़े समय के लिए परस्पर मिल कर खेलते हैं। जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते हैं वे दूसरों के साथ खेलना सीखते हें और फिर उनके खेलने का अधिकांश समय समूह में खेलने में बीतता है। परन्तु समय-समय पर बड़े बच्चे भी अकेले खेलना पसंद करते हैं।

जहां समूह में खेलने से सामाजिक कौशल बढ़ते हैं वहीं वैयक्तिक खेल बच्चों को उन वस्तुओं से खेलने का समय देता है जो उन्हें सबसे रूचिकर लगती है। दोनों ही खेल उसके कौशलों के विकास में सहायक होते हैं।

ओजस्वी खेल एवं शान्त खेल

कई बार वयस्क झुझंलाकर कह उठते हैं, ‘‘बच्चे एक स्थान पर क्यों नहीं बैठ सकते? क्यों इधर-उधर भागते रहते हैं?‘‘ बच्चे भागने, कूदने और उछलने वाले खेल खेलना पसंद करते हैं अर्थात् वह खेल जिसमें अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। ऐसी खेल क्रियाएँ ओजस्वी/सक्रिय ख्ेल क्रियाएँ कहलाती हैं। वे खेल जिनमें अधिक शारीरिक क्रिया की आवश्यकता न हो जैसे जमीन पर चॉक से लिखना, चित्र बनाना, मिट्टी से खिलौने बनाना और पत्थरों से मीनार बनाना, बच्चों को आराम देती हैं। ऐसे खेल जिनमें अधिक ऊर्जा व्यय नहीं होती शांत खेल कहलाते हैं।

संवेदी-क्रियात्मक (Sensori motor) और प्रतीकात्मक खेल

शैशवकाल में बच्चों का खेल है वस्तुओं को छूना, सूँघना, चखना और परिवेश की छानबीन करना। इन क्रियाओं में इंद्रियाँ संलग्न होती हैं और माँसपेशियों के समन्वय की आवश्यकता होती है। इसलिए इन्हें संवेदी-क्रियात्मक खेल कहा जाता है।

शैशवकाल के अंत तक बच्चे नाटकीय खेल में भाग लेने लगते हैं। इस तरह के खेल में बच्चे कल्पना करते हैं कि टीन का डिब्बा घर है या लकड़ी का गुटका हवाई जहाज। इस प्रकार एक वस्तु का उपयोग उसके वास्तविक रूप से हटकर होता है। बच्चे अन्य लोगों की भूमिका निभाते हुए कभी फलवाला, कभी शिक्षक तो कभी फूलवाली होने का ढोंग करते हैं। इस प्रकार खेल में वस्तुओं और लोगों को प्रतीकात्मक रूप में उपयोग करने की ज्ञानात्मक योग्यता की आवश्यकता होती है। ऐसे खेल प्रतीकात्मक खेल कहलाते हैं और ये शालापूर्व वर्षों में मानसिक विकास के परिणामस्वरूप ही संभव है। संवेदी-क्रियात्मक खेल से प्रतीकात्मक खेल तक पहुँचना बच्चों के चिंतन में बढ़ती हुई जटिलता पर आधारित हैं।

खेल का यह वर्गीकरण परस्पर संबद्ध है। मुक्त खेल खुले में या भीतर खेला जा सकता है। सामूहिक खेल सक्रिय या शांत हो सकता है। महत्व इस बात को दिया जाना चाहिए कि बच्चे को हर प्रकार के खेल खेलने का मौका मिले क्योंकि हर खेल का अपना महत्व है।

खेल को प्रभावित करने वाले कारक

बच्चे किस प्रकार खेल खेलते हैं, कैसी खेल सामग्री का उपयोग करते हैं, उनके खेल की विषयवस्तु क्या है और वे कितना समय खेल में व्यतीत करते हैं, ये सब कई कारकों से प्रभावित होते हैं।

आयु

बच्चे किस प्रकार के खेल चुनते हैं, यह उनकी उम्र से प्रभावित होता है। एक छः महीने के शिशु के लिए अपने आसपास पड़ी वस्तुओं को उठाना और उनका निरीक्षण करना ही खेल है। एक चार वर्षीय बालक को तिपाहिया साइकिल चलाना और रेत से वस्तुएँ बनाना आनन्ददायक लगता है। एक आठ वर्षीय बालक दोपहिया साइकिल चलाना, पेड़ों पर चढ़ना और स्टापू खेलना पसन्द करता है। बच्चों द्वारा खेल क्रिया का चुनाव उनके कौशलों और योग्यताओं से भी निर्धारित होता है। ऊपर लिखित उदाहरणों में जो खेल चार और आठ वर्षीय बालकों ने चुने वे उनके शारीरिक कौशलों से प्रभावित थे। जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते हैं उनकी सामाजिक क्षमताओं में भी वृद्धि होती है। जिससे उनकी परस्पर अंतः क्रिया में गुणात्मक बदलाव आता है और इस कारण उनके खेल के प्रकार भी प्रभावित होते हैं। जिन खेलों में आपसी सहयोग, टीम में खेलना और नियमों का पालन करना आवश्यक है वे खेल तीन वर्षीय बालकों के सामर्थ्य से बाहर हैं परन्तु आठ वर्षीय बालकों के लिए ऐसे खेलना संभव है। बच्चों के खेल की विषयवस्तु भी उम्र के साथ-साथ बदलती है। छः वर्षीय बालिका और तीन वर्षीय बालिका के गुड़िया से खेलने में भिन्नता होगी। छः वर्षीय बालिका विस्तृत रूप से खेल का आयोजन करती है- वह गुड़िया को स्कूल के लिए तैयार करती है, उसे पढ़ाती है, उसकी प्रगति के बारे में माता-पिता से चर्चा करती है और उसे खेलने के लिए बाहर भी ले जाती है, इत्यादि। तीन वर्षीय बालिका का गुड़िया से खेल इससे कहीं अधिक सरल होगा। एक विशेष खेल क्रिया में बालिका कितना समय व्यतीत करती है, यह उसकी उम्र से निर्धारित होता है। जैसा कि आप जानते हैं बालिका जितनी छोटी होगी उतनी ही कम अवधि तक वह एक खेल क्रिया में ध्यान लगा पाएगी। इसी कारण उसकी क्रियाओं में बार-बार बदलाव होंगे।

हालांकि बच्चों की उम्र उनके खेल को प्रभावित करने में एक निश्चित भूमिका निभाती है तथापि हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि खेल में वैयक्तिक भिन्नताएँ और अभिरूचियाँ भी महत्वपूर्ण हैं। संभव है कि एक पाँच वर्षीय बालिका अपनी उम्र के अन्य बच्चों की अपेक्षा सामूहिक खेल में कम समय व्यतीत करे।

लिंग

अगर आप शिशुओं के खेल का अवलोकन करें तो उसमें समानता पाएंगे। शैशवास्था में लिंग खेल को प्रभावित नहीं करता। उनका खेल अपने और आसपास की वस्तुओं की खोजबीन से संबंधित होता है। पर जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते हैं तो लड़कों और लड़कियों की रूचियाँ भिन्न होने लगती हैं। ये भिन्नता उम्र के साथ बढ़ती जाती है। लड़कियाँ अपनी माँ के कपड़े पहनना, गुड़िया से खेलना, खाना बनाने का नाटक करना, सिलाई करना और स्टापू खेलना पसंद करती हैं। लड़के अपने पिता के कपड़े पहनना पसंद करते हैं, कुर्सी पर बैठ कर अखबार पढ़ने का नाटक करते हैं, बैलगाड़ी चलाते हैं, खेत जोतते हैं और बंदूकों से खेलते हैं कई अध्ययनों में लड़के और लड़कियों के खेल की तुलना की गई है। उनसे पता चलता है कि लड़कियों की अपेक्षा लड़कों के खेलों में मारपीट, उठापटक अधिक होती है और वे लड़कियों की अपेक्षा अधिक प्रतियोगी भावना के होते हैं। लड़कियाँ, लड़कों की अपेक्षा खेल में अधिक सहयोग दिखाती हैं। लड़के ओजस्वी खेल अधिक खेलते हैं। इसके क्या कारण हो सकते हैं?

एक कारण लड़कों और लड़कियों में शारीरिक भिन्नता हो सकती है। एक बच्चा कितनी शारीरिक क्रिया कर सकता है, यह उसकी शरीर वृत्ति से प्रभावित होता है। इसी का असर बच्चों के खेल चयन पर पड़ता है और इसी कारण लड़के अधिक सक्रिय खेल चुनते हैं। परन्तु बच्चों की अधिकांश खेल अभिरूचियों का कारण शरीर वृत्ति न होकर सामाजिक अपेक्षाएँ और रूढ़ियाँ हैं। बच्चों से लोगों की अपेक्षाएँ उनके लिंग द्वारा प्रभावित होती हैं। इसी का प्रभाव उनके खेल चयन पर पड़ता है। आइए, इसे एक उदाहरण से समझें। आपने अक्सर यह देखा है कि होगा कि एक लड़का, लड़की की अपेक्षा पेड़ पर अधिक आसानी से चढ़ जाता है। ऐसा नहीं है कि लड़की में पेड़ पर चढ़ सकने का सामर्थ्य नहीं है। परन्तु संभव है कि जब लड़की पहली बार पेड़ पर चढ़ने लगी हो तो उसकी माँ ने उससे कहा हो, ‘‘यह क्या लड़कों वाले काम कर रही हो, नीचे उतरो।‘‘ दूसरी ओर लड़के की इसी प्रयास के लिए अवश्य शाबाशी दी गई होगी अतः लड़का, लड़की की अपेक्षा अधिक कुशलता से पेड़ पर चढ़ना सीख जाता है।

घर पर दैनिक कार्यों में लड़कियों से छोटे भाई-बहनों की देखभाल और घर के काम में मदद की अपेक्षा की जाती है। इसलिए उनके खेलों में भी यही स्थितियाँ झलकती हैं। लड़के पिता की मदद करते हैं, बाहर का काम करते हैं और ऐसी स्थितियों की झलक उनके खेल में भी दिखाई देती है। आजकल विशेषकर शहरों में, लड़कियों को खेल में डॉक्टर और पुलिस की भूमिका में देखा जा सकता है क्योंकि महिलाएँ अब इन व्यवसायों को अपनाने लगी हैं।

माता-पिता भिन्न-भिन्न खेल साधन देकर भी लड़कों और लड़कियों की अभिरूचियों को प्रोत्साहित करते हैं लड़कियों को गुड़िया बर्तन और अन्य इसी प्रकार के खिलौने दिए जाते हैं। लड़कों को बंदूक और कारों जैसे खिलौने दिलवाए जाते हैं। चार वर्षीय हरी को जब उसकी बहन ने गुड़िया से खेलने के लिए बुलाया तब उसने यह कहते हुए स्पष्ट रूप से मना कर दिया, ‘‘मैं लड़कियों वाले खेल नहीं खेलता।‘‘ परन्तु जब वह सोचता है कि कोई उसे नहीं देख रहा, तब वह गुड़ियों से खेलता है। इससे स्पष्ट है कि हरि को गुड़ियों से खेलना अच्छा लगता है। गुड़ियों के खेल के प्रति उसकी प्रत्यक्ष अरूचि जन्मजात नहीं है।

संस्कृति

संस्कृति जीवन-शैली पर असर डालती है। शिशुपालन की परम्पराएँ भी संस्कृति से प्रभावित होती हैं। इन्हीं कुछ परम्पराओं की हम यहाँ चर्चा करेंगे। आइए, अब हम इस प्रकार की कुछ परम्पराओं के बारे में पढ़ें। हमारे देश के कई भागों में शिशुओं की तेल से मालिश करना एक पुरानी प्रथा है। माँ आमतौर पर गाना गुनगुनाती है, बच्चे के साथ बात करती है और खेलती है। भारत के सभी भागों में इस प्रकार के कई माँ और शिशु के खेल हैं। शिशु का यह अनुभव एक अन्य संस्कृति, जहाँ ऐसी अंतः क्रियाएँ नहीं होतीं, में रहने वाले शिशु की तुलना में बहुत भिन्न होगा।

बच्चों की वयस्क जीवन के बारे में कल्पना उनके खेल में झलकती है। वयस्क होने पर वे जो बनना चाहता है उन भूमिकाओं की झलक अकसर उनके खेल में मिलती है और ये भूमिकाएँ संस्कृति द्वारा निर्धारित होती हैं। खेल उनके समाज के पारंपरिक त्यौहारों और रीतियों को भी प्रदर्शित करता है।

सभी संस्कृतियों में खिलौनों की समृद्ध परंपरा होती है। जब सिंधु घाटी जैसी प्राचीन सभ्यताओं की खुदाई हुई तो वहाँ भी खिलौने पाए गए। अध्ययनों से यह पता चलता है कि हमारे देश में भिन्न-भिन्न प्रदेशों की खेल सामग्री में परस्पर विभिन्नता है। उड़ीसा के सुन्दर मुखौटे और कठपुतलियाँ मशहूर हैं। लकड़ी के खिलौने कर्नाटक के चेन्नापटना और आन्ध्र प्रदेश के कोंडा पल्ली में बनते हैं तमिलनाडु और महाराष्टं में लोक परंपरा के खिलौनों के साथ-साथ आधुनिक खिलौने भी बनते हैं। दूसरी ओर मणिपुर और त्रिपुरा में व्यावसायिक खिलौने बहुत ही कम मिलते हैं। यहाँ के निवासी घर पर ही अपने बच्चों के लिए खिलौने बनाते हैं। हमारे देश के अधिकांश भागों में त्यौहारों के समय बहुत से लोक खिलौने बाजारों में मिलते हैं। इन खिलौनों का व्यावसायिक रूप से बनाए गए खिलौनों के समान शैक्षिक महत्व होता है।

सामाजिक वर्ग

निम्न सामाजिक वर्ग में बच्चों का अधिकांश समय माता-पिता के काम में सहायता करते हुए बीतता है। कार्यों में व्यस्त रहने के कारण खेलने के लिए उन्हें बहुत कम समय मिल पाता है। अपने काम के दौरान ही वे खेलने का समय निकालते हैं। मध्यम और उच्च सामाजिक वर्ग के बच्चे के पास खेल के लिए अधिक समय होता है क्योंकि आय उत्पादक गतिविधियों में उनका योगदान अनिवार्य नहीं होता। परन्तु इन वर्गां के कुछ परिवारों में माता-पिता पढ़ाई पर बहुत ज़ोर देते हैं और इस कारण बच्चों के खेलने का समय कम कर देते हैं।

बच्चों को पत्थर, बोतलों के ढक्कन, खाली डिब्बे आदि जमा करना अच्छा लगता है। अगर आप एक बच्चे की जेब खाली करें तो ऐसा संग्रह पाना आश्चर्यजनक बात नहीं है। कई बार बच्चे घर के एक कोने में अपने इकट्ठा किए पत्थर, सीपियाँ और पसंद की अन्य वस्तुएँ रख लेते हैं। महंगी, सजी हुई गुड़िया और समुद्र तट से जमा की गई सीपी-प्रत्येक बालक को, चाहे वह अमीर हो या गरीब ये दोनों ही वस्तुएँ समान रूप से आकर्षित करती हैं जो बच्चे अच्छी आर्थिक स्थिति वाले परिवारों के होते हैं वे बाजार में मिलने वाले खिलौने खरीद सकते हैं। जब बने बनाये खिलौने खरीदने का सामर्थ्य परिवार में न हो तो पुराने टायर, पहिये, खाली डिब्बे, माचिस के डिब्बे, पुराने अखबार खेलने के लिए उपयोग में लाये जाते हैं। बच्चों को ऐसी स्थिति में अधिक सृजनात्मक होने की आवश्यकता होती है ताकि वे स्वयं खेल सामग्री बना सकें।

सामाजिक वर्ग से यह भी निर्धारित होता है कि बच्चों को खेलने के लिए कितनी और कैसी जगह मिलेगी। जो बच्चे बड़े मकानों में रहते हैं, जहाँ बाग-बगीचे होते हैं, वे उस जगह को खेलने के लिए उपयोग में ला सकते हैं। जो बच्चे एक कमरे वाले मकानों में रहते हैं उन्हें गलियों और सड़कों पर अपने खेलने का स्थान ढू ढ ँ ना पड़ता है। आपने पढ़ा था कि निम्न वर्ग के परिवार के सभी बड़े सदस्य आय उत्पादक गतिविधियों में संलग्न होते हैं। माता-पिता के पास बच्चों के खेल में हिस्सा लेने और उनका मार्गदर्शन करने के लिए बहुत कम समय होता है। मध्यम और उच्च वर्ग के माता-पिता बच्चों के साथ संभवतः अधिक समय व्यतीत कर पाते हैं। आमतौर पर वे अधिक शिक्षित होते हैं और संभव है कि बच्चों के विकास में खेल के महत्व के बारे में अधिक जानते हों अतः वे बच्चों को खेलने के लिए पर्याप्त अवसर देंगे। परन्तु यह जरूरी नहीं है कि शिक्षा से ही ऐसी अभिवृत्ति बने जो बच्चों की आवश्यकताओं के प्रति संवेदनशील हों। अशिक्षित अभिभावक भी बच्चों की आवश्यकताओं के प्रति संवेदनशील हो सकते हैं और उन्हें खेल के कई विविध अनुभव दे सकते हैं।

परिस्थिति और परिवेश

शहर की भीड़भाड़ में खेलने के लिए खुली जगह कम ही मिल पाती है। फिर भी बच्चे खेलने के लिए जगह ढूँढ ही लेते हैं। आपने उन्हें तंग गलियों में, सड़कों पर और घर की छतों पर खेलते हुए देखा होगा। शहरों में पौधों को देखने का अवसर कम ही मिलता है ग्रामीण और जन- क्षेत्र में खेलने के लिए खुली जगह अधिक मिलती है और बच्चे प्रकृति के अधिक समीप होते हैं।

जनसंपर्क माध्यम

मुद्रित जन संपर्क माध्यम, जैसे कि पत्रिकाएँ और किताबें और श्रव्य-दृष्य माध्यम, जैसे कि रेडियो और टेलीविजन का बच्चों के खेल पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। बच्चों के लिए अनेक चित्रित किताबें और पत्रिकाएँ उपलब्ध हैं और उनके लिए विशेष रूप से रेडियो और टेलीविजन पर विभिन्न कार्यक्रम भी प्रसारित होते हैं। बच्चे पढ़ी हुई कहानियों का उत्सुकता से अभिनय करते हैं, रेडियो पर सुनी धुन गाते हैं और उत्साह से टेलीविजन के कार्यक्रम को देख पात्रों की नकल करते हैं। जनसंपर्क माध्यम अकसर समाज की रूढ़िबद्ध धारणाओं का समर्थन करते हैं और ये धारणाएँ बच्चों के खेल में झलकती हैं। जनसंपर्क माध्यम दुनिया को बच्चों के करीब लाते हैं और उनकी जानकारी यदि किसी वयस्क के निर्देशन में प्राप्त हो तो बहुत लाभदायक हो सकती है।

मुद्रित और श्रव्य-दृश्य माध्यम जिस प्रकार की प्रेरणा बच्चों को प्रदान करते हैं उसमें भिन्नता होती है। किताबें एक ऐसा माध्यम हैं जिनको स्वयं पढ़कर ही कुछ पता लगाया जा सकता है। इस प्रकार की सीखने की प्रक्रिया में बच्चों की सक्रिय भूमिका होती है और यह खोजबीन की भावना व जिज्ञासा को बढ़ावा देती है। दूसरी ओर टेलीविजन और रेडियो के कार्यक्रमों को बच्चे अधिकतर बैठे-बैठे ही सुनते और देखते हैं। आमतौर पर ये कार्यक्रम उन्हें खोज का मौका न देकर केवल बताते हैं कि क्या जानना चाहिए। इसी कारण श्रव्य-दृष्य माध्यम में वयस्कों का निर्देशन अनिवार्य हो जाता है।

अनुभवों का स्तर

परिवार और पड़ोस में बच्चों को जो अनुभव होते हैं, वे महत्वपूर्ण ढंग से खेल के स्तर को प्रभावित करते हैं। निम्नलिखित दो उदाहरण इस बात को चित्रित करते हैं।

एक निम्न सामाजिक वर्ग के परिवार में माता-पिता सुबह ही काम के लिए निकल जाते हैं और शाम को घर वापस आते हैं। काम पर जाने के पूर्व माँ शिशु की मालिश करती है और उस समय उससे खेलती और बातचीत करती है। शाम को जब माता-पिता दोनों वापस आ जाते हैं तब पिता बच्ची के साथ खेलते हैं और माँ घर का काम-काज करती है।

दूसरी स्थिति में, एक शिक्षित माँ, जो अमीर परिवार की है, अपनी बच्ची को अधिकतर पालने में खिलौनों के पास लिटाए रखती है। बच्ची की केवल शारीरिक देखभाल की ओर उसका ध्यान होता है और वह उससे बहुत कम खेलती है। इन दो स्थितियों में यह संभव है कि पहले परिवार की बालिका का बचपन अधिक अच्छा बीतेगा क्योंकि उसे सीखने के कई मौके मिलते हैं और वह सुरक्षित महसूस करती है।

जो अभिभावक और पालनकर्ता खेल का महत्व समझते हैं, वे बच्चों को ऐसा-वातावरण दे सकते हैं जिसमें खेल को बढ़ावा मिले चाहे उनका सामाजिक वर्ग, शिक्षा स्तर या परिस्थिति कैसी भी क्यों न हो।

खेल की परिभाषा

खेल के बारे में आम धारणा यह है कि यह काम का विलोम है। खेल एक ऐसी स्थिति है जिसमें लोग कोई उपयोगी या विशिष्ट काम नहीं कर रहे होते हैं। खेल के बारे में एक सोच यह भी है कि यह आनन्ददायक, मुक्त और अनायास होता है। यह दृष्टिकोण छोटे बच्चे के विकास में खेल के महत्व को नकारता है। कई सालों से कई मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तकार बच्चे के विकास में खेल के महत्व पर जोर देने लगे हैं। इन्होंने खेल के अनेक पक्षों पर बल दिया है और बताया है कि खेल कैसे मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं को प्रभावित करता है।

खेल का मनोविश्लेषणात्मक दृष्टिकोण

एरिक्सन (Erikson) और अन्ना फ्रायड (Anna Freud) के अनुसार खेल अपूर्ण रह गयी इच्छाओं का स्थानापन्न और अतीत की घातक घटनाओं से मुक्ति और पुनर्जीवन का एक रास्ता है। मनोविश्लेषणात्मक पद्धति खेल के सामाजिक संवेगात्मक पक्षों पर बल देती है। खेल के द्वारा बच्चा माता-पिता के साथ अपने मानसिक द्वन्द्वों और विवेकहीन, भयों का समाधान करता है। एक बच्ची राक्षस-राक्षस खेल कर अंधेरे के भय पर काबू पाती है, एक बच्चा अपनी गुड़िया को किसी नियम के कल्पित उल्लंघन के लिये उसी तरह सजा देता है जैसे एक माता-पिता उसको सजा देते हैं। एरिक्सन की दृष्टि में प्रीस्कूल चरण के दौरान खेल एक बच्चे के लिये खोज, पहल और स्वतंत्रता का रास्ता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से खेल विरेचक अनुभव में माध्यम से आक्रामकता को दिशा देने का एक तरीका है। यह अतीत के लिये एक प्रतिक्रिया और अतीत की घटनाओं की ओर लौटने की प्रक्रिया का एक तन्त्र भी है।