"लोकविभाग": अवतरणों में अंतर
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: '''''पञ्चभ्यः खलु शून्येभ्यः परं द्वे सप्त च अम्बरं एकं त्रीणि च रूपं च''''' |
: '''''पञ्चभ्यः खलु शून्येभ्यः परं द्वे सप्त च अम्बरं एकं त्रीणि च रूपं च''''' |
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: इसका अर्थ है, पाँच शून्य, उसके बाद दो और सात, आकाश, एक और तीन और रूप , (बाएँ से दाएँ) |
: इसका अर्थ है, पाँच [[शून्य]], उसके बाद दो और सात, आकाश, एक और तीन और रूप , (बाएँ से दाएँ) |
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: यहाँ, अम्बर = शून्य, रूप = एक |
: यहाँ, अम्बर = शून्य, रूप = एक |
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==इन्हें भी देखें== |
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* [[शून्य]] |
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* [[दशमलव पद्धति]] |
* [[दशमलव पद्धति]] |
10:03, 24 सितंबर 2017 का अवतरण
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लोकविभाग विश्वरचना सम्बंधी एक जैन ग्रंथ है। इसकी रचना सर्वनन्दि नामक दिगम्बर साधु ने मूलतः प्राकृत में की थी जो अब अप्राप्य है। किन्तु बाद में सिंहसूरि ने इसका संस्कृत रूपान्तर किया जो उपलब्ध है। इस ग्रंथ में शून्य और दाशमिक स्थानीय मान पद्धति का उल्लेख है जो विश्व में सर्वप्रथम इसी ग्रंथ में मिलता है।
इस ग्रन्थ में उल्लेख है कि इसकी रचना ३८० शकाब्द में हुई थी (४५८ ई)।
शून्य तथा दशमलव पद्धति
इस ग्रन्थ में 13107200000 को निम्नलिखित प्रकार से अभिव्यक्त किया गया है-[1]
- पञ्चभ्यः खलु शून्येभ्यः परं द्वे सप्त च अम्बरं एकं त्रीणि च रूपं च
- इसका अर्थ है, पाँच शून्य, उसके बाद दो और सात, आकाश, एक और तीन और रूप , (बाएँ से दाएँ)
- यहाँ, अम्बर = शून्य, रूप = एक
सन्दर्भ
- ↑ Ifrah 1998, p. 416.
इन्हें भी देखें
बाहरी कड़ियाँ
- लोकविभाग (हिन्दी अर्थ सहित) (भारत का अंकीय पुस्तकालय)