"श्राद्ध": अवतरणों में अंतर
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इस धर्म मॆं, ऋषियों ने वर्ष में एक पक्ष को पितृपक्ष का नाम दिया, जिस पक्ष में हम अपने पितरेश्वरों का श्राद्ध, तर्पण, मुक्ति हेतु विशेष क्रिया संपन्न कर उन्हें अर्ध्य समर्पित करते हैं। |
इस धर्म मॆं, ऋषियों ने वर्ष में एक पक्ष को पितृपक्ष का नाम दिया, जिस पक्ष में हम अपने पितरेश्वरों का श्राद्ध, तर्पण, मुक्ति हेतु विशेष क्रिया संपन्न कर उन्हें अर्ध्य समर्पित करते हैं। |
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श्राद्ध अश्विन मास के कृष्ण पर को होता है भाद्र पूर्णिमा से प्रारंभ होता है |
श्राद्ध अश्विन मास के कृष्ण पर को होता है भाद्र पूर्णिमा से प्रारंभ होता है यह |
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जीवात्मा का अगला जीवन पिछले संस्कारो से बनाता है | अत: श्राद्ध करके यह भावना की जताई है कि उनका अगला जीवन अच्छा हो |श्रद्धा और मंत्र के मेल से पितरो की तृप्ति के निमित्त जो विधि होती है उसे श्राद्ध कहते है | इसमें पिंडदानादि श्रद्धा से दिये जाते है | जिन पितरों के प्रति हम कृतज्ञतापूर्वक श्रद्धा व्यक्त करते है, वे हमारे जीवन की अडचनों को दूर करने में हमारी सहायता करते है | |
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‘वराह पुराण’ में श्रद्धा की विधि का वर्णन करते हुए मार्कन्ड़ेयजी गौरमुख ब्राम्हणसे कहते है :’विप्रवर ! छहों वेदांगों को जाननेवाले, यज्ञानुष्ठान में तत्पर, भानजे, दौहित्र, श्वसुर, जामाता, मामा, तपस्वी ब्राम्हण, पंचाग्नि में तपनेवाले, शिष्य,संबंधी तथा अपने माता-पिता के प्रेमी ब्राम्हणों को श्राद्धकर्म के लिए नियुक्त करना चाहिए |’ ‘वायु पुराण’ में आता है : “मित्रघाती, स्वभाव से ही विकृत नखवाला, काले दाँतवाला, कन्यागामी, आग लगानेवाला, सोमरस (शराब आदि मादक द्रव्य ) बेचनेवाला,जनसमाज में निंदित, चोर, चुगलखोर, ग्राम-पुरोहित, वेतन लेकर पढानेवाला, पुनर्विवहिता स्त्री का पति, माता -पिता का परित्याग करनेवाला, हीन वर्ण की संतान का पालन – पोषण करनेवाला, शुद्रा स्त्री का पति तथा मंदिर में पूजा करके जीविका चलानेवाला – ऐसा ब्राम्हण श्राद्ध के अवसर पर निमंत्रण देने योग्य नहीं है |” श्राद्धकर्म करनेवालों में कृतज्ञता के संस्कार सहज में दृढ़ होते है, जो शरीर कि मौत के बाद भी कल्याण का पथ प्रशस्त करते है | श्राद्धकर्म से देवता और पितर तृप्त होते है और श्राद्ध करनेवाले का अंत:करण भी तृप्ति का अनुभव करता है | बूढ़े -बुजुर्गो ने आपकी उन्नति के लिए बहुत कुछ करेंगे तो आपके ह्रदय में भी तृप्ति और पूर्णता का अनुभव होगा | |
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औरंगजेब ने अपने पिता शाहजहाँ को कैद कर दिया था और पिने के लिए नपा-तुला पानी एक फूटी हुई मटकी में भेजता था | तब शाहजहाँ ने अपने बेटे को लिख भेजा : “धन्य है वे हिंदू जो अपने मृतक माता-पिता को भी खीर और हलुए-पूरी से तृप्त करते है और तू जिन्दे बाप को एक पानी की मटकी तक नही दे सकता ? तुमसे तो वे हिंदू अच्छे, जो मृतक माता-पिता की भी सेवा कर लेते है |” |
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भारतीय संस्कृति अपने माता-पिता या कुदुम्ब-परिवार का ही हित नहीं, अपने समाज या देश का ही हित नहीं वरन पुरे विश्व का हित चाहती है | |
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== बाहरी कड़ियाँ == |
== बाहरी कड़ियाँ == |
10:05, 21 अगस्त 2017 का अवतरण
हिन्दूधर्म के अनुसार, प्रत्येक शुभ कार्य के प्रारम्भ में माता-पिता, पूर्वजों को नमस्कार प्रणाम करना हमारा कर्तव्य है, हमारे पूर्वजों की वंश परम्परा के कारण ही हम आज यह जीवन देख रहे हैं, इस जीवन का आनंद प्राप्त कर रहे हैं। इस धर्म मॆं, ऋषियों ने वर्ष में एक पक्ष को पितृपक्ष का नाम दिया, जिस पक्ष में हम अपने पितरेश्वरों का श्राद्ध, तर्पण, मुक्ति हेतु विशेष क्रिया संपन्न कर उन्हें अर्ध्य समर्पित करते हैं।
श्राद्ध अश्विन मास के कृष्ण पर को होता है भाद्र पूर्णिमा से प्रारंभ होता है यह
जीवात्मा का अगला जीवन पिछले संस्कारो से बनाता है | अत: श्राद्ध करके यह भावना की जताई है कि उनका अगला जीवन अच्छा हो |श्रद्धा और मंत्र के मेल से पितरो की तृप्ति के निमित्त जो विधि होती है उसे श्राद्ध कहते है | इसमें पिंडदानादि श्रद्धा से दिये जाते है | जिन पितरों के प्रति हम कृतज्ञतापूर्वक श्रद्धा व्यक्त करते है, वे हमारे जीवन की अडचनों को दूर करने में हमारी सहायता करते है |
‘वराह पुराण’ में श्रद्धा की विधि का वर्णन करते हुए मार्कन्ड़ेयजी गौरमुख ब्राम्हणसे कहते है :’विप्रवर ! छहों वेदांगों को जाननेवाले, यज्ञानुष्ठान में तत्पर, भानजे, दौहित्र, श्वसुर, जामाता, मामा, तपस्वी ब्राम्हण, पंचाग्नि में तपनेवाले, शिष्य,संबंधी तथा अपने माता-पिता के प्रेमी ब्राम्हणों को श्राद्धकर्म के लिए नियुक्त करना चाहिए |’ ‘वायु पुराण’ में आता है : “मित्रघाती, स्वभाव से ही विकृत नखवाला, काले दाँतवाला, कन्यागामी, आग लगानेवाला, सोमरस (शराब आदि मादक द्रव्य ) बेचनेवाला,जनसमाज में निंदित, चोर, चुगलखोर, ग्राम-पुरोहित, वेतन लेकर पढानेवाला, पुनर्विवहिता स्त्री का पति, माता -पिता का परित्याग करनेवाला, हीन वर्ण की संतान का पालन – पोषण करनेवाला, शुद्रा स्त्री का पति तथा मंदिर में पूजा करके जीविका चलानेवाला – ऐसा ब्राम्हण श्राद्ध के अवसर पर निमंत्रण देने योग्य नहीं है |” श्राद्धकर्म करनेवालों में कृतज्ञता के संस्कार सहज में दृढ़ होते है, जो शरीर कि मौत के बाद भी कल्याण का पथ प्रशस्त करते है | श्राद्धकर्म से देवता और पितर तृप्त होते है और श्राद्ध करनेवाले का अंत:करण भी तृप्ति का अनुभव करता है | बूढ़े -बुजुर्गो ने आपकी उन्नति के लिए बहुत कुछ करेंगे तो आपके ह्रदय में भी तृप्ति और पूर्णता का अनुभव होगा |
औरंगजेब ने अपने पिता शाहजहाँ को कैद कर दिया था और पिने के लिए नपा-तुला पानी एक फूटी हुई मटकी में भेजता था | तब शाहजहाँ ने अपने बेटे को लिख भेजा : “धन्य है वे हिंदू जो अपने मृतक माता-पिता को भी खीर और हलुए-पूरी से तृप्त करते है और तू जिन्दे बाप को एक पानी की मटकी तक नही दे सकता ? तुमसे तो वे हिंदू अच्छे, जो मृतक माता-पिता की भी सेवा कर लेते है |”
भारतीय संस्कृति अपने माता-पिता या कुदुम्ब-परिवार का ही हित नहीं, अपने समाज या देश का ही हित नहीं वरन पुरे विश्व का हित चाहती है |