"साम्यवाद": अवतरणों में अंतर

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'''साम्यवाद''', '''[[कार्ल मार्क्स]]''' और '''[[फ्रेडरिक एंगेल्स]]''' द्वारा प्रतिपादित तथा '''[[साम्यवादी घोषणापत्र]]''' में वर्णित [[समाजवाद]] की चरम परिणति है। साम्यवाद, सामाजिक-राजनीतिक [[दर्शन]] के अंतर्गत एक ऐसी [[विचारधारा]] के रूप में वर्णित है, जिसमें संरचनात्मक स्तर पर एक समतामूलक [[वर्गविहीन समाज]] की स्थापना की जाएगी। ऐतिहासिक और आर्थिक वर्चस्व के प्रतिमान ध्वस्त कर उत्पादन के साधनों पर समूचे समाज का स्वामित्व होगा। [[अधिकार]] और [[कर्तव्य]] में आत्मार्पित सामुदायिक सामञ्जस्य स्थापित होगा। [[स्वतंत्रता]] और [[समानता]] के सामाजिक राजनीतिक आदर्श एक दूसरे के पूरक सिद्ध होंगे। [[न्याय]] से कोई वंचित नहीं होगा और मानवता एक मात्र [[जाति]] होगी। श्रम की [[संस्कृति]] सर्वश्रेष्ठ और तकनीक का स्तर सर्वोच्च होगा। साम्यवाद सिद्धांततः अराजकता का पोषक हैं जहाँ राज्य की आवश्यकता समाप्त हो जाती है। मूलतः यह विचार समाजवाद की उन्नत अवस्था को अभिव्यक्त करता है। जहाँ समाजवाद में कर्तव्य और अधिकार के वितरण को 'हरेक से अपनी क्षमतानुसार, हरेक को कार्यानुसार' (From each according to her/his ability, to each according to her/his work) के सूत्र से नियमित किया जाता है, वहीं साम्यवाद में 'हरेक से क्षमतानुसार, हरेक को आवश्यकतानुसार' ({{lang-en|From each according to her/his ability, to each according to her/his need}}) सिद्धांत का लागू किया जाता है। साम्यवाद निजी संपत्ति का पूर्ण प्रतिषेध करता है।<ref>राजनीतिक सिद्धांत की रूपरेखा, ओम प्रकाश गाबा, मयूर पेपरबैक्स, २०१०, पृष्ठ- २७, ISBN:८१-७१९८-०९२-९</ref>
'''साम्यवाद''', '''[[कार्ल मार्क्स]]''' और '''[[फ्रेडरिक एंगेल्स]]''' द्वारा प्रतिपादित तथा '''[[साम्यवादी घोषणापत्र]]''' में वर्णित [[समाजवाद]] की चरम परिणति है। साम्यवाद, सामाजिक-राजनीतिक [[दर्शन]] के अंतर्गत एक ऐसी [[विचारधारा]] के रूप में वर्णित है, जिसमें संरचनात्मक स्तर पर एक समतामूलक [[वर्गविहीन समाज]] की स्थापना की जाएगी। ऐतिहासिक और आर्थिक वर्चस्व के प्रतिमान ध्वस्त कर उत्पादन के साधनों पर समूचे समाज का स्वामित्व होगा। [[अधिकार]] और [[कर्तव्य]] में आत्मार्पित सामुदायिक सामञ्जस्य स्थापित होगा। [[स्वतंत्रता]] और [[समानता]] के सामाजिक राजनीतिक आदर्श एक दूसरे के पूरक सिद्ध होंगे। [[न्याय]] से कोई वंचित नहीं होगा और मानवता एक मात्र [[जाति]] होगी। श्रम की [[संस्कृति]] सर्वश्रेष्ठ और तकनीक का स्तर सर्वोच्च होगा। साम्यवाद सिद्धांततः अराजकता का पोषक हैं जहाँ राज्य की आवश्यकता समाप्त हो जाती है। मूलतः यह विचार समाजवाद की उन्नत अवस्था को अभिव्यक्त करता है। जहाँ समाजवाद में कर्तव्य और अधिकार के वितरण को 'हरेक से अपनी क्षमतानुसार, हरेक को कार्यानुसार' ({{lang-en|From each according to her/his ability, to each according to her/his work}}) के सूत्र से नियमित किया जाता है, वहीं साम्यवाद में 'हरेक से क्षमतानुसार, हरेक को आवश्यकतानुसार' ({{lang-en|From each according to her/his ability, to each according to her/his need}}) सिद्धांत का लागू किया जाता है। साम्यवाद निजी संपत्ति का पूर्ण प्रतिषेध करता है।<ref>राजनीतिक सिद्धांत की रूपरेखा, ओम प्रकाश गाबा, मयूर पेपरबैक्स, २०१०, पृष्ठ- २७, ISBN:८१-७१९८-०९२-९</ref>


== इतिहास ==
== इतिहास ==

20:56, 23 मई 2017 का अवतरण

एक साम्यवादी प्रतीक।

साम्यवाद, कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स द्वारा प्रतिपादित तथा साम्यवादी घोषणापत्र में वर्णित समाजवाद की चरम परिणति है। साम्यवाद, सामाजिक-राजनीतिक दर्शन के अंतर्गत एक ऐसी विचारधारा के रूप में वर्णित है, जिसमें संरचनात्मक स्तर पर एक समतामूलक वर्गविहीन समाज की स्थापना की जाएगी। ऐतिहासिक और आर्थिक वर्चस्व के प्रतिमान ध्वस्त कर उत्पादन के साधनों पर समूचे समाज का स्वामित्व होगा। अधिकार और कर्तव्य में आत्मार्पित सामुदायिक सामञ्जस्य स्थापित होगा। स्वतंत्रता और समानता के सामाजिक राजनीतिक आदर्श एक दूसरे के पूरक सिद्ध होंगे। न्याय से कोई वंचित नहीं होगा और मानवता एक मात्र जाति होगी। श्रम की संस्कृति सर्वश्रेष्ठ और तकनीक का स्तर सर्वोच्च होगा। साम्यवाद सिद्धांततः अराजकता का पोषक हैं जहाँ राज्य की आवश्यकता समाप्त हो जाती है। मूलतः यह विचार समाजवाद की उन्नत अवस्था को अभिव्यक्त करता है। जहाँ समाजवाद में कर्तव्य और अधिकार के वितरण को 'हरेक से अपनी क्षमतानुसार, हरेक को कार्यानुसार' (अंग्रेज़ी: From each according to her/his ability, to each according to her/his work) के सूत्र से नियमित किया जाता है, वहीं साम्यवाद में 'हरेक से क्षमतानुसार, हरेक को आवश्यकतानुसार' (अंग्रेज़ी: From each according to her/his ability, to each according to her/his need) सिद्धांत का लागू किया जाता है। साम्यवाद निजी संपत्ति का पूर्ण प्रतिषेध करता है।[1]

इतिहास

प्रथम विश्वयुद्ध, समाजवादी आंदोलन के लिए एक महत्वपूर्ण घटना थी। जहाँ एक ओर तो इसके आरंभ होते ही समाजवादी आंदोलन और उनका अंतरराष्ट्रीय संगठन प्राय: छिन्न-भिन्न हो गया वहीं दूसरी ओर इसके बीच रूस में बोल्शेविक क्रांति (अक्टूबर-नंवबर 1917) हुई और संसार में प्रथम सफल समाजवादी राज्य की नींव पड़ी जिसका संसार के समाजवादी आंदोलनों पर गहरा असर पड़ा। प्रथम महायुद्ध के पूर्व समाजवादी दलों का मत था कि पूंजीवादी व्यवस्था ही युद्धों के लिए उत्तरदायी है और यदि विश्वयुद्ध आरंभ हुआ तो प्रत्येक समाजवादी दल का कर्तव्य होना चाहिए कि वह अपनी पूँजीवादी सरकार की युद्धनीति का विरोध करे और गृहयुद्ध द्वारा समाजवाद की स्थापना के लिए प्रयत्नशील हो। परंतु ज्यों ही युद्ध आरंभ हुआ, रूस और इटली के समाजवादी दलों को छोड़कर शेष सब दलों के बहुमत ने अपनी सरकारों की नीति का समर्थन किया। समाजवादियों के केवल एक नगण्य अल्पमत ने ही युद्ध का विरोध किया और आगे चलकर इनमें से कुछ व्लादिमीर लेनिन और उसके साम्यवादी अंतरराष्ट्रीय संगठन के समर्थक बने। परंतु विभिन्न देशों के समाजवादी आंदोलनों की परस्पर विरोधी युद्धनीति के कारण उनका ऐक्य खत्म हो गया।

रूस में साम्यवाद

बोल्शेविक दल रूस के कई समाजवादी दलों में से एक था। 1917 की विशेष परिस्थितियों में इसको सफलता प्राप्त हुई। रूसी समाजवाद की पार्श्वभूमि अन्य यूरोपीय समाजवादों की स्थिति से भिन्न थी। रूसी साम्राज्य यूरोप के अग्रणी देशों से उद्योग धंधों में पिछड़ा हुआ था, अत: यहाँ मजदूर वर्ग बहुसंख्यक और अधिक प्रभावशाली न हो सका। यहाँ लोकतंत्रात्मक शासन और व्यक्तिगत स्वाधीनताओं का भी अभाव था। रूसी बुद्धिजीवी और मध्यमवर्ग इनके लिए इच्छुक था पर जारशाही दमननीति के कारण इनकी प्राप्ति का संवैधानिक मार्ग अवरुद्धप्राय था। इन परिस्थितियों से प्रभावित वहाँ के प्रथम समाजवादी रूस के ग्रामीण कम्यून (समुदाय) को अपने विचारों का आधार मानते थे तथा क्रांतिकारी मार्ग द्वारा जारशाही का नाश लोकतंत्रवाद की सफलता के लिए प्रथम सोपान समझते थे। उन विचारकों में हर्जेन (Herzen), लावरोव (Lavrov), चर्नीशेव्सकी (Chernishevrzky) और बाकुनिन (Bakunin) मुख्य हैं। इनसे प्रभावित होकर अनेक बुद्धिजीवी क्रांति की ओर अग्रसर हुए। इस प्रकार नरोदनिक (Narodnik) जन आंदोलन की नींव पड़ी तथा नारोदन्या वोल्या (Narodnya Volya, जनेच्छा) संगठन बना। सन् 1901 में इसका नाम सामाजिक क्रांतिकारी पार्टी (Social Revolutionary Party) रखा गया। सन् 1917 की बोल्शेविक क्रांति के समय तक यह रूस का सबसे बड़ा समाजवादी दल था, परंतु इसका प्रभावक्षेत्र अधिकांशत: ग्रामीण जनता थी। इसके वाम पक्ष ने बोल्शेविक क्रांति का समर्थन किया।

दूसरी समाजवादी विचारधारा, जिसमें बोल्शेविक दल भी सम्मिलित था, रूसी सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी (Russian Social Democratic Labour Party, R. S. D. L. P.) के नाम से प्रसिद्ध है। इसका प्रभाव मुख्यत: नागरिक मजदूर वर्ग में था। रूस में उद्योग कम थे, परंतु बड़े पैमाने के थे और अपेक्षया अधिक मजदूरों को नौकर रखते थे। अत: इन मजदूरों में राजनीतिक चेतना और संगठन अधिक था। लोकतंत्र के अभाव में मजदूरों का संघर्ष करना कठिन था, इसलिए मजदूर वर्ग क्रांतिकारी प्रभाव में आ गया और जर्मनी जैसी परिस्थितियों के कारण यहाँ के अधिकांश मजदूर नेता भी मार्क्सवादी तथा जर्मनी के सामाजिक लोकतंत्रवादी दल से प्रभावित हुए। सन् 1890 के लगभग एक्सलरोड (Axelrod) और प्लेखानोव (Plekhanov) ने पीटर्सवर्ग (बाद में लेनिनग्राड) में प्रथम मजदूर समूह स्थापित किए जो आगे चलकर 1898 में रूसी सामाजिक लोकतंत्रवादी मजदूर पार्टी के आधार बने।

रूसी सामाजिक लोकतंत्रवादी मजदूर पार्टी के नेता कट्टर मार्क्सवादी थे, अत: उन्होंने पुनरावृत्तिवाद को अस्वीकार किया और मार्क्सवाद को विकसित कर रूसी परिस्थितियों में लागू किया। मजदूरों की रहन सहन के स्तर में उन्नति हुई थी, इस सत्य को न मानना कठिन था, परंतु प्लेखानोव ने सिद्ध किया कि नई मशीनों के प्रयोग और मजदूरी में अपेक्षया वृद्धि न होने के कारण पूँजीवादी शोषण की दर बढ़ती जा रही है। बुखारिन (Bukharim) का तर्क था कि साम्राज्यवादी देश उपनिवेशों के शोषण द्वारा अपने श्रमजीवी वर्ग को संतुष्ट रख पाते हैं। ट्राटस्की आदि ने कहा कि पूँजीवादी का संकट सर्वव्यापी हो गया है और इस स्थिति में यह संभव है कि क्रांति पश्चिम यूरोप के अग्रणी देशों में न होकर अपेक्षाकृत पिछड़े देशों में, जहाँ सम्राज्यवादी कड़ी सबसे कमजोर है, वहाँ हो। कुछ विचारकों ने सर्वप्रथम समाजवादी क्रांति का स्थान रूस को बतलाया। ट्राटस्की और लेनिन का मत था कि समाजवादी क्रांति उसी समय सफल हो सकती है जब वह कई देशों में एक साथ फैले, स्थायी क्रांति के बिना केवल एक देश में समाजवाद की स्थापना कठिन है। बाद में लेनिन और स्टालिन ने इस सिद्धांत में संशोधन कर एकदेशीय समाजवाद के आधार पर सोवियत सत्ता का निर्माण किया। निकोलाई लेनिन ने उपर्युक्त विचारों का समन्वय करके बोल्शेविक दल का संगठन और अक्टूबर (नवंबर) क्रांति का नेतृत्व किया।

सन् 1903 की लंदन कांफ्रेंस में रूसी सामाजिक लोकतंत्रवादी मजदूर दल ने अपने समाजवादी आदर्श को स्पष्ट किया, परंतु इसी वर्ग दल के अंदर दो विचारधाराएँ सामने आईं और कालांतर में उन्होंने दो दलों का रूप धारण किया। इस कांफ्रेंस में उत्पादन के साधनों के राष्ट्रीयकरण, जमींदारी उन्मूलन, उपनिवेशों का आत्मनिर्माण का अधिकार, ध्येय की प्राप्ति का क्रांतिकारी मार्ग और क्रांति के बाद सर्वहारा की तानाशाही-इस नीति को स्वीकार किया गया, परंतु दल के संगठन के संबंध में नेताओं में मतभेद हो गया। प्रश्न था कि दल की सदस्यता केवल कार्यकर्ताओं तक सीमित हो अथवा आदर्शों को स्वीकार करनेवाला प्रत्येक व्यक्ति उसका अधिकारी हो और क्या केंद्रीय समिति को दल की शाखाओं के भंग करने और उनके स्थान में नई शाखाओं की नियुक्ति करने का अधिकार हो? लेनिन एक फौजी अनुशासनवाले सुव्यवस्थित दल के पक्ष में था और कांफ्रेंस में उसका बहुमत था, अत: इस धारा का नाम बोल्शेविक (बहुमत) पड़ा और दूसरी धारा मेन्शेविक (अल्पमत) कहलाई। आगे चलकर इन दलों के बीच और भी मतभेद उपस्थित हुए। मेंशेविक दल पहले जारशाही का अंत का पूँजीवादी लोकतंत्रात्मक क्रांति करना चाहता था और इस क्रांति में वह पूँजीवादी दलों के वाम पक्ष से सहयोग करना चाहता था, परंतु 1905 की क्रांति के बाद लेनिन उसके साथी इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि समाजवादी क्रांति के भय के कारण पूंजीवाद प्रतिक्रियावादी हो गया है, अत: वह पूँजीवादी लोकतंत्रात्मक क्रांति का नेतृत्व करने में भी असमर्थ है। इसलिए इस क्रांति का नेतृत्व भी केवल सर्वहारा वर्ग ही कर सकता है और इस क्रांति को सर्वहारा क्रांति के साथ मिलाकर जारशाही के बाद एकदम समाजवाद की स्थापना संभव है। क्रांति में किसानों का सहयोग प्राप्त करने के लिए लेनिन सामंतवादी जमीन को किसानों में बाँटने के पक्ष में था, मेंशेविक उसका तुरंत समाजीकरण करना चाहते थे। बोल्शेविक दल ने प्रथम महायुद्ध का विरोध किया और समाजवाद की स्थापना के लिए गृहयुद्ध का नारा दिया। युद्ध से त्रस्त जनता और विशेषकर रूसी सैनिकों ने इस नीति का स्वागत किया, परंतु मेंशेविकों ने युद्ध का विरोध नहीं किया और फरवरी मार्च (1917) की क्रांति के बाद उन्होंने सरकार में शामिल होकर युद्ध जारी रखा। सन् 1917 की अक्टूबर क्रांति में लेनिन के विचारों और बोलशेविक संगठन की विजय हुई।

सन् 1871 की पेरिस कम्यून के बाद सन् 1917 में प्रथम स्थायी समाजवादी राज्य-सोवियत समाजवादी गणराज्य संघ की स्थापना हुई। इस राज्य में उत्पादन के साधनों-उद्योग धंधे, व्यापार, विनिमय, भूमि आदि-का राष्ट्रीयकरण किया गया और शोषक वर्ग की आर्थिक तथा राजनीतिक शक्ति का अंत कर दिया गया। देश के अंदर, आरंभ में किसान, मजदूर और सैनिकों के प्रतिनिधियों की मिलीजुली सोवियतों के हाथ में शासन था, परंतु सन् 1936 के संविधान के अनुसार एक द्विसदनात्मक संसद् की स्थापना हुई। इसके ऊपरी सदन का चुनाव सोवियत देश के विभिन्न गणराज्यों द्वारा होता है तथा निम्न सदन के सदस्य क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों द्वारा चुने जाते हैं। परंतु सोवियत देश एकदलीय राज्य हैं, वहाँ राजकीय शक्ति साम्यवादी दल के हाथ में है। किसी दूसरे दल को राजनीति में भाग लेने का अधिकार नहीं।

अक्टूबर क्रांति के बाद बोल्शेविक दल ने अपना नाम साम्यवादी दल रखा और सन् 1919 में उसने एक दूसरा साम्यवादी घोषणापत्र (प्रथम घोषणापत्र माक्र्स और एंगिल्स ने सन् 1847-48 में लिखा था) प्रकाशित किया जिसके आधार पर एक नए अंतरराष्ट्रीय आंदोलन-साम्यवादी अंतरराष्ट्रीय-की स्थापना हुई और उसकी सहायता से विभिन्न देशों में साम्यवाद का प्रचार आरंभ हुआ।

लेनिन के विचारों को साम्यवाद की संज्ञा दी जाती है, परंतु लेनिन के बाद जोसेफ स्टालिन (Joseph Stalin) माओत्सेतुंग (Mao Tse tung) निकीता ख्रिश्चोव (Nikita Khrushchov) तथा विभिन्न देशों के साम्यवादी नेताओं ने इन विचारों की व्याख्या और उनका विकास किया है। ये सभी विचार साम्यवाद की कोटि में आते हैं। स्टालिन के विचारों में उसका उपनिवेशों को आत्मनिर्णय का अधिकार, नियोजित अर्थव्यवस्था अर्थात् पंचवर्षीय आदि योजनाएँ तथा सामूहिक और राजकीय स्वामित्व में खेती मुख्य हैं।

समाजवाद (साम्यवाद) का प्रसार और कठिनाइयाँ

द्वितीय महायुद्ध के बीच और उसके बाद सोवियत सेनाओं की सफलता तथा अन्य अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के कारण संसार में समाजवाद (साम्यवाद सहित) का प्रभाव बढ़ा। युद्ध का अंत होने तक न केवल पूर्वी यूरोप सोवियत प्रभावक्षेत्र बन गया, वरन् सन् 1948 ई. तक इनमें से अधिकांश देशों में साम्यवादी राज्य स्थापित हो गए। एशिया में भी चीन जैसे विशाल देश में साम्यवाद सफल हुआ और सोवियत तथा जनवादी चीनी गणराज्य के प्रभाव में उत्तरी एशिया और उत्तरी वियतनाम के शासन साम्यवादी प्रभाव में आ गए। साम्यवाद का असर सभी देशों में बढ़ा। फ्रांस, इटली और हिंदएशिया जैसे देशों में शक्तिशाली साम्यवादी दल हैं। परंतु साम्यवाद के प्रसार ने उस आंदोलन के सामने कई सैद्धांतिक और व्यावहारिक कठिनाइयाँ उपस्थित की हैं-

(१) मार्क्सवाद लेनिनवाद की धारणा थी कि साम्यवादी स्थापना क्रांति द्वारा ही संभव है परंतु यूगोस्लाविया और अल्बानिया को छोड़ कर शेष पूर्वीय यूरोप में युद्धकाल में साम्यवादी दलों का अस्तित्व नहीं के बराबर था और बाद में भी चेकोस्लोवाकिया को छोड़ कदाचित् किसी भी देश में इनका बहुमत नहीं था। पूर्वी यूरोप और उत्तरी कोरिया में से अधिकांश देशों में साम्यवादी शासनों की स्थापना क्रांति द्वारा नहीं, सोवियत प्रभाव द्वारा हुई।
(२) दूसरी समस्या साम्यवादी आंदोलन के नेतृत्व और साम्यवादी देशों के पारस्परिक संबंधों की थी। साम्यवादी विचारकों का साम्यवाद की विश्वव्यापकता में विश्वास है। जब तक साम्यवाद केवल एक देश तक सीमित था, साम्यवादी आंदोलन साधारणत: सोवियत नेतृत्व को स्वीकार करता रहा। उस समय भी माओ जैसे विचारकों का स्टालिन से मतभेद था परंतु अधिकांशत: साम्यवादी दल और नेता साम्यवादी अंतरराष्ट्रीय के अनन्य भक्त थे। द्वितीय महायुद्ध के बाद यह एकता संभव न हो सकी।

साम्यवादी यूगोस्लाविया का शासक जोसिप ब्रोजोविट टीटो (Josip Brozovich Tito, 1892) और उसके अन्य साम्यवादी साथी सोवियत नेतृत्व को चुनौती देने में प्रथम थे। यूगोस्लाविया बहुत कुछ अपने प्रयत्नों से स्वतंत्र हुआ था अत: उसके अंदर स्वाभिमान की भावना थी। वह पूर्व यूरोप के अन्य साम्यवादी देशों की भाँति सोवियत प्रभाव से घिरा हुआ भी न था। यूगोस्लाव पक्ष का कहना था कि सोवियत सरकार उनकी औद्योगिक उन्नति में बाधक है तथा उनकी स्वतंत्रता को सीमित करती है। उनके ये लांछन बाद में सत्य सिद्ध हुए परंतु उस समय टीटोवाद को पुनरावृत्तिवाद, ट्राटस्कीवाद अथवा साम्राज्यवाद का पिट्ठू कहा गया। सिद्धांत के स्तर पर टीटोवाद ने राष्ट्रीय साम्यवाद्, शक्ति के विकेंद्रीकरण, किसानों द्वारा भूमि का निजी स्वामित्व, राज्य और नौकरशाही के स्थान में उद्योगों पर मजदूरों का नियंत्रण तथा साम्यवादी दल और देश के अंदर अपेक्षाकृत अधिक स्वाधीनता पर जोर दिया। टीटो के इन विचारों का प्रभाव पूर्वी यूरोप के अन्य साम्यवादी देशों पर भी पड़ा है।

साम्यवादी देशों के बीच समानता की माँग को स्वीकार करके ख्रुश्चोव ने टीटोवाद को अंशत: स्वीकार किया, परंतु साथ ही उसने लेनिन स्टालिनवाद में भी कई महत्वपूर्ण संशोधन किए हैं। लेनिन का विचार था कि जब तक साम्राज्यवाद का अंत नहीं होता संसार में युद्ध होते रहेंगे, परंतु ख्रुश्चोव के अनुसार इस समय प्रगति की शक्तियाँ इतनी मजबूत हैं कि विश्वयुद्ध को रोका जा सकता है और पूँजीवादी तथा समाजवादी व्यवस्थाओं के बीच शांतिमय सहअस्तित्व संभव है। वह यह भी कहता है कि इन परिस्थितियों में समाजवाद की स्थापना का केवल क्रांतिकारी मार्ग ही नहीं है, वरन् विभिन्न देशों में अलग अलग साम्यवादी दलों द्वारा विकासवादी और शांतिमय तरीकों से भी उसकी स्थापना संभव है।

विश्व के अन्य देशों में साम्यवाद

विश्व के अन्य देशों में साम्यवादी विचारधारा पर उपर्युक्त विचार परिवर्तन का गहरा प्रभाव पड़ा है। टीटो के विद्रोह के बाद पूर्व यूरोप के अन्य साम्यवादी देशों ने भी सोवियत प्रभाव से स्वतंत्र होने का प्रयत्न किया है। रूसी साम्यवादी ख्रुश्चेव के संशोधनों को अस्वीकार करते हैं और सोवियत तथा चीन के बीच सैद्धांतिक ही नहीं सैन्य संघर्ष भी विकट रूप धारण करता जा रहा है। संसार के लगभग सभी साम्यवादी दल सोवियत और चीनी विचारधाराओं के आधार पर विभक्त होते जा रहे हैं कुछ विचारक राष्ट्रीय साम्यवादी दलों की सैद्धांतिक और संगठनात्मक स्वतंत्रता पर भी जोर देते हैं। इस प्रकार साम्यवादी विचारों और आंदोलन की एकता और अंतरराष्ट्रीयता का ह्रास हो रहा है।

प्रथम महायुद्ध के बाद साम्यवाद की ही नहीं लोकतंत्रात्मक समाजवाद की भी प्रगति हुई है। दो महायुद्धों के बीच ब्रिटेन में अल्पकाल के लिए दो बार मजदूर सरकारें बनीं। प्रथम महायुद्ध के बाद जर्मनी और आस्ट्रिया में समाजवादी शासन स्थापित हुए; फ्रांस और स्पेन आदि देशों में समाजवादी दलों की शक्ति बढ़ी। परंतु शीघ्र ही इनकी प्रतिक्रिया भी आरंभ हुई। सन् 1922 में बेनिटो मुसोलिनी ने इटली में फासिस्ट शासन स्थापित किया। फासिज्म मजदूर और समाजवादी आंदोलनों का शत्रु और युद्ध और साम्राज्यवाद का समर्थक है। वह पूँजीवादी व्यवस्था का अंत नहीं करता। नात्सीवाद के मूल सिद्धांत फासिज्म से मिलते जुलते हैं। इस विचारधारा का प्रचारक एडोल्फ हिटलर था। सन् 1929 के आर्थिक संकट के बाद सन् 1932 में जर्मनी में नात्सी शासन स्थापित हो गया और बाद में इस विचारधारा का प्रभाव स्पेन, आस्ट्रिया, चेकोस्लोवाकिया, पोलैंड और फ्रांस आदि देशों में फैल गया।

द्वितीय महायुद्ध के बीच फासीवादी विचारों का ह्रास तथा समाजवादी विचारों और आंदोलनों की प्रगति हुई है। पूर्वी यूरोप के साम्यवादी शासनों के अतिरिक्त पश्चिमी यूरोप में कुछ काल के लिए कई देशों में समाजवादी और साम्यवादी दलों के सहयोग से सम्मिलित शासन बने। यूरोप के कुछ अन्य देशों जैसे (ब्रिटेन, स्वीडन, नार्वें, फिनलैंड) तथा आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड आदि देशों में समय समय पर समाजवादी सरकारें बनती रही हैं। इस काल में एशिया, अफ्रीका और लातीनी अमरीका के देशों में भी समाजवादी शासन स्थापित हो चुके हैं। इनमें चीन, बर्मा, हिंद एशिया, सिंगापुर, घाना और क्यूबा मुख्य हैं।

सन्दर्भ

  1. राजनीतिक सिद्धांत की रूपरेखा, ओम प्रकाश गाबा, मयूर पेपरबैक्स, २०१०, पृष्ठ- २७, ISBN:८१-७१९८-०९२-९

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ