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: '''वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः कालानुपूर्वा विहिताश्च यज्ञाः।'''
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: '''तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्येतिषं वेद स वेद यज्ञान् ॥''' (आर्चज्यौतिषम् ३६)
: '''तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्येतिषं वेद स वेद यज्ञान् ॥''' (आर्चज्यौतिषम् ३६, याजुषज्याेतिषम् ३)


चारो वेदों के पृथक् पृथक् ज्योतिषशास्त्र थे। उनमें से सामवेद का ज्यौतिषशास्त्र अप्राप्य है, शेष तीन वेदों के ज्यौतिषात्र प्राप्त होते हैं।
चारो वेदों के पृथक् पृथक् ज्योतिषशास्त्र थे। उनमें से सामवेद का ज्यौतिषशास्त्र अप्राप्य है, शेष तीन वेदों के ज्यौतिषात्र प्राप्त होते हैं।
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* (३) [[अथर्ववेद]] ज्यौतिष शास्त्र - आथर्वणज्याेतिषम् : इसमें १६२ पद्य हैं।
* (३) [[अथर्ववेद]] ज्यौतिष शास्त्र - आथर्वणज्याेतिषम् : इसमें १६२ पद्य हैं।


इनमें ऋक् अाैर यजुः ज्याेतिषाें के प्रणेता [[लगध]] नामक आचार्य हैं। अथर्व ज्याेतिष के प्रणेता का पता नहीं है । यजुर्वेद के ज्योतिष के चार संस्कृत भाष्य तथा व्याख्या भी प्राप्त होते हैं: एक सोमाकरविरचित प्राचीन भाष्य, द्वितीय [[सुधाकर द्विवेदी]] द्वारा रचित नवीन भाष्य, तृतीय सामशास्त्री रचित दीपिका व्याख्या, चतुर्थ [[शिवराज अाचार्य काैण्डिन्न्यायन]] द्वारा रचित काैण्डिन्न्यायन व्याख्यान ज्योतिषशास्त्र के तीन स्कन्ध हैं - '''सिद्धान्त''', '''संहिता''' और '''होरा'''। इसीलिये इसे ज्योतिषशास्त्र को 'त्रिस्कन्ध' कहा जाता है। कहा गया है
इनमें ऋक् अाैर यजुः ज्याेतिषाें के प्रणेता [[लगध]] नामक आचार्य हैं। अथर्व ज्याेतिष के प्रणेता का पता नहीं है । यजुर्वेद के ज्योतिष के चार संस्कृत भाष्य तथा व्याख्या भी प्राप्त होते हैं: एक सोमाकरविरचित प्राचीन भाष्य, द्वितीय [[सुधाकर द्विवेदी]] द्वारा रचित नवीन भाष्य (समय १९०८), तृतीय सामशास्त्री द्वारा रचित दीपिका व्याख्या (समय १९०८), चतुर्थ [[शिवराज अाचार्य काैण्डिन्न्यायन]] द्वारा रचित काैण्डिन्न्यायन व्याख्यान (समय २००५)। वेदाङ्गज्याेतिष के अर्थ की खाेज में जनार्दन बालाजी माेडक, शङ्कर बालकृष्ण दीक्षित, लाला छाेटेलाल बार्हस्पत्य, लाे.बालगङ्गाधर तिलक का भी याेगदान है


ज्योतिषशास्त्र के तीन स्कन्ध हैं - '''सिद्धान्त''', '''संहिता''' और '''होरा'''। इसीलिये इसे ज्योतिषशास्त्र को 'त्रिस्कन्ध' कहा जाता है। कहा गया है –
: सिद्धान्तसंहिताहोरारुपं स्कन्धत्रयात्मकम् ।
: सिद्धान्तसंहिताहोरारुपं स्कन्धत्रयात्मकम् ।
: वेदस्य निर्मलं चक्षुर्ज्योतिश्शास्त्रमनुत्तमम् ॥
: वेदस्य निर्मलं चक्षुर्ज्योतिश्शास्त्रमनुत्तमम् ॥


वेदाङ्गज्याेतिष सिद्धान्त ज्याेतिष है, जिसमें सूर्य तथा चन्द्र की गति का गणित है । वेदाङ्गज्योतिष में [[गणित]] के महत्व का प्रतिपादन इन शब्दों में किया गया है-
वेदाङ्गज्याेतिष सिद्धान्त ज्याेतिष है, जिसमें सूर्य तथा चन्द्र की गति का गणित है । वेदाङ्गज्योतिष में [[गणित]] के महत्त्व का प्रतिपादन इन शब्दों में किया गया है-
: यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा।
: यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा।
: तद्वद् वेदाङ्गशास्त्राणां गणितं मूर्धनि स्थितम्॥
: तद्वद् वेदाङ्गशास्त्राणां गणितं मूर्धनि स्थितम्॥ (याजुषज्याेतिषम् ४)

वेदाङ्गज्याेतिष में वेदाें में जैसा ही पाँच वर्षाें का एक युग माना गया है । वर्षारम्भ उत्तरायण, शिशिर ऋतु अाैर माघ अथवा तपस् महीने से माना गया है । युग के पाँच वर्षाें के नाम- संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, इद्वत्सर अाैर वत्सर हैं । महीने शुक्लादि हैं । अधिकमास शुचिमास अर्थात् अाषाढमास में तथा सहस्यमास अर्थात् पाैष में ही पडता है, अन्य मासाें में नहीं ।
: ''( जिस प्रकार मोरों में शिखा और नागों में मणि का स्थान सबसे उपर है, उसी प्रकार सभी वेदांगशास्त्रों मे गणित अर्थात् ज्याेतिष का स्थान सबसे उपर है।)''
: ''( जिस प्रकार मोरों में शिखा और नागों में मणि का स्थान सबसे उपर है, उसी प्रकार सभी वेदांगशास्त्रों मे गणित अर्थात् ज्याेतिष का स्थान सबसे उपर है।)''



14:42, 15 जुलाई 2016 का अवतरण

लगध का वेदाङ्ग ज्योतिष एक प्राचीन ज्योतिष ग्रन्थ है। इसका काल १३५० ई पू माना जाता है। अतः यस संसार का ही सर्वप्राचीन ज्याेतिष ग्रन्थ माना जा सकता है ।

वेदाङ्गज्योतिष कालविज्ञापक शास्त्र है। माना जाता है कि ठीक तिथि नक्षत्र पर किये गये यज्ञादि कार्य फल देते हैं अन्यथा नहीं। कहा गया है कि-

वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः कालानुपूर्वा विहिताश्च यज्ञाः।
तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्येतिषं वेद स वेद यज्ञान् ॥ (आर्चज्यौतिषम् ३६, याजुषज्याेतिषम् ३)

चारो वेदों के पृथक् पृथक् ज्योतिषशास्त्र थे। उनमें से सामवेद का ज्यौतिषशास्त्र अप्राप्य है, शेष तीन वेदों के ज्यौतिषात्र प्राप्त होते हैं।

  • (१) ऋग्वेद का ज्यौतिष शास्त्र - आर्चज्याेतिषम् : इसमें ३६ पद्य हैं।
  • (२) यजुर्वेद का ज्यौतिष शास्त्र – याजुषज्याेतिषम् : इसमें ४४ पद्य हैं।
  • (३) अथर्ववेद ज्यौतिष शास्त्र - आथर्वणज्याेतिषम् : इसमें १६२ पद्य हैं।

इनमें ऋक् अाैर यजुः ज्याेतिषाें के प्रणेता लगध नामक आचार्य हैं। अथर्व ज्याेतिष के प्रणेता का पता नहीं है । यजुर्वेद के ज्योतिष के चार संस्कृत भाष्य तथा व्याख्या भी प्राप्त होते हैं: एक सोमाकरविरचित प्राचीन भाष्य, द्वितीय सुधाकर द्विवेदी द्वारा रचित नवीन भाष्य (समय १९०८), तृतीय सामशास्त्री द्वारा रचित दीपिका व्याख्या (समय १९०८), चतुर्थ शिवराज अाचार्य काैण्डिन्न्यायन द्वारा रचित काैण्डिन्न्यायन व्याख्यान (समय २००५)। वेदाङ्गज्याेतिष के अर्थ की खाेज में जनार्दन बालाजी माेडक, शङ्कर बालकृष्ण दीक्षित, लाला छाेटेलाल बार्हस्पत्य, लाे.बालगङ्गाधर तिलक का भी याेगदान है ।

ज्योतिषशास्त्र के तीन स्कन्ध हैं - सिद्धान्त, संहिता और होरा। इसीलिये इसे ज्योतिषशास्त्र को 'त्रिस्कन्ध' कहा जाता है। कहा गया है –

सिद्धान्तसंहिताहोरारुपं स्कन्धत्रयात्मकम् ।
वेदस्य निर्मलं चक्षुर्ज्योतिश्शास्त्रमनुत्तमम् ॥

वेदाङ्गज्याेतिष सिद्धान्त ज्याेतिष है, जिसमें सूर्य तथा चन्द्र की गति का गणित है । वेदाङ्गज्योतिष में गणित के महत्त्व का प्रतिपादन इन शब्दों में किया गया है-

यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा।
तद्वद् वेदाङ्गशास्त्राणां गणितं मूर्धनि स्थितम्॥ (याजुषज्याेतिषम् ४)

वेदाङ्गज्याेतिष में वेदाें में जैसा ही पाँच वर्षाें का एक युग माना गया है । वर्षारम्भ उत्तरायण, शिशिर ऋतु अाैर माघ अथवा तपस् महीने से माना गया है । युग के पाँच वर्षाें के नाम- संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, इद्वत्सर अाैर वत्सर हैं । महीने शुक्लादि हैं । अधिकमास शुचिमास अर्थात् अाषाढमास में तथा सहस्यमास अर्थात् पाैष में ही पडता है, अन्य मासाें में नहीं ।

( जिस प्रकार मोरों में शिखा और नागों में मणि का स्थान सबसे उपर है, उसी प्रकार सभी वेदांगशास्त्रों मे गणित अर्थात् ज्याेतिष का स्थान सबसे उपर है।)

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ