"जगमोहन सिंह": अवतरणों में अंतर

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:(1) "प्रेम-संपत्ति-लता" (सं. 1942 वि.),
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:(2) "श्यामालता" और
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:(3) "श्यामासरोजिनी" (सं. 1943)।
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इसके अतिरिक्त इन्होंने कालिदास के "मेघदूत" का बड़ा ही ललित अनुवाद भी [[ब्रजभाषा]] के कबित्त [[सवैया|सवैयों]] में किया है। हिंदी निबंधों के प्रथम उत्थान काल के निबंधकारों में उनका महत्वपूर्ण स्थान है।
इसके अतिरिक्त इन्होंने कालिदास के "मेघदूत" का बड़ा ही ललित अनुवाद भी [[ब्रजभाषा]] के कबित्त [[सवैया|सवैयों]] में किया है। हिंदी निबंधों के प्रथम उत्थान काल के निबंधकारों में उनका महत्वपूर्ण स्थान है।


शैली पर उनके व्यक्तित्व की अनूठी छाप है। वह बड़ी परिमार्जित, संस्कृतगर्भित, काव्यात्मक और प्रवाहपूर्ण होती हैं। कहीं-कहीं पंडिताऊ शैली के चिंत्य प्रयोग भी मिल जाते हैं। "श्यामास्वप्न" उनकी प्रमुख गद्यकृति है, जिसका संपादन कर डॉ॰ श्रीकृष्णलाल ने [[नागरीप्रचारिणी सभा]] द्वारा प्रकाशित कराया है। इसमें गद्य-पद्य दोनों हैं, किंतु पद्य की संख्या गद्य की अपेक्षा बहुत कम है। इसे भावप्रधान उपन्यास की संज्ञा दी जा सकती है। आद्योपांत शैली वर्णानात्मक है। इसमें चरित्रचित्रण पर ध्यान न देकर प्रकृति और प्रेममय जीवन का ही चित्र अंकित किया गया है। कवि की शृंगारी रचनाओं की भावभूमि पर्याप्त सरस और हृदयस्पर्शी होती है। कवि में सौंदर्य और सुरम्य रूपों के प्रति अनुराग की व्यापक भावना थी। [[आचार्य रामचंद्र शुक्ल]] का इसीलिए कहना था कि "प्राचीन संस्कृत साहित्य" के अभ्यास और विंध्याटवी के रमणीय प्रदेश में निवास के कारण विविध भावमयी प्रकृति के रूपमाधुर्य की जैसी सच्ची परख जैसी सच्ची अनुभूति इनमें थी वैसी उस काल के किसी हिंदी कवि या लेखक में नहीं पाई जाती ([[हिंदी साहित्य का इतिहास]], पृ. 474, पंचम संस्करण)। मानवीय सौंदर्य को प्राकृतिक सौंदर्य के संदर्भ में देखने का जो प्रयास ठाकुर साहब ने [[छायावादी युग]] के इतन दिनों पहले किया इससे उनकी रचनाएँ वास्तव में "हिंदी काव्य में एक नूतन विधान" का आभास देती हैं। उनकी [[ब्ररजभाषा]] काफी परिमार्जित और शैली काफी पुष्ट थी।
शैली पर उनके व्यक्तित्व की अनूठी छाप है। वह बड़ी परिमार्जित, संस्कृतगर्भित, काव्यात्मक और प्रवाहपूर्ण होती हैं। कहीं-कहीं पंडिताऊ शैली के चिंत्य प्रयोग भी मिल जाते हैं। "श्यामास्वप्न" उनकी प्रमुख गद्यकृति है, जिसका संपादन कर डॉ॰ श्रीकृष्णलाल ने [[नागरीप्रचारिणी सभा]] द्वारा प्रकाशित कराया है। इसमें गद्य-पद्य दोनों हैं, किंतु पद्य की संख्या गद्य की अपेक्षा बहुत कम है। इसे भावप्रधान उपन्यास की संज्ञा दी जा सकती है। आद्योपांत शैली वर्णानात्मक है। इसमें चरित्रचित्रण पर ध्यान न देकर प्रकृति और प्रेममय जीवन का ही चित्र अंकित किया गया है। कवि की शृंगारी रचनाओं की भावभूमि पर्याप्त सरस और हृदयस्पर्शी होती है। कवि में सौंदर्य और सुरम्य रूपों के प्रति अनुराग की व्यापक भावना थी। [[आचार्य रामचंद्र शुक्ल]] का इसीलिए कहना था कि "प्राचीन संस्कृत साहित्य" के अभ्यास और विंध्याटवी के रमणीय प्रदेश में निवास के कारण विविध भावमयी प्रकृति के रूपमाधुर्य की जैसी सच्ची परख जैसी सच्ची अनुभूति इनमें थी वैसी उस काल के किसी हिंदी कवि या लेखक में नहीं पाई जाती ([[हिंदी साहित्य का इतिहास]], पृ. 474, पंचम संस्करण)। मानवीय सौंदर्य को प्राकृतिक सौंदर्य के संदर्भ में देखने का जो प्रयास ठाकुर साहब ने [[छायावादी युग]] के इतन दिनों पहले किया इससे उनकी रचनाएँ वास्तव में "हिंदी काव्य में एक नूतन विधान" का आभास देती हैं। उनकी [[ब्रजभाषा]] काफी परिमार्जित और शैली काफी पुष्ट थी।


उनकी दो कुण्डलियाँ प्रस्तुत हैं-
उनकी दो कुण्डलियाँ प्रस्तुत हैं-

06:53, 2 फ़रवरी 2016 का अवतरण

चित्र:ThakurJagmohanSingh.jpg
भारतेन्दुयुगीन हिन्दी साहित्यकार ठाकुर जगमोहन सिंह

ठाकुर जगमोहन सिंह (४ अगस्त १८५७ - ) हिन्दी के भारतेन्दुयुगीन कवि, आलोचक और उपन्यासकार थे। उन्होंने सन् 1880 से 1882 तक धमतरी में और सन् 1882 से 1887 तक शिवरीनारायण में तहसीलदार और मजिस्ट्रेट के रूप में कार्य किया। छत्तीसगढ़ के बिखरे साहित्यकारों को जगन्मोहन मंडल बनाकर एक सूत्र में पिरोया और उन्हें लेखन की सही दिशा भी दी। जगन्मोहन मंडल काशी के भारतेन्दु मंडल की तर्ज में बनी एक साहित्यिक संस्था थी।

हिंदी के अतिरिक्त संस्कृत और अंग्रेजी साहित्य की उन्हें अच्छी जानकारी थी। ठाकुर साहब मूलत: कवि ही थे। उन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा नई और पुरानी दोनों प्रकार की काव्यप्रवृत्तियों का पोषण किया।

जीवन परिचय

ठाकुर जगमोहन सिंह का जन्म विजयराघवगढ़ रियासत में ठाकुर सरयू सिंह के राज परिवार में में हुआ था। १८५७ के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में ठा. सरयू सिंह ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था। फलस्वरूप अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और उन्हें काले पानी की सजा सुनाई गई। लेकिन अंग्रेजी हुकूमत में सजा भोगने की बजाय ठा. सरयू सिंह ने मौत को गले लगना उचित समझा। जगमोहन सिंह ऐसे ही क्रांतिकारी, मेधावी एवं स्वप्न दृष्टा सुपुत्र थे।

अपनी शिक्षा के लिए काशी आने पर उनका परिचय भारतेंदु और उनकी मंडली से हुआ। बनारस के क्वींस कालेज में अध्ययन के दौरान वे भारतेंदु हरिश्चंद्र के सम्पर्क में आए तथा यह सम्पर्क प्रगाढ़ मैत्री में बदल गया जो की जीवन पर्यन्त बनी रही।

१८७८ में शिक्षा समाप्ति के बाद वे राघवगढ़ आ गए। दो साल पश्चात् १८८० में धमतरी (छत्तीसगढ़) में तहसीलदार नियुक्त किये गए। बाद में तबादले पर शिवरीनारायण आये। कहा जाता है कि शिवरीनारायण में विवाहित होते हुए भी इन्हें 'श्यामा' नाम की स्त्री से प्रेम हो गया। शिवरीनारायण में रहते हुए इन्होने श्यामा को केंद्र में रख कर अनेक रचनाओं का सृजन किया जिनमे हिंदी का अत्यंत भौतिक एवं दुर्लभ उपन्यास श्याम-स्वप्न प्रमुख है।

कृतियाँ

उनके तीन काव्यसंग्रह प्रकाशित हैं :

(1) "प्रेम-संपत्ति-लता" (सं. 1942 वि.),
(2) "श्यामालता", और
(3) "श्यामासरोजिनी" (सं. 1943)।

इसके अतिरिक्त इन्होंने कालिदास के "मेघदूत" का बड़ा ही ललित अनुवाद भी ब्रजभाषा के कबित्त सवैयों में किया है। हिंदी निबंधों के प्रथम उत्थान काल के निबंधकारों में उनका महत्वपूर्ण स्थान है।

शैली पर उनके व्यक्तित्व की अनूठी छाप है। वह बड़ी परिमार्जित, संस्कृतगर्भित, काव्यात्मक और प्रवाहपूर्ण होती हैं। कहीं-कहीं पंडिताऊ शैली के चिंत्य प्रयोग भी मिल जाते हैं। "श्यामास्वप्न" उनकी प्रमुख गद्यकृति है, जिसका संपादन कर डॉ॰ श्रीकृष्णलाल ने नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित कराया है। इसमें गद्य-पद्य दोनों हैं, किंतु पद्य की संख्या गद्य की अपेक्षा बहुत कम है। इसे भावप्रधान उपन्यास की संज्ञा दी जा सकती है। आद्योपांत शैली वर्णानात्मक है। इसमें चरित्रचित्रण पर ध्यान न देकर प्रकृति और प्रेममय जीवन का ही चित्र अंकित किया गया है। कवि की शृंगारी रचनाओं की भावभूमि पर्याप्त सरस और हृदयस्पर्शी होती है। कवि में सौंदर्य और सुरम्य रूपों के प्रति अनुराग की व्यापक भावना थी। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का इसीलिए कहना था कि "प्राचीन संस्कृत साहित्य" के अभ्यास और विंध्याटवी के रमणीय प्रदेश में निवास के कारण विविध भावमयी प्रकृति के रूपमाधुर्य की जैसी सच्ची परख जैसी सच्ची अनुभूति इनमें थी वैसी उस काल के किसी हिंदी कवि या लेखक में नहीं पाई जाती (हिंदी साहित्य का इतिहास, पृ. 474, पंचम संस्करण)। मानवीय सौंदर्य को प्राकृतिक सौंदर्य के संदर्भ में देखने का जो प्रयास ठाकुर साहब ने छायावादी युग के इतन दिनों पहले किया इससे उनकी रचनाएँ वास्तव में "हिंदी काव्य में एक नूतन विधान" का आभास देती हैं। उनकी ब्रजभाषा काफी परिमार्जित और शैली काफी पुष्ट थी।

उनकी दो कुण्डलियाँ प्रस्तुत हैं-

इक थाना तहसील के मध्य धर एक फुटि
उत बजार सों प्रबल जल निकस्यो अट्टा टूटि
निकस्यों अट्टा टूटि फ़ुटि गिजि परीं अटारी
गिरि गेह तजि देह देहरी और दिवारी
(क)जोगी डिफ़ा सुदीप मनौ तंह जल जाना
उत पुरब सब पंथ रोकि घेरवौ त थाना ॥
पूरब केरा के निकट पश्चिम निकट खरौद
लगभग फ़ेर लुहारसी उत्तर ग्रामहिं कोद
उत्तर ग्रामहि कोद जहां टिकरी पारा है
दच्छिन हसुवा खार पार लौ जल धारा है
जंह लौ देखो नजर पसारत जल जल घेरा
कैय्यक कोसन फ़ैलि घेरि फ़िरि पूरब केरा ॥

बाहरी कड़ियाँ