"मुनि": अवतरणों में अंतर

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03:11, 5 मार्च 2015 का अवतरण

राग-द्वेष-रहित संतों, साधुओं और ऋषियों को मुनि कहा गया है। मुनियों को यति, तपस्वी, भिक्षु और श्रमण भी कहा जाता है। भगवद्गीता में कहा है कि जिनका चित्त दु:ख से उद्विग्न नहीं होता, जो सुख की इच्छा नहीं करते और जो राग, भय और क्रोध से रहित हैं, ऐसे निश्चल बुद्धिवाले मुनि कहे जाते हैं। वैदिक ऋषि जंगल के कंदमूल खाकर जीवन निर्वाह करते थे।

जैन मुनि

चित्र:Digamber Jain Monk Animation.JPG
दिगम्बर जैन मुनि (एनीमेशन)

जैन ग्रंथों में उन निग्रंथ महर्षियों को मुनि कहा गया है जिनकी आत्मा संयम में स्थिर है, सांसारिक वासनाओं से जो रहित हैं और जीवों की जो रक्षा करते हैं। जैन मुनि 28 मूल गणों का पालन करते हैं। वे अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच व्रतों तथा ईर्या (गमन में सावधानी), भाषा, एषणा (भोजन शुद्धि), आदाननिक्षेप (धार्मिक उपकरण उठाने रखने में सावधानी) और प्रतिष्ठापना (मल मूत्र के त्याग में सावधानी), इन पाँच समितियों का पालन करते हैं। वे पाँच इंद्रियों का निग्रह करते हैं, तथा सामायिक, चतुविंशतिस्तव, वंदन, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान (त्याग) और कायोत्सर्ग (देह में ममत्व का त्याग) इन छह आवश्यकों को पालते हैं। वे केशलोंच करते हैं, नग्न रहते हैं, स्नान और दातौन नहीं करते, पृथ्वी पर सोते हैं, त्रिशुद्ध आहार ग्रहण करते हैं और दिन में केवल एक बार भोजन करते हैं। ये सब मिलाकर 28 मूल गुण होते हैं।

संदर्भ

  • दशवैकालिक सूत्र; वट्टकेर, मूलाचार; हरिभद्र, अष्टकप्रकरण।

इन्हें भी देखें