"तैमूरलंग": अवतरणों में अंतर

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
छो बॉट: दिनांक लिप्यंतरण और अल्पविराम का अनावश्यक प्रयोग हटाया।
छो बॉट: अन्य विकि-परियोजनाओं पर निर्वाचित लेख का साँचा हटाया, अब विकिडाटा पर उपलब्ध।
पंक्ति 133: पंक्ति 133:
[[श्रेणी:व्यक्तिगत जीवन]]
[[श्रेणी:व्यक्तिगत जीवन]]



{{Link FA|ur}}
[[ml:തിമൂര്‍]]
[[ml:തിമൂര്‍]]

20:47, 22 फ़रवरी 2015 का अवतरण

साँचा:ज्ञानसन्दूक शासक तैमुर लंग (अर्थात तैमूर लंगड़ा) (8 अप्रैल 1336 – 18 फ़रवरी 1405) जिसे 'तिमुर' (तिमुर = लोहा) के नाम से भी जाना जाता था चौदहवी शताब्दी का एक शासक था जिसने महान तैमूरी राजवंश की स्थापना की थी। उसका राज्य पश्चिम एशिया से लेकर मध्य एशिया होते हुए भारत तक फैला था। उसकी गणना संसार के महान्‌ और निष्ठुर विजेताओं में की जाती है। वह बरलस तुर्क खानदान में पैदा हुआ था। उसका पिता तुरगाई बरलस तुर्कों का नेता था। भारत के मुग़ल साम्राज्य का संस्थापक बाबर तिमुर का ही वंशज था।

हालांकि सिकंदर की तरह तैमूरलंग राजपरिवार में पैदा नहीं हुए, बल्कि उनका जन्म एक आम परिवार में हुआ था। तैमूरलंग एक मामूली चोर थे, जो मध्य एशिया के मैदानों और पहाड़ियों से भेड़ों की चोरी किया करते थे।

चंगेज़ ख़ान की तरह तैमूरलंग के पास कोई सिपाही भी नहीं था। लेकिन उन्होंने आम झगड़ालू लोगों की मदद से एक बेहतरीन सेना बना ली जो किसी अचरज से कम नहीं था।

जब तैमूरलंग 1402 में सुल्तान बायाजिद प्रथम के खिलाफ युद्ध मैदान में उतरे, तब उनके पास भारी भरकम सेना थी जिसमें अर्मेनिया से अफगानिस्तान और समरकंद से लेकर सर्बिया तक के सैनिक शामिल थे।

" वह एक योद्धा थे, जो एक किसान से एशिया के सिंहासन पर काबिज हुआ। उसकी विकलांगता ने उसके रवैये और हौसले को प्रभावित नहीं किया। उसने अपनी दुर्बलताओं पर भी विजय प्राप्त कर ली थी।"

तैमूरलंग अपने जीवन में इन मुश्किलों से पार पाने में कामयाब रहे लेकिन सबसे हैरानी वाली बात यह है कि वे विकलांग थे। आपको भले यकीन नहीं हो लेकिन हकीक़त यही है कि उनके शरीर का दायां हिस्सा पूरी तरह से दुरुस्त नहीं था। हादसे में हुए विकलांग

जन्म के समय उनका नाम तैमूर रखा गया था। तैमूर का मतलब लोहा होता है। आगे चलकर लोग उन्हें फारसी में मजाक मजाक में तैमूर-ए-लंग (लंगड़ा तैमूर) कहने लगे.

इस मजाक की शुरुआत भी तब हुई जब युवावस्था में उनके शरीर का दाहिना हिस्सा बुरी तरह घायल हो गया था। इसके बाद यही नाम बिगड़ते बिगड़त तैमूरलंग हो गया।

लेकिन तैमूरलंग के सफ़र में उनकी शारीरिकविकलांगता आड़े नहीं आई, जबकि वह जमाना ऐसा था जब राजनीतिक सत्ता हासिल करने क लिए शारीरिक सौष्ठव भी जरूरी था।

युवा तैमूरलंग के बारे में कहा जाता है कि वह महज एक हाथ से तलवार पकड़ सकते थे। ऐसे में ये समझ से बाहर है कि तैमूरलंग ने खुद को हाथ से हाथ की लड़ाई और घुडसवारी और तीरंदाज़ी के लायक कैसे बनाया होगा.

इस बात के पुख्ता प्रमाण हैं कि तैमूरलंग बुरी तरह घायल होने के बाद विकलांग हो गए थे। हालांकि इस बात पर अनिश्चितता जरूर है कि उनके साथ क्या हादसा हुआ था।

वैसे अनुमान यह है कि यह हादसा 1363 के करीब हुआ था। तब तैमूरलंग भाड़े के मजदूर के तौर पर खुर्शान में पड़ने वाले खानों में काम कर रहे थे, दक्षिण पश्चिम अफगानिस्तान में स्थित इस हिस्से को आजकल मौत का रेगिस्तान कहा जाता है।

एक अन्य स्रोत- लगभग शत्रुता वाला भाव रखने वाले 15वीं शताब्दी के सीरियाई इतिहासकार इब्ने अरब शाह के मुताबिक एक भेड़ चराने वाले चरवाहा ने भेड़ चुराते हुए तैमूरलंग को अपने तीर से घायल कर दिया था। चरवाहे का एक तीर तैमूर के कंधे पर लगा था और दूसरा तीर कूल्हे पर.

सीरियाई इतिहासकार ने तिरस्कारपूर्ण अंदाज में लिखा है,“पूरी तरह से घायल होने से तैमूरलंग की गरीबी बढ़ गई। उसकी दुष्टता भी बढ़ी और रोष भी बढ़ता गया।”

स्पेनिश राजदूत क्लेविजो ने 1404 में समरकंद का दौरा किया था। उन्होंने लिखा है कि सिस्तान के घुड़सवारों का सामना करते हुए तैमूरलंग घायल हुए थे।

उनके मुताबिक, “दुश्मनों ने तैमूरलंग को घोड़े से गिरा दिया और उनके दाहिने पैर को जख्मी कर दिया, इसके चलते वह जीवन भर लंगड़ाते रहे, बाद में उनका दाहिना हाथ भी जख्मी हो गया। उन्होंने अपने हाथ की दो उंगलियां गंवाई थी।”

सोवियत पुरातत्वविदों का एक दल जिसका नेतृत्व मिखाइल गेरिसिमोव कर रहे थे, ने 1941 में समरकंद स्थित तैमूरलंग के खूबसूरत मक़बरे क ो खुदवाया था और पाया कि वे लंगड़े थे लेकिन 5 फुट 7 इंच का उनका शरीर कसा हुआ था।

उनका दाहिना पैर, जहां जांघ की हड्डी और घुटने मिलते हैं, वह जख्मी था। इसके चलते उनका दाहिना पैर बाएं पैर के मुकाबले छोटा था। यही वजह है कि उनका नाम 'लंगड़ा' तैमूर पड़ गया था। विकलांगता नहीं बनी बाधा

चलते समय उन्हें अपने दाहिने पांव को घसीटना पड़ता था। इसके अलावा उनका बायां कंधा दाएं कंधे के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा ऊंचा था। उनके दाहिने हाथ और कोहनी भी बाद में ज़ख्मी हो गए।

" पूरी तरह से घायल होने से तैमूरलंग की गरीबी बढ़ गई। उसकी दुष्टता भी बढ़ी और रोष भी बढ़ता गया।"

इब्ने अरब शाह, 15वीं सदी के सीरियाई इतिहासकार

बावजूद इसके 14वीं शताब्दी के उनके दुश्मन जिनमें तुर्की, बगदाद और सीरिया के शासक शामिल थे, उनका मजाक उड़ाते थे लेकिन युद्ध में तैमूरलंग को हरा पाना मजाक उड़ाने जितना आसान कभी नहीं रहा.

तैमूरलंग के कट्टर आलोचक रहे अरबशाह ने भी माना है कि तैमूरलंग में ताकत और साहस कूट कूट कर भरा हुआ था और ्हें देखकर दूसरों में भय और आदेश पालन का भाव मन में आता था। कभी नहीं हारे तैमूरलंग

18वीं शताब्दी के इतिहासकार एडवर्ड गिब्बन ने भी तैमूरलंग की काफी प्रशंसा की है। गिब्बन के मुताबिक तैमूरलंग की सैन्य काबलियत को कभी स्वीकार नहीं किया गया।

गिब्बन ने लिखा है, “जिन देशों पर उन्होंने अपनी विजय पताका फहराई, वहां भी जाने अनजाने में तैमूरलंग के जन्म, उनके चरित्र, व्यक्तित्व और यहां तक कि उनके नाम तैमूरलंग के बारे में भी झूठी कहानियां प्रचारित हुईं.”

गिब्बन ने आगे लिखा है, “ लेकिन वास्तविकता में वह एक योद्धा थे, जो एक किसान से एशिया के सिंहासन पर काबिज हुआ। विकलांगता ने उनके रवैये और हौसले को प्रभावित नहीं किया। उन्होंने अपनी दुर्बलताओं पर भी विजय प्राप्त कर ली थी।”

जब तैमूरलंग का 1405 में निधन हुआ था, तब चीन के राजा मिंग के ख़िलाफ युद्ध के लिए वे रास्ते में थे। तब तक वे 35 साल तक युद्ध के मैदान में लगातार जीत हासिल करते रहे.

अपनी शारीरिक दुर्बलताओं से पार पा कर विश्व विजेता बनने का ऐसा दूसरा उदाहरण नजर नहीं आता.

परिचय

तैमूर का जन्म सन्‌ 1336 में ट्रांस आक्सियाना (Transoxiana), ट्रांस आमू और सर नदियों के बीच का प्रदेश, मावराउन्नहर, में केश या शहर-ए-सब्ज नामक स्थान में हुआ था। उसके पिता ने इस्लाम कबूल कर लिया था। अत: तैमूर भी इस्लाम का कट्टर अनुयायी हुआ। वह बहुत ही प्रतिभावान्‌ और महत्वाकांक्षी व्यक्ति था। महान्‌ मंगोल विजेता चंगेज खाँ की तरह वह भी समस्त संसार को अपनी शक्ति से रौंद डालना चाहता था और सिकंदर की तरह विश्वविजय की कामना रखता था। सन्‌ 1369 में समरकंद के मंगोल शासक के मर जाने पर उसने समरकंद की गद्दी पर कब्जा कर लिया और इसके बाद उसने पूरी शक्ति के साथ दिग्विजय का कार्य प्रारंभ कर दिया। चंगेज खाँ की पद्धति पर ही उसने अपनी सैनिक व्यवस्था कायम की और चंगेज की तरह ही उसने क्रूरता और निष्ठुरता के साथ दूर-दूर के देशों पर आक्रमण कर उन्हें तहस नहस किया। 1380 और 1387 के बीच उसने खुरासान, सीस्तान, अफगानिस्तान, फारस, अजरबैजान और कुर्दीस्तान आदि पर आक्रमण कर उन्हें अधीन किया। 1393 में उसने बगदाद को लेकर मेसोपोटामिया पर आधिपत्य स्थापित किया। इन विजयों से उत्साहित होकर अब उसने भारत पर आक्रमण करने का निश्चय किया। उसके अमीर और सरदार प्रारंभ में भारत जैसे दूरस्थ देश पर आक्रमण के लिये तैयार नहीं थे, लेकिन जब उसने इस्लाम धर्म के प्रचार के हेतु भारत में प्रचलित मूर्तिपूजा का विध्वंस करना अपना पवित्र ध्येय घोषित किया, तो उसके अमीर और सरदार भारत पर आक्रमण के लिये राजी हो गए।

मूर्तिपूजा का विध्वंस तो आक्रमण का बहाना मात्र था। वस्तुत: वह भारत के स्वर्ण से आकृष्ट हुआ। भारत की महान्‌ समृद्धि और वैभव के बारे में उसने बहुत कुछ बातें सुन रखी थीं। अत: भारत की दौलत लूटने के लिये ही उसने आक्रमण की योजना बनाई थी। उसे आक्रमण का बहाना ढूँढ़ने की अवश्यकता भी नहीं महसूस हुई। उस समय दिल्ली की तुगलुक सल्तनत फिरोजशाह के निर्बल उत्तराधिकारियों के कारण शोचनीय अवस्था में थी। भारत की इस राजनीतिक दुर्बलता ने तैमूर को भारत पर आक्रमण करने का स्वयं सुअवसर प्रदान दिया।

1398 के प्रारंभ में तैमूर ने पहले अपने एक पोत पीर मोहम्मद को भारत पर आक्रमण के लिये रवाना किया। उसने मुलतान पर घेरा डाला और छ: महीने बाद उसपर अधिकार कर लिया।

अप्रैल 1398 में तैमूर स्वयं एक भारी सेना लेकर समरकंद से भारत के लिये रवाना हुआ और सितंबर में उसने सिंधु, झेलम तथा रावी को पार किया। 13 अक्टूबर को वह मुलतान से 70 मील उत्तर-पूरब में स्थित तुलुंबा नगर पहुँचा। उसने इस नगर को लूटा और वहाँ के बहुत से निवासियों को कत्ल किया तथा बहुतों को गुलाम बनाया। फिर मुलतान और भटनेर पर कब्जा किया। वहाँ हिंदुओं के अनेक मंदिर नष्ट कर डाले। भटनेर से वह आगे बढ़ा और मार्ग के अनेक स्थानों को लूटता-खसोटता और निवासियों को कत्ल तथा कैद करता हुआ दिसंबर के प्रथम सप्ताह के अंत में दिल्ली के निकट पहुँच गया। यहाँ पर उसने एक लाख हिंदू कैदियों को कत्ल करवाया। पानीपत के पास निर्बल तुगलक सुल्तान महमूद ने 17 दिसम्बर को 40,000 पैदल 10,000 अश्वारोही और 120 हाथियों की एक विशाल सेना लेकर तैमूर का मुकाबिला किया लेकिन बुरी तरह पराजित हुआ। भयभीत होकर तुगलक सुल्तान महमूद गुजरात की तरफ चला गया और उसका वजीर मल्लू इकबाल भागकर बारन में जा छिपा।

दूसरे दिन तैमूर ने दिल्ली नगर में प्रवेश किया। पाँच दिनों तक सारा शहर बुरी तरह से लूटा खसोटा गया और उसके अभागे निवासियों को बेभाव कत्ल किया गया या बंदी बनाया गया। पीढ़ियों से संचित दिल्ली की दौलत तैमूर लूटकर समरकंद ले गया। अनेक बंदी बनाई गई औरतों और शिल्पियों को भी तैमूर अपने साथ ले गया। भारत से जो कारीगर वह अपने साथ ले गया उनसे उसने समरकंद में अनेक इमारतें बनवाईं, जिनमें सबसे प्रसिद्ध उसकी स्वनियोजित मस्जिद है।

तैमूर भारत में केवल लूट के लिये आया था। उसकी इच्छा भारत में रहकर राज्य करने की नहीं थी। अत: 15 दिन दिल्ली में रुकने के बाद वह स्वदेश के लिये रवाना हो गया। 9 जनवरी 1399 को उसने मेरठ पर चढ़ाई की और नगर को लूटा तथा निवासियों को कत्ल किया। इसके बाद वह हरिद्वार पहुँचा जहाँ उसने आस पास की हिंदुओं की दो सेनाओं को हराया। शिवालिक पहाड़ियों से होकर वह 16 जनवरी को कांगड़ा पहुँचा और उसपर कब्जा किया। इसके बाद उसने जम्मू पर चढ़ाई की। इन स्थानों को भी लूटा खसोटा गया और वहाँ के असंख्य निवासियों को कत्ल किया गया। इस प्रकार भारत के जीवन, धन और संपत्ति को अपार क्षति पहुँचाने के बाद 19 मार्च 1399 को पुन: सिंधु नदी को पार कर वह भारतभूमि से अपने देश को लौट गया।

भारत से लौटने के बाद तैमूर से सन्‌ 1400 में अनातोलिया पर आक्रमण किया और 1402 में अंगोरा के युद्ध में ऑटोमन तुर्कों को बुरी तरह से पराजित किया। सन्‌ 1405 में जब वह चीन की विजय की योजना बनाने में लगा था, उसकी मृत्यु हो गई।

क्रूर मुसलमान

तैमूर लंग दूसरा चंगेज़ ख़ाँ बनना चाहता था। वह चंगेज़ का वंशज होने का दावा करता था, लेकिन असल में वह तुर्क था। वह लंगड़ा था, इसलिए 'तैमूर लंग' (लंग = लंगड़ा) कहलाता था। वह अपने बाप के बाद सन 1369 ई. में समरकंद का शासक बना। इसके बाद ही उसने अपनी विजय और क्रूरता की यात्रा शुरू की। वह बहुत बड़ा सिपहसलार था, लेकिन पूरा वहशी भी था। मध्य एशिया के मंगोल लोग इस बीच में मुसलमान हो चुके थे और तैमूर खुद भी मुसलमान था। लेकिन मुसलमानों से पाला पड़ने पर वह उनके साथ जरा भी मुलायमित नहीं बरतता था। जहाँ-जहाँ वह पहुँचा, उसने तबाही और बला और पूरी मुसीबत फैला दी। नर-मुंडों के बड़े-बड़े ढेर लगवाने में उसे ख़ास मजा आता था। पूर्व में दिल्ली से लगाकर पश्चिम में एशिया-कोचक तक उसने लाखों आदमी क़त्ल कर डाले और उनके कटे सिरों को स्तूपों की शक्ल में जमवाया।

चंगेज़ ख़ाँ और उनके मंगोल भी बेरहम और बरवादी करने वाले थे, पर वे अपने ज़माने के दूसरे लोगों की तरह ही थे। लेकिन तैमूर उनसे बहुत ही बुरा था। अनियंत्रित और पैशाचिक क्रूरता में उसका मुक़ाबला करने वाला कोई दूसरा नहीं था। कहते हैं, एक जगह उसने दो हज़ार जिन्दा आदमियों की एक मीनार बनवाई और उन्हें ईंट और गारे में चुनवा दिया।

भारत पर आक्रमण

१३९९ ई. में तैमूर का भारत पर भयानक आक्रमण हुआ। अपनी जीवनी 'तुजुके तैमुरी' में वह कुरान की इस आयत से ही प्रारंभ करता है 'ऐ पैगम्बर काफिरों और विश्वास न लाने वालों से युद्ध करो और उन पर सखती बरतो।' वह आगे भारत पर अपने आक्रमण का कारण बताते हुए लिखता है-

'हिन्दुस्तान पर आक्रमण करने का मेरा ध्येय काफिर हिन्दुओं के विरुद्ध धार्मिक युद्ध करना है (जिससे) इस्लाम की सेना को भी हिन्दुओं की दौलत और मूल्यवान वस्तुएँ मिल जायें।

काश्मीर की सीमा पर कटोर नामी दुर्ग पर आक्रमण हुआ। उसने तमाम पुरुषों को कत्ल और स्त्रियों और बच्चों को कैद करने का आदेश दिया। फिर उन हठी काफिरों के सिरों के मीनार खड़े करने के आदेश दिये। फिर भटनेर के दुर्ग पर घेरा डाला गया। वहाँ के राजपूतों ने कुछ युद्ध के बाद हार मान ली और उन्हें क्षमादान दे दिया गया। किन्तु उनके असवाधान होते ही उन पर आक्रमण कर दिया गया। तैमूर अपनी जीवनी में लिखता है कि 'थोड़े ही समय में दुर्ग के तमाम लोग तलवार के घाट उतार दिये गये। घंटे भर में १०,००० (दस हजार) लोगों के सिर काटे गये। इस्लाम की तलवार ने काफिरों के रक्त में स्नान किया। उनके सरोसामान, खजाने और अनाज को भी, जो वर्षों से दुर्ग में इकट्‌ठा किया गया था, मेरे सिपाहियों ने लूट लिया। मकानों में आग लगा कर राख कर दिया। इमारतों और दुर्ग को भूमिसात कर दिया गया।

दूसरा नगर सरसुती था जिस पर आक्रमण हुआ। 'सभी काफिर हिन्दू कत्ल कर दिये गये। उनके स्त्री और बच्चे और संपत्ति हमारी हो गई। तैमूर ने जब जाटों के प्रदेश में प्रवेश किया। उसने अपनी सेना को आदेश दिया कि 'जो भी मिल जाये, कत्ल कर दिया जाये।' और फिर सेना के सामने जो भी ग्राम या नगर आया, उसे लूटा गया। पुरुषों को कत्ल कर दिया गया और कुछ लोगों, स्त्रियों और बच्चों को बंदी बना लिया गया।'

दिल्ली के पास लोनी हिन्दू नगर था। किन्तु कुछ मुसलमान भी बंदियों में थे। तैमूर ने आदेश दिया कि मुसलमानों को छोड़कर शेष सभी हिन्दू बंदी इस्लाम की तलवार के घाट उतार दिये जायें। इस समय तक उसके पास हिन्दू बंदियों की संखया एक लाख हो गयी थी। जब यमुना पार कर दिल्ली पर आक्रमण की तैयारी हो रही थी उसके साथ के अमीरों ने उससे कहा कि इन बंदियों को कैम्प में नहीं छोड़ा जा सकता और इन इस्लाम के शत्रुओं को स्वतंत्र कर देना भी युद्ध के नियमों के विरुद्ध होगा। तैमूर लिखता है-

'इसलिये उन लोगों को सिवाय तलवार का भोजन बनाने के कोई मार्ग नहीं था। मैंने कैम्प में घोषणा करवा दी कि तमाम बंदी कत्ल कर दिये जायें और इस आदेश के पालन में जो भी लापरवाही करे उसे भी कत्ल कर दिया जाये और उसकी सम्पत्ति सूचना देने वाले को दे दी जाये। जब इस्लाम के गाजियों (काफिरों का कत्ल करने वालों को आदर सूचक नाम) को यह आदेश मिला तो उन्होंने तलवारें सूत लीं और अपने बंदियों को कत्ल कर दिया। उस दिन एक लाख अपवित्र मूर्ति-पूजककाफिर कत्ल कर दिये गये-

तुगलक बादशाह को हराकर तैमूर ने दिल्ली में प्रवेश किया। उसे पता लगा कि आस-पास के देहातों से भागकर हिन्दुओं ने बड़ी संख्या में अपने स्त्री-बच्चों तथा मूल्यवान वस्तुओं के साथ दिल्ली में शरण ली हुई हैं।

उसने अपने सिपाहियों को इन हिन्दुओं को उनकी संपत्ति समेत पकड़ लेने के आदेश दिये।

'तुजुके तैमुरी' बताती है कि 'उनमें से बहुत से हिन्दुओं ने तलवारें निकाल लीं और विरोध किया। जहाँपनाह और सीरी से पुरानी देहली तक विद्रोहाग्नि की लपटें फैल गई। हिन्दुओं ने अपने घरों में लगा दी और अपनी स्त्रियों और बच्चों को उसमें भस्म कर युद्ध करने के लिए निकल पड़े और मारे गये। उस पूरे दिन वृहस्पतिवार को और अगले दिन शुक्रवार की सुबह मेरी तमाम सेना शहर में घुस गई और सिवाय कत्ल करने, लूटने और बंदी बनाने के उसे कुछ और नहीं सूझा। द्गानिवार १७ तारीख भी इसी प्रकार व्यतीत हुई और लूट इतनी हुई कि हर सिपाही के भाग में ८० से १०० बंदी आये जिनमें आदमी और बच्चे सभी थे। फौज में ऐसा कोई व्यक्ति न था जिसको २० से कम गुलाम मिले हों। लूट का दूसरा सामान भी अतुलित था-लाल, हीरे, मोती, दूसरे जवाहरात, अद्गारफियाँ, सोने, चाँदी के सिक्के, सोने, चाँदी के बर्तन, रेशम और जरीदार कपड़े। स्त्रियों के सोने चाँदी के गहनों की कोई गिनती संभव नहीं थी। सैयदों, उलेमाओं और दूसरे मुसलमानों के घरों को छोड़कर शेष सभी नगर ध्वस्त कर दिया गया।'

बाहरी कड़ियाँ