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'''कामंदकीय नीतिसार''' [[राजनीति|राज्यशास्त्र]] का एक [[संस्कृत]] ग्रंथ है। इसके रचयिता का नाम 'कामंदकि' अथवा 'कामंदक' है जिससे यह साधारणत: 'कामन्दकीय' नाम से प्रसिद्ध है। वास्तव में यह ग्रंथ [[कौटिल्य]] के [[अर्थशास्त्र ग्रन्थ|अर्थशास्त्र]] के सारभूत सिद्धांतों (मुख्यत: राजनीति विद्या) का प्रतिपादन करता है। यह श्लोकों में रूप में है। इसकी भाषा अत्यन्त सरल है।
'''कामंदकीय नीतिसार''' [[राजनीति|राज्यशास्त्र]] का एक [[संस्कृत]] ग्रंथ है। इसके रचयिता का नाम 'कामंदकि' अथवा 'कामंदक' है जिससे यह साधारणत: 'कामन्दकीय' नाम से प्रसिद्ध है। वास्तव में यह ग्रंथ [[कौटिल्य]] के [[अर्थशास्त्र ग्रन्थ|अर्थशास्त्र]] के सारभूत सिद्धांतों (मुख्यत: राजनीति विद्या) का प्रतिपादन करता है। यह श्लोकों में रूप में है। इसकी भाषा अत्यन्त सरल है।


== रचनाकाल ==
== रचनाकाल ==

13:51, 19 सितंबर 2014 का अवतरण

कामंदकीय नीतिसार राज्यशास्त्र का एक संस्कृत ग्रंथ है। इसके रचयिता का नाम 'कामंदकि' अथवा 'कामंदक' है जिससे यह साधारणत: 'कामन्दकीय' नाम से प्रसिद्ध है। वास्तव में यह ग्रंथ कौटिल्य के अर्थशास्त्र के सारभूत सिद्धांतों (मुख्यत: राजनीति विद्या) का प्रतिपादन करता है। यह श्लोकों में रूप में है। इसकी भाषा अत्यन्त सरल है।

रचनाकाल

इसके रचनाकाल के विषय में कोई स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं है। विंटरनित्स के मतानुसार किसी कश्मीरी कवि ने इसकी रचना ईस्वी ७००-७५० के बीच की। डॉ॰ राजेन्द्रलाल मित्र का अनुमान है कि ईसा के जन्मकाल के लगभग बाली द्वीप जानेवाले आर्य इसे भारत से बाहर ले गए जहाँ इसका 'कवि भाषा' में अनुवाद हुआ। बाद में यह ग्रंथ जावा द्वीप में भी पहुँचा। छठी शताब्दी के कवि दण्डी ने अपने 'दशकुमारचरित' के प्रथम उच्छ्वास के अंत में 'कामंदकीय' का उल्लेख किया है।

इसके कर्ता कामंदकि या कामंदक कब और कहाँ हुए, इसका भी कोई पक्का प्रमाण नहीं मिलता। इतना अवश्य ज्ञात होता है कि ईसा की सातवीं शताब्दी के प्रसिद्ध नाटककार भवभूति से पूर्व इस ग्रंथ का रचयिता हुआ था, क्योंकि भवभूति ने अपने नाटक 'मालतीमाधव' में नीतिप्रयोगनिपुणा एक परिव्राजिका का 'कामंदकी' नाम दिया है। संभवत: नीतिसारकर्ता 'कामंदक' नाम से रूढ़ हो गया है तथा नीतिसारनिष्णात व्यक्ति के लिए प्रयुक्त होने लगा था।

कामंदक की प्राचीनता का एक और प्रमाण भी दृष्टिगोचर होता है। कामंदकीय नीतिसार की मुख्यत: पाँच टीकाएँ उपलब्ध होती हैं : उपाध्याय निरक्षेप, आत्मारामकृत, जयरामकृत, वरदराजकृत तथा शंकराचार्यकृत।

संरचना

कामन्दकीय नीतिसार में कुल मिलाकर २० सर्ग (अध्याय) तथा ३६ प्रकरण हैं।

  • प्रथम सर्ग : राजा के इंन्द्रियनियंत्रण सम्बन्धी विचार
  • द्वितीय सर्ग : शास्त्रविभाग, वर्णाश्रमव्यवस्था व दंडमाहात्म्य
  • तृतीय सर्ग : राजा के सदाचार के नियम
  • चौथा सर्ग : राज्य के सात अंगों का विवेचन
  • पाँचवाँ सर्ग : राजा और राजसेवकों के परस्पर सम्बन्ध
  • छठा सर्ग : राज्य द्वारा दुष्टों का नियन्त्रण, धर्म व अधर्म की व्याख्या
  • सातवाँ सर्ग : राजपुत्र व अन्य के पास संकट से रक्षा करने की दक्षता का वर्णन
  • आठवें से ग्यारहवाँ सर्ग : विदेश नीति; शत्रुराज्य, मित्रराज्य और उदासीन राज्य ; संधि, विग्रह, युद्ध  ; साम, दान, दंड व भेद - चार उपायों का अवलंब कब और कैसे करना चाहिए
  • बारहवाँ सर्ग : नीति के विविध प्रकार
  • तेरहवाँ सर्ग : दूत की योजना ; गुप्तचरों के विविध प्रकार ; ; राजा के अनेक कर्तव्य
  • चौदहवाँ सर्ग : उत्साह और आरम्भ (प्रयत्न) की प्रशंसा ; राज्य के विविध अवयव
  • पन्द्रहवाँ सर्ग : सात प्रकार के राजदोष
  • सोलहवाँ सर्ग : दूसरे देशों पर आक्रमण और आक्रमणपद्धति
  • सत्रहवाँ सर्ग : शत्रु के राज्य में सैन्यसंचालन करना और शिबिर निर्माण ; निमित्तज्ञानप्रकरणम्
  • अट्ठारहवाँ सर्ग : शत्रु के साथ साम, दान, इत्यादि चार या सात उपायों का प्रयोग करने की विधि
  • उन्नीसवाँ सर्ग : सेना के बलाबल का विचार ; सेनापति के गुण
  • बीसवाँ सर्ग : गजदल, अश्वदल, रथदल व पैदल की रचना व नियुक्ति

बाहरी कड़ियाँ