"नक्षत्र": अवतरणों में अंतर
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अभिजित् |
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पुराणों व ज्योतिष शास्त्र में अभिजित् नक्षत्र के देवता के रूप में ब्रह्मा का नाम आता है तथा अभिजित् नक्षत्र के मन्त्र के रूप में ब्रह्म जज्ञानं इत्यादि मन्त्र का उल्लेख आया है। तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.१.५.६ में भी अभिजित् नक्षत्र द्वारा ब्रह्मलोक की अभिजय करने का कथन है। ब्रह्मलोक की जय किस प्रकार की जा सकती है, इसकी व्याख्या पुराणों में शिव द्वारा अभिजित् काल में त्रिपुर दाह के माध्यम से की गई है। त्रिपुर के तीन पुरों की रचना मय दानव द्वारा की गई है और अयस्मय, रजतमय और सुवर्णमय पुरों में तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली आदि असुरों के रहने का वर्णन आता है। तारक को समझने के संदर्भ में रामोत्तरतापिन्युपनिषद २ में वर्णन आता है कि ओंकार के अ, उ, म, अर्धमात्रा, बिन्दु व नाद ही तारक ब्रह्म हैं, यह मृत्यु से, ब्रह्महत्या से, संसार से पार तारते हैं। विद्युन्माली असुर के संदर्भ में बृहदारण्यक उपनिषद २.१.४ तथा २.५.८ में विभिन्न ब्रह्मों का वर्णन किया गया है जिसमें कहा गया है कि जब विद्युत की स्थिति ऐसी हो जाए कि वह सब भूतों में मधु उत्पन्न करने लगे तो विद्युत में स्थित तेजोमय अमृतमय पुरुष भी ब्रह्म हो जाता है। इसी प्रकार पृथिवी, आपः, अग्नि, वायु, आदित्य, दिशाएं, चन्द्रमा, स्तनयित्नु, आकाश, धर्म, सत्या आदि में स्थित पुरुष भी ब्रह्म हो सकते हैं। यह दधीचि द्वारा अश्विनौ को प्रदत्त मधु विद्या है। यदि ब्रह्मलोक प्राप्ति की कामना हो तो पृथिवी, अग्नि, आपः आदि में स्थित पुरुषों को दधीचि ऋषि द्वारा वर्णित मधु विद्या के द्वारा ब्रह्म का रूप देना होगा( तुलनीय : पुराणों में अभिजित् नक्षत्र के लिए मधु आदि दान का उल्लेख)। |
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ब्राह्मण ग्रन्थों में पृथिवी, अग्नि, दिशाओं, वायु आदि पर अभिजय प्राप्त करने के वर्णन आते हैं जिन्हें उपरोक्त मधु विद्या के संदर्भ में समझना होगा। पुराणों में सार्वत्रिक रूप से अभिजित् काल में त्रिपुर के तीन पुरों के एक होने का उल्लेख आता है। शिव द्वारा सर्व ओंकारमय रथ द्वारा त्रिपुर की अभिजय से पूर्व त्रिपुर के तीन पुरों में असुरों का निवास था। शिव द्वारा जीतने के पश्चात् यह देवों का निवास स्थान हो गया है। अथर्ववेद १०.२.३१ में वर्णन आता है कि देवों का पुर अष्टचक्रों व नौ द्वारों वाली अयोध्या है, वही ब्रह्मा की अपराजिता पुरी है। अतः यह कहा जा सकता है कि अभिजित् होने के पश्चात् त्रिपुर का रूपान्तरण अयोध्या में हो जाता है। |
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ब्राह्मण ग्रन्थों में सार्वत्रिक रूप से पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्यु लोकों की अभिजय के उल्लेख आते हैं। इस संदर्भ में तैत्तिरीय ब्राह्मण १.१.४.६ का कथन है कि सम्यक् अभिजय तभी प्राप्त हो सकती है जब पहले पृथिवीलोक में स्थित गार्हपत्य अग्नि की प्रतिष्ठा की जाए, उसके पश्चात् अन्तरिक्ष में स्थित अन्वाहार्यपचन अग्नि की और उसके पश्चात् द्युलोक में स्थित आहवनीय अग्नि की। यदि इसके विपरीत क्रम से प्रतिष्ठा की गई तो अभिजय नहीं हो सकेगा। गार्हपत्य अग्नि पर अभिजय से अन्नाद्य/मधु पर अभिजय प्राप्त होती है(शतपथ ब्राह्मण ४.६.४.२)। तैत्तिरीय ब्राह्मण १.२.३.३ से संकेत मिलता है कि असुरों के शिल्पी मय द्वारा निर्मित पुरों की अभिजय का एक विकल्प देवशिल्पी विश्वकर्मा होना है। शतपथ ब्राह्मण ३.७.१.१४ में यज्ञ में यूप के अग्रिम, मध्यम व अपर भागों द्वारा तीन लोकों के अभिजय की कल्पना की गई है। ऐतरेय ब्राह्मण २.१७ में तीन लोकों की अभिजय के लिए अग्नि, उषा और अश्विनौ देवताओं की प्रतिस्पर्द्धा का वर्णन किया गया है। तैत्तिरीय ब्राह्मण १.३.४.३ व ३.१२.५.६ में पशुबन्ध व अग्निष्टोम द्वारा पृथिवीलोक, उक्थ्य द्वारा अन्तरिक्ष व अतिरात्र द्वारा स्वर्गलोक की अभिजितियों का उल्लेख है। तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.११.९.१ व ३.११.१०.१ में नचिकेता अग्नि चयन कर्म द्वारा तीन लोकों की अभिजिति का वर्णन है। |
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पुराणों में अभिजित् काल में वामन के जन्म के उल्लेख के संदर्भ में तैत्तिरीय ब्राह्मण १.३.५.४ का कथन है कि विष्णु होकर इन लोकों पर अभिजय की जाती है। इसके सायण भाष्य में कहा गया है कि कर्मकाण्ड में विष्णु के क्रमण की पुनरावृत्ति रथ के द्वारा की जाती है। यह अन्वेषणीय है कि शिव द्वारा त्रिपुर का और विष्णु के रथ द्वारा त्रिलोकी की अभिजय में क्या अन्तर है? तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.९.४.८ में विष्णु क्रम के स्थान पर वाजी के क्रमों का उल्लेख है। |
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अभिजित् के संदर्भ में ब्राह्मण ग्रन्थों में कुछ अन्य रोचक उल्लेख आते हैं। शतपथ ब्राह्मण १२.२.३.१२, १३.२.४.१ तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण १.७.३.८ के अनुसार मनुष्य लोक की अभिजय ग्राम्य पशुओं द्वारा होती है जबकि देवलोक की जय आरण्यक पशुओं द्वारा। अरण्य में(तप करने पर?) क्षुधा, पिपासा आदि ही राक्षस हैं। अरण्य पर विजय पाने के लिए स्वयं को यज्ञ की वेदी, बर्हि, इध्म बनाना पडताहै। हो सकता है कि रामायण में अरण्यकाण्ड की रचना के पीछे यह एक कारण हो और वास्तविक अयोध्या की प्राप्ति इसके पश्चात् ही होती हो। |
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ब्राह्मण ग्रन्थों में दिशाओं की अभिजय के सार्वत्रिक उल्लेख आते हैं। तैत्तिरीय संहिता १.७.५.४ तथा ५.२.१.१ के अनुसार विष्णु क्रम के प्रसंग में पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्युलोक की अभिजय क्रमशः गायत्री, त्रिष्टुप् तथा जगती छन्दों द्वारा होती है जबकि दिशाओं की अनुष्टुप् छन्द द्वारा। तैत्तिरीय संहिता ५.४.९.४ के अनुसार रथ वज्र है और दिशाओं की अभिजय रथ द्वारा ही की जाती है। जैमिनीय ब्राह्मण २.३१६ के अनुसार पुरुष में ९ प्राण और दसवीं नाभि १० दिशाओं के प्रतीक हैं अर्थात् दिशाओं पर अभिजय से ९ प्राणों पर अभिजय होती है। ९ प्राणों को त्रिवृत् ब्रह्म कहा गया है। पुराणों में मध्याह्न में अभिजित् काल में सूर्य द्वारा अपने रथ से अश्वों को अलग कर देने और विश्राम करने के संदर्भ में ऐतरेय ब्राह्मण ४.१८ तथा ४.१९ में देवों द्वारा अभिजित् व विश्वजित् स्तोमों द्वारा सूर्य के दृढीकरण का वर्णन उपयोगी हो सकता है। |
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ब्राह्मण ग्रन्थों में अक अन्य महत्त्वपूर्ण उल्लेख अभिजित् और विश्वजित् में अन्तर के सम्बन्ध में आता है। काठक संहिता ३९.५ के अनुसार जय का क्रम यह है : स्वः जित्, पृतनाजित्, भूरिजित्, अभिजित्, विश्वजित्, सर्वजित्, सत्राजित् और धनजित्। जैमिनीय ब्राह्मण २.८ के अनुसार मनुष्य लोक अभिजित् है जबकि देवलोक विश्वजित्। जैमिनीय ब्राह्मण २.४३० के अनुसार अभिजित् द्वारा अग्नि में स्थान/वास प्राप्त होता है जबकि विश्वजित् द्वारा इन्द्र में। तैत्तिरीय ब्राह्मण १.२.३.३ के अनुसार इन्द्र द्वारा वृत्र के वध आदि से मनुष्य लोक आदि की जय तो हो जाती है, लेकिन देवलोक अनभिजित् ही रहता है। देवलोक की जय इन्द्र द्वारा विश्वकर्मा बनने पर होती है। शतपथ ब्राह्मण १२.१.४.२ में गवामयन यज्ञ के विभिन्न अङ्गों में से दक्षिणबाहु को अभिजित् और उत्तरबाहु को विश्वजित् कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण १२.२.३.२ में अभिप्लव, पृष्ठ्य, अभिजित् आदि यज्ञों का क्रम भी द्रष्टव्य है। शतपथ ब्राह्मण १२.२.४.१५ में दक्षिण व उत्तर कर्णों को अभिजित् व विश्वजित् कहा गया है। |
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पुराणों में आनकदुन्दुभि-पुत्र अभिजित् के संदर्भ में अथर्ववेद ६.१२६.३ में उल्लेख आता है कि जब अभिजिति प्राप्त हो तो केतु के रूप में दुन्दुभि बजे। अथर्ववेद १२.३.१५ में वनस्पति/दुन्दुभि के वादन द्वारा सर्व लोकों के अभिजय की कामना की गई है। यह दुन्दुभि नाद का प्रतीक हो सकती है। वसुदेव-पुत्र कृष्ण के अभिजित् नक्षत्र में जन्म के संदर्भ में हमें चन्द्रमा और अभिजित् के सम्बन्धों पर विचार करना होगा। जैमिनीय ब्राह्मण २.९८ में सूर्य व चन्द्रमा द्वारा क्रमशः दिन और रात्री की अभिजय का वर्णन आता है। अह सुवर्ण है, रात्रि रजत है। जैमिनीय ब्राह्मण १.११ के अनुसार अग्निहोत्र से उन सब लोकों की अभिजय होती है जो आदित्य से परे हैं। तैत्तिरीय ब्राह्मण १.४.१.४ के अनुसार दारुमय/काष्ठमय पात्रों द्वारा देवलोक पर अभिजय होती है जबकि मृन्मय पात्रों द्वारा मनुष्यलोक की(कृष्ण का जन्म कंस के कारागार में होता है। कंस यज्ञ में पान पात्र को कहते हैं जैसे सुराकंस)। तैत्तिरीय ब्राह्मण १.३.३.७ में सोम ग्रह से देवलोक और सुराग्रह से मनुष्य लोक की अभिजय करने का उल्लेख है। यजमान सोम का रूप है, अन्य सुरा का। सोम पुरुष है जबकि सुरा स्त्री। सोम ग्रह पूर्व में है, सुरा ग्रह पश्चिम में। तैत्तिरीय संहिता ३.५.२.४ आदि में अभिजित् को ग्रावा(सोम अभिषवण का पत्थर) से युक्त कहा गया है। |
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आचार्य शशांक शेखर शुल्ब |
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== राशि == |
== राशि == |
02:06, 17 मार्च 2014 का अवतरण
आकाश में तारा-समूह को नक्षत्र कहते हैं। साधारणतः यह चन्द्रमा के पथ से जुडे हैं, पर वास्तव में किसी भी तारा-समूह को नक्षत्र कहना उचित है। ऋग्वेद में एक स्थान सूर्य को भी नक्षत्र कहा गया है। अन्य नक्षत्रों में सप्तर्षि और अगस्त्य हैं।
नक्षत्र सूची अथर्ववेद, तैत्तिरीय संहिता, शतपथ ब्राह्मण और लगध के वेदाङ्ग ज्योतिष में मिलती है।
परिचय
तारे हमारे सौर जगत् के भीतर नहीं है । ये सूर्य से बहुत दूर हैं और सूर्य की परिक्रमा न करने के कारण स्थिर जान पड़ते हैं—अर्थात् एक तारा दूसरे तारे से जिस ओर और जितनी दूर आज देखा जायगा उसी ओर और उतनी ही दूर पर सदा देखा जायगा । इस प्रकार ऐसे दो चार पास-पास रहनेवाले तारों की परस्पर स्थिति का ध्यान एक बार कर लेने से हम उन सबको दूसरी बार देखने से पहचान सकते हैं । पहचान के लिये यदि हम उन सब तारों के मिलने से जो आकार बने उसे निर्दिष्ट करके समूचे तारकपुंज का कोई नाम रख लें तो और भी सुभीता होगा । नक्षत्रों का विभाग इसीलिये और इसी प्रकार किया गया है।
चंद्रमा २७-२८ दिनों में पृथ्वी के चारों ओर घूम आता है । खगोल में यह भ्रमणपथ इन्हीं तारों के बीच से होकर गया हुआ जान पड़ता है । इसी पथ में पड़नेवाले तारों के अलग अलग दल बाँधकर एक एक तारकपुंज का नाम नक्षत्र रखा गया है । इस रीति से सारा पथ इन २७ नक्षत्रों में विभक्त होकर 'नक्षत्र चक्र' कहलाता है । नीचे तारों की संख्या और आकृति सहित २७ नक्षत्रों के नाम दिए जाते हैं—
- नक्षत्र -- तारासंख्या -- आकृति और पहचान
- अश्विनी -- ३ -- घोड़ा
- भरणी -- ३ -- त्रिकोण
- कृत्तिका -- ६ -- अग्निशिखा
- रोहिणी -- ५ -- गाड़ी
- मृगशिरा -- ३ -- हरिणमस्तक वा विडालपद
- आर्द्रा -- १ -- उज्वल
- पुनर्वसु ५ या ६ धनुष या धर
- पुष्य -- १ वा ३ -- माणिक्य वर्ण
- अश्लेषा -- ५ -- कुत्ते की पूँछ वा कुलावचक्र
- मघा -- ५ -- हल
- पूर्वाफाल्गुनी -- २ -- खट्वाकार X उत्तर दक्षिण
- उत्तराफाल्गुनी -- २ -- शय्याकारX उत्तर दक्षिण
- हस्त -- ५ -- हाथ का पंजा
- चित्रा -- १ -- मुक्तावत् उज्वल
- स्वाती -- १ -- कुंकुं वर्ण
- विशाखा -- ५ व ६ -- तोरण या माला
- अनुराधा -- ७ -- सूप या जलधारा
- ज्येष्ठा -- ३ -- सर्प या कुंडल
- मुल -- ९ या ११ -- शंख या सिंह की पूँछ
- पुर्वाषाढा -- ४ -- सूप या हाथी का दाँत
- उत्तरषाढा -- ४ -- सूप
- श्रवण -- ३ -- बाण या त्रिशूल
- धनिष्ठा -- ५ -- मर्दल बाजा
- शतभिषा -- १०० -- मंडलाकार
- पूर्वभाद्रपद -- २ -- भारवत् या घंटाकार
- उत्तरभाद्रपद -- २ -- दो मस्तक
- रेवती -- ३२ -- मछली या मृदंग
इन २७ नक्षत्रों के अतिरिक्त 'अभिजित्' नाम का एक और नक्षत्र पहले माना जाता था पर वह पूर्वाषाढ़ा के भीतर ही आ जाता है, इससे अब २७ ही नक्षत्र गिने जाते हैं । इन्हीं नक्षत्रों के नाम पर महीनों के नाम रखे गए हैं । महीने की पूर्णिमा को चंद्रमा जिस नक्षत्र पर रहेगा उस महीने का नाम उसी नक्षत्र के अनुसार होगा, जैसे कार्तिक की पूर्णिमा को चंद्रमा कृत्तिका वा रोहिणी नक्षत्र पर रहेगा, अग्रहायण की पूर्णिमा को मृगशिरा वा आर्दा पर; इसी प्रकार और समझिए।
# | नाम | देवता | पाश्चात्य नाम | मानचित्र | स्थिति |
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1 | अश्विनी (Ashvinī) | केतु | β and γ Arietis | 00AR00-13AR20 | |
2 | भरणी (Bharanī) | शुक्र (Venus) | 35, 39, and 41 Arietis | 13AR20-26AR40 | |
3 | कृत्तिका (Krittikā) | रवि (Sun) | Pleiades | 26AR40-10TA00 | |
4 | रोहिणी (Rohinī) | चन्द्र (Moon) | Aldebaran | 10TA00-23TA20 | |
5 | मॄगशिरा (Mrigashīrsha) | मङ्गल (Mars) | λ, φ Orionis | 23TA40-06GE40 | |
6 | आद्रा (Ārdrā) | राहु | Betelgeuse | 06GE40-20GE00 | |
7 | पुनर्वसु (Punarvasu) | बृहस्पति(Jupiter) | Castor and Pollux | 20GE00-03CA20 | |
8 | पुष्य (Pushya) | शनि (Saturn) | γ, δ and θ Cancri | 03CA20-16CA40 | |
9 | अश्लेशा (Āshleshā) | बुध (Mercury) | δ, ε, η, ρ, and σ Hydrae | 16CA40-30CA500 | |
10 | मघा (Maghā) | केतु | Regulus | 00LE00-13LE20 | |
11 | पूर्वाफाल्गुनी (Pūrva Phalgunī) | शुक्र (Venus) | δ and θ Leonis | 13LE20-26LE40 | |
12 | उत्तराफाल्गुनी (Uttara Phalgunī) | रवि | Denebola | 26LE40-10VI00 | |
13 | हस्त (Hasta) | चन्द्र | α, β, γ, δ and ε Corvi | 10VI00-23VI20 | |
14 | चित्रा (Chitrā) | चित्रगुप्त | Spica | 23VI20-06LI40 | |
15 | स्वाती (Svātī) | राहु | Arcturus | 06LI40-20LI00 | |
16 | विशाखा (Vishākhā) | बृहस्पति | α, β, γ and ι Librae | 20LI00-03SC20 | |
17 | अनुराधा (Anurādhā) | शनि | β, δ and π Scorpionis | 03SC20-16SC40 | |
18 | ज्येष्ठा (Jyeshtha) | बुध | α, σ, and τ Scorpionis | 16SC40-30SC00 | |
19 | मूल (Mūla) | केतु | ε, ζ, η, θ, ι, κ, λ, μ and ν Scorpionis | 00SG00-13SG20 | |
20 | पूर्वाषाढा (Pūrva Ashādhā) | शुक्र | δ and ε Sagittarii | 13SG20-26SG40 | |
21 | उत्तराषाढा (Uttara Ashādhā) | रवि | ζ and σ Sagittarii | 26SG40-10CP00 | |
22 | श्रवण (Shravana) | चन्द्र | α, β and γ Aquilae | 10CP00-23CP20 | |
23 | श्रविष्ठा (Shravishthā) or धनिष्ठा | मङ्गल | α to δ Delphinus | 23CP20-06AQ40 | |
2 | 4शतभिषा (Shatabhishaj) | राहु | γ Aquarii | 06AQ40-20AQ00 | |
25 | पूर्वभाद्र्पद (Pūrva Bhādrapadā) | बृहस्पति | α and β Pegasi | 20AQ00-03PI20 | |
26 | उत्तरभाद्रपदा (Uttara Bhādrapadā) | शनि | γ Pegasi and α Andromedae | 03PI20-16PI40 | |
27 | रेवती (Revatī) | बुध | ζ Piscium | 16PI40-30PI00 |
28वें नक्षत्र का नाम
28वें नक्षत्र का नाम अभिजित (Abhijit)(α, ε and ζ Lyrae - Vega - उत्तराषाढ़ा और श्रवण मध्ये) अभिजित्
पुराणों व ज्योतिष शास्त्र में अभिजित् नक्षत्र के देवता के रूप में ब्रह्मा का नाम आता है तथा अभिजित् नक्षत्र के मन्त्र के रूप में ब्रह्म जज्ञानं इत्यादि मन्त्र का उल्लेख आया है। तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.१.५.६ में भी अभिजित् नक्षत्र द्वारा ब्रह्मलोक की अभिजय करने का कथन है। ब्रह्मलोक की जय किस प्रकार की जा सकती है, इसकी व्याख्या पुराणों में शिव द्वारा अभिजित् काल में त्रिपुर दाह के माध्यम से की गई है। त्रिपुर के तीन पुरों की रचना मय दानव द्वारा की गई है और अयस्मय, रजतमय और सुवर्णमय पुरों में तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली आदि असुरों के रहने का वर्णन आता है। तारक को समझने के संदर्भ में रामोत्तरतापिन्युपनिषद २ में वर्णन आता है कि ओंकार के अ, उ, म, अर्धमात्रा, बिन्दु व नाद ही तारक ब्रह्म हैं, यह मृत्यु से, ब्रह्महत्या से, संसार से पार तारते हैं। विद्युन्माली असुर के संदर्भ में बृहदारण्यक उपनिषद २.१.४ तथा २.५.८ में विभिन्न ब्रह्मों का वर्णन किया गया है जिसमें कहा गया है कि जब विद्युत की स्थिति ऐसी हो जाए कि वह सब भूतों में मधु उत्पन्न करने लगे तो विद्युत में स्थित तेजोमय अमृतमय पुरुष भी ब्रह्म हो जाता है। इसी प्रकार पृथिवी, आपः, अग्नि, वायु, आदित्य, दिशाएं, चन्द्रमा, स्तनयित्नु, आकाश, धर्म, सत्या आदि में स्थित पुरुष भी ब्रह्म हो सकते हैं। यह दधीचि द्वारा अश्विनौ को प्रदत्त मधु विद्या है। यदि ब्रह्मलोक प्राप्ति की कामना हो तो पृथिवी, अग्नि, आपः आदि में स्थित पुरुषों को दधीचि ऋषि द्वारा वर्णित मधु विद्या के द्वारा ब्रह्म का रूप देना होगा( तुलनीय : पुराणों में अभिजित् नक्षत्र के लिए मधु आदि दान का उल्लेख)।
ब्राह्मण ग्रन्थों में पृथिवी, अग्नि, दिशाओं, वायु आदि पर अभिजय प्राप्त करने के वर्णन आते हैं जिन्हें उपरोक्त मधु विद्या के संदर्भ में समझना होगा। पुराणों में सार्वत्रिक रूप से अभिजित् काल में त्रिपुर के तीन पुरों के एक होने का उल्लेख आता है। शिव द्वारा सर्व ओंकारमय रथ द्वारा त्रिपुर की अभिजय से पूर्व त्रिपुर के तीन पुरों में असुरों का निवास था। शिव द्वारा जीतने के पश्चात् यह देवों का निवास स्थान हो गया है। अथर्ववेद १०.२.३१ में वर्णन आता है कि देवों का पुर अष्टचक्रों व नौ द्वारों वाली अयोध्या है, वही ब्रह्मा की अपराजिता पुरी है। अतः यह कहा जा सकता है कि अभिजित् होने के पश्चात् त्रिपुर का रूपान्तरण अयोध्या में हो जाता है।
ब्राह्मण ग्रन्थों में सार्वत्रिक रूप से पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्यु लोकों की अभिजय के उल्लेख आते हैं। इस संदर्भ में तैत्तिरीय ब्राह्मण १.१.४.६ का कथन है कि सम्यक् अभिजय तभी प्राप्त हो सकती है जब पहले पृथिवीलोक में स्थित गार्हपत्य अग्नि की प्रतिष्ठा की जाए, उसके पश्चात् अन्तरिक्ष में स्थित अन्वाहार्यपचन अग्नि की और उसके पश्चात् द्युलोक में स्थित आहवनीय अग्नि की। यदि इसके विपरीत क्रम से प्रतिष्ठा की गई तो अभिजय नहीं हो सकेगा। गार्हपत्य अग्नि पर अभिजय से अन्नाद्य/मधु पर अभिजय प्राप्त होती है(शतपथ ब्राह्मण ४.६.४.२)। तैत्तिरीय ब्राह्मण १.२.३.३ से संकेत मिलता है कि असुरों के शिल्पी मय द्वारा निर्मित पुरों की अभिजय का एक विकल्प देवशिल्पी विश्वकर्मा होना है। शतपथ ब्राह्मण ३.७.१.१४ में यज्ञ में यूप के अग्रिम, मध्यम व अपर भागों द्वारा तीन लोकों के अभिजय की कल्पना की गई है। ऐतरेय ब्राह्मण २.१७ में तीन लोकों की अभिजय के लिए अग्नि, उषा और अश्विनौ देवताओं की प्रतिस्पर्द्धा का वर्णन किया गया है। तैत्तिरीय ब्राह्मण १.३.४.३ व ३.१२.५.६ में पशुबन्ध व अग्निष्टोम द्वारा पृथिवीलोक, उक्थ्य द्वारा अन्तरिक्ष व अतिरात्र द्वारा स्वर्गलोक की अभिजितियों का उल्लेख है। तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.११.९.१ व ३.११.१०.१ में नचिकेता अग्नि चयन कर्म द्वारा तीन लोकों की अभिजिति का वर्णन है।
पुराणों में अभिजित् काल में वामन के जन्म के उल्लेख के संदर्भ में तैत्तिरीय ब्राह्मण १.३.५.४ का कथन है कि विष्णु होकर इन लोकों पर अभिजय की जाती है। इसके सायण भाष्य में कहा गया है कि कर्मकाण्ड में विष्णु के क्रमण की पुनरावृत्ति रथ के द्वारा की जाती है। यह अन्वेषणीय है कि शिव द्वारा त्रिपुर का और विष्णु के रथ द्वारा त्रिलोकी की अभिजय में क्या अन्तर है? तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.९.४.८ में विष्णु क्रम के स्थान पर वाजी के क्रमों का उल्लेख है।
अभिजित् के संदर्भ में ब्राह्मण ग्रन्थों में कुछ अन्य रोचक उल्लेख आते हैं। शतपथ ब्राह्मण १२.२.३.१२, १३.२.४.१ तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण १.७.३.८ के अनुसार मनुष्य लोक की अभिजय ग्राम्य पशुओं द्वारा होती है जबकि देवलोक की जय आरण्यक पशुओं द्वारा। अरण्य में(तप करने पर?) क्षुधा, पिपासा आदि ही राक्षस हैं। अरण्य पर विजय पाने के लिए स्वयं को यज्ञ की वेदी, बर्हि, इध्म बनाना पडताहै। हो सकता है कि रामायण में अरण्यकाण्ड की रचना के पीछे यह एक कारण हो और वास्तविक अयोध्या की प्राप्ति इसके पश्चात् ही होती हो।
ब्राह्मण ग्रन्थों में दिशाओं की अभिजय के सार्वत्रिक उल्लेख आते हैं। तैत्तिरीय संहिता १.७.५.४ तथा ५.२.१.१ के अनुसार विष्णु क्रम के प्रसंग में पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्युलोक की अभिजय क्रमशः गायत्री, त्रिष्टुप् तथा जगती छन्दों द्वारा होती है जबकि दिशाओं की अनुष्टुप् छन्द द्वारा। तैत्तिरीय संहिता ५.४.९.४ के अनुसार रथ वज्र है और दिशाओं की अभिजय रथ द्वारा ही की जाती है। जैमिनीय ब्राह्मण २.३१६ के अनुसार पुरुष में ९ प्राण और दसवीं नाभि १० दिशाओं के प्रतीक हैं अर्थात् दिशाओं पर अभिजय से ९ प्राणों पर अभिजय होती है। ९ प्राणों को त्रिवृत् ब्रह्म कहा गया है। पुराणों में मध्याह्न में अभिजित् काल में सूर्य द्वारा अपने रथ से अश्वों को अलग कर देने और विश्राम करने के संदर्भ में ऐतरेय ब्राह्मण ४.१८ तथा ४.१९ में देवों द्वारा अभिजित् व विश्वजित् स्तोमों द्वारा सूर्य के दृढीकरण का वर्णन उपयोगी हो सकता है।
ब्राह्मण ग्रन्थों में अक अन्य महत्त्वपूर्ण उल्लेख अभिजित् और विश्वजित् में अन्तर के सम्बन्ध में आता है। काठक संहिता ३९.५ के अनुसार जय का क्रम यह है : स्वः जित्, पृतनाजित्, भूरिजित्, अभिजित्, विश्वजित्, सर्वजित्, सत्राजित् और धनजित्। जैमिनीय ब्राह्मण २.८ के अनुसार मनुष्य लोक अभिजित् है जबकि देवलोक विश्वजित्। जैमिनीय ब्राह्मण २.४३० के अनुसार अभिजित् द्वारा अग्नि में स्थान/वास प्राप्त होता है जबकि विश्वजित् द्वारा इन्द्र में। तैत्तिरीय ब्राह्मण १.२.३.३ के अनुसार इन्द्र द्वारा वृत्र के वध आदि से मनुष्य लोक आदि की जय तो हो जाती है, लेकिन देवलोक अनभिजित् ही रहता है। देवलोक की जय इन्द्र द्वारा विश्वकर्मा बनने पर होती है। शतपथ ब्राह्मण १२.१.४.२ में गवामयन यज्ञ के विभिन्न अङ्गों में से दक्षिणबाहु को अभिजित् और उत्तरबाहु को विश्वजित् कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण १२.२.३.२ में अभिप्लव, पृष्ठ्य, अभिजित् आदि यज्ञों का क्रम भी द्रष्टव्य है। शतपथ ब्राह्मण १२.२.४.१५ में दक्षिण व उत्तर कर्णों को अभिजित् व विश्वजित् कहा गया है।
पुराणों में आनकदुन्दुभि-पुत्र अभिजित् के संदर्भ में अथर्ववेद ६.१२६.३ में उल्लेख आता है कि जब अभिजिति प्राप्त हो तो केतु के रूप में दुन्दुभि बजे। अथर्ववेद १२.३.१५ में वनस्पति/दुन्दुभि के वादन द्वारा सर्व लोकों के अभिजय की कामना की गई है। यह दुन्दुभि नाद का प्रतीक हो सकती है। वसुदेव-पुत्र कृष्ण के अभिजित् नक्षत्र में जन्म के संदर्भ में हमें चन्द्रमा और अभिजित् के सम्बन्धों पर विचार करना होगा। जैमिनीय ब्राह्मण २.९८ में सूर्य व चन्द्रमा द्वारा क्रमशः दिन और रात्री की अभिजय का वर्णन आता है। अह सुवर्ण है, रात्रि रजत है। जैमिनीय ब्राह्मण १.११ के अनुसार अग्निहोत्र से उन सब लोकों की अभिजय होती है जो आदित्य से परे हैं। तैत्तिरीय ब्राह्मण १.४.१.४ के अनुसार दारुमय/काष्ठमय पात्रों द्वारा देवलोक पर अभिजय होती है जबकि मृन्मय पात्रों द्वारा मनुष्यलोक की(कृष्ण का जन्म कंस के कारागार में होता है। कंस यज्ञ में पान पात्र को कहते हैं जैसे सुराकंस)। तैत्तिरीय ब्राह्मण १.३.३.७ में सोम ग्रह से देवलोक और सुराग्रह से मनुष्य लोक की अभिजय करने का उल्लेख है। यजमान सोम का रूप है, अन्य सुरा का। सोम पुरुष है जबकि सुरा स्त्री। सोम ग्रह पूर्व में है, सुरा ग्रह पश्चिम में। तैत्तिरीय संहिता ३.५.२.४ आदि में अभिजित् को ग्रावा(सोम अभिषवण का पत्थर) से युक्त कहा गया है।
आचार्य शशांक शेखर शुल्ब
राशि
जिस प्रकार चंद्रमा के पथ का विभाग किया गया है उसी प्रकार उस पथ का विभाग भी हुआ है जिसे सूर्य १२ महीनों में पूरा करता हुआ जान पड़ता है । इस पथ के १२ विभाग किए गए हैं जिन्हें राशि कहते हैं । जिन तारों के बीच से होकर चंद्रमा घूमता है उन्हीं पर से होकर सूर्य भी गमन करता हुआ जान पड़ता है; खचक्र एक ही है, विभाग में अंतर है । राशिचक्र के विभाग बड़े हैं जिनसें से किसी किसी के अंतर्गत तीन तीन नक्षत्र तक आ जाते हैं । कुछ विद्वानों का मत है कि यह राशि-विभाग पहले पहल मिस्रवालों ने किया जिसे यवन लोगों (यूनानियों) ने लेकर और और स्थानों में फैलाया । पश्चिमी ज्योतिषियों ने जब देखा कि बारह राशियों से सारे अंतरिक्ष के तारों और नक्षत्रों का निर्देश नहीं होता है तब उन्होंने और बहुत सी राशियों के नाम रखे । इस प्रकार राशियों की संख्या दिन पर दिन बढ़ती गई । पर भारतीय ज्योतिषियों ने खगोल के उत्तर और दक्षिण खंड में जो तारे हैं उन्हें नक्षत्रों में बाँधकर निर्दिष्ट नहीं किया ।
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