"ब्रिटिश भारत में रियासतें": अवतरणों में अंतर

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सन् १९४७ में जब हिन्दुस्तान आजाद हुआ तब यहाँ ५६५ रियासतें थीं। इनमें से अधिकांश रियासतों ने ब्रिटिश सरकार से लोकसेवा प्रदान करने एवं कर (टैक्स) वसूलने का [[ठेका या ठीका|'ठेका']] ले लिया था। कुल ५६५ में से केवल २१ रियासतों में ही [[सरकार]] थी और केवल ३ रियासतें ([[मैसूर]], [[हैदराबाद]] तथा [[कश्मीर]]) ही क्षेत्रफल में बड़ी थीं। सन् १९४७ में ब्रितानियों से मुक्ति मिलने पर इन्हें [[भारत]] या हिन्दुस्तान के विभाजन के बाद बने [[पाकिस्तान]] में मिला लिया गया।
सन् १९४७ में जब हिन्दुस्तान आजाद हुआ तब यहाँ ५६५ रियासतें थीं। इनमें से अधिकांश रियासतों ने ब्रिटिश सरकार से लोकसेवा प्रदान करने एवं कर (टैक्स) वसूलने का [[ठेका या ठीका|'ठेका']] ले लिया था। कुल ५६५ में से केवल २१ रियासतों में ही [[सरकार]] थी और केवल ३ रियासतें ([[मैसूर]], [[हैदराबाद]] तथा [[कश्मीर]]) ही क्षेत्रफल में बड़ी थीं। सन् १९४७ में ब्रितानियों से मुक्ति मिलने पर इन्हें [[भारत]] या हिन्दुस्तान के विभाजन के बाद बने [[पाकिस्तान]] में मिला लिया गया।

15 अगस्त, 1947 को ब्रिटिश सार्वभौम सत्ता का अन्त हो जाने पर केन्द्रीय गृह मन्त्री [[सरदार वल्लभभाई पटेल]] के नीति कौशल के कारण हैदराबाद, कश्मीर तथा जूनागढ़ के अतिरिक्त सभी रियासतें शान्तिपूर्वक भारतीय संघ में मिल गयीं। 26 अक्टूबर को कश्मीर पर पाकिस्तान का आक्रमण हो जाने पर वहाँ के महाराजा हरी सिंह ने उसे भारतीय संघ में मिला दिया। पाकिस्तान में सम्मिलित होने की घोषणा से [[जूनागढ़]] में विद्रोह हो गया जिसके कारण प्रजा के आवेदन पर राष्ट्रहित में उसे भारत में मिला लिया गया। वहाँ का नवाब [[पाकिस्तान]] भाग गया। 1948 में सैनिक कार्रवाई द्वारा हैदराबाद को भी भारत में मिला लिया गया। इस प्रकार हिन्दुस्तान से देशी रियासतों का अन्त हुआ।


== परिचय तथा इतिहास ==
== परिचय तथा इतिहास ==
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1919 के अधिनियमानुसार 1921 में नरेशमंडल बना जिसमें रियासतों के शासकों को अपने सामान्य हितों पर वार्तालाप करने तथा ब्रिटिश सरकार को परामर्श देने का अधिकार मिला। 1926 में लार्ड रेडिंग ने ब्रिटिश सार्वभौम सत्ता पर बल देते हुए देशी शासकों को ब्रिटिश सरकार के प्रति उत्तरदायी घोषित किया जिससे वे अप्रसन्न हुए। इसलिए 1929 में बटलर कमेटी रिपोर्ट में सार्वभौम सत्ता की सीमाएँ निश्चित कर दी गई। 1930 में नरेशमंडल के प्रतिनिधि गोलमेज सम्मलेन में सम्मिलित हुए। 1935 के संवैधानिक अधिनियम में रियासतों को भारतीय संघ में सम्मिलित करने की अनुचित व्यवस्था रखी गई। पर वह कार्यान्वित न हो सकी। रियासतों में निरंकुश शासन चलता रहा। केवल मैसूर, ट्रावनकोर, बड़ौदा, जयपुर आदि कुछ रियासतों में प्रजा परिषदों के आंदोलन के परिणामस्वरूप कुछ प्रातिनिधिक शासन संस्थाएँ बनीं। पर अधिकांश रियासतें प्रगतिहीन एवं अविकसित स्थिति में रहीं। द्वितीय विश्व युद्ध में रियासतों ने इंग्लैंड को यथाशक्ति सहायता दी।
1919 के अधिनियमानुसार 1921 में नरेशमंडल बना जिसमें रियासतों के शासकों को अपने सामान्य हितों पर वार्तालाप करने तथा ब्रिटिश सरकार को परामर्श देने का अधिकार मिला। 1926 में लार्ड रेडिंग ने ब्रिटिश सार्वभौम सत्ता पर बल देते हुए देशी शासकों को ब्रिटिश सरकार के प्रति उत्तरदायी घोषित किया जिससे वे अप्रसन्न हुए। इसलिए 1929 में बटलर कमेटी रिपोर्ट में सार्वभौम सत्ता की सीमाएँ निश्चित कर दी गई। 1930 में नरेशमंडल के प्रतिनिधि गोलमेज सम्मलेन में सम्मिलित हुए। 1935 के संवैधानिक अधिनियम में रियासतों को भारतीय संघ में सम्मिलित करने की अनुचित व्यवस्था रखी गई। पर वह कार्यान्वित न हो सकी। रियासतों में निरंकुश शासन चलता रहा। केवल मैसूर, ट्रावनकोर, बड़ौदा, जयपुर आदि कुछ रियासतों में प्रजा परिषदों के आंदोलन के परिणामस्वरूप कुछ प्रातिनिधिक शासन संस्थाएँ बनीं। पर अधिकांश रियासतें प्रगतिहीन एवं अविकसित स्थिति में रहीं। द्वितीय विश्व युद्ध में रियासतों ने इंग्लैंड को यथाशक्ति सहायता दी।


15 अगस्त, 1947 को ब्रिटिश सार्वभौम सत्ता का अंत हो जाने पर [[सरदार वल्लभभाई पटेल]] के नीतिकौशल के कारण हैदराबाद, कश्मीर तथा जूनागढ़ के अतिरिक्त सभी रियासतें शांतिपूर्वक भारतीय संघ में मिल गई। 26 अक्टूबर को कश्मीर पर पाकिस्तान का आक्रमण हो जाने पर वहाँ के महाराज ने उसे भारतीय संघ में मिला दिया। पाकिस्तान में सम्मिलित होने की घोषणा से [[जूनागढ़]] में विद्रोह हो गया जिसके कारण प्रजा के आवेदन पर राष्ट्रहित में उसे भारत में मिला लिया गया। वहाँ का नवाब [[पाकिस्तान]] भाग गया। 1948 में पुलिस काररवाई द्वारा हैदराबाद भी भारत में मिल गया। इस प्रकार रियासतों का अंत हुआ। वहाँ पर लोकतंत्रात्मक सासन चालू हुआ। उनके शासकों को निजी कोष दिया गया।
15 अगस्त, 1947 को ब्रिटिश सार्वभौम सत्ता का अन्त हो जाने पर केन्द्रीय गृह मन्त्री [[सरदार वल्लभभाई पटेल]] के नीति कौशल के कारण हैदराबाद, कश्मीर तथा जूनागढ़ के अतिरिक्त सभी रियासतें शान्तिपूर्वक भारतीय संघ में मिल गयीं। 26 अक्टूबर को कश्मीर पर पाकिस्तान का आक्रमण हो जाने पर वहाँ के महाराजा हरी सिंह ने उसे भारतीय संघ में मिला दिया। पाकिस्तान में सम्मिलित होने की घोषणा से [[जूनागढ़]] में विद्रोह हो गया जिसके कारण प्रजा के आवेदन पर राष्ट्रहित में उसे भारत में मिला लिया गया। वहाँ का नवाब [[पाकिस्तान]] भाग गया। 1948 में पुलिस कार्रवाई द्वारा हैदराबाद भी भारत में मिल गया। इस प्रकार रियासतों का अन्त हुआ और पूरे देश में लोकतन्त्रात्मक शासन चालू हुआ। इसके एवज़ में रियासतों के शासकों व नवाबों को [[भारत सरकार]] की ओर से उनकी क्षतिपूर्ति हेतु निजी कोष (प्रिवी पर्स]] दिया गया।


== इन्हें भी देखें ==
== इन्हें भी देखें ==

06:54, 11 अक्टूबर 2013 का अवतरण

ब्रिटिश भारत में रियासतें (अंग्रेजी: Princely state ) ब्रिटिश राज में अविभाजित हिन्दुस्तान के नाममात्र के स्वतन्त्र (अंग्रेजी: sovereign) राज्य थे। इन्हें आम बोलचाल की भाषा में रियासत या व्यापक अर्थ में देशी रियासत (अंग्रेजी: Native State या Indian State) कहते थे। ये ब्रितानियों द्वारा सीधे शासित नहीं थे बल्कि किसी भारतीय शासक द्वारा शासित थे जिसके उपर ब्रितानियों का परोक्ष नियन्त्रण रहता था।

सन् १९४७ में जब हिन्दुस्तान आजाद हुआ तब यहाँ ५६५ रियासतें थीं। इनमें से अधिकांश रियासतों ने ब्रिटिश सरकार से लोकसेवा प्रदान करने एवं कर (टैक्स) वसूलने का 'ठेका' ले लिया था। कुल ५६५ में से केवल २१ रियासतों में ही सरकार थी और केवल ३ रियासतें (मैसूर, हैदराबाद तथा कश्मीर) ही क्षेत्रफल में बड़ी थीं। सन् १९४७ में ब्रितानियों से मुक्ति मिलने पर इन्हें भारत या हिन्दुस्तान के विभाजन के बाद बने पाकिस्तान में मिला लिया गया।

15 अगस्त, 1947 को ब्रिटिश सार्वभौम सत्ता का अन्त हो जाने पर केन्द्रीय गृह मन्त्री सरदार वल्लभभाई पटेल के नीति कौशल के कारण हैदराबाद, कश्मीर तथा जूनागढ़ के अतिरिक्त सभी रियासतें शान्तिपूर्वक भारतीय संघ में मिल गयीं। 26 अक्टूबर को कश्मीर पर पाकिस्तान का आक्रमण हो जाने पर वहाँ के महाराजा हरी सिंह ने उसे भारतीय संघ में मिला दिया। पाकिस्तान में सम्मिलित होने की घोषणा से जूनागढ़ में विद्रोह हो गया जिसके कारण प्रजा के आवेदन पर राष्ट्रहित में उसे भारत में मिला लिया गया। वहाँ का नवाब पाकिस्तान भाग गया। 1948 में सैनिक कार्रवाई द्वारा हैदराबाद को भी भारत में मिला लिया गया। इस प्रकार हिन्दुस्तान से देशी रियासतों का अन्त हुआ।

परिचय तथा इतिहास

मुगल तथा मराठा साम्राज्यों के पतन के फलस्वरूप् भारतवर्ष बहुत से छोटे बड़े राज्यों में विभक्त हो गया। इनमें से सिंध, भावलपुर, दिल्ली, अवध, रुहेलखंड, बंगाल, कर्नाटक मैसूर, हैदराबाद, भोपाल, जूनागढ़, और सूरत में मुस्लिम शासक थे। पंजाब तथा सरहिंद में अधिकांश सिक्खों के राज्य थे। आसाम, मनीपुर, कछार, त्रिपुरा, जयंतिया, तंजोर, कुर्ग, ट्रावनकोर, सतारा, कोल्हापुर, नागपुर, ग्वालियर, इंदौर, बड़ौदा तथा राजपूताना, बुंदेलखंड, बघैलखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, काठियावाड़, मध्य भारत और हिमांचल प्रदेश के राज्यों में हिंदू शासक थे।

ब्रिटिश इंस्ट इंडिया कंपनी के सर्वप्रथम संबंध व्यापार के उद्देश्य से सूरत, कर्नाटक, हैदराबाद, बंगाल आदि समुद्रतट पर स्थित राज्यों से हुए। तदनंतर फ्रांसीसियों के साथ संघर्ष के समय राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा को प्रेरणा मिली। फलत: साम्राज्य निर्माण का कार्य 1757 ई. से प्रारंभ होकर 1856 तक चलता रहा। इस एक शताब्दी में देशी राज्यों के आपसी झगड़ों से लाभ उठाकर कंपनी ने अपनी कूटनीति तक सैनिक शक्ति द्वारा सारे भारत पर सार्वभौम सत्ता स्थापित कर ली। अनेक राज्य उसके साम्राज्य में विलीन हो गए। अन्य सभी उसका संरक्षण प्राप्त करके अधीन बन गए। यह अधीन राज्य 'रियासत' कहे जाने लगे। इनकी स्थिति उत्तरोत्तर असंतोषजनक तथा डावाँडोल होती गई, शक्ति क्षीण होती गई, सीमाएँ घटती गई और स्वतंत्रता कम होती गई।

1756 तक कर्नाटक और तंजोर ब्रिटिश कंपनी के अधीन हो गए। 1757 में बंगाल उसके प्रभावक्षेत्र में आ गया। 1761 तक हैदराबाद का निज़ाम उसका मित्र बन गया। 1765 में बंगाल की स्वंत्रता समाप्त हो गई। इसी वर्ष इलाहाबाद की संधि द्वारा दिल्ली के सम्राट् शाहआलम और अवध के नवाब शुजाउद्दौला के साथ कंपनी की मैत्री हो गई तथा देशी राज्यों के साथ उसके संबंधों का वास्तविक सूत्रपात हुआ।

1765 से 1798 तक मराठों, अफगानों तथा मैसूर के सुल्तानों के भय के कारण आत्मरक्षा की भावना से प्रेरित होकर कंपनी ने आरक्षण नीति द्वारा पड़ोसी राज्यों को अंतराल राज्य बनाया जिससे नव निर्मित ब्रिटिश राज्य शक्तिशाली मित्र राज्यों से घिर कर सुरक्षित बन गया। इस अवसरवादी नीति को अवध और हैदराबाद के साथ कार्यान्वित किया गया। इसके अनुसार दिखावे के लिए उनके साथ समानता का व्यवहार किया गया पर वास्तव में उन्हें अधीन बनाने, उनकी सैनिक शक्ति क्षीण करने तथा उसके संपन्न भागों पर अधिकार करने के किसी अवसर को हाथ से न जाने दिया गया। रियासतों के प्रति जितनी नीतियाँ कंपनी ने भविष्य में अपनाई उनमें से अधिकांश अवध में पोषित हुई। इस काल में कंपनी ने मैसूर तथा मराठा राज्य में फूट डालकर हैदराबाद के सहयोग से उनके विरुद्ध युद्ध किए। अवध को रुहेलखंड हड़पने में सहायता देकर रामपुर का छोटा राज्य बना दिया। ट्रावनकोर और कुर्ग कंपनी के संरक्षण में आ गए।

1799 से 1805 तक लॉर्ड वेलेज़ली की अग्रगामी नीति के फलस्वरूप सूरत, कर्नाटक तथा तंजोर के राज्यों का अंत हो गया। अवध, हैदराबाद, बड़ौदा, पूना और मैसूर सहायक संधियों द्वारा कंपनी के शिकंजे में जकड़ गए। ये केवल अर्ध स्वतंत्र राज्य रह गए। उनकी बाह्य नीति पर ब्रिटिश नियंत्रण हो गया। सैनिक शक्ति घटा दी गई। राज्यों में उन्हीं के खर्च पर सहायक सेना रखी गई। आक्रमणों तथा विद्रोहों से उनकी रक्षा की गई। राजाओं की गतिविधियों पर दृष्टि रखने तथा बिंटिश हितों की सुरक्षा एवं वृद्धि के लिए उनकी राजधानियों में ब्रिटिश हितों की सुरक्षा एवं वृद्धि के लिए उनकी राजधानियों में ब्रिटिश प्रतिनिधि रहने लगे। राज्यों, से ब्रिटिश विरोधी विदेशी हटा दिए गए। अंतरराष्ट्रीय झगड़ों का फैसला ब्रिटिश कंपनी करने लगी। ये अपमानजनक संधियाँ देशी राज्यों के लिए आत्मविनाश के समान थीं तथा ब्रिटिश साम्राज्य के लिए विकास श्रृंखला की महत्वपूर्ण लड़ियाँ थीं। युद्ध में परास्त होकर नागपुर और ग्वालियर भी उसी जाल में फंस गए। भरतपुर ने ब्रिटिश आक्रमणों को विफल बनाने के पश्चात् संधि कर ली। इसी समय से रियासतों के शासक अनुत्तरदायी होने लगे तथा उनके आंतरिक शासन में अनेक बहानों से ब्रिटिश रेजिडेंट हस्तक्षेप करने लगे।

1805 से 1813 तक ब्रिटिश कंपनी ने देशी राज्यों के प्रति हस्तक्षेप न करने की नीति अपनाई। इस का में ट्रावनकोर तथा सरहिंद के राज्य उसके अधीन हो गए। सतलज पंजाब की सीमा बना दी गई। सिंध और पंजाब कंपनी के मित्र बन गए।

1817-1818 में कई राज्य लार्ड हेस्टिंग्ज़ की आक्रामक नीति के शिकार बने। मराठा संघ को नष्ट करके सतारा का छोटा सा राज्य बना दिया गया। राजपूताना, मध्य भारत तथा बुंदेलखंड के सभी राज्य सतत मित्रता तथा सुरक्षा की संधियों द्वारा कंपनी के करद राज्य बन गए। ग्वालियर, नागपुर तथा इंदौर पर पहले से अधिक अपमानजनक संधियाँ लाद दी गई। भोपाल ने प्रतिरक्षात्मक संधि द्वारा अंग्रेजों की अधीनता मान ली। अमीर खाँ, ग़फूर खाँ तथा करीम खाँ को क्रमश: टोंक, जावरा तथा गणेशपुर की रियासतें दी गई। ब्रिटिश सार्वभौम सत्ता सारे देश में फैल गई।

लार्ड एमहर्स्ट के शासनकाल में कछार, जयंतिया और त्रिपुरा ब्रिटिश संरक्षण में आ गए। मनीपुर स्वतंत्र मित्र राज्य बन गया। भरतपुर की शक्ति नष्ट कर दी गई। लॉर्ड विलियम बेंटिंक ने कुर्ग, मैसूर तथा जयंतिया को कुशलासन के बहाने तथा कछार को उत्तराधिकारी न होने के कारण हड़प लिया। लॉर्ड ऑकलैंड ने मांडवी, कोलावा, जलौन तथा कर्नूल रियासतों पर अधिकार कर लिया। लॉर्ड एलनबरा ने सिंध जीत लिया तथा ग्वालियर की सैनिक शक्ति नष्ट कर दी। र्लार्ड हार्डिज ने पंजाब की शक्ति संकुचित कर दी तथा जम्मू और कश्मीर के राज्य का निर्माण किया। लॉर्ड डलहौज़ी के समय रियासतों पर विशेष प्रकोप आया। उसने नागपुर, सतारा, झाँसी, संभलपुर, उदयपुर, जैतपुर, वघात तथा करौली के शासकों को पुत्र गोद लेने के अधिकार से वंचित करके उनके राज्यों को हड़प लिया; हैदराबाद से बरार ले लिया; तथा कुशासन का आरोप लगाकर, अवध को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया। इन आपत्तिजनक नीतियों के कारण रियासतों में असंतोष फैल गया जो 1857 की सशस्त्र क्रांति का कारण बना। क्रांति के समय स्वार्थ से प्रेरित होकर अधिकांश देशी शासक कंपनी के प्रति स्वामिभक्त रहे।

क्रांति के पश्चात् भारत में 562 रियासतें थीं जिनके अंतर्गत 46 प्रतिशत भूमि थी। इनके प्रति अधीनस्थ सहयोग की नीति अपनाई गई तथा ये साम्राज्य के स्तंभ समझे जाने लगे। इनके शासकों को पुत्र गोद लेने का अधिकार दिया गया। राज्यसंयोजन नीति को त्यागकर रियासतों को चिरस्थायित्व प्रदान किया गया तथा साम्राज्य की सुरक्षा एवं गठन हेतु उनका सहयोग प्राप्त किया गया। 1859 में गढ़वाल के राजा के मृत्यूपरांत इसके औरस पुत्र को उत्तराधिकारी मानकर तथा 1881 में मैसूर रियासत के पुन:स्थापन द्वारा नई नीति का पुष्टीकरण हुआ। क्रमश: विभिन्न संधियों का महत्व जाता रहा और उनके आधार पर सभी रियासतों के साथ एक सी नीति अपनाने की प्रथा चल पड़ी। उनमें छोटे बड़े का भेद भाव सलामियों की संख्या के आधार पर किया गया।

1876 में देशी शासकों ने महारानी विक्टोरिया को भारत की सम्राज्ञी मानकर उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। तदनंतर ब्रिटिश शासन की ओर से उन्हें उपाधियाँ दी जाने लगीं। प्रेस, रेल, तार तथा डाक द्वारा वे ब्रिटिश सरकार के निकट आते गए। चुंगी, व्यापार, आवपाशी, मुद्रा, दुर्भिक्ष तथा यातायात संबंधी उनकी नीतियाँ ब्रिटिश भारत की नीतियों से प्रभावित होने लगी। उनकी कोई अंतरराष्ट्रीय स्थिति न रही। कुशासन, अत्याचार, राजद्रोह तथा उत्तराधिकार संबंधी झगड़ों को लेकर रियासतों में ब्रिटिश सरकार का हस्तक्षेप बढ़ गया। इस नीति के उदाहरण है -

(1) 1865 में झाबुआ के राजा पर 10000 दंड लगाना;

(2) 1867 में ग्वालियर की सैनिक शक्ति में कमी;

(3) उसी वर्ष टोंक के नवाब का पदच्युत होना तथा उसके उत्तराधिकारी की सलामी की संख्या घटाना;

(4) 1870 में अलवर के राजा को शासन से वंचित करना;

(5) मल्हारराव गायकवाड़ को बंदी बनाना और 1875 में उसे पदच्युत करना;

(6) 1889 में कश्मीर के महाराज प्रताप सिंह को गद्दी से हटाना;

(7) 1890 में मनीपुर के राजा को अपदस्थ करना तथा युवराज और सेनापति को फाँसी देना; और

(8) 1892 में कलात के शासक को पदच्युत करना।

1899 में लॉर्ड कर्जन ने रियासतों को साम्राज्य का अविभाज्य अंग घोषित किया तथा कड़े शब्दों में शासकों को उनके कर्तव्यों की ओर ध्यान दिलाया। इससे शासक शंकित हुए। उनकी स्थिति समृद्ध सामंतों के तुल्य हो गई। 1906 में तीव्र राष्ट्रवाद के वेग की रोकने में रियासतों के सहयोग के लिए लॉर्ड मिंटो ने उनके प्रति मित्रतापूर्ण सहयोग की नीति अपनाई तथा साम्राज्य सेवार्थ सेना की संख्या में वृद्धि करने के लिए उन्हें आदेश दिया। प्रथम विश्व युद्ध में रियासतों ने ब्रिटिश सरकार को महत्वपूर्ण सहायता दी। बीकानेर, जोधपुर, किशनगढ़, पटियाला आदि के शासकों ने रणक्षेत्र में युद्धकौशल दिखाया।

1919 के अधिनियमानुसार 1921 में नरेशमंडल बना जिसमें रियासतों के शासकों को अपने सामान्य हितों पर वार्तालाप करने तथा ब्रिटिश सरकार को परामर्श देने का अधिकार मिला। 1926 में लार्ड रेडिंग ने ब्रिटिश सार्वभौम सत्ता पर बल देते हुए देशी शासकों को ब्रिटिश सरकार के प्रति उत्तरदायी घोषित किया जिससे वे अप्रसन्न हुए। इसलिए 1929 में बटलर कमेटी रिपोर्ट में सार्वभौम सत्ता की सीमाएँ निश्चित कर दी गई। 1930 में नरेशमंडल के प्रतिनिधि गोलमेज सम्मलेन में सम्मिलित हुए। 1935 के संवैधानिक अधिनियम में रियासतों को भारतीय संघ में सम्मिलित करने की अनुचित व्यवस्था रखी गई। पर वह कार्यान्वित न हो सकी। रियासतों में निरंकुश शासन चलता रहा। केवल मैसूर, ट्रावनकोर, बड़ौदा, जयपुर आदि कुछ रियासतों में प्रजा परिषदों के आंदोलन के परिणामस्वरूप कुछ प्रातिनिधिक शासन संस्थाएँ बनीं। पर अधिकांश रियासतें प्रगतिहीन एवं अविकसित स्थिति में रहीं। द्वितीय विश्व युद्ध में रियासतों ने इंग्लैंड को यथाशक्ति सहायता दी।

15 अगस्त, 1947 को ब्रिटिश सार्वभौम सत्ता का अन्त हो जाने पर केन्द्रीय गृह मन्त्री सरदार वल्लभभाई पटेल के नीति कौशल के कारण हैदराबाद, कश्मीर तथा जूनागढ़ के अतिरिक्त सभी रियासतें शान्तिपूर्वक भारतीय संघ में मिल गयीं। 26 अक्टूबर को कश्मीर पर पाकिस्तान का आक्रमण हो जाने पर वहाँ के महाराजा हरी सिंह ने उसे भारतीय संघ में मिला दिया। पाकिस्तान में सम्मिलित होने की घोषणा से जूनागढ़ में विद्रोह हो गया जिसके कारण प्रजा के आवेदन पर राष्ट्रहित में उसे भारत में मिला लिया गया। वहाँ का नवाब पाकिस्तान भाग गया। 1948 में पुलिस कार्रवाई द्वारा हैदराबाद भी भारत में मिल गया। इस प्रकार रियासतों का अन्त हुआ और पूरे देश में लोकतन्त्रात्मक शासन चालू हुआ। इसके एवज़ में रियासतों के शासकों व नवाबों को भारत सरकार की ओर से उनकी क्षतिपूर्ति हेतु निजी कोष (प्रिवी पर्स]] दिया गया।

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ

  • Exclusively on Indian princely states and domains at Queensland University
  • Indian Princely states and their History and detailed Genealogy - Royalark
  • Sir Roper Lethbridge (1893). The Golden Book of India: A Genealogical and Biographical Dictionary of the Ruling Princes, Chiefs, Nobles, and Other Personages, Titled or Decorated, of the Indian Empire (Full text). Macmillan And Co., New York.