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अनुनाद सिंह (चर्चा | योगदान) |
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[[चित्र:Gribeauval cannon de 12 An 2 de la Republique.jpg|right|thumb|300px|एक तोप]]
'''तोप''' (cannon) वह [[हथियार]] है जो किसी भारी गोले को बहुत दूर तक प्रक्षिप्त कर (छोड़) सकती है। ये प्राय: बारूद या किसी [[विस्फोटक]] के द्वारा उत्पन्न गैसीय दाब के बल से गोले को दागते हैं। आधुनिक युग में तोप का प्रयोग सामान्यत: नहीं होता है। इसके स्थान [[मोर्टार]], [[होविट्जर]] आदि का प्रयोग किया जाता है। तोपें अपनी क्षमता, [[परास]], चलनीयता (मोबिलिटी), दागने की गति, दागने का कोण एवं दागने की शक्ति आदि के आधार पर अनेक प्रकार की होतीं हैं।
== परिचय ==
सन् 1313 ई. से यूरोप में तोप के प्रयोग का पक्का प्रमाण मिलता है। [[भारत]] में [[बाबर]] ने [[पानीपत की लड़ाई]] (सन् 1526 ई.) में तोपों का पहले-पहले प्रयोग किया।
पहले तोपें [[कांसा|काँसे]] की बनती थीं और उनको ढाला जाता था। परंतु ऐसी तोपें पर्याप्त पुष्ट नहीं होती थीं। उनमें अधिक [[बारूद]] डालने से वे फट जाती थीं। इस दोष को दूर करने के लिए उनके ऊपर लोहे के छल्ले तप्त करके खूब कसकर चढ़ा दिए जाते थे। ठंढा होने पर ऐसे छल्ले सिकुड़कर बड़ी दृढ़ता से भीतरी नाल को दबाए रहते हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे बैलगाड़ी के पहिए के ऊपर चढ़ी हाल पहिए को दबाए रहती है। अधिक पुष्टता के लिए छल्ले चढ़ाने के पहले नाल पर लंबाई के अनुदिश भी लोहे की छड़ें एक दूसरी से सटाकर रख दी जाती थीं। इस समय की एक प्रसिद्ध तोप मॉन्स मेग है, जो अब [[एडिनबरा]] के दुर्ग पर शोभा के लिए रखी है। इसके बाद लगभग 200 वर्षों तक तोप बनाने में कोई विशेष उन्नति नहीं हुई। इस युग में नालों का संछिद्र (बोर) चिकना होता था। परंतु लगभग सन् 1520 में [[जर्मनी]] के एक तोप बनानेवाले ने संछिद्र में सर्पिलाकार खाँचे बनाना आरंभ किया। इस तोप में गोलाकार गोले के बदले लंबोतर "गोले" प्रयुक्त होते थे। संछिद्र में सर्पिलाकार खाँचों के कारण प्रक्षिप्त पिंड वेग से नाचने लगता है। इस प्रकार नाचता (घूर्णन करता) पिंड [[वायु]] के प्रतिरोध से बहुत कम विचलित होता है और परिणामस्वरूप लक्ष्य पर अधिक सच्चाई से पड़ता है।
[[चित्र:Scheme of boating cannon.gif|right|thumb|300px|तोप में गोला भरने से गोला छोड़ने तक की क्रिया का एनिमेशन]]
'''आरोपण''' - आरंभ में तोपें प्राय: किसी भी दृढ़ चबूतरे अथवा चौकी पर आरोपित की जाती थीं, परंतु धीरे-धीरे इसकी आवश्यकता लोग अनुभव करने लगे कि तोपों को सुदृढ़ गाड़ियों पर आरोपित करना चाहिए, जिसमें वे सुगमता से एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाई जा सकें और प्राय: तुरंत गोला दागने के लिए तैयार हो जाएँ। गाड़ी के पीछे भूमि पर घिसटनेवाली पूँछ के समान भाग भी रहता था, जिसमें धक्के से गाड़ी पीछे न भागे। सुगमता से खींची जा सकनेवाली तोप की गाड़ियाँ सन् 1680 से बनने लगी। सन् 1867 में डाक्टर सी.डब्ल्यू. सीमेंस ने सुझाव दिया कि धक्के को रोकने के लिए तोप के साथ ऐसी पिचकारी लगानी चाहिए कि जिसमें पानी निकलने का मुँह सूक्ष्म हो (अथवा आवश्यकतानुसार छोटा बड़ा किया जा सके)। पीछे यही काम कमानियों से लिया जाने लगा। गाड़ियाँ भी इस्पात की बनने लगीं।
==विशेष तोप==
'''टैंक भेदी''' तोपों को बहुत शक्तिशाली होना पड़ता है। टैंक इस्पात की मोटी चादरों की बनी गाड़ियाँ होते हैं। इनके भीतर बैठा योद्धा टैंक पर लदी तोप से शत्रु को मारता रहता है और स्वयं बहुत कुछ सुरक्षित रहता है। सन् 1941 की टैंक भेदी तोपें 17 पाउंड के गोले दागती थीं। कवचित यान (आर्मर्ड कार) के भीतर का सिपाही केवल साधारण बंदूक और राइफल से सुरक्षित रहता है।
'''नाविक तोप''' - टॉरपीडो के आविष्कार के पहले तोपें ही जहाजों के मुख्य आयुध होती थीं। अब तोप, टारपीडो और हवाई जहाज ये तीन मुख्य आयुध हैं। 18वीं शताब्दी में 2,000 टन के बोझ लाद सकनेवाले जहाजों में 100 तोपें लगी रहती थीं। इनमें से आधी भारी गोले (24 से 42 पाउंड तक के) छोड़ती थीं और शेष हल्के गोले (6 से 12 पाउंड तक के); परंतु आधुनिक समय में तोपों की संख्या तथा गोलों का भार कम कर दिया गया है और गोलों का वेग बढ़ा दिया गया है। उदाहरणत: सन् 1915 में बने रिवेंज नामक ड्रेडनॉट जाति के जहाजों में आठ तोपें 15 इंच भीतरी व्यास की पीछे लगी थीं। ऐसी ही चार तोपें आगे और आठ बगल में थीं। इनके अतिरिक्त 12 छोटी तोपें छह इंच (भीतरी व्यास) की थीं।
==तोपों का निर्माण==
===पश्चखंड===
दागने की क्रिया या तो बिजली से होती है (बहुत कुछ उसी तरह जैसे मोटर गाड़ियों में पेट्रोल और वायु का मिश्रण बिजली से जलता है) या एक "घोड़ा" (वस्तुत: हथौड़ा) विशेष ज्वलनशील टोपी को ठोंकता है (बहुत कुछ उस प्रकार जैसे साधारण बंदूकों के कारतूस दागे जाते हैं)।
* [[तोपख़ाना]]
[[श्रेणी:हथियार]]
== बाहरी कड़ियाँ ==
* [http://napoleonistyka.atspace.com/artillery_tactics.htm Artillery Tactics and Combat during the Napoleonic Wars]
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