"ईजियाई सभ्यता": अवतरणों में अंतर

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02:36, 4 जुलाई 2011 का अवतरण

जो सभ्यता 12वीं सदी ई.पू. से पहले दोरियाई ग्रीकों के ग्रीस पर आक्रमण के पूर्व क्रीत और निकटवर्ती द्वीपों, ग्रीस की सागरवर्ती भूमि, उसके मिकीनी केंद्रीय प्रांतों तथा इतिहासप्रसिद्ध त्राय में विकसित हुई और फैली, उसे पुराविदों ने 'ईजियाई सभ्यता' (Aegean civilizations) नाम दिया है। पुरातात्विक अनुसंधानों और खुदाइयों से क्रीत, मिकीनी और लघुएशिया के त्राय नगर में जिन खंडहरों के दर्शन हुए हैं वे मिस्री, सुमेरी और सैंधव सभ्यता के समकालीन माने जाते हैं। वहाँ की सभ्यता उन्हीं सभ्यताओं की भाँति कांस्ययुगीन थी, लौहयुग की पूर्ववर्ती। इन सभी स्थानों में प्रासादों और भवनों के खंडहर मिले हैं। क्रीतीय सभ्यता का प्राचीनतम केंद्र और उस राज्य की राजधानी ग्रीस के दक्षिण के उस द्वीप के उत्तरी तट पर बसा क्नोसस था। क्नोसस के राजमहल के भग्नावशेष से प्रगट है कि उसमें समृद्धि का निवास था और उसमें भव्य भित्तिचित्रों से अलंकृत बड़े बड़े हाल और ऊपरी मंजिलों में जाने के लिए चक्करदार सोपानमार्ग (जीने) थे। स्नानागारों और अन्य कमरों में नल लगे थे जिनमें निरंतर जल प्रवाहित होता रहता था। यह सभ्यता अपने मिनोस उपाधिधारी राजाओं के नाम से 'मिनोई' या मिकीनी नगर से संबंधित होने के कारण मिकीनी भी कहलाती है।

आरम्भ

ईजियाई सभ्यता का आरंभ ई.पू. तृतीय सहस्राब्दी के आरंभ से संभवत: कुछ पूर्व ही हो चुका था और उसका अंत ई. पू. द्वितीय सहस्राब्दी के मध्य के लगभग हुआ। वैसे तो उस सभ्यता का आधार स्थानीय प्रस्तरयुगीन सभ्यता है, पर पुराविदों का अनुमान है कि उसके निर्माताओं का रक्त और भाषा का संबंध एक ओर तो पश्चिमी बास्कों से था, दूसरी ओर बर्बरों और प्राचीन मिस्रियों से। उनके मिस्रियों सरीखे कटिवसन तथा शेष भाग की नग्नता से पंड़ितों का अनुमान है कि वे संभवत: मिस्र से ही जाकर क्रीत द्वीप में बस गए थे। चित्राक्षरों में लिखे भ्रांत मिस्री नाविक के वृत्तांत से भी इस अनुमान की आंशिक पुष्टि होती है। क्रीत के उन प्राचीन निवासियों का उत्तर की यूरोपीय श्वेत जातियों से किसी प्रकार का रक्तसंबंध परिलक्षित नहीं होता। पहले ईजियाइयों ने शुद्ध धातु, ताँबे, आदि का उपयोग किया, फिर मिश्रित धातु काँसे का, जो ताँबे और टिन के मिश्रण से बनता था। यह टिन भारत से जाता था जहाँ उसके संस्कृत नाम 'बंग' से बंगाल प्रसिद्ध हुआ। वहीं से यह मिश्रित काँसा बाबुल और मिस्र भी गया था। ईजियाई सभ्यता में लिपि का भी प्रयोग होता था पर भारतीय सैंधव लिपि की ही भाँति वह भी अभी तक पढ़ी नहीं जा सकी है। वह पढ़ ली जाए तो उस सभ्यता का और भी गहरा रहस्य खुले।

इस सभ्यता के प्रकाशन का श्रेय पुरातात्विक विज्ञान के जनक श्लीमान और सर आर्थर ईवांस को है। श्लीमान ने होमर के महाकाव्य 'ईलियद' में वर्णित त्राय को खोद निकाला और उसके बाद ईवांस ने क्नोसस को खोदकर मिनोस के राजमहलों का उद्धार किया। सर आर्थर ने ईजियाई सभ्यता को नौ स्तरों में विभाजित किया है--प्राचीन मिनोई युग, मध्य मिनोई युग, उत्तर मिनोई युग। फिर उनमें से प्रत्येक के अपने अपने तीन तीन-प्रथम, द्वितीय और तृतीय -युग हैं। मिस्री सभ्यता के स्तरों से मिलान करके इस सभ्यता के युगों की उनसे समसामयिकता और भी पुष्ट कर ली गई है। लगता है, 1400 ई. पू. के लगभग इस महान्‌ और समृद्ध नागरिक सभ्यता का अंत हुआ जब ऐशियाई ग्रीकों के भीषण आक्रमणों और भूचाल ने मिलकर उसे मिटा दिया।

प्राचीन और मध्य मिनोई युगों में धातुओं का उपयोग प्रभूत मात्रा में हुआ। काँसे और ताँबे की ही कटारें और तलवारें बनती थीं। जीवन ऊँचे स्तर का था और बर्तन बनाने के लिए मिट्टी की जगह धातुएँ काम में लाई जाने लगी थीं। सोने और चाँदी के बर्तन भी खुदाइयों में मिले हैं। मिट्टी के बर्तन बनते अवश्य थे, परंतु उनकी काया अधिकतर धातु के बर्तनों की नकल में ही सिरजी जाती थी। मिट्टी के बर्तनों की कला स्वयं ऊँचे दर्जे की थी। ईजियाई द्वीपों में क्रीत ने सबसे पहले भांडों को चित्रित करना शुरू किया। दूसरी विशिष्ट प्रगति मिनोई युग के प्रथम चरण में हुई जिसमें विभिन्न प्रकार के भांड-भांडे बनने लगे। सुराहियाँ टोंटीदार या चोंचनुमा बनने लगीं, फिर उनमें अत्यंत आकर्षक दमखम दिए जाने लगे। फिर तो अगले प्राचीन युग में घुमावदार भांड़ों की बाढ़ सी आ गई।

यही युग त्राय नगर की दूसरी बस्ती का था, द्वितीय त्राय का। श्लीमान ने छह छह त्राय एक के नीचे एक लघुएशिया में खोद निकाले हैं। प्राचीन मिनोई सभ्यता के तृतीय चरण के समानांतर प्रमाण त्राय की खुदाइयों में मिले हैं। वहाँ भी बहुमूल्य धातुओं की बनी वस्तुएँ-सोने की पिन और जंजीरें, सोने चाँदी के बर्तन मिले हैं जिससे उन्हें पुराविदों ने 'प्रियम का खजाना' नाम उचित ही दिया है। वहाँ के बर्तनों में प्रधान काले रंग के और उलूकशीर्ष हैं। इसी प्रकार क्रीत और त्राय के नीचे के द्वीपों में भी उसी सभ्यता के बिखरे हुए चिह्न, कलात्मक बर्तन आदि मिले हैं। वहाँ भी शवसमाधियों की शैली प्रधान सभ्यता के अनुरूप है। क्रीती और इन द्वीपों की शवसमाधियों में दफनाई मूर्तियों की शैली प्राय: वही है जो मिस्री कब्रों की मूर्तियों की है।

प्राचीन मिनोई युग के अंतिम चरण की विशेषता पत्थर की कोरकर बनाई वस्तुओं में है। पत्थर में कढ़े हुए फूल और समुद्री जीवों के अभिप्राय तब की कला में विशेष प्रयुक्त हुए। इनके निर्माण में प्रधानत: संगमरमर या चूना मिट्टी का उपयोग हुआ है। जहाँ तक धातु के बर्तनों का प्रश्न है, लगता है, त्राय के सुनारों ने बाबुली धातुकर्म की नकल की थी। वही डिजाइनें बाद में पत्थर और मिट्टी के बर्तनों पर बनीं। मिस्र ने भी इसी शैली का कालांतर में उपयोग किया। बर्तनों का इतना आकर्षक निर्माण उस प्राचीन काल के दो आविष्कारों का विस्मयकारक परिणाम था। भांड कला के इतिहास में निश्चय उन आविष्कारों का असाधारण महत्व है। ये थे कुम्हार के आवाँ (भट्ठी) और चक्के या पहिए के आविष्कार। संभवत: इसका आविष्कार पूरब में हुआ, एलाम में, या भारत की सिंधु घाटी में, या दोनों में, शायद 4,000 ई.पू. से भी पहले। क्रीत और त्राय के जीवन में संभवत:उनका आयात प्राचीन मिनोई युग के अंतिम चरण में हुआ। चित्रलिपि से कुछ मिलती लिखावट क्रीत के ठीकरों पर खुदी हुई है। गीली मिट्टी में लिखावट प्राय: वैसे ही संपन्न हुई है जैसे बाबुल और सुमेर में हुआ करती थी, परंतु उनके तौर तेवर मिस्री लिखावट से मिलते जुलते हैं। अभी तक यह लिखावट पढ़ी नहीं जा सकी। वास्तु का आरंभ हो गया था। क्नोसस के महलों के पूर्ववर्ती पत्थर के मकानों के खंडहर उसी युग के हैं।

मिनोस राजाओं का राज्य

मिनोई राजाओं की राजधानी क्रीत के उत्तरी तट पर बसे क्नोसस में थी। मध्य मिनोई युग में मिनोस राजाओं ने प्राय: समूचे क्रीत और निकटवर्ती द्वीपों पर अधिकार कर लिया। फाइस्तस और आगिया त्रियादा के महल भी क्नोसस के राजाओं के ही बनवाए माने जाते हैं। लोकपरंपराओं और अनुश्रुतियों में फाइस्तस का वर्णन उपनिवेश के रूप में हुआ है।

क्नोसस के राजप्रासाद का निर्माण नवप्रस्तरयुगीन भग्नावशेषों के ऊपर हुआ है। क्नोसस के प्रासादों के भग्नावशेष क्रीत के उत्तरी तट पर कांदिया के आधुनिक नगर के निकट ही हैं। वहाँ के पश्चिमी प्रवेशद्वार की विशालता और फाइस्तस के गैलरीनुमा रंगप्रांगण, जो पत्थर के बने हैं, वास्तुकला की प्रगति में उस प्राचीन काल में एक आदर्श प्रस्तुत करते हैं। क्नोसस के उत्तरी और फाइस्तस के दक्षिणी राजमहल प्राय: एक ही समय बने थे। क्रीत के दक्षिणी तट पर फाइस्तस के महलों के खंडहर हैं और उनके पास ही आगिया त्रियादा के राजप्रासाद के भग्नावशेष भी हैं, यद्यपि वे बने उत्तर-मिनोई-युग में थे।

लगता है, क्नोसस के महल युगों तक बनते और आवश्यकतानुसार बदलते चले आए थे। राजाओं की बढ़ती हुई समृद्धि, कला की प्रगति और सुरुचि के परिष्कार के अनुकूल समय समय पर उनमें परिवर्तन होते गए। इस प्रकार के परिवर्तन कुछ मध्ययुग में भी हुए थे, परंतु पिछले युग में तो इन महलों के रूप ही बदल डाले गए। जिस रूप में उनके खंडहर आज पुराविदों के प्रयत्नों से प्रस्तुत हुए हैं उनसे प्रगट है कि इन महलों में असाधारण बड़े बड़े हाल थे, घुमावदार सोपानमार्ग थे, ढलान पर उतरनेवाले लंबे कक्ष थे, और बाहरी प्रासाद से संलग्न भवन थे-और फिर दूर, क्रीती सभ्यता का नागरिक विस्तार पश्चिम के पर्वतों के ऊपर तक चला गया था। प्रधान राजप्रासाद अपनी उच्चस्तरीय जीवनसुविधाओं के साथ अत्यंत आधुनिक लगता है। उन सुविधाओं का एक प्रधान अंग उनकी गंदे जल की नालियाँ हैं। मिस्री फराऊनों और पेरिक्लीज़कालीन एथेंस के कोई मकान उसके जोड़ के न थे। हाँ, यदि प्रासादनिर्माण की शालीनता में इसका कोई पराभव कर सकता है तो वे निनेवे के असुरबनिपाल के सचित्र प्रासाद हैं। फिर भी दोनों में काफी अंतर है। जहाँ असुरबनिपाल के महल सूने हैं और ठंडे तथा जाड़ों के लिए असुविधाजनक लगते हैं वहाँ मिनोई राजप्रासाद गरम और आरामदेह हैं और उनकी चित्रित दीवारों से लगता है कि उनमें भरापूरा जीवन लहरें मारता था। उनके भित्तिचित्रों से प्रगट है कि क्नोसस के महलों के भीतर राजा का दरबार भरा रहता था, और उसमें नर और नारी परिचारकों की संख्या बड़ी थी। राजा और उसके दरबारी सभी प्रसन्न और जीवन को निर्बध भोगते हुए चित्रित हुए हैं। चित्रों की आकृतियाँ अनेक बार कठोर और निश्छंद रूढ़िगत सी हो गई हैं, कुछ भोंडी भी हैं, परंतु उनकी रेखाएँ बड़ी सबल हैं। उनके खाके निश्चय असाधारण कलावंतों ने खींचे होंगे। भित्तिचित्रों से प्रमाणित है कि दरबार के आमोदप्रमोदों में नारियाँ उसी स्वच्छंदता से भाग लेती थीं जैसे पुरुष। नर और नारी दोनों समान अधिकार से सामाजिक जीवन में भाग लेते थे, और प्रतीत तो ऐसा होता है कि राजमहल और समाज के जीवन में नारी का ही प्रभुत्व अधिक था। इसमें संदेह नहीं कि उस प्राचीन जगत्‌ में क्रीत की सभ्यता ने जितने अधिकार नारी को दिए, पुरुष का समवर्ती जो स्थान उसे दिया वह तब के जीवन में कहीं और संभव न था।

भित्तिचित्रों में नारी की त्वचा श्वेत और पुरुष की रक्तिम चित्रित हुई है, प्राय: मिस्री रीति के अनुसार। दरबारी दाढ़ी मूँछ मुड़ाकर चेहरे साफ रखते थे और केश लंबे, जिन्हें वे नारियों की ही भाँति वेणियों में सजा लेते थे। अनेक बार तो साँड़ों की लड़ाई देखते लड़कों में लड़कियों का पहचानना कठिन हो जाता है और यदि उनकी त्वचा रूढ़िगत रंगों से स्पष्ट न कर दी गई होती तो दोनों का दर्शन नितांत समान होता। नारियों में परदा न था, यह तो उस काल के चित्रित दृश्यों से अनुमित हो ही जाता है, वैसे भी खिड़कियों में बिना घूँघट के बैठी नारियों की आकृतियों से उनकी इस अनवगुंठित स्थिति का प्रकाश होता है। नारियाँ गर्दन और बाहुओं को निरावृत्त रखती थीं, हारों से ढक लेती थीं, वस्त्र कटि पर कस लेती थीं, और नीचे अपने घाघरे की चूनटें की चूनटें आकर्षक रूप से पैरों पर गिरा लेती थीं। पिछले युग के चित्रों में नारियाँ, कम से कम राजमहल की, मस्तक पर किरीट भी पहने हुए हैं। पुरुषों का वेश उनसे भिन्न था, अत्यंत साधारण। वे कटि से नीचे जाँघिया पहनते थे, अनेक बार मिस्री चित्रों के पुरुषों की घुटनों तक पहुँचानेवाली तहमत की तरह, किंतु रंगों के प्रयोग से चमत्कृत। मिस्री पुरुषों की भाँति उनके शरीर का ऊर्ध्वार्ध नंगा रहता था, और जब तब वे कोनदार टोपी पहनते थे। पुरुषों के केश वेणीबद्ध या खुले ही कमर तक लटकते थे या जब तब वे उनमें गाँठ लगा सिर के ऊपर बाँध लेते थे। क्नोसस के पुरुष भी पिछले युग के खत्तियों की भाँति पैरों में ऊँची सैंडिल या बूट पहनते थे। मिनोई सभ्यता की नरनारियों का रंगरूप प्राय: आज के इटलीवालों का सा था। उनके नेत्र और केश काले थे, नारियों का रंग संभवत: धूमिलश्वेत और पुरुषों का चटख ताम्र।

जीवन सुखी, आमोदमय और प्रसन्न था। लोग नर-पशु-युद्ध देखते और उनमें भाग लेते थे। परंतु उनके पास संभवत: रक्षा के साधन कम थे, कम से कम कवच खुदाइयों में नहीं मिला है। तलवार का उपयोग वे निश्चय करते थे।

आमोद के जीवन में स्वाभाविक ही धर्म की कठोर रूढ़ियाँ समाज को आतंकित नहीं कर पातीं और मिनोई समाज में भी उनका अभाव था। परंतु उनके देवता थे, यद्यपि उनको स्पष्टत: पहचान पाना कठिन है। फिर भी यह स्पष्टत: कहा जा सकता है कि लोगों का विश्वास वृक्षों, चट्टानों, नदियों आदि से संबंधित देवताओं में था और कम से कम एक विशिष्ट सर्पदेवी की मातृपूजा वे अवश्य करते थे। इस प्रकार की मातृदेवी की आकृतियाँ जो सर्प धारण करती हैं वहाँ चित्रित मिली हैं।

महलों के भित्तिचित्रों से तो प्रगट ही है कि चित्रकला विशेष रूप से कलावंतों द्वारा विकसित हुई थी, और उनमें रंगों का प्राधान्य एक तकनीक का आभास भी देता है। पत्थर को कोरकर मूर्ति बनाने अथवा उसकी पृष्ठभूमि से उभारकर दृश्य लिखने की कला ने नि:संदेह एशियाई देशों के अनुपात में प्रश्रय नहीं पाया था, और उनकी उपलब्धि अत्यंत न्यून संख्या में हुई है। आगिया त्रियादा से मिले कुछ उत्कीर्ण दृश्य निश्चय ऐसे हैं जिनकी प्रशंसा किए बिना आज का कलापारखी भी न रह सकेगा।

अंतिम युग

पिछले युगों में ईजियाई सभ्यता के निर्माताओं ने राजनीतिक दृष्टि से अनेक सफल प्रयत्न किए। आसपास के समुद्रों और द्वीपों पर उन्होंने अपना साम्राज्य फैलाया और प्रमाणत: उनका वह साम्राज्य ग्रीस और लघुएशिया (अनातोलिया) पर भी फैला जहाँ उन्होंने मिकीनी, त्राय आदि नगरों के चतुर्दिक अपने उपनिवेश बनाए। परंतु संभवत: साम्राज्यनिर्माण उनके बूते का न था और उन्होंने उस प्रयत्न में अपने आपको ही नष्ट कर दिया। यह सही है कि ग्रीस के स्थल भाग पर उनका अधिकार हो जाने से उनकी आय बढ़ गई पर उपनिवेशों की सँभाल स्वयं बड़े श्रम का कार्य था, जिसका निर्वाह कर सकना उनके लिए संभव न हुआ। परिणामत: जब बाहर से आक्रमणकारी आए तब आमोदप्रिय मिनोई नागरिक उनकी चोटों का सफल उत्तर न दे सके और उन्हें आत्मसमर्पण करना पड़ा। परंतु विजेताओं को यह निष्क्रिय आत्मसमर्पण स्वीकार न था और उन्होंने उसे नष्ट करके ही दम लिया।

यह कहना कठिन है कि ये आक्रमणकारी कौन थे। इस संबंध में विद्वानों के अनेक मत हैं। कुछ उन्हें मूल ग्रीक मानते हैं, कुछ एशियाई, कुछ दोरियाई , कुछ खत्ती, कुछ अनातोलिया के निवासी। पंरतु प्राय: सभी, कम से कम आंशिक रूप में, यह मानते हैं कि आक्रांता आर्य जाति के थे और संभवत: उत्तर से आए थे जो अपने मिनोई शत्रुओं को नष्ट कर उनकी ही बस्तियों में बस गए। नाश के कार्य में वे प्रधानत: प्रवीण थे क्योंकि उन्होंने एक ईटं दूसरी ईटं पर न रहने दी। आक्रांता धारावत्‌ एक के बाद एक आते गए और ग्रीक नगरों को ध्वस्त करते गए। फिर उन्होंने सागर लाँघ क्रीत के समृद्ध राजमहलों को लूटा जिनके ऐश्वर्य के कुछ प्रमाण उन्होंने उनके स्थलवर्ती उपनिवेशों में ही पा लिए थे। और इन्होंने वहाँ के आकर्षक जनप्रिय मुदित जीवन का अंत कर डाला। क्नोसस और फ़ाइस्तस के महलों में सदियों से समृद्धि संचित होती आई थी, रुचि की वस्तुएँ एकत्र होती आई थीं, उन सबको, आधार और आधेय के साथ, उन बर्बर आक्रांताओं ने अग्नि की लपटों में डाल भस्मसात्‌ कर दिया। सहस्राब्दियों क्रीत की वह ईजियाई सभ्यता समाधिस्थ पड़ी रही, जब तक 19वीं सदी में आर्थर ईवांस ने खोदकर उसे जगा न दिया।

होमरिक काव्य

होमर ने अपने ईलियद में जिस त्राय के युद्ध की कथा अमर कर दी है वह त्राय उसी मिनोई ईजियाई सभ्यता का एक उपनिवेश था, राजा प्रियम्‌ की राजधानी, जिसके राजकुमार पेरिस ने ईजियाई सभ्यता को नष्ट करनेवाले एकियाई वीरों में प्रधान अगामेम्नन के भाई मेनेलाउ की भार्या हेलेन को हर लिया था। होमर की उस कथा का लघुएशिया के उस ईजियाई उपनिवेश त्राय की नगरी के विध्वंस से सीधा संबंध है और उसकी ओर संकेत कर देना यहाँ अनुचित न होगा। उस त्राय नगरी को श्लीमान ने खोद निकाला है, एक के ऊपर एक बसी त्राय की छह नगरियों के भग्नावशेषों को, जिनमें से कम से कम सबसे निचली दो होमर की कथा की त्राय नगरी से पूर्व के हैं।

महाकवि होमर स्वयं संभवत: ई.पू. 9वीं सदी में हुआ था। उसके समय में अनंत एकियाई वीरगाथाएँ जातियों और जनों में प्रचलित थीं जिनको एकत्र कर एकरूपीय श्रृंखला में अपने मधुर गेय भावस्रोत के सहारे होमर ने बाँधा। ये गाथाएँ कम से कम तीन चार सौ वर्ष पुरानी तो उसके समय तक हो ही चुकी थीं। इन्हीं गाथाओं में संभवत: एकियाई जातियों का ग्रीस के ईजियाई उपनिवशों और स्वयं क्रीत के नगरों पर आक्रमण वर्णित था जिसका लाभ होमर को हुआ। कुछ आश्चर्य नहीं जो एकियाई जातियों ने ही ईजियाई सभ्यता का विनाश किया हो। परंतु एकियाई जातियों के बाद भी लगातार उत्तर से आनेवाली आर्य ग्रीक जातियों के आक्रमण ग्रीस पर होते रहे। उन जातियों मे विशिष्ट दोरियाई जाति थी जिसने संभवत: 12वीं सदी ई.पू. में समूचे ग्रीस को लौहायुधों द्वारा जीत लिया और सभ्यता की उस प्राचीन भूमि पर, प्राचीन नगरों के भग्नावशेषों के आसपास, और उसी प्रकार क्वाँरी भूमि पर भी, उनके नगर बसे जो प्राचीन ग्रीस के नगरराज्यों के रूप में प्रसिद्ध हुए और जिन्होंने पेरिक्लीज़ और सुकरात के संसार का निर्माण किया।

सन्दर्भ ग्रंथ

  • एच.आर.हाल : दि एशेंट हिस्ट्री ऑव्‌ द नियर ईस्ट, मेथुएन ऐंड को., लिमिटेड, लंदन, 1950;
  • भगवत्शरण उपाध्याय : दि एंशेंट वर्ल्ड, हैदराबाद, 1954;
  • एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका, खंड 1, 1956;
  • श्लीमांस एक्स्कैवेशंस, 1891;
  • एच. आर.हाल : दि ओल्

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ