"भीमराव आम्बेडकर": अवतरणों में अंतर

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17:12, 17 सितंबर 2019 का अवतरण

बोधिसत्व
बाबासाहब

भीमराव रामजी आम्बेडकर
भीमराव रामजी आंबेडकर
1939 में भीमराव आम्बेडकर

पद बहाल
3 अप्रैल 1952 – 6 दिसम्बर 1956
राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद
प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू

पद बहाल
15 अगस्त 1947 – सप्टेंबर 1951
राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद
प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू
पूर्वा धिकारी पद स्थापित
उत्तरा धिकारी चारु चंद्र बिस्वार

पद बहाल
29 अगस्त 1947 – 24 जनवरी 1950

पद बहाल
जुलाई 1942 – 1946
पूर्वा धिकारी फ़िरोज़ खान नून

पद बहाल
1937–1942

पद बहाल
1937–1942
चुनाव-क्षेत्र बॉम्बे शहर

बॉम्बे विधान परिषद के सदस्य
पद बहाल
1926–1936

जन्म 14 अप्रैल 1891
महू, मध्य प्रांत, ब्रिटिश भारत
(अब डॉ॰ आम्बेडकर नगर, मध्य प्रदेश, भारत में)
मृत्यु 6 दिसम्बर 1956(1956-12-06) (उम्र 65)
नयी दिल्ली, भारत
समाधि स्थल चैत्य भूमि, मुंबई, महाराष्ट्र
जन्म का नाम भिवा, भीम, भीमराव
अन्य नाम बाबासाहब आम्बेडकर, आधुनिक मनु
राष्ट्रीयता भारतीय
राजनीतिक दल  • शेड्युल्ड कास्ट फेडरेशन
 • स्वतंत्र लेबर पार्टी
 • भारतीय रिपब्लिकन पार्टी
अन्य राजनीतिक
संबद्धताऐं
सामाजिक संघठन :
 • बहिष्कृत हितकारिणी सभा
 • समता सैनिक दल

शैक्षिक संघठन :
 • डिप्रेस्ड क्लासेस एज्युकेशन सोसायटी
 • द बाँबे शेड्युल्ड कास्ट्स इम्प्रुव्हमेंट ट्रस्ट
 • पिपल्स एज्युकेशन सोसायटी

धार्मिक संघठन :
 • भारतीय बौद्ध महासभा
जीवन संगी  • रमाबाई आम्बेडकर
(विवाह 1906 - निधन 1935)

 • डॉ॰ सविता आम्बेडकर
(विवाह 1948 - निधन 2003)
संबंध आम्बेडकर परिवार देखें
बच्चे चार पुत्र : यशवंत, रमेश, गंगाधर, राजरत्न और एक पुत्री : इन्दु
(यह पाँचो बच्चे 'रमाबाई' के थे, तथा 'यशवंत' को छोड़कर सभी संतानों की बचपन में मृत्यु हो गई थीं।)
निवास  • राजगृह, मुम्बई
 • २६ अलिपूर रोड, डॉ॰ आम्बेडकर राष्ट्रीय स्मारक, दिल्ली
शैक्षिक सम्बद्धता  • मुंबई विश्वविद्यालय (बी॰ए॰)
 • कोलंबिया विश्वविद्यालय (एम॰ए॰, पीएच॰डी॰, एलएल॰डी॰)
 • लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स (एमएस॰सी॰, डीएस॰सी॰)
 • ग्रेज इन (बैरिस्टर-एट-लॉ)
व्यवसाय वकील, प्रोफेसर व राजनीतिज्ञ
पेशा विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री,
राजनीतिज्ञ, शिक्षाविद्
दार्शनिक, लेखक
पत्रकार, समाजशास्त्री,
मानवविज्ञानी, शिक्षाविद्,
धर्मशास्त्री, इतिहासविद्
प्रोफेसर, संपादक
धर्म बौद्ध धम्म
पुरस्कार/सम्मान  • बोधिसत्व (1956)
 • भारत रत्न (1990)
 • पहले कोलंबियन अहेड ऑफ देअर टाईम (2004)
 • द ग्रेटेस्ट इंडियन (2012)
हस्ताक्षर आम्बेडकर का दस्तखत

भीमराव रामजी आम्बेडकर[a] (14 अप्रैल, 18916 दिसंबर, 1956), डॉ॰ बाबासाहब आम्बेडकर नाम से लोकप्रिय, भारतीय बहुज्ञ, विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ, और समाजसुधारक थे।[1] उन्होंने दलित बौद्ध आंदोलन को प्रेरित किया और अछूतों (दलितों) से सामाजिक भेदभाव के विरुद्ध अभियान चलाया था। श्रमिकों, किसानों और महिलाओं के अधिकारों का समर्थन भी किया था।[2] वे स्वतंत्र भारत के प्रथम विधि एवं न्याय मंत्री, भारतीय संविधान के जनक एवं भारत गणराज्य के निर्माता थे।[3][4][5][6]

आम्बेडकर विपुल प्रतिभा के छात्र थे। उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स दोनों ही विश्वविद्यालयों से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधियाँ प्राप्त कीं तथा विधि, अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान में शोध कार्य भी किये थे।[7] व्यावसायिक जीवन के आरम्भिक भाग में ये अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहे एवं वकालत भी की तथा बाद का जीवन राजनीतिक गतिविधियों में अधिक बीता। तब आम्बेडकर भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रचार और चर्चाओं में शामिल हो गए और पत्रिकाओं को प्रकाशित करने, राजनीतिक अधिकारों की वकालत करने और दलितों के लिए सामाजिक स्वतंत्रता की वकालत और भारत के निर्माण में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा।[8]

1956 में उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया। 1990 में, उन्हें भारत रत्न, भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान से मरणोपरांत सम्मानित किया गया था। १४ अप्रैल को उनका जन्म दिवस आम्बेडकर जयंती एक तौहार के रूप में भारत समेत दुनिया भर में मनाया जाता है।[9] आम्बेडकर की विरासत में लोकप्रिय संस्कृति में कई स्मारक और चित्रण शामिल हैं।[10][11]

प्रारंभिक जीवन

चित्र:Pictures of Dr Ambedkar's parents - Ramji Ambedkar and Bhimabai.jpg
भीमराव आम्बेडकर के माता-पिता की तस्वीरें, रामजी सकपाल एवं भीमाबाई सकपाल

आम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को ब्रिटिश भारत के मध्य भारत प्रांत (अब मध्य प्रदेश) में स्थित महू नगर सैन्य छावनी में हुआ था।[12] वे रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई की १४ वीं व अंतिम संतान थे।[13] उनका परिवार कबीर पंथ को माननेवाला मराठी मूूल का था और वो वर्तमान महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में आंबडवे गांव का निवासी था।[14] वे हिंदू महार जाति से संबंध रखते थे, जो तब अछूत कही जाती थी और इस कारण उन्हें सामाजिक और आर्थिक रूप से गहरा भेदभाव सहन करना पड़ता था।[15] भीमराव आम्बेडकर के पूर्वज लंबे समय से ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में कार्यरत रहे थे और उनके पिता रामजी सकपाल, भारतीय सेना की महू छावनी में सेवारत थे तथा यहां काम करते हुये वे सुबेदार के पद तक पहुँचे थे। उन्होंने मराठी और अंग्रेजी में औपचारिक शिक्षा प्राप्त की थी।[16]

अपनी जाति के कारण बालक भीम को सामाजिक प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा था। विद्यालयी पढ़ाई में सक्षम होने के बावजूद छात्र भीमराव को छुआछूत के कारण अनेका प्रकार की कठनाइयों का सामना करना पड़ता था। रामजी आम्बेडकर ने सन 1898 में जिजाबाई से पुनर्विवाह कर लिया। 7 नवम्बर 1900 को रामजी सकपाल ने सातारा की गवर्न्मेण्ट हाइस्कूल में अपने बेटे भीमराव का नाम भिवा रामजी आंबडवेकर दर्ज कराया। भिवा उनके बचपन का नाम था। आम्बेडकर का मूल उपनाम सकपाल की बजाय आंबडवेकर लिखवाया था, जो कि उनके आंबडवे गांव से संबंधित था। क्योंकी कोकण प्रांत के लोग अपना उपनाम गांव के नाम से रखते थे, अतः आम्बेडकर के आंबडवे गांव से आंबडवेकर उपनाम स्कूल में दर्ज करवाया गया। बाद में एक देवरुखे ब्राह्मण शिक्षक कृष्णा महादेव आंबेडकर जो उनसे विशेष स्नेह रखते थे, ने उनके नाम से 'आंबडवेकर' हटाकर अपना सरल 'आंबेडकर' उपनाम जोड़ दिया।[17] तब से आज तक वे आम्बेडकर नाम से जाने जाते हैं।

रमाबाई आम्बेडकर, आम्बेडकर की पत्नी

रामजी सकपाल परिवार के साथ बंबई (अब मुंबई) चले आये। अप्रैल 1906 में, जब भीमराव लगभग 15 वर्ष आयु के थे, तो नौ साल की लड़की रमाबाई से उनकी शादी कराई गई थी। तब वे पांचवी अंग्रेजी कक्षा पढ रहे थे।[18] उन दिनों भारत में बाल-विवाह का प्रचलन था।

शिक्षा

प्राथमिक शिक्षा

आंबेडकर ने सातारा शहर में राजवाड़ा चौक पर स्थित गवर्न्मेण्ट हाईस्कूल (अब प्रतापसिंह हाईस्कूल) में 7 नवंबर 1900 को अंग्रेजी की पहली कक्षा में प्रवेश लिया। इसी दिन से उनके शैक्षिक जीवन का आरम्भ हुआ था, इसलिए 7 नवंबर को महाराष्ट्र में विद्यार्थी दिवस रूप में मनाया जाता हैं। उस समय उन्हें 'भिवा' कहकर बुलाया जाता था। स्कूल में उस समय 'भिवा रामजी आंबेडकर' यह उनका नाम उपस्थिति पंजिका में क्रमांक - 1914 पर अंकित था। जब वे अंग्रेजी चौथी कक्षा की परीक्षा उत्तीर्ण हुए, तब क्योंकि यह अछूतों में असामान्य बात थी, इसलिए भीमराव की इस सफलता को अछूतों के बीच और सार्वजनिक समारोह में मनाया गया, और उनके परिवार के मित्र एवं लेखक दादा केलुस्कर द्वारा खुद की लिखी 'बुद्ध की जीवनी' उन्हें भेंट दी गयी। इसे पढकर उन्होंने पहली बार गौतम बुद्धबौद्ध धर्म को जाना एवं उनकी शिक्षा से प्रभावित हुए।[19]

माध्यमिक शिक्षा

1897 में, आम्बेडकर का परिवार मुंबई चला गया जहां उन्होंने एल्फिंस्टोन रोड पर स्थित गवर्न्मेंट हाईस्कूल में आगे कि शिक्षा प्राप्त की।

बॉम्बे विश्वविद्यालय में स्नातक अध्ययन

एक छात्र के रूप में आम्बेडकर

1907 में, उन्होंने अपनी मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की और अगले वर्ष उन्होंने एल्फिंस्टन कॉलेज में प्रवेश किया, जो कि बॉम्बे विश्वविद्यालय से संबद्ध था।[19] इस स्तर पर शिक्षा प्राप्त करने वाले अपने समुदाय से वे पहले व्यक्ति थे।

1912 तक, उन्होंने बॉम्बे विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र और राजनीतिक विज्ञान में कला स्नातक (बी॰ए॰) प्राप्त की, और बड़ौदा राज्य सरकार के साथ काम करने लगे। उनकी पत्नी ने अभी अपने नये परिवार को स्थानांतरित कर दिया था और काम शुरू किया जब उन्हें अपने बीमार पिता को देखने के लिए मुंबई वापस लौटना पड़ा, जिनका 2 फरवरी 1913 को निधन हो गया।[20]

कोलंबिया विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर अध्ययन

कोलंबिया विश्वविद्यालय में आम्बेडकर

1913 में, आम्बेडकर 22 साल की आयु में संयुक्त राज्य अमेरिका चले गए जहां उन्हें सयाजीराव गायकवाड़ तृतीय (बड़ौदा के गायकवाड़) द्वारा स्थापित एक योजना के तहत न्यू यॉर्क शहर स्थित कोलंबिया विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर शिक्षा के अवसर प्रदान करने के लिए तीन साल के लिए 11.50 डॉलर प्रति माह बड़ौदा राज्य की छात्रवृत्ति प्रदान की गई थी। वहां पहुंचने के तुरंत बाद वे लिविंगस्टन हॉल में पारसी मित्र नवल भातेना के साथ बस गए। जून 1915 में उन्होंने अपनी कला स्नातकोत्तर (एम॰ए॰) परीक्षा पास की, जिसमें अर्थशास्त्र प्रमुख विषय, और समाजशास्त्र, इतिहास, दर्शनशास्त्र और मानव विज्ञान यह अन्य विषय थे। उन्होंने स्नातकोत्तर के लिए एशियंट इंडियन्स कॉमर्स (प्राचीन भारतीय वाणिज्य) विषय पर शोध कार्य प्रस्तुत किया। आम्बेडकर जॉन डेवी और लोकतंत्र पर उनके काम से प्रभावित थे।

1916 में, उन्हें अपना दूसरा शोध कार्य, नेशनल डिविडेंड ऑफ इंडिया - ए हिस्टोरिक एंड एनालिटिकल स्टडी के लिए दूसरी कला स्नातकोत्तर प्रदान की गई, और अन्ततः उन्होंने लंदन की राह ली। 1916 में अपने तीसरे शोध कार्य इवोल्युशन ओफ प्रोविन्शिअल फिनान्स इन ब्रिटिश इंडिया के लिए अर्थशास्त्र में पीएचडी प्राप्त की, अपने शोध कार्य को प्रकाशित करने के बाद 1927 में अधिकृत रुप से पीएचडी प्रदान की गई।[21] 9 मई को, उन्होंने मानव विज्ञानी अलेक्जेंडर गोल्डनवेइज़र द्वारा आयोजित एक सेमिनार में भारत में जातियां: उनकी प्रणाली, उत्पत्ति और विकास नामक एक शोध पत्र प्रस्तुत किया, जो उनका पहला प्रकाशित पत्र था। 3 वर्ष तक की अवधि के लिये मिली हुई छात्रवृत्ति का उपयोग उन्होंने केवल दो वर्षों में अमेरिका में पाठ्यक्रम पूरा करने में किया और 1916 में वे लंदन गए।[22]

लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में स्नातकोत्तर अध्ययन

लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के अपने प्रोफेसरों और दोस्तों के साथ आम्बेडकर (केंद्र रेखा में, दाएं से पहले), 1916 - 17
सन 1922 में एक बैरिस्टर के रूप में डॉ॰ भीमराव आम्बेडकर

अक्टूबर 1916 में, ये लंदन चले गये और वहाँ उन्होंने ग्रेज़ इन में बैरिस्टर कोर्स (विधि अध्ययन) के लिए प्रवेश लिया, और साथ ही लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में भी प्रवेश लिया जहां उन्होंने अर्थशास्त्र की डॉक्टरेट थीसिस पर काम करना शुरू किया। जून 1917 में, विवश होकर उन्हें अपना अध्ययन अस्थायी तौरपर बीच में ही छोड़ कर भारत लौट आए क्योंकि बड़ौदा राज्य से उनकी छात्रवृत्ति समाप्त हो गई थी। लौटते समय उनके पुस्तक संग्रह को उस जहाज से अलग जहाज पर भेजा गया था जिसे जर्मन पनडुब्बी के टारपीडो द्वारा डुबो दिया गया। ये प्रथम विश्व युद्ध का काल था।[20] उन्हें चार साल के भीतर अपने थीसिस के लिए लंदन लौटने की अनुमति मिली। बड़ौदा राज्य के सेना सचिव के रूप में काम करते हुये अपने जीवन में अचानक फिर से आये भेदभाव से डॉ॰ भीमराव आम्बेडकर निराश हो गये और अपनी नौकरी छोड़ एक निजी ट्यूटर और लेखाकार के रूप में काम करने लगे। यहाँ तक कि उन्होंने अपना परामर्श व्यवसाय भी आरंभ किया जो उनकी सामाजिक स्थिति के कारण विफल रहा। अपने एक अंग्रेज जानकार मुंबई के पूर्व राज्यपाल लॉर्ड सिडनेम के कारण उन्हें मुंबई के सिडनेम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनोमिक्स मे राजनीतिक अर्थव्यवस्था के प्रोफेसर के रूप में नौकरी मिल गयी। १९२० में कोल्हापुर के शाहू महाराज, अपने पारसी मित्र के सहयोग और कुछ निजी बचत के सहयोग से वो एक बार फिर से इंग्लैंड वापस जाने में सफ़ल हो पाए तथा 1921 में विज्ञान स्नातकोत्तर (एम॰एससी॰) प्राप्त की, जिसके लिए उन्होंने 'प्रोवेन्शियल डीसेन्ट्रलाईज़ेशन ऑफ इम्पीरियल फायनेन्स इन ब्रिटिश इण्डिया' (ब्रिटिश भारत में शाही अर्थ व्यवस्था का प्रांतीय विकेंद्रीकरण) खोज ग्रन्थ प्रस्तुत किया था।[23][24][7] 1922 में, उन्हें ग्रेज इन ने बैरिस्टर-एट-लॉज डिग्री प्रदान की और उन्हें ब्रिटिश बार में बैरिस्टर के रूप में प्रवेश मिल गया। 1923 में, उन्होंने अर्थशास्त्र में डी॰एससी॰ (डॉक्टर ऑफ साईंस) उपाधि प्राप्त की। उनकी थीसिस "दी प्राब्लम आफ दि रुपी: इट्स ओरिजिन एंड इट्स सॉल्यूशन" (रुपये की समस्या: इसकी उत्पत्ति और इसका समाधान) पर थी। लंदन का अध्ययन पूर्ण कर भारत वापस लौटते हुये भीमराव आम्बेडकर तीन महीने जर्मनी में रुके, जहाँ उन्होंने अपना अर्थशास्त्र का अध्ययन, बॉन विश्वविद्यालय में जारी रखा। किंतु समय की कमी से वे विश्वविद्यालय में अधिक नहीं ठहर सकें। उनकी तीसरी और चौथी डॉक्टरेट्स (एलएल॰डी॰, कोलंबिया विश्वविद्यालय, 1952 और डी॰लिट॰, उस्मानिया विश्वविद्यालय, 1953) सम्मानित उपाधियाँ थीं।[25]

छुआछूत के विरुद्ध संघर्ष

भाषण करते हुए आम्बेडकर

आम्बेडकर ने कहा था "छुआछूत गुलामी से भी बदतर है।"[26] आम्बेडकर बड़ौदा के रियासत राज्य द्वारा शिक्षित थे, अतः उनकी सेवा करने के लिए बाध्य थे। उन्हें महाराजा गायकवाड़ का सैन्य सचिव नियुक्त किया गया, लेकिन जातिगत भेदभाव के कारण कुछ ही समय में उन्हें यह नौकरी छोड़नी पडी। उन्होंने इस घटना को अपनी आत्मकथा, वेटिंग फॉर अ वीजा में वर्णित किया।[27] इसके बाद, उन्होंने अपने बढ़ते परिवार के लिए जीविका साधन खोजने के पुनः प्रयास किये, जिसके लिये उन्होंने लेखाकार के रूप में, व एक निजी शिक्षक के रूप में भी काम किया, और एक निवेश परामर्श व्यवसाय की स्थापना की, किन्तु ये सभी प्रयास तब विफल हो गये जब उनके ग्राहकों ने जाना कि ये अछूत हैं।[28] 1918 में, ये मुंबई में सिडेनहम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनॉमिक्स में राजनीतिक अर्थशास्त्र के प्रोफेसर बने। हालांकि वे छात्रों के साथ सफल रहे, फिर भी अन्य प्रोफेसरों ने उनके साथ पानी पीने के बर्तन साझा करने पर विरोध किया।[29]

भारत सरकार अधिनियम १९१९, तैयार कर रही साउथबरो समिति के समक्ष, भारत के एक प्रमुख विद्वान के तौर पर आम्बेडकर को साक्ष्य देने के लिये आमंत्रित किया गया। इस सुनवाई के दौरान, आम्बेडकर ने दलितों और अन्य धार्मिक समुदायों के लिये पृथक निर्वाचिका और आरक्षण देने की वकालत की।[30] १९२० में, बंबई से, उन्होंने साप्ताहिक मूकनायक के प्रकाशन की शुरूआत की। यह प्रकाशन शीघ्र ही पाठकों मे लोकप्रिय हो गया, तब आम्बेडकर ने इसका प्रयोग रूढ़िवादी हिंदू राजनेताओं व जातीय भेदभाव से लड़ने के प्रति भारतीय राजनैतिक समुदाय की अनिच्छा की आलोचना करने के लिये किया। उनके दलित वर्ग के एक सम्मेलन के दौरान दिये गये भाषण ने कोल्हापुर राज्य के स्थानीय शासक शाहू चतुर्थ को बहुत प्रभावित किया, जिनका आम्बेडकर के साथ भोजन करना रूढ़िवादी समाज मे हलचल मचा गया।[31]

बॉम्बे हाईकोर्ट में विधि का अभ्यास करते हुए, उन्होंने अछूतों की शिक्षा को बढ़ावा देने और उन्हें ऊपर उठाने के प्रयास किये। उनका पहला संगठित प्रयास केंद्रीय संस्थान बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना था, जिसका उद्देश्य शिक्षा और सामाजिक-आर्थिक सुधार को बढ़ावा देने के साथ ही अवसादग्रस्त वर्गों के रूप में संदर्भित "बहिष्कार" के कल्याण करना था।[32] दलित अधिकारों की रक्षा के लिए, उन्होंने मूकनायक, बहिष्कृत भारत, समता, प्रबुद्ध भारत और जनता जैसी पांच पत्रिकाएं निकालीं।[33]

सन 1925 में, उन्हें बम्बई प्रेसीडेंसी समिति में सभी यूरोपीय सदस्यों वाले साइमन कमीशन में काम करने के लिए नियुक्त किया गया।[34] इस आयोग के विरोध में भारत भर में विरोध प्रदर्शन हुये। जहां इसकी रिपोर्ट को अधिकतर भारतीयों द्वारा नजरअंदाज कर दिया गया, आम्बेडकर ने अलग से भविष्य के संवैधानिक सुधारों के लिये सिफारिश लिखकर भेजीं।[35]

'जयस्तंभ', कोरेगाँव भिमा में डॉ॰ बाबासाहब आम्बेडकर एवं उनके अनुयायि, 1 जनवरी 1927

द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध के अन्तर्गत १ जनवरी 1818 को हुई कोरेगाँव की लड़ाई के दौरान मारे गये भारतीय महार सैनिकों के सम्मान में आम्बेडकर ने 1 जनवरी 1927 को कोरेगाँव विजय स्मारक (जयस्तंभ) में एक समारोह आयोजित किया। यहाँ महार समुदाय से संबंधित सैनिकों के नाम संगमरमर के एक शिलालेख पर खुदवाये गये तथा कोरेगांव को दलित स्वाभिमान का प्रतीक बनाया।[36]

सन 1927 तक, डॉ॰ आम्बेडकर ने छुआछूत के विरुद्ध एक व्यापक एवं सक्रिय आंदोलन आरम्भ करने का निर्णय किया। उन्होंने सार्वजनिक आंदोलनों, सत्याग्रहों और जलूसों के द्वारा, पेयजल के सार्वजनिक संसाधन समाज के सभी वर्गों के लिये खुलवाने के साथ ही उन्होनें अछूतों को भी हिंदू मंदिरों में प्रवेश करने का अधिकार दिलाने के लिये संघर्ष किया। उन्होंने महाड शहर में अछूत समुदाय को भी शहर की चवदार तालाब से पानी लेने का अधिकार दिलाने कि लिये सत्याग्रह चलाया।[37] 1927 के अंत में सम्मेलन में, आम्बेडकर ने जाति भेदभाव और "छुआछूत" को वैचारिक रूप से न्यायसंगत बनाने के लिए, प्राचीन हिंदू पाठ, मनुस्मृति, जिसके कई पद, खुलकर जातीय भेदभाव व जातिवाद का समर्थन करते हैं,[38] की सार्वजनिक रूप से निंदा की, और उन्होंने औपचारिक रूप से प्राचीन पाठ की प्रतियां जलाईं।[39] 25 दिसंबर 1927 को, उन्होंने हजारों अनुयायियों के नेतृत्व में मनुस्मृति की प्रतियों को जलाया।[40][41][42] इसकी स्मृति में प्रतिवर्ष 25 दिसंबर को मनुस्मृति दहन दिवस के रूप में आम्बेडकरवादियों और हिंदू दलितों द्वारा मनाया जाता है।[43][44]

1930 में, आम्बेडकर ने तीन महीने की तैयारी के बाद कालाराम मन्दिर सत्याग्रह शुरू किया। कालाराम मन्दिर आंदोलन में लगभग 15,000 स्वयंसेवक इकट्ठे हुए, जिससे नाशिक की सबसे बड़ी प्रक्रियाएं हुईं। जुलूस का नेतृत्व एक सैन्य बैंड ने किया था, स्काउट्स का एक बैच, महिलाएं और पुरुष पहली बार भगवान को देखने के लिए अनुशासन, आदेश और दृढ़ संकल्प में चले गए थे। जब वे द्वार तक पहुंचे, तो द्वार ब्राह्मण अधिकारियों द्वारा बंद कर दिए गए।[45]

पूना पैक्ट

दूसरा गोलमेज सम्मेलन, १९३१; जिसमें आंबेडकर (दाये से पहले), गांधी, मालवीय व आदी लोग शामील थे

अब तक भीमराव आम्बेडकर आज तक की सबसे बडी़ अछूत राजनीतिक हस्ती बन चुके थे। उन्होंने मुख्यधारा के महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों की जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति उनकी कथित उदासीनता की कटु आलोचना की। आम्बेडकर ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और उसके नेता महात्मा गांधी की भी आलोचना की, उन्होंने उन पर अछूत समुदाय को एक करुणा की वस्तु के रूप मे प्रस्तुत करने का आरोप लगाया। आम्बेडकर ब्रिटिश शासन की विफलताओं से भी असंतुष्ट थे, उन्होंने अछूत समुदाय के लिये एक ऐसी अलग राजनीतिक पहचान की वकालत की जिसमे कांग्रेस और ब्रिटिश दोनों की ही कोई दखल ना हो। लंदन में 8 अगस्त, 1930 को एक शोषित वर्ग के सम्मेलन यानी प्रथम गोलमेज सम्मेलन के दौरान आम्बेडकर ने अपनी राजनीतिक दृष्टि को दुनिया के सामने रखा, जिसके अनुसार शोषित वर्ग की सुरक्षा उसके सरकार और कांग्रेस दोनों से स्वतंत्र होने में है।[13]

हमें अपना रास्ता स्वयँ बनाना होगा और स्वयँ... राजनीतिक शक्ति शोषितो की समस्याओं का निवारण नहीं हो सकती, उनका उद्धार समाज मे उनका उचित स्थान पाने में निहित है। उनको अपना रहने का बुरा तरीका बदलना होगा... उनको शिक्षित होना चाहिए... एक बड़ी आवश्यकता उनकी हीनता की भावना को झकझोरने और उनके अंदर उस दैवीय असंतोष की स्थापना करने की है जो सभी उँचाइयों का स्रोत है।[13]

आम्बेडकर ने कांग्रेस और गांधी द्वारा चलाये गये नमक सत्याग्रह की आलोचना की। उनकी अछूत समुदाय मे बढ़ती लोकप्रियता और जन समर्थन के चलते उनको 1931 मे लंदन में होने वाले दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भी, भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया। वहाँ उनकी अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने के मुद्दे पर गांधी से तीखी बहस हुई, एवं ब्रिटिश डॉ॰ आम्बेडकर के विचारों से सहमत हुए। धर्म और जाति के आधार पर पृथक निर्वाचिका देने के प्रबल विरोधी गांधी ने आशंका जताई, कि अछूतों को दी गयी पृथक निर्वाचिका, हिंदू समाज को विभाजित कर देगी। गांधी को लगता था की, सवर्णों को छुआछूत भूलाने के लिए उनके ह्रदयपरिवर्तन होने के लिए उन्हें कुछ वर्षों की अवधि दी जानी चाहिए, किन्तु यह तर्क गलत सिद्ध हुआ जब सवर्णों हिंदूओं द्वारा पूना संधि के कई दशकों बाद भी छुआछूत का नियमित पालन होता रहा।[46]

24 सप्टेंबर 1932 को यरवदा केंद्रीय कारागार में एम आर जयकर, तेज बहादुर व डॉ॰ आम्बेडकर (दाए से दुसरे)

1932 में जब ब्रिटिशों ने आम्बेडकर के विचारों के साथ सहमति व्यक्त करते हुये अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने की घोषणा की। कम्युनल अवार्ड की घोषणा गोलमेज सम्मेलन में हुए विचार विमर्श का ही परिणाम था। इस समझौते के तहत आम्बेडकर द्वारा उठाई गई राजनैतिक प्रतिनिधित्व की मांग को मानते हुए पृथक निर्वाचिका में दलित वर्ग को दो वोटों का अधिकार प्रदान किया गया। इसके अंतर्गत एक वोट से दलित अपना प्रतिनिधि चुन सकते थे व दूसरी वोट से सामान्य वर्ग का प्रतिनिधि चुनने की आजादी थी। इस प्रकार दलित प्रतिनिधि केवल दलितों की ही वोट से चुना जाना था। इस प्रावधान से अब दलित प्रतिनिधि को चुनने में सामान्य वर्ग का कोई दखल शेष नहीं रहा था। लेकिन वहीं दलित वर्ग अपनी दूसरी वोट का इस्तेमाल करते हुए सामान्य वर्ग के प्रतिनिधि को चुनने से अपनी भूमिका निभा सकता था। ऐसी स्थिति में दलितों द्वारा चुना गया दलित उम्मीदवार दलितों की समस्या को अच्छी तरह से तो रख सकता था किन्तु गैर उम्मीदवार के लिए यह जरूरी नहीं था कि उनकी समस्याओं के समाधान का प्रयास भी करता।[47]

गांधी इस समय पूना की येरवडा जेल में थे। कम्युनल एवार्ड की घोषणा होते ही गांधी ने पहले तो प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर इसे बदलवाने की मांग की। लेकिन जब उनको लगा कि उनकी मांग पर कोई अमल नहीं किया जा रहा है तो उन्होंने मरण व्रत रखने की घोषणा कर दी। तभी आम्बेडकर ने कहा कि "यदि गांधी देश की स्वतंत्रता के लिए यह व्रत रखता तो अच्छा होता, लेकिन उन्होंने दलित लोगों के विरोध में यह व्रत रखा है, जो बेहद अफसोसजनक है। जबकि भारतीय ईसाइयो, मुसलमानों और सिखों को मिले इसी (पृथक निर्वाचन के) अधिकार को लेकर गांधी की ओर से कोई आपत्ति नहीं आई।" उन्होंने यह भी कहा कि गांधी कोई अमर व्यक्ति नहीं हैं। भारत में न जाने कितने ऐसे लोगों ने जन्म लिया और चले गए। आम्बेडकर ने कहा कि गांधी की जान बचाने के लिए वह दलितों के हितों का त्याग नहीं कर सकते। अब मरण व्रत के कारण गांधी की तबियत लगातार बिगड रही थी। गांधी के प्राणों पर भारी संकट आन पड़ा। और पूरा हिंदू समाज आम्बेडकर का विरोधी बन गया।[48]

देश में बढ़ते दबाव को देख आम्बेडकर 24 सितम्बर 1932 को शाम पांच बजे येरवडा जेल पहुंचे। यहां गांधी और आम्बेडकर के बीच समझौता हुआ, जो बाद में पूना पैक्ट के नाम से जाना गया। इस समझौते मे आम्बेडकर ने दलितों को कम्यूनल अवॉर्ड में मिले पृथक निर्वाचन के अधिकार को छोड़ने की घोषणा की। लेकिन इसके साथ हीं कम्युनल अवार्ड से मिली 78 आरक्षित सीटों की बजाय पूना पैक्ट में आरक्षित सीटों की संख्या बढ़ा कर 148 करवा ली। इसके साथ ही अछूत लोगो के लिए प्रत्येक प्रांत मे शिक्षा अनुदान मे पर्याप्त राशि नियत करवाईं और सरकारी नौकरियों से बिना किसी भेदभाव के दलित वर्ग के लोगों की भर्ती को सुनिश्चित किया और इस तरह से आम्बेडकर ने महात्मा गांधी की जान बचाई। आम्बेडकर इस समझौते से असमाधानी थे, उन्होंने गाँधी के इस अनशन को अछूतों को उनके राजनीतिक अधिकारों से वंचित करने और उन्हें उनकी माँग से पीछे हटने के लिये दवाब डालने के लिये गांधी द्वारा खेला गया एक नाटक करार दिया। 1942 में आम्बेडकर ने इस समझौते का धिक्कार किया, ‘स्टेट ऑफ मायनॉरिटी’ इस ग्रंथ में भी पूना पैक्ट संबंधी नाराजगी व्यक्त की हैं। भारतीय रिपब्लिकन पार्टी द्वारा भी इससे पहले कई बार धिक्कार सभाएँ हुई हैं।[49]

राजनीतिक जीवन

भाषण करते हुए आम्बेडकर

13 अक्टूबर 1935 को, आम्बेडकर को सरकारी लॉ कॉलेज का प्रधानचार्य नियुक्त किया गया और इस पद पर उन्होने दो वर्ष तक कार्य किया। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज के संस्थापक श्री राय केदारनाथ की मृत्यु के बाद इस कॉलेज के गवर्निंग बॉडी के अध्यक्ष के रूप में भी कार्य किया।[50] आम्बेडकर बम्बई (अब मुम्बई) में बस गये, उन्होंने यहाँ एक तीन मंजिला बडे़ घर 'राजगृह' का निर्माण कराया, जिसमें उनके निजी पुस्तकालय में 50,000 से अधिक पुस्तकें थीं, तब यह दुनिया का सबसे बड़ा निजी पुस्तकालय था।[51] इसी वर्ष २७ मई १९३५ को उनकी पत्नी रमाबाई की एक लंबी बीमारी के बाद मृत्यु हो गई। रमाबाई अपनी मृत्यु से पहले तीर्थयात्रा के लिये पंढरपुर जाना चाहती थीं पर आम्बेडकर ने उन्हे इसकी इजाज़त नहीं दी। आम्बेडकर ने कहा की उस हिन्दू तीर्थ में जहाँ उनको अछूत माना जाता है, जाने का कोई औचित्य नहीं है, इसके बजाय उन्होंने उनके लिये एक नया पंढरपुर बनाने की बात कहीं।

1936 में, आम्बेडकर ने स्वतंत्र लेबर पार्टी की स्थापना की, जो 1937 में केन्द्रीय विधान सभा चुनावों मे 13 सीटें जीती।[52]

इसी वर्ष आम्बेडकर ने 15 मई 1936 को अपनी पुस्तक 'एनीहिलेशन ऑफ कास्ट' (जाति प्रथा का विनाश) प्रकाशित की, जो उनके न्यूयॉर्क में लिखे एक शोधपत्र पर आधारित थी।[53] इस पुस्तक में आम्बेडकर ने हिंदू धार्मिक नेताओं और जाति व्यवस्था की जोरदार आलोचना की।[54] उन्होंने अछूत समुदाय के लोगों को गाँधी द्वारा रचित शब्द हरिजन पुकारने के कांग्रेस के फैसले की कडी निंदा की।[55][51] बाद में, 1955 के बीबीसी साक्षात्कार में, उन्होंने गांधी पर उनके गुजराती भाषा के पत्रों में जाति व्यवस्था का समर्थन करना तथा अंग्रेजी भाषा पत्रों में जाति व्यवस्था का विरोध करने का आरोप लगाया।[56][57]

आम्बेडकर ने रक्षा सलाहकार समिति[58] और वाइसराय की कार्यकारी परिषद के लिए सन 1942–1946 दौरान श्रम मंत्री के रूप में सेवारत रहे।[58]

आम्बेडकर ने भारत की आज़ादी की लड़ाई में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया था।[59]

पाकिस्तान की मांग कर रहे मुस्लिम लीग के लाहौर रिज़ोल्यूशन (1940) के बाद, आम्बेडकर ने "थॉट्स ऑन पाकिस्तान नामक 400 पृष्ठों वाला एक पुस्तक लिखा, जिसने अपने सभी पहलुओं में "पाकिस्तान" की अवधारणा का विश्लेषण किया। इसमें उन्होंने मुस्लिम लीग की मुसलमानों के लिए एक अलग देश पाकिस्तान की मांग की आलोचना की। साथ ही यह तर्क भी दिया कि हिंदुओं को मुसलमानों के पाकिस्तान का स्वीकार करना चाहिए। उन्होंने प्रस्तावित किया कि मुस्लिम और गैर-मुस्लिम बहुमत वाले हिस्सों को अलग करने के लिए पंजाब और बंगाल की प्रांतीय सीमाओं को फिर से तैयार किया जाना चाहिए। उन्होंने सोचा कि मुसलमानों को प्रांतीय सीमाओं को फिर से निकालने के लिए कोई आपत्ति नहीं हो सकती है। अगर उन्होंने किया, तो वे काफी "अपनी मांग की प्रकृति को समझ नहीं पाए"। विद्वान वेंकट ढलीपाल ने कहा कि थॉट्स ऑन पाकिस्तान ने "एक दशक तक भारतीय राजनीति को रोका"। इसने मुस्लिम लीग और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बीच संवाद के पाठ्यक्रम को निर्धारित किया, जो भारत के विभाजन के लिए रास्ता तय कर रहा था।[60] हालांकि वे मोहम्मद अली जिन्नाह और मुस्लिम लीग की विभाजनकारी सांप्रदायिक रणनीति के घोर आलोचक थे पर उन्होने तर्क दिया कि हिंदुओं और मुसलमानों को पृथक कर देना चाहिए और पाकिस्तान का गठन हो जाना चाहिये क्योकि एक ही देश का नेतृत्व करने के लिए, जातीय राष्ट्रवाद के चलते देश के भीतर और अधिक हिंसा पनपेगी। उन्होंने हिंदू और मुसलमानों के सांप्रदायिक विभाजन के बारे में अपने विचार के पक्ष मे ऑटोमोन साम्राज्य और चेकोस्लोवाकिया के विघटन जैसी ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख किया। उन्होंने पूछा कि क्या पाकिस्तान की स्थापना के लिये पर्याप्त कारण मौजूद थे? और सुझाव दिया कि हिंदू और मुसलमानों के बीच के मतभेद एक कम कठोर कदम से भी मिटाना संभव हो सकता था। उन्होंने लिखा है कि पाकिस्तान को अपने अस्तित्व का औचित्य सिद्ध करना चाहिये। कनाडा जैसे देशों मे भी सांप्रदायिक मुद्दे हमेशा से रहे हैं पर आज भी अंग्रेज और फ्रांसीसी एक साथ रहते हैं, तो क्या हिन्दू और मुसलमान भी साथ नहीं रह सकते। उन्होंने चेताया कि दो देश बनाने के समाधान का वास्तविक क्रियान्वयन अत्यंत कठिनाई भरा होगा। विशाल जनसंख्या के स्थानान्तरण के साथ सीमा विवाद की समस्या भी रहेगी। भारत की स्वतंत्रता के बाद होने वाली हिंसा को ध्यान में रख कर की गई यह भविष्यवाणी सही थी। [61]

"व्हॉट काँग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल्स?" (काँग्रेस और गांधी ने अछूतों के लिये क्या किया?) इस किताब के साथ, आम्बेडकर ने गांधी और कांग्रेस दोनो पर अपने हमलों को तीखा कर दिया, उन्होंने उन पर ढोंग करने का आरोप लगाया।[62]

आम्बेडकर ने अपनी राजनीतिक पार्टी को अखिल भारतीय अनुसूचित जाति फेडरेशन (शेड्युल्ड कास्ट फेडरेशन) में बदलते देखा, हालांकि 1946 में आयोजित भारत के संविधान सभा के लिए हुये चुनाव में खराब प्रदर्शन किया। बाद में वह बंगाल जहां मुस्लिम लीग सत्ता में थी वहां से संविधान सभा में चुने गए थे।[63] आम्बेडकर ने बॉम्बे उत्तर में से 1952 का पहला भारतीय लोकसभा चुनाव लड़ा, लेकिन उनके पूर्व सहायक और कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार नारायण काजोलकर से हार गए। 1952 में आम्बेडकर राज्य सभा के सदस्य बन गए। उन्होंने भंडारा से 1954 के उपचुनाव में फिर से लोकसभा में प्रवेश करने की कोशिश की, लेकिन वे तीसरे स्थान पर रहे (कांग्रेस पार्टी जीती)। 1957 में दूसरे आम चुनाव के समय तक आम्बेडकर की निर्वाण (मृत्यु) हो गया था।

आंबेडकर दो बार भारतीय संसद के ऊपरी सदन राज्य सभा में महाराष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाले भारत की संसद के सदस्य बने थे। राज्यसभा सदस्य के रूप में उनका पहला कार्यकाल 3 अप्रैल 1952 से 2 अप्रैल 1956 के बीच था, और उनका दूसरा कार्यकाल 3 अप्रैल 1956 से 2 अप्रैल 1962 तक आयोजित किया जाना था, लेकिन कार्यकाल समाप्त होने से पहले, 6 दिसंबर 2016 को उनका निधन हो गया।[64]

उन्होने अपनी पुस्तक हू वर द शुद्राज़? (शुद्र कौन थे?) के द्वारा हिंदू जाति व्यवस्था के पदानुक्रम में सबसे नीची जाति यानी शुद्रों के अस्तित्व मे आने की व्याख्या की।[65] उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि किस तरह से अतिशुद्र (अछूत), शुद्रों से अलग हैं। 1948 में हू वेयर द शुद्राज़? की उत्तरकथा द अनटचेबलस: ए थीसिस ऑन द ओरिजन ऑफ अनटचेबिलिटी (अछूत: छुआछूत के मूल पर एक शोध) में आम्बेडकर ने हिंदू धर्म को लताड़ा।

हिंदू सभ्यता .... जो मानवता को दास बनाने और उसका दमन करने की एक क्रूर युक्ति है और इसका उचित नाम बदनामी होगा। एक सभ्यता के बारे मे और क्या कहा जा सकता है जिसने लोगों के एक बहुत बड़े वर्ग को विकसित किया जिसे... एक मानव से हीन समझा गया और जिसका स्पर्श मात्र प्रदूषण फैलाने का पर्याप्त कारण है?[62]

आम्बेडकर दक्षिण एशिया के इस्लाम की रीतियों के भी बड़े आलोचक थे। उन्होने भारत विभाजन का तो पक्ष लिया पर मुस्लिमो में व्याप्त बाल विवाह की प्रथा और महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार की घोर निंदा की। उन्होंने कहा,

बहुविवाह और रखैल रखने के दुष्परिणाम शब्दों में व्यक्त नहीं किये जा सकते जो विशेष रूप से एक मुस्लिम महिला के दुःख के स्रोत हैं। जाति व्यवस्था को ही लें, हर कोई कहता है कि इस्लाम गुलामी और जाति से मुक्त होना चाहिए, जबकि गुलामी अस्तित्व में है और इसे इस्लाम और इस्लामी देशों से समर्थन मिला है। जबकि कुरान में निहित गुलामों के न्याय और मानवीय उपचार के बारे में पैगंबर द्वारा किए गए नुस्खे प्रशंसनीय हैं, इस्लाम में ऐसा कुछ भी नहीं है जो इस अभिशाप के उन्मूलन का समर्थन करता हो। अगर गुलामी खत्म भी हो जाये पर फिर भी मुसलमानों के बीच जाति व्यवस्था रह जायेगी।[66]

उन्होंने लिखा कि मुस्लिम समाज मे तो हिंदू समाज से भी कही अधिक सामाजिक बुराइयां है और मुसलमान उन्हें " भाईचारे " जैसे नरम शब्दों के प्रयोग से छुपाते हैं। उन्होंने मुसलमानो द्वारा अर्ज़ल वर्गों के खिलाफ भेदभाव जिन्हें " निचले दर्जे का " माना जाता था के साथ ही मुस्लिम समाज में महिलाओं के उत्पीड़न की दमनकारी पर्दा प्रथा की भी आलोचना की। उन्होंने कहा हालाँकि पर्दा हिंदुओं मे भी होता है पर उसे धर्मिक मान्यता केवल मुसलमानों ने दी है। उन्होंने इस्लाम मे कट्टरता की आलोचना की जिसके कारण इस्लाम की नातियों का अक्षरक्ष अनुपालन की बद्धता के कारण समाज बहुत कट्टर हो गया है और उसे को बदलना बहुत मुश्किल हो गया है। उन्होंने आगे लिखा कि भारतीय मुसलमान अपने समाज का सुधार करने में विफल रहे हैं जबकि इसके विपरीत तुर्की जैसे देशों ने अपने आपको बहुत बदल लिया है।[66][67]

"सांप्रदायिकता" से पीड़ित हिंदुओं और मुसलमानों दोनों समूहों ने सामाजिक न्याय की माँग की उपेक्षा की है।[66]

धर्म परिवर्तन की घोषणा

13 अक्टूबर 1935, को येवला नासिक में धर्म परिवर्तन की घोषणा करते हुए आम्बेडकर

10-12 साल हिन्दू धर्म के अन्तर्गत रहते हुए बाबासाहब आम्बेडकर ने हिन्दू धर्म तथा हिन्दु समाज को सुधारने, समता तथा सम्मान प्राप्त करने के लिए तमाम प्रयत्न किए, परन्तु सवर्ण हिन्दुओं का ह्रदय परिवर्तन न हुआ। उल्टे उन्हें निंदित किया गया और हिन्दू धर्म विनाशक तक कहा गया। उसेके बाद उन्होंने कहा था की, “हमने हिन्दू समाज में समानता का स्तर प्राप्त करने के लिए हर तरह के प्रयत्न और सत्याग्रह किए, परन्तु सब निरर्थक सिद्ध हुए। हिन्दू समाज में समानता के लिए कोई स्थान नहीं है।” हिन्दू समाज का यह कहना था कि “मनुष्य धर्म के लिए हैं” जबकि आम्बेडकर का मानना था कि "धर्म मनुष्य के लिए हैं।" आम्बेडकर ने कहा कि ऐसे धर्म का कोई मतलब नहीं जिसमें मनुष्यता का कुछ भी मूल्य नहीं। जो अपने ही धर्म के अनुयायिओं (अछूतों को) को धर्म शिक्षा प्राप्त नहीं करने देता, नौकरी करने में बाधा पहुँचाता है, बात-बात पर अपमानित करता है और यहाँ तक कि पानी तक नहीं मिलने देता ऐसे धर्म में रहने का कोई मतलब नहीं। आम्बेडकर ने हिन्दू धर्म त्यागने की घोषणा किसी भी प्रकार की दुश्मनी व हिन्दू धर्म के विनाश के लिए नहीं की थी बल्कि उन्होंने इसका फैसला कुछ मौलिक सिद्धांतों को लेकर किया जिनका हिन्दू धर्म में बिल्कुल तालमेल नहीं था।[68]

13 अक्टूबर 1935 को नासिक के निकट येवला में एक सम्मेलन में बोलते हुए आम्बेडकर ने धर्म परिवर्तन करने की घोषणा की,

"हालांकि मैं एक अछूत हिन्दू के रूप में पैदा हुआ हूँ, लेकिन मैं एक हिन्दू के रूप में हरगिज नहीं मरूँगा!"

उन्होंने अपने अनुयायियों से भी हिंदू धर्म छोड़ कोई और धर्म अपनाने का आह्वान किया।[69] उन्होंने अपनी इस बात को भारत भर में कई सार्वजनिक सभाओं में भी दोहराया। इस धर्म-परिवर्तन की घोषणा के बाद हैदराबाद के इस्लाम धर्म के निज़ाम से लेकर कई ईसाई मिशनरियों ने उन्हें करोड़ों रुपये का प्रलोभन भी दिया पर उन्होनें सभी को ठुकरा दिया। निःसंदेह वो भी चाहते थे कि दलित समाज की आर्थिक स्थिति में सुधार हो, पर पराए धन पर आश्रित होकर नहीं बल्कि उनके परिश्रम और संगठन होने से स्थिति में सुधार आए। इसके अलावा आम्बेडकर ऐसे धर्म को चुनना चाहते थे जिसका केन्द्र मनुष्य और नैतिकता हो, उसमें स्वतंत्रता, समता तथा बंधुत्व हो। वो किसी भी हाल में ऐसे धर्म को नहीं अपनाना चाहते थे जो वर्णभेद तथा छुआछूत की बीमारी से जकड़ा हो और ना ही वो ऐसा धर्म चुनना चाहते थे जिसमें अंधविश्वास तथा पाखंडवाद हो।[51] 21 मार्च, 1936 के ‘हरिजन’ में गांधी ने लिखा की, 'जबसे डॉक्टर आंबेडकर ने धर्म-परिवर्तन की धमकी का बमगोला हिन्दू समाज में फेंका है, उन्हें अपने निश्चय से डिगाने की हरचन्द कोशिशें की जा रही हैं.' यहीं गांधी जी आगे एक जगह लिखते हैं, 'हां ऐसे समय में (सवर्ण) सुधारकों को अपना हृदय टटोलना जरूरी है। उसे सोचना चाहिए कि कहीं मेरे या मेरे पड़ोसियों के व्यवहार से दुखी होकर तो ऐसा नहीं किया जा रहा है। ...यह तो एक मानी हुई बात है कि अपने को सनातनी कहने वाले हिन्दुओं की एक बड़ी संख्या का व्यवहार ऐसा है जिससे देशभर के हरिजनों को अत्यधिक असुविधा और खीज होती है। आश्चर्य यही है कि इतने ही हिन्दुओं ने हिन्दू धर्म क्यों छोड़ा, और दूसरों ने भी क्यों नहीं छोड़ दिया? यह तो उनकी प्रशंसनीय वफादारी या हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता ही है जो उसी धर्म के नाम पर इतनी निर्दयता होते हुए भी लाखों हरिजन उसमें बने हुए हैं।'[70]

आम्बेडकर ने धर्म परिवर्तन की घोषणा करने के बाद 21 वर्ष तक के समय के बीच उन्होंने ने विश्व के सभी प्रमुख धर्मों का गहन अध्ययन किया। उनके द्वारा इतना लंबा समय लेने का मुख्य कारण यह भी था कि वो चाहते थे कि जिस समय वो धर्म परिवर्तन करें उनके साथ ज्यादा से ज्यादा उनके अनुयायी धर्मान्तरण करें। आम्बेडकर बौद्ध धर्म को पसंद करते थे क्योंकि उसमें तीन सिद्धांतों का समन्वित रूप मिलता है जो किसी अन्य धर्म में नहीं मिलता। बौद्ध धर्म प्रज्ञा (अंधविश्वास तथा अतिप्रकृतिवाद के स्थान पर बुद्धि का प्रयोग), करुणा (प्रेम) और समता (समानता) की शिक्षा देता है। उनका कहना था कि मनुष्य इन्हीं बातों को शुभ तथा आनंदित जीवन के लिए चाहता है। देवता और आत्मा समाज को नहीं बचा सकते। आम्बेडकर के अनुसार सच्चा धर्म वो ही है जिसका केन्द्र मनुष्य तथा नैतिकता हो, विज्ञान अथवा बौद्धिक तत्व पर आधारित हो, न कि धर्म का केन्द्र ईश्वर, आत्मा की मुक्ति और मोक्ष। साथ ही उनका कहना था धर्म का कार्य विश्व का पुनर्निर्माण करना होना चाहिए ना कि उसकी उत्पत्ति और अंत की व्याख्या करना। वह जनतांत्रिक समाज व्यवस्था के पक्षधर थे, क्योंकि उनका मानना था ऐसी स्थिति में धर्म मानव जीवन का मार्गदर्शक बन सकता है। ये सब बातें उन्हें एकमात्र बौद्ध धर्म में मिलीं।[71]

संविधान निर्माण

ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष डॉ॰ आम्बेडकर भारतीय संविधान के अंतिम मसौदे को 25 नवंबर 1949 को राजेन्द्र प्रसाद को पेश करते हुए।

गांधी व कांग्रेस की कटु आलोचना के बावजूद आम्बेडकर की प्रतिष्ठा एक अद्वितीय विद्वान और विधिवेत्ता की थी जिसके कारण जब, 15 अगस्त 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद, कांग्रेस के नेतृत्व वाली नई सरकार अस्तित्व में आई तो उसने आम्बेडकर को देश के पहले क़ानून एवं न्याय मंत्री के रूप में सेवा करने के लिए आमंत्रित किया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। 29 अगस्त 1947 को, आम्बेडकर को स्वतंत्र भारत के नए संविधान की रचना के लिए बनी संविधान की मसौदा समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया। इस कार्य में आम्बेडकर का शुरुआती बौद्ध संघ रीतियों और अन्य बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन भी काम आया।[72]

आम्बेडकर एक बुद्धिमान संविधान विशेषज्ञ थे, उन्होंने लगभग 60 देशों के संविधानों का अध्ययन किया था। आम्बेडकर को "भारत के संविधान का पिता" के रूप में मान्यता प्राप्त है।[73][74] संविधान सभा में, मसौदा समिति के सदस्य टी॰ टी॰ कृष्णामाचारी ने कहा:

"अध्यक्ष महोदय, मैं सदन में उन लोगों में से एक हूं, जिन्होंने डॉ॰ आंबेडकर की बात को बहुत ध्यान से सुना है। मैं इस संविधान की ड्राफ्टिंग के काम में जुटे काम और उत्साह के बारे में जानता हूं।" उसी समय, मुझे यह महसूस होता है कि इस समय हमारे लिए जितना महत्वपूर्ण संविधान तैयार करने के उद्देश्य से ध्यान देना आवश्यक था, वह ड्राफ्टिंग कमेटी द्वारा नहीं दिया गया। सदन को शायद सात सदस्यों की जानकारी है। आपके द्वारा नामित, एक ने सदन से इस्तीफा दे दिया था और उसे बदल दिया गया था। एक की मृत्यु हो गई थी और उसकी जगह कोई नहीं लिया गया था। एक अमेरिका में था और उसका स्थान नहीं भरा गया और एक अन्य व्यक्ति राज्य के मामलों में व्यस्त था, और उस सीमा तक एक शून्य था। एक या दो लोग दिल्ली से बहुत दूर थे और शायद स्वास्थ्य के कारणों ने उन्हें भाग लेने की अनुमति नहीं दी। इसलिए अंततः यह हुआ कि इस संविधान का मसौदा तैयार करने का सारा भार डॉ॰ आंबेडकर पर पड़ा और मुझे कोई संदेह नहीं है कि हम उनके लिए आभारी हैं। इस कार्य को प्राप्त करने के बाद मैं ऐसा मानता हूँ कि यह निस्संदेह सराहनीय है।"[75][76]

ग्रैनविले ऑस्टिन ने 'पहला और सबसे महत्वपूर्ण सामाजिक दस्तावेज' के रूप में आम्बेडकर द्वारा तैयार भारतीय संविधान का वर्णन किया। 'भारत के अधिकांश संवैधानिक प्रावधान या तो सामाजिक क्रांति के उद्देश्य को आगे बढ़ाने या इसकी उपलब्धि के लिए जरूरी स्थितियों की स्थापना करके इस क्रांति को बढ़ावा देने के प्रयास में सीधे पहुंचे हैं।'[77]

आम्बेडकर द्वारा तैयार किए गए संविधान के पाठ में व्यक्तिगत नागरिकों के लिए नागरिक स्वतंत्रता की एक विस्तृत श्रृंखला के लिए संवैधानिक गारंटी और सुरक्षा प्रदान की गई है, जिसमें धर्म की आजादी, छुआछूत को खत्म करना, और भेदभाव के सभी रूपों का उल्लंघन करना शामिल है। आम्बेडकर ने महिलाओं के लिए व्यापक आर्थिक और सामाजिक अधिकारों के लिए तर्क दिया, और अनुसूचित जातियों (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के सदस्यों के लिए नागरिक सेवाओं, स्कूलों और कॉलेजों में नौकरियों के आरक्षण की व्यवस्था शुरू करने के लिए असेंबली का समर्थन जीता, जो कि सकारात्मक कार्रवाई थी।[78] भारत के सांसदों ने इन उपायों के माध्यम से भारत की निराशाजनक कक्षाओं के लिए सामाजिक-आर्थिक असमानताओं और अवसरों की कमी को खत्म करने की उम्मीद की।[79] संविधान सभा द्वारा 26 नवंबर 1949 को संविधान अपनाया गया था।[80] अपने काम को पूरा करने के बाद, बोलते हुए, आम्बेडकर ने कहा:

मैं महसूस करता हूं कि संविधान, साध्य (काम करने लायक) है, यह लचीला है पर साथ ही यह इतना मज़बूत भी है कि देश को शांति और युद्ध दोनों के समय जोड़ कर रख सके। वास्तव में, मैं कह सकता हूँ कि अगर कभी कुछ गलत हुआ तो इसका कारण यह नही होगा कि हमारा संविधान खराब था बल्कि इसका उपयोग करने वाला मनुष्य अधम था।

अनुच्छेद 370 का विरोध

आम्बेडकर ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 370 का विरोध किया, जिसने जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा दिया, और जिसे उनकी इच्छाओं के खिलाफ संविधान में शामिल किया गया था। बलराज माधोक ने कहा था कि, आम्बेडकर ने कश्मीरी नेता शेख अब्दुल्ला को स्पष्ट रूप से बताया था: "आप चाहते हैं कि भारत को आपकी सीमाओं की रक्षा करनी चाहिए, उसे आपके क्षेत्र में सड़कों का निर्माण करना चाहिए, उसे आपको अनाज की आपूर्ति करनी चाहिए, और कश्मीर को भारत के समान दर्जा देना चाहिए। लेकिन भारत सरकार के पास केवल सीमित शक्तियां होनी चाहिए और भारतीय लोगों को कश्मीर में कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। इस प्रस्ताव को सहमति देने के लिए, मैं भारत के कानून मंत्री के रूप में भारत के हितों के खिलाफ एक विश्वासघाती बात होंगी, यह कभी नहीं करेगा। "फिर अब्दुल्ला ने नेहरू से संपर्क किया, जिन्होंने उन्हें गोपाल स्वामी अयंगार को निर्देशित किया, जिन्होंने बदले में वल्लभभाई पटेल से संपर्क किया और कहा कि नेहरू ने स्के का वादा किया था। अब्दुल्ला विशेष स्थिति। पटेल द्वारा अनुच्छेद पारित किया गया, जबकि नेहरू एक विदेश दौरे पर थे। जिस दिन लेख चर्चा के लिए आया था, आम्बेडकर ने इस पर सवालों का जवाब नहीं दिया लेकिन अन्य लेखों पर भाग लिया। सभी तर्क कृष्णा स्वामी अयंगार द्वारा किए गए थे।[81][82][83]

समान नागरिक संहिता

मैं व्यक्तिगत रूप से समझ नहीं पा रहा हूं कि क्यों धर्म को इस विशाल, व्यापक क्षेत्राधिकार के रूप में दी जानी चाहिए ताकि पूरे जीवन को कवर किया जा सके और उस क्षेत्र पर अतिक्रमण से विधायिका को रोक सके। सब के बाद, हम क्या कर रहे हैं के लिए इस स्वतंत्रता? हमारे सामाजिक व्यवस्था में सुधार करने के लिए हमें यह स्वतंत्रता हो रही है, जो असमानता, भेदभाव और अन्य चीजों से भरा है, जो हमारे मौलिक अधिकारों के साथ संघर्ष करते हैं।[84]

आम्बेडकर वास्तव में समान नागरिक संहिता के पक्षधर थे और कश्मीर के मामले में धारा 370 का विरोध करते थे। आम्बेडकर का भारत आधुनिक, वैज्ञानिक सोच और तर्कसंगत विचारों का देश होता, उसमें पर्सनल कानून की जगह नहीं होती।[85] संविधान सभा में बहस के दौरान, आम्बेडकर ने एक समान नागरिक संहिता को अपनाने की सिफारिश करके भारतीय समाज में सुधार करने की अपनी इच्छा प्रकट कि।[86][87] 1951 मे संसद में अपने हिन्दू कोड बिल (हिंदू संहिता विधेयक) के मसौदे को रोके जाने के बाद आम्बेडकर ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। हिंदू कोड बिल द्वारा भारतीय महिलाओं को कई अधिकारों प्रदान करने की बात कहीं गई थी। इस मसौदे में उत्तराधिकार, विवाह और अर्थव्यवस्था के कानूनों में लैंगिक समानता की मांग की गयी थी।[88] हालांकि प्रधानमंत्री नेहरू, कैबिनेट और कुछ अन्य कांग्रेसी नेताओं ने इसका समर्थन किया पर राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद एवं वल्लभभाई पटेल समेत संसद सदस्यों की एक बड़ी संख्या इसके खिलाफ़ थी। आम्बेडकर ने 1952 में बॉम्बे (उत्तर मध्य) निर्वाचन क्षेत्र में लोक सभा का चुनाव एक निर्दलीय उम्मीदवार के रूप मे लड़ा पर वह हार गये। इस चुनाव में आम्बेडकर को 123,576 वोट तथा नारायण सडोबा काजोलकर को 138,137 वोटों का मतदान किया गया था।[89][90][91] मार्च 1952 में उन्हें संसद के ऊपरी सदन यानि राज्य सभा के लिए नियुक्त किया गया और इसके बाद उनकी मृत्यु तक वो इस सदन के सदस्य रहे।[92]

आर्थिक नियोजन

1950 में आम्बेडकर

आम्बेडकर विदेश से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की डिग्री लेने वाले पहले भारतीय थे।[93] उन्होंने तर्क दिया कि औद्योगिकीकरण और कृषि विकास से भारतीय अर्थव्यवस्था में वृद्धि हो सकती है।[94] उन्होंने भारत में प्राथमिक उद्योग के रूप में कृषि में निवेश पर बल दिया। शरद पवार के अनुसार, आम्बेडकर के दर्शन ने सरकार को अपने खाद्य सुरक्षा लक्ष्य हासिल करने में मदद की।[95] आम्बेडकर ने राष्ट्रीय आर्थिक और सामाजिक विकास की वकालत की, शिक्षा, सार्वजनिक स्वच्छता, समुदाय स्वास्थ्य, आवासीय सुविधाओं को बुनियादी सुविधाओं के रूप में जोर दिया।[94] उन्होंने ब्रिटिश शासन की वजह से हुए विकास के नुकसान की गणना की।[96]

भारतीय रिज़र्व बैंक

आम्बेडकर को एक अर्थशास्त्री के तौर पर प्रशिक्षित किया गया था, और 1921 तक एक पेशेवर अर्थशास्त्री बन चूके थे। जब वह एक राजनीतिक नेता बन गए तो उन्होंने अर्थशास्त्र पर तीन विद्वत्वापूर्ण पुस्तकें लिखीं:

  • अ‍ॅडमिनिस्ट्रेशन अँड फायनान्स ऑफ दी इस्ट इंडिया कंपनी
  • द इव्हॅल्युएशन ऑफ प्रॉव्हिन्शियल फायनान्स इन् ब्रिटिश इंडिआ
  • द प्रॉब्लम ऑफ द रूपी : इट्स ओरिजिन ॲन्ड इट्स सोल्युशन[97][98][99]

भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई), आम्बेडकर के विचारों पर आधारित था, जो उन्होंने हिल्टन यंग कमिशन को प्रस्तुत किये थे।[97][99][100][101]

दूसरा विवाह

1948 में पत्नी सविता आम्बेडकर के साथ भीमराव आम्बेडकर

आम्बेडकर की पहली पत्नी रमाबाई की लंबी बीमारी के बाद 1935 में निधन हो गया। 1940 के दशक के अंत में भारतीय संविधान के मसौदे को पूरा करने के बाद, वह नींद की कमी से पीड़ित थे, उनके पैरों में न्यूरोपैथिक दर्द था, और इंसुलिन और होम्योपैथिक दवाएं ले रहे थे। वह इलाज के लिए बॉम्बे (मुम्बई) गए, और वहां डॉक्टर शारदा कबीर से मिले, जिनके साथ उन्होंने 15 अप्रैल 1948 को नई दिल्ली में अपने घर पर विवाह किया था। डॉक्टरों ने एक ऐसे जीवन साथी की सिफारिश की जो एक अच्छा खाना पकाने वाली हो और उनकी देखभाल करने के लिए चिकित्सा ज्ञान हो।[102] डॉ॰ शारदा कबीर ने शादी के बाद सविता आम्बेडकर नाम अपनाया और उनके बाकी जीवन में उनकी देखभाल की।[103] सविता आम्बेडकर, जिन्हें 'माई' या 'माइसाहेब' कहा जाता था, का 29 मई 2003 को नई दिल्ली के मेहरौली में 93 वर्ष की आयु में निधन हो गया।[104]

बौद्ध धर्म में परिवर्तन

नागपूर के बौद्ध धम्म दीक्षा समारोह में अपने अनुयायियों को संबोधित करते हुए आम्बेडकर, १४ अक्तुबर १९५६
कुशीनारा के भन्ते चंद्रमणी द्वारा दीक्षा ग्रहण करते हुए डॉ॰ आम्बेडकर
दीक्षाभूमि स्तूप, जहां भीमराव अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म में परिवर्तित हुए।

सन् 1950 के दशक में भीमराव आम्बेडकर बौद्ध धर्म के प्रति आकर्षित हुए और बौद्ध भिक्षुओं व विद्वानों के एक सम्मेलन में भाग लेने के लिए श्रीलंका (तब सिलोन) गये।[105] पुणे के पास एक नया बौद्ध विहार को समर्पित करते हुए, डॉ॰ आम्बेडकर ने घोषणा की कि वे बौद्ध धर्म पर एक पुस्तक लिख रहे हैं और जैसे ही यह समाप्त होगी वो औपचारिक रूप से बौद्ध धर्म अपना लेंगे।[106] 1954 में आम्बेडकर ने म्यानमार का दो बार दौरा किया; दूसरी बार वो रंगून मे तीसरे विश्व बौद्ध फैलोशिप के सम्मेलन में भाग लेने के लिए गये।[107] 1955 में उन्होंने 'भारतीय बौद्ध महासभा' यानी 'बुद्धिस्ट सोसाइटी ऑफ इंडिया' की स्थापना की।[108] उन्होंने अपने अंतिम प्रसिद्ध ग्रंथ, 'द बुद्ध एंड हिज़ धम्म' को 1956 में पूरा किया। यह उनकी मृत्यु के पश्चात सन 1957 में प्रकाशित हुआ।[108] इस ग्रंथ की प्रस्तावना में आम्बेडकर ने लिखा हैं की,

मैं बुद्ध के धम्म को सबसे अच्छा मानता हूं। इससे किसी धर्म की तुलना नहीं की जा सकती है। यदि एक आधुनिक व्यक्ति जो विज्ञान को मानता है, उसका धर्म कोई होना चाहिए, तो वह धर्म केवल बौद्ध धर्म ही हो सकता है। सभी धर्मों के घनिष्ठ अध्ययन के पच्चीस वर्षों के बाद यह दृढ़ विश्वास मेरे बीच बढ़ गया है।[109]

13 अक्तूबर 1956 आम्बेडकर ने एक पत्रकार परिषद ली, उन्होंने कहा — "मैं भगवान बुद्ध और उनके मूल धर्म की शरण जा रहा हूँ। मैं प्रचलित बौद्ध पन्थों से तटस्थ हूँ। मैं जिस बौद्ध धर्म को स्वीकार कर रहा हूँ, वह नव बौद्ध धर्म या नवयान हैं।[110] 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर शहर में डॉ॰ भीमराव आम्बेडकर ने खुद और उनके समर्थकों के लिए एक औपचारिक सार्वजनिक धर्मांतरण समारोह का आयोजन किया। प्रथम डॉ॰ आम्बेडकर ने अपनी पत्नी सविता एवं कुछ सहयोगियों के साथ भिक्षु महास्थवीर चंद्रमणी द्वारा पारंपरिक तरीके से त्रिरत्न और पंचशील को अपनाते हुये बौद्ध धर्म ग्रहण किया। इसके बाद उन्होंने अपने 5,00,000 अनुयायियो को त्रिरत्न, पंचशील और 22 प्रतिज्ञाएँ देते हुए नवयान बौद्ध धर्म में परिवर्तित किया।[106] वे देवताओं के संजाल को तोड़कर एक ऐसे मुक्त मनुष्य की कल्पना कर रहे थे जो धार्मिक तो हो लेकिन ग़ैर-बराबरी को जीवन मूल्य न माने। हिंदू धर्म के बंधनों को पूरी तरह पृथक किया जा सके इसलिए आम्बेडकर ने अपने बौद्ध अनुयायियों के लिए बाइस प्रतिज्ञाएँ स्वयं निर्धारित कीं जो बौद्ध धर्म के दर्शन का ही एक सार है। यह प्रतिज्ञाएं हिंदू धर्म की त्रिमूर्ति में अविश्वास, अवतारवाद के खंडन, श्राद्ध-तर्पण, पिंडदान के परित्याग, बुद्ध के सिद्धांतों और उपदेशों में विश्वास, ब्राह्मणों द्वारा निष्पादित होने वाले किसी भी समारोह न भाग लेने, मनुष्य की समानता में विश्वास, बुद्ध के आष्टांगिक मार्ग के अनुसरण, प्राणियों के प्रति दयालुता, चोरी न करने, झूठ न बोलने, शराब के सेवन न करने, असमानता पर आधारित हिंदू धर्म का त्याग करने और बौद्ध धर्म को अपनाने से संबंधित थीं।[111] नवयान लेकर आम्बेडकर और उनके समर्थकों ने विषमतावादी हिन्दू धर्म और हिन्दू दर्शन की स्पष्ट निंदा की और उसे त्याग दिया। आम्बेडकर ने दुसरे दिन 15 अक्टूबर को फीर वहाँ अपने 2 से 3 लाख अनुयायियों को बौद्ध धम्म की दीक्षा दी, यह वह अनुयायि थे जो 14 अक्तुबर के समारोह में नहीं पहुच पाये थे या देर से पहुचे थे। आम्बेडकर ने नागपूर में करीब 8 लाख लोगों बौद्ध धर्म की दीक्षा दी, इसलिए यह भूमी दीक्षाभूमि नाम से प्रसिद्ध हुई। तिसरे दिन 16 अक्टूबर को आम्बेडकर चंद्रपुर गये और वहां भी उन्होंने करीब 3,00,000 समर्थकों को बौद्ध धम्म की दीक्षा दी।[106][112] इस तरह केवल तीन दिन में आम्बेडकर ने स्वयं 11 लाख से अधिक लोगों को बौद्ध धर्म में परिवर्तित कर विश्व के बौद्धों की संख्या 11 लाख बढा दी और भारत में बौद्ध धर्म को पुनर्जिवीत किया। इस घटना से कई लोगों एवं बौद्ध देशों में से अभिनंदन प्राप्त हुए। इसके बाद वे नेपाल में चौथे विश्व बौद्ध सम्मेलन मे भाग लेने के लिए काठमांडू गये। वहां वह काठमांडू शहर की दलित बस्तियों में गए थे। नेपाल का आंबेडकरवादी आंदोलन, दलित नेताओं द्वारा संचालित किया जाता है, तथा नेपाल के अधिकांश दलित नेता यह मानते हैं कि "आम्बेडकर का दर्शन" ही जातिगत भेदभाव को मिटाने में सक्षम है।[113][107] उन्होंने अपनी अंतिम पांडुलिपि बुद्ध और कार्ल मार्क्स को 2 दिसंबर 1956 को पूरा किया।[114]

निधन

बाबासाहेब आम्बेडकर का महापरिनिर्वाण
डॉ॰. आम्बेडकर की अंत्ययात्रा, दादर से १.४० बजे यात्रा निकली और शाम के ६ बजे दादर चौपाटी की हिंदू स्मशानभूमी में (अब चैत्यभूमि) पोहची।
चैत्यभूमि, डॉ॰ बाबासाहेब आंबेडकर की समाधि स्थली

1948 से, आम्बेडकर मधुमेह से पीड़ित थे। जून से अक्टूबर 1954 तक वो बहुत बीमार रहे इस दौरान वो कमजोर होती दृष्टि से ग्रस्त थे।[106] राजनीतिक मुद्दों से परेशान आम्बेडकर का स्वास्थ्य बद से बदतर होता चला गया और 1955 के दौरान किये गये लगातार काम ने उन्हें तोड़ कर रख दिया। अपनी अंतिम पांडुलिपि भगवान बुद्ध और उनका धम्म को पूरा करने के तीन दिन के बाद 6 दिसम्बर 1956 को आम्बेडकर का महापरिनिर्वाण नींद में दिल्ली में उनके घर मे हो गया। तब उनकी आयु ६४ वर्ष एवं ७ महिने की थी। दिल्ली से विशेष विमान द्वारा उनका पार्थिव मुंबई मेंउनके घर राजगृह में लाया गया। 7 दिसंबर को मुंबई में दादर चौपाटी समुद्र तट पर बौद्ध शैली में अंतिम संस्कार किया गया जिसमें उनके लाखों समर्थकों, कार्यकर्ताओं और प्रशंसकों ने भाग लिया।[115][116] उनके अंतिम संस्कार के समय उनके पार्थिव को साक्षी रखकर उनके 10,00,000 से अधिक अनुयायीओं ने भदन्त आनन्द कौसल्यायन द्वारा बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी, क्योकि आम्बेडकर ने 16 दिसंबर 1956 को मुंबई में एक बौद्ध धर्मांतरण कार्यक्रम आयोजित किया था।[117][117][118]

मृत्युपरांत आम्बेडकर के परिवार में उनकी दूसरी पत्नी सविता आम्बेडकर रह गयी थीं, जो दलित बौद्ध आंदोलन में आम्बेडकर के बाद (आम्बेडकर के साथ) बौद्ध बनने वाली पहली व्यक्ति थी। विवाह से पहले उनकी पत्नी का नाम डॉ॰ शारदा कबीर था। डॉ॰ सविता आम्बेडकर की एक बौद्ध के रूप में 29 मई सन 2003 में 94 वर्ष की आयु में मृत्यु हो गई।[119][120] और पुत्र यशवंत आम्बेडकर[121] आम्बेडकर के पौत्र, प्रकाश आम्बेडकर, भारिपा बहुजन महासंघ का नेतृत्व करते है[122] और भारतीय संसद के दोनों सदनों मे के सदस्य रह चुके है।[122]

एक स्मारक आम्बेडकर के दिल्ली स्थित उनके घर 26 अलीपुर रोड में स्थापित किया गया है। आम्बेडकर जयंती पर सार्वजनिक अवकाश रखा जाता है। 1990 में उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया है।[123]

हर साल २० लाख से अधिक लोग उनकी जयंती (14 अप्रैल), महापरिनिर्वाण यानी पुण्यतिथि (6 दिसम्बर) और धम्मचक्र प्रवर्तन दिवस (14 अक्टूबर) को चैत्यभूमि (मुंबई), दीक्षाभूमि (नागपूर) तथा भीम जन्मभूमि (महू) में उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए इकट्ठे होते हैं।[124] यहाँ हजारों किताबों की दुकान स्थापित की गई हैं, और किताबें बेची जाती हैं। आम्बेडकर का उनके अनुयायियों को संदेश था – "शिक्षित बनो, संघटित बनो, संघर्ष करो"।[125]

व्यक्तिगत जीवन

परिवार

फरवरी 1934 में मुम्बई के अपने घर राजगृह में अपने परिवार के सदस्यों के साथ आम्बेडकर। बाएं से - यशवंत (बेटे), डॉ॰ आम्बेडकर, रमाबाई (पत्नी), लक्ष्मीबाई (उनके बड़े भाई बलराम की पत्नी), मुकुंद (भतीजे) और आम्बेडकर का पसंदीदा कुत्ता, टोबी।

आम्बेडकर के दादा का नाम मालोजी सकपाल था, तथा पिता का नाम रामजी सकपाल और माता का नाम भीमाबाई था। 1906 में आम्बेडकर जब पाँच वर्ष के थे तब उनकी माँ की मृत्यू हुई थी। इसलिए उन्हें बुआ मीराबाई संभाला था, जो उनके पिता की बडी बहन थी। मीराबाई के कहने पर रामजी ने जीजाबाई से पुनर्विवाह किया, ताकि बालक भीमराव को माँ का प्यार मिल सके। बालक भीमराव जब पाँचवी अंग्रेजी कक्षा पढ रहे थे, तब उनकी शादी रमाबाई से हुई। रमाबाई और भीमराव को पाँच बच्चे भी हुए - जिनमें चार पुत्र: यशवंत, रमेश, गंगाधर, राजरत्न और एक पुत्री: इन्दु थी। किंतु 'यशवंत' को छोड़कर सभी संतानों की बचपन में ही मृत्यु हो गई थीं। प्रकाश, रमाबाई, आनंदराज तथा भीमराव यह चारो यशवंत आम्बेडकर की संताने हैं।

गुरु और उपास्य देवता

आम्बेडकर ने कहां था की, उनका जीवन तीन गुरुओं और तीन उपास्यों से सफल बना है। उन्होंने जिन तीन महान व्यक्तियों को अपना गुरु माना, उसमे उनके पहले गुरु थे तथागत गौतम बुद्ध, दूसरे थे संत कबीर और तीसरे गुरु थे महात्मा ज्योतिराव फुले थे। उनके तीन उपास्य (देवता) थे — ज्ञान, स्वाभिमान और शील।[126][127][128][129]

आम्बेडकरवाद

"आम्बेडकरवाद" आम्बेडकर की विचारधारा तथा दर्शन हैं। स्वतंत्रता, समानता, भाईचारा, बौद्ध धर्म, विज्ञानवाद, मानवतावाद, सत्य, अहिंसा आदि के विषय आम्बेडकरवाद के सिद्धान्त हैं। छुआछूत को नष्ट करना, दलितों में सामाजिक सुधार, भारत में बौद्ध धर्म का प्रचार एवं प्रचार, भारतीय संविधान में निहीत अधिकारों तथा मौलिक हकों की रक्षा करना, एक नैतिक तथा जातिमुक्त समाज की रचना और भारत देश प्रगती यह प्रमुख उद्देश शामील हैं। आम्बेडकरवाद सामाजिक, राजनितीक तथा धार्मिक विचारधारा हैं।[130][131][132][133]

पुस्तकें व अन्य रचनाएँ

एनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट (जाति प्रथा का विनाश) के पहले संस्करण का कवर, 1936
आम्बेडकर ने 25 फरवरी 1921 को धाराप्रवाह जर्मन भाषा में बॉन विश्वविद्यालय को लिखा हुआ एक पत्र

भीमराव आम्बेडकर प्रतिभाशाली एवं जुंझारू लेखक थे। आम्बेडकर को पढने में बहोत रूची थी तथा वे लेखन में भी रूची रखते थे। इसके चलते उन्होंने मुंबई के अपने घर राजगृह में ही एक समृद्ध ग्रंथालय का निर्माण किया था, जिसमें उनकी 50 हजार से भी अधिक किताबें थी। अपने लेखन द्वारा उन्होंने दलितों व देश की समस्याओं पर प्रकाश डाला। उन्होंने लिखे हुए महत्वपूर्ण ग्रंथो में, अनहिलेशन ऑफ कास्ट, द बुद्ध अँड हिज धम्म, कास्ट इन इंडिया, हू वेअर द शूद्राज?, रिडल्स इन हिंदुइझम आदि शामिल हैं। 32 किताबें और मोनोग्राफ (22 पुर्ण तथा 10 अधुरी किताबें), 10 ज्ञापन, साक्ष्य और वक्तव्य, 10 अनुसंधान दस्तावेज, लेखों और पुस्तकों की समीक्षा एवं 10 प्रस्तावना और भविष्यवाणियां इतनी सारी उनकी अंग्रेजी भाषा की रचनाएँ हैं।[134] उन्हें ग्रारह भाषाओं का ज्ञान था, जिसमें मराठी (मातृभाषा), अंग्रेजी, हिन्दी, पालि, संस्कृत, गुजराती, जर्मन, फारसी, फ्रेंच, कन्नड और बंगाली ये भाषाएँ शामील है।[135] आम्बेडकर ने अपने समकालिन सभी राजनेताओं की तुलना में सबसे अधिक लेखन किया हैं।[136] उन्होंने अधिकांश लेखन अंग्रेजी में किया हैं। सामाजिक संघर्ष में हमेशा सक्रिय और व्यस्त होने के साथ ही, उनके द्वारा रचित अनेकों किताबें, निबंध, लेख एवं भाषणों का बड़ा संग्रह है। वे असामान्य प्रतिभा के धनी थे। उनके साहित्यिक रचनाओं को उनके विशिष्ट सामाजिक दृष्टिकोण, और विद्वता के लिए जाना जाता है, जिनमें उनकी दूरदृष्टि और अपने समय के आगे की सोच की झलक मिलती है। आम्बेडकर के ग्रंथ भारत सहित पुरे विश्व में बहुत पढे जाते है। भगवान बुद्ध और उनका धम्म यह उनका ग्रंथ 'भारतीय बौद्धों का धर्मग्रंथ' है तथा बौद्ध देशों में महत्वपुर्ण है।[137] उनके डि.एस.सी. प्रबंध द प्रॉब्लम ऑफ द रूपी : इट्स ओरिजिन ॲन्ड इट्स सोल्युशन से भारत के केन्द्रिय बैंक यानी भारतीय रिज़र्व बैंक की स्थापना हुई है।[138][139][140]

महाराष्ट्र सरकार के शिक्षा विभाग ने बाबासाहेब आंबेडकर के सम्पूर्ण साहित्य को कई खण्डों में प्रकाशित करने की योजना बनायी है और उसके लिए 15 मार्च 1976 को डॉ॰ बाबासाहेब आम्बेडकर मटेरियल पब्लिकेशन कमिटी कि स्थापना की। इसके अन्तर्गत 2019 तक 'डॉ॰ बाबासाहेब आम्बेडकर: राइटिंग्स एण्ड स्पीचेज' नाम से 22 खण्ड अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित किये जा चुके हैं, और इनकी पृष्ठ संख्या 15 हजार से भी अधिक हैं। इस योजना के पहले खण्ड का प्रकाशन आम्बेडकर के जन्म दिवस 14 अप्रैल 1979 को हुआ। इन 22 वोल्युम्स में वोल्युम 14 दो भागों में, वोल्युम 17 तीन भागों में, वोल्युम 18 तीन भागों में व संदर्भ ग्रंथ 2 हैं, यानी कुल 29 किताबे प्रकाशित हैं।[141] 1987 से उनका मराठी अनुवाद करने का काम ने सुरू किया गया है, किंतु ये अभीतक पूरा नहीं हुआ। ‘डॉ॰ बाबासाहेब आम्बेडकर: राइटिंग्स एण्ड स्पीचेस’ के खण्डों के महत्व एवं लोकप्रियता को देखते हुए भारत सरकार के ‘सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय’ के डॉ॰ आम्बेडकर प्रतिष्ठान ने इस खण्डों के हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करने की योजना बनायी और इस योजना के अन्तर्गत अभी तक "बाबा साहेब डा. अम्बेडकर: संपूर्ण वाङ्मय" नाम से 21 खण्ड हिन्दी भाषा में प्रकाशित किये जा चुके हैं। यह 21 हिन्दी खंड महज 10 अंग्रेजी खंडो का अनुवाद हैं। इन हिन्दी खण्डों के कई संस्करण प्रकाशित किये जा चुके हैं। आंबेडकर का संपूर्ण लेखन साहित्य महाराष्ट्र सरकार के पास हैं, जिसमें से उनका आधे से अधिक साहित्य अप्रकाशित है। उनका पूरा साहित्य अभीतक प्रकाशित नहीं किया गया हैं, उनके अप्रकाशित साहित्य से 45 से अधिक खंड बन सकते हैं।[142][143]

आम्बेडकर का साहित्य

पुस्तकें

  1. एडमिनिस्ट्रेशन एंड फिनांसेज़ ऑफ़ द ईस्ट इंडिया कंपनी (एम॰ए॰ की थीसिस)
  2. द एवोल्यूशन ऑफ़ प्रोविंशियल फिनांसेज़ इन ब्रिटिश इंडिया (पीएच॰डी॰ की थीसिस, 1917, 1925 में प्रकाशित)
  3. दी प्राब्लम आफ दि रुपी : इट्स ओरिजिन एंड इट्स सॉल्यूशन (डीएस॰सी॰ की थीसिस, 1923 में प्रकाशित)
  4. अनाइहिलेशन ऑफ कास्ट्स (जाति प्रथा का विनाश) (मई 1936)
  5. विच वे टू इमैनसिपेशन (मई 1936)
  6. फेडरेशन वर्सेज़ फ्रीडम (1936)
  7. पाकिस्तान और द पर्टिशन ऑफ़ इण्डिया / थॉट्स ऑन पाकिस्तान (1940)
  8. रानडे, गांधी एंड जिन्नाह (1943)
  9. मिस्टर गांधी एण्ड दी एमेन्सीपेशन ऑफ़ दी अनटचेबल्स (सप्टेबर 1945)
  10. वॉट कांग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल्स ? (जून 1945)
  11. कम्यूनल डेडलाक एण्ड अ वे टू साल्व इट (मई 1946)
  12. हू वेर दी शूद्राज़ ? (अक्तुबर 1946)
  13. भारतीय संविधान में परिवर्तन हेतु कैबिनेट मिशन के प्रस्तावों का, अनुसूचित जनजातियों (अछूतों) पर उनके असर के सन्दर्भ में दी गयी समालोचना (1946)
  14. द कैबिनेट मिशन एंड द अंटचेबल्स (1946)
  15. स्टेट्स एण्ड माइनोरीटीज (1947)
  16. महाराष्ट्र एज ए लिंग्विस्टिक प्रोविन्स स्टेट (1948)
  17. द अनटचेबल्स: हू वेर दे आर व्हाय दी बिकम अनटचेबल्स (अक्तुबर 1948)
  18. थॉट्स ऑन लिंगुइस्टिक स्टेट्स: राज्य पुनर्गठन आयोग के प्रस्तावों की समालोचना (प्रकाशित 1955)
  19. द बुद्धा एंड हिज धम्मा (भगवान बुद्ध और उनका धम्म) (1957)
  20. रिडल्स इन हिन्दुइज्म
  21. डिक्शनरी ऑफ पाली लॅग्वेज (पालि-इग्लिश)
  22. द पालि ग्रामर (पालि व्याकरण)
  23. वेटिंग फ़ॉर अ वीज़ा (आत्मकथा) (1935-1936)
  24. अ पीपल ऐट बे
  25. द अनटचेबल्स और द चिल्ड्रेन ऑफ़ इंडियाज़ गेटोज़
  26. केन आय बी अ हिन्दू?
  27. व्हॉट द ब्राह्मिण्स हैव डन टू द हिन्दुज
  28. इसेज ऑफ भगवत गिता
  29. इण्डिया एण्ड कम्यूनिज्म
  30. रेवोलोटिओं एंड काउंटर-रेवोलुशन इन एनशियंट इंडिया
  31. द बुद्धा एंड कार्ल मार्क्स (बुद्ध और कार्ल मार्क्स)
  32. कोन्स्टिट्यूशन एंड कोस्टीट्यूशनलीज़म

ज्ञापन, साक्ष्य और वक्तव्य

  1. On Franchise and Framing Constituencies (मताधिकार एवं निर्वाचन क्षेत्र बनाने के सन्दर्भ में) (1919)
  2. Statement of Evidence to the Royal Commission of Indian Currency (भारतीय मुद्रा के दिया गया शाही आयुक्तालय को साक्ष्य का बयान) (1926)
  3. Protection of the Interests of the Depressed Classes (शोषित/वंचित वर्गों के अधिकारों की रक्षा पर दिया गया बयान) (मई 29, 1928)
  4. State of Education of the Depressed Classes in the Bombay Presidency (बम्बई प्रेसीडेंसी में पिछड़े वर्गों में शिक्षा के स्तर के सम्बन्ध में) (1928)
  5. Constitution of the Government of Bombay Presidency (बम्बई प्रेसीडेंसी सरकार का संविधान) (मई 17, 1929)
  6. A Scheme of Political Safeguards for the protection of the Depressed in the Future Constitution of a Self- governing India (भविष्य के स्वशासित भारतीय संविधान में पिछड़े वर्गों के लिए राजनैतिक प्रतिरक्षण की योजना) (1930)
  7. The Claims of the Depressed Classes for Special Represention (पिछड़े वर्गों के विशेष प्रतिनिधित्व की मांग) (1931)
  8. Franchise and Tests of Untouchability (छुआ-छूत की परख और विशेषाधिकार) (1932)
  9. The Cripps Proposals on Constitutional Advancement (संवैधानिक प्रगति पर क्रिप्स प्रस्ताव) (जुलाई 18, 1942)
  10. Grievances of the Schedule Castes (अनुसूचित जातियों की शिकायतें) (अक्तुबर 29, 1942)

अनुसन्धान दस्तावेज, लेख और पुस्तकों की समीक्षा

  1. कास्ट्स इन इण्डिया : देयर जीनियस, मेकैनिज़म एंड डिवेलपमेंट (1918)
  2. (मिस्टर रसेल एंड द रिकंस्ट्रक्शन ऑफ़ सोसाइटी) (1918)
  3. स्माल होलिंग्स इन इंडिया एण्ड देयर रेमिडीज (1918)
  4. करेंसी एंड एक्सचेंजेज़ (1925)
  5. द प्रेजेंट प्रॉब्लम ऑफ द इंडियन करेंसी (अप्रैल 1925)
  6. Report of Taxation Enquiry Committee (कराधान जाँच समिति की रिपोर्ट) (1926)
  7. Thoughts on the Repform of Legal Education in the Bombay Presidency (बम्बई प्रेसीडेंसी में न्यायिक शिक्षा में सुधार पर विचार) (1936)
  8. राइजिंग एंड फाल ऑफ हिन्दू वुमन (1950)
  9. Need for checks and Balances (नीड फॉर चेक्स एंड बैलेंसेज़ (नियंत्रणों और संतुलनों की आवश्यकता) (अप्रैल 23, 1953)
  10. बुद्ध पूजा पाठ (मराठी में) (नवम्बर 1956)

प्रस्तावना और भविष्यवाणियां

  1. Forward to Untouchable Workers of Bombay City (अनटचेबल वर्कर्स ऑफ़ बॉम्बे सिटी की प्रस्तावना) (1938)
  2. Forward to commodity Exchange (पुस्तक: कमोडिटी एक्सचेंज की प्रस्तावना) (1947)
  3. Preface to the Essence of Buddhism (पुस्तक, द एसेंस ऑफ़ बुद्धिजम की भूमिका) (1948)
  4. Forward to Social Insurance and India (सोशल इन्शुरन्स एंड इंडिया की प्रस्तावना) (1948)
  5. Preface to Rashtra Rakshake Vaidik Sadhan (पुस्तक, राष्ट्र रक्षा के वैदिक साधन की भूमिका) (1948)

पत्रकारिता

आम्बेडकर द्वारा सम्पादित पत्र-पत्रिकाएँ
बहिष्कृत भारत व मूकनायक की टॅगलाइन

आम्बेडकर एक सफल पत्रकार एवं प्रभावी संपादक थे। अखबारों के माध्यम से समाज में उन्नती होंगी, इसपर उन्हें विश्वास था। वह आन्दोलन में अखबार को बेहद महत्वपूर्ण मानते थे। उन्होंने शोषित एवं दलित समाज में जागृति लाने के लिए कई पत्र एवं पांच पत्रिकाओं का प्रकाशन एवं सम्पादन किया। इनसे उनके दलित आंदोलन को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण मदद मिली।[144] उन्होंने कहां हैं की, "किसी भी आन्दोलन को सफल बनाने के लिए अखबार की आवश्यकता होती हैं, अगर आन्दोलन का कोई अखबार नहीं है तो उस आन्दोलन की हालत पंख तुटे हुए पंछी की तरह होती हैं।" डॉ॰ आम्बेडकर ही दलित पत्रकारिता के आधार स्तम्भ हैं क्योंकी वे दलित पत्रिकारिता के प्रथम संपादक, संस्थापक एवं प्रकाशक हैं।[145] डॉ॰ आम्बेडकर ने सभी पत्र मराठी भाषा में ही प्रकाशित किये क्योंकि उनका कार्य क्षेत्र महाराष्ट्र था और मराठी वहां की जन भाषा है। और उस समय महाराष्ट्र की शोषित एवं दलित जनता ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं थी, वह केवल मराठी ही समझ पाती थी। कई दशकों तक उन्होंने पांच मराठी पत्रिकाओं का संपादन किया था, जिसमे मूकनायक (1920), जनता (1930), बहिष्कृत भारत (1927), समता (1928) एवं प्रबुद्ध भारत (1956) सम्मिलित हैं। इन पाँचो पत्रों में बाबासाहब आम्बेडकर देश के सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक मुद्दों पर अपने विचार व्यक्त करते थे। [146][147][148][149] साहित्यकार व विचारक गंगाधर पानतावणे ने 1987 में भारत में पहली बार आम्बेडकर की पत्रकारितापर पी.एच.डी. के लिए शोध प्रबंध लिखा। उसमें पानतावने ने आंबेडकर के बारे में लिखा हैं की, "इस मुकनायक ने बहिष्कृत भारत के लोगों को प्रबुद्ध भारत में लाया। बाबासाहब एक महान पत्रकार थे।"

मूकनायक

मूकनायक का 31 जनवरी 1920 का पहला अंक

31 जनवरी 1920 को बाबासाहब ने अछूतों के उपर होने वाले अत्याचारों को प्रकट करने के लिए "मूकनायक" नामक अपना पहला मराठी पाक्षिक पत्र शुरू किया। इसके संपादक आम्बेडकर व पाण्डुराम नन्दराम भटकर थे। इस अखबार के शीर्ष भागों पर संत तुकाराम के वचन थे। इसके लिए कोल्हापुर संस्थान के छत्रपति शाहु महाराज द्वारा 25,000 रूपये की आर्थिक मदत भी मिली थी। ‘मूक नायक’ सभी प्रकार से मूक-दलितों की ही आवाज थी, जिसमें उनकी पीड़ाएं बोलती थीं इस पत्र ने दलितों में एक नयी चेतना का संचार किया गया तथा उन्हें अपने अधिकारों के लिए आंदोलित होने को उकसाया। आम्बेडकर पढाई के लिए विलायत गये और यह पत्र आर्थिक अभावों के चलते 1923 में बंद पड गया, लेकिन एक चेतना की लहर दौड़ाने के अपने उद्देश्य में कामयाब रहा।

बहिष्कृत भारत

बहिष्कृत भारत का अंक
बहिष्कृत भारत पत्र

मूकनायक के बंद हो जाने के बाद कम समय में आम्बेडकर ने 3 अप्रैल 1924 को दूसरा मराठी पाक्षिक "बहिष्कृत भारत" निकाला। इसका संपादन डॉ॰ आम्बेडकर खुद करते थे। यह पत्र बाम्बे से प्रकाशित होता था। इसके माध्यम से वे अछूत समाज की समस्याओं और शिकायतों को सामने लाने का कार्य करते थे तथा साथ ही साथ अपने आलोचकों को जवाब भी देने का कार्य करते थे। इस पत्र के एक सम्पादकीय में उन्होंने लिखा कि यदि बाल गंगाधर तिलक अछूतों के बीच पैदा होते तो यह नारा नहीं लगाते कि "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है" बल्कि वह यह कहते कि "छुआछूत का उन्मूलन मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है।" इस पत्र ने भी दलित जागृति का महत्वपूर्ण कार्य किया। इस अखबार के शीर्ष भागों पर संत ज्ञानेश्वर के वचन थे। इस पाक्षिक के कुल 34 अंक निकाले गये। आर्थिक कठनाईओं कारण यह नवम्बर 1929 को बंद हो गया।

समता

29 जून 1928 में आम्बेडकर ने "समता" (हिन्दी: समानता) पत्र शुरू किया। यह पत्र डॉ॰ आम्बेडकर द्वारा समाज सुधार हेतु स्थापित संस्था समाज समता संघ (समता सैनिक दल) का मुखपत्र था। इसके संपादक के तौर पर आम्बेडकर ने देवराव विष्णु नाइक को नियुक्त किया था।

जनता

समता पत्र बंद होने के बाद आम्बेडकर ने इसका पुनःप्रकाशन ‘जनता’ के नाम से किया। 24 फरवरी 1930 को इस पाक्षिक का पहला अंक प्रकाशित हुआ। 31 अक्टुबर को 1930 यह साप्ताहिक बन गया। 1944 में, बाबासाहेब ने इसमें "आम्ही शासनकर्ती जमात बनणार" (हिंदी: हम शासक कौम बनेंगे) इस शीर्षक से प्रसिद्ध लेख लिखा। इस पत्र के माध्यम से आम्बेडकर ने दलित समस्याओं को उठाने का बखूबी कार्य किया।फरवरी 1956 तक यानी कुल 26 साल तक यह पत्र चलता रहा।

प्रबुद्ध भारत

आम्बेडकर ने पाँचवी बार 4 फरवरी 1956 को प्रबुद्ध भारत शुरू किया। ‘जनता’ पत्र का नाम बदलकर उन्होंने ‘प्रबुद्ध भारत’ कर दिया था। इस पत्र के मुखशीर्ष पर ‘अखिल भारतीय दलित फेडरेशन का मुखपत्र’ छपता था। बाबासाहेब के महापरिनिर्वाण के बाद यह पाक्षिक बंद हुआ। 11 अप्रैल 2017 को महात्मा फुले की जयंति के उपलक्ष में बाबासाहेब के पौत्र प्रकाश आम्बेडकर ने "प्रबुद्ध भारत" को नये सिरे से शुरू करने की घोषणा की और 10 मई 2017 को इसका पहला अंक प्रकाशित हुआ एवं यह पाक्षिक शुरू हुआ।[150]

इन अखबारों द्वारे बाबासाहेब ने अपने विचारों से स्पृश्य आणि अछूत को जागृत किया। जिससे दलितों की सोच व जीवन में परिवर्तन आया।

प्रभाव और विरासत

आम्बेडकर की एक सामाजिक-राजनीतिक सुधारक के रूप में विरासत का आधुनिक भारत पर गहरा असर हुआ है।[151][152] स्वतंत्रता के बाद भारत में, उनके सामाजिक-राजनैतिक विचारों को पूरे राजनीतिक स्पेक्ट्रम में सम्मानित किया जाता है। उनकी पहल ने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों को प्रभावित किया है और आज जिस तरह से भारत सामाजिक, आर्थिक नीतियों और कानूनी प्रोत्साहनों के माध्यम से सामाजिक-आर्थिक नीतियों, शिक्षा और सकारात्मक कार्रवाई में दिख रहा है, उसे बदल दिया है। एक विद्वान के रूप में उनकी प्रतिष्ठा ने उनकी स्वतंत्र भारत के पहले कानून मंत्री और संविधान के प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में नियुक्ति की। उन्होंने आजादी से व्यक्तिगत स्वतंत्रता में ज्यादा विश्वास किया और जातिरहित समाज की आलोचना की। हिंदू धर्म को जाति व्यवस्था की नींव होने के उनके आरोपों ने उन्हें सनातनी हिंदुओं के बीच विवादास्पद और अलोकप्रिय बनाया।[153] बौद्ध धर्म के उनके रूपांतरण ने भारत और विदेशों में बौद्ध दर्शन के हित में पुनरुत्थान की शुरुआत हुई।[154]

सर्वप्रथम सप्टेंबर-अक्तुबर 1927 में आम्बेडकर के अनुयायियों द्वारा और बाद में भारतीय लोगों द्वारा आम्बेडकर को आदर एवं सन्मान से 'बाबासाहब' (मराठी: बाबासाहेब) कहा जाता है, जो एक मराठी वाक्यांश हैं जिसका अर्थ "पिता-साहब", क्योंकि लाखों भारतीय उन्हें "महानतम मुक्तिदाता" मानते हैं। आम्बेडकर को "भीम" के नाम से भी जाना जाता है। इस नाम का उपयोग भीम जन्मभूमि, भीम जयंती, जय भीम, भीम स्तम्भ, भीम गीत, भीम ध्वज, भीम आर्मी, भीम नगर, भीम ऐप, भीम सैनिक, भीम गर्जना आदि में किया जाता हैं।[155]

कई सार्वजनिक संस्थानों एवं बाराह विश्वविद्यालयों के नाम उनके सम्मान में रखे गये है। डॉ॰ बाबासाहेब आम्बेडकर अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र, डॉ॰ आम्बेडकर अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार, डॉ॰ बी॰आर॰ आम्बेडकर राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, जालंधर, आम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली का नाम भी उनके सम्मान में है। उनके नाम पर कई सारे पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं। भारतीय संसद भवन में आम्बेडकर का एक बड़ा आधिकारिक तैलचित्र प्रदर्शित है।

2004 में अपने विश्वविद्यालय की स्थापना 200 वर्ष पुरे होने के उपलक्ष में अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय ने इस दिवस को विशेष रूप से मनाने का निर्णय लिया, उन्होंने अपने विश्वविद्यालय में पढ चुके शीर्ष के 100 बुद्धिमान विद्यार्थीओं की कोलंबियन अहेड्स ऑफ देअर टाइम नामक सूची बनाई, जिन्होंने दुनिया में अपने अपने क्षेत्र महत्वपूर्ण योगदान दिया हो। जब यह सूची प्रकाशित कराई गई तो उसमें पहला नाम था 'भीमराव आम्बेडकर' था, तथा उनका उल्लेख "आधुनिक भारत का निर्माता" के रूप में किया गया। आम्बेडकर को "सबसे अधिक बुद्धिमान विद्यार्थी" यानी पहले कोलंबियन अहेड ऑफ देअर टाइम के रूप में घोषित किया गया।[156][157][158]

आम्बेडकर को हिस्ट्री टीवी 18 और सीएनएन आईबीएन द्वारा 2012 में आयोजित एक चुनाव सर्वेक्षण "द ग्रेटेस्ट इंडियन" (महानतम भारतीय) में सर्वाधिक वोट दिये गये थे। लगभग 2 करोड़ वोट डाले गए थे, इस पहल के शुभारंभ के बाद से उन्हें सबसे लोकप्रिय भारतीय व्यक्ति बताया गया था।[159] भारत के पहले प्रधान मंत्री, जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि, "डॉ॰ बाबासाहेब आम्बेडकर हिंदू समाज की सभी दमनकारी प्रथाओं के खिलाफ विद्रोह का प्रतीक थे।"[160] अर्थशास्त्र में उनकी भूमिका के कारण, एक उल्लेखनीय भारतीय अर्थशास्त्री नरेन्द्र जाधव ने कहा है कि, “आम्बेडकर सभी समय के उच्चतम शिक्षित भारतीय अर्थशास्त्री थे।”[161][162] 2007 में दिए गए एक व्याख्यान में अर्थशास्त्र के क्षेत्र में आम्बेडकर की गुरुता को स्वीकारते हुए अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार जीत चूके अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने कहा हैं कि, “आम्बेडकर अर्थशास्त्र विषय में मेरे पिता हैं। वे दलितों–शोषितों के सच्चे और जाने–माने महानायक हैं। उन्हें आजतक जो भी मान–सम्मान मिला है वे उससे कहीं ज्यादा के अधिकारी हैं। भारत में वे अत्यधिक विवादित हैं। हालांकि उनके जीवन और व्यक्तित्व में विवाद योग्य कुछ भी नहीं हैं। जो उनकी आलोचना में कहा जाता हैं, वह वास्तविकता के एकदम परे हैं। अर्थशास्त्र के क्षेत्र में उनका योगदान बेहद शानदार हैं।” एक आध्यात्मिक गुरू ओशो (रजनीश) ने टिप्पणी की, "मैंने उन लोगों को देखा है जो हिंदू कानून की सबसे निचली श्रेणी शूद्र, अछूतों में पैदा हुए हैं, किंतु वे बहुत बुद्धिमान हैं: जब भारत स्वतंत्र हो गया, और जिसने भारत के संविधान का निर्माण किया, वह डॉ॰ बाबासाहेब आम्बेडकर एक व्यक्ति शूद्र थे। कानून के मुताबिक उनकी बुद्धि के बराबर कोई नहीं था - वह एक विश्व प्रसिद्ध प्राधिकरण थे।"[163] अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने 2010 में भारतीय संसद को संबोधित करते हुए दलित नेता डॉ॰ बी॰ आर॰ आम्बेडकर को महान और सम्मानित मानवाधिकार चैंपियन और भारत के संविधान के मुख्य लेखक के रूप में संबोधित किया।[164] इतिहासविद रामचंद्र गुहा उन्हें "ग़रीबों का मसीहा" कहते हैं।[165]

आम्बेडकर के राजनीतिक दर्शन ने बड़ी संख्या में राजनीतिक दलों, प्रकाशनों और श्रमिक संघों को जन्म दिया है जो पूरे भारत में विशेष रूप से महाराष्ट्र में सक्रिय हैं। बौद्ध धर्म के बारे में उनकी पदोन्नति से भारतीय आबादी के बडे वर्गों के बीच में बौद्ध दर्शन में रुचि बढी गई है। आधुनिक समय में मानवाधिकार कार्यकर्ता बड़े पैमाने पर बौद्ध धर्मांतरण समारोह आयोजित कर, आम्बेडकर के नागपुर 1956 के धर्मांतरण समारोह का अनुकरण करते है।[166] ज्यादातर भारतीय बौद्ध, विशेष रूप से नवयान के अनुयायि उन्हें बोधिसत्व और मैत्रेय के रूप में मानते है, हालांकि उन्होंने कभी स्वयं का यह दावा नहीं किया।[167][168][169] भारत के बाहर, 1990 के उत्तरार्ध के दौरान, कुछ हंगरियन रोमानी लोगों ने अपनी स्थिति और भारत के दलित लोगों के बीच समानताएं खींची। आम्बेडकर से प्रेरित होकर, उन्होंने बौद्ध धर्म में परिवर्तित होना शुरू कर दिया है। इन लोगों ने हंगरी में 'डॉ॰ आम्बेडकर हायस्कूल' नामक तीन विद्यालय भी शुरू किये है, जिसमें एक में 6 दिसम्बर 2016 को आम्बेडकर का स्टेच्यू भी स्थापित किया गया, जो हंगरी के "जय भीम नेटवर्क" ने भेंट दिया था।[170] भारत के साथ नेपाल के दलित लोग व नेता आंबेडकर को मुक्तिदाता मानते हैं, साथ ही वे यह मानते हैं कि आम्बेडकर का दर्शन ही जातिगत भेदभाव को मिटाने में सक्षम है। जापान के बुराकुमिन समुदाय के नेता आम्बेडकर के दर्शन को बुराकुमिन लोगों तक पहुंचा रहे हैं।[171][172]

महाराष्ट्र के नागपुर ज़िले के चिचोली गाँव में डॉ॰ आम्बेडकर वस्तु संग्रहालय - 'शांतिवन' में आम्बेडकर के निजी उपयोग की वस्तुएँ रखी हैं।[173]

आंबेडकर को स्मरण करने वाली मूर्तियाँ और स्मारक पूरे भारत में फैले हुए हैं[174] साथ ही साथ कई विदेशों में भी हैं।[175][176] आम्बेडकर भारत के सबसे पूजनीय नेता हैं। उनकी मूर्ति भारत के हर कस्बे, गाँव, शहर, चौराहे, रेलवे स्टेशन और पार्कों में भारी संख्या में लगी हैं। उनको आमतौर पर पश्चिमी सूट और टाई के साथ सामने वाली जेब में एक कलम और बांहों में भारतीय संविधान की क़िताब लिए और चश्मा लगाए एक गठीले इंसान के रूप में विश्व भर में चित्रित किया जाता हैं। ग्रेट ब्रिटेन एवं जापान में भी उनकी उंची मुर्तियाँ स्थापित हैं।[177] 2015 में मुंबई में स्थित स्टैच्यू ऑफ़ इक्वैलिटी या "डॉ॰ बाबासाहेब आम्बेडकर स्मारक" नामक एक भव्य स्मारक बनाने के प्रस्ताव को मंजूरी दी गई थी, इसमें आंबेडकर की 450 फीट ऊंची मूर्ति होंगी।[178][179] इसके बाद, अमरावती (डॉ॰ बी॰ आर॰ आम्बेडकर मेमोरियल पार्क) और हैदराबाद जैसे शहरों में भी आंबेडकर की 125 फीट ऊंची मूर्तियों को बनाने की घोषणा की गई है।[180]

लोकप्रिय संस्कृति में

आम्बेडकर का जन्मदिवस आम्बेडकर जयंती हर साल 14 अप्रैल को एक बडे उत्सव के रूप में भारत भर में मनाया जाता हैं। महाराष्ट्र के बौद्धों के लिए यह सबसे बडा त्यौहार हैं। महाराष्ट्र सरकार द्वारा आम्बेडकर जयंती को ज्ञान दिवस के रूप में मनाया जाता हैं।[181][182][183] क्योंकि बहुज्ञ डॉ॰ आम्बेडकर को "ज्ञान का प्रतिक" (सिम्बोल ऑफ नॉलेज) माना जाता हैं।[184][185][186] इस दिन को पूरे भारत वर्ष में सार्वजनिक अवकाश के रुप में घोषित किया गया हैं। नयी दिल्ली, संसद में उनकी मूर्ति पर हर वर्ष भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री (दूसरे राजनैतिक पार्टियों के नेताओं सहित) द्वारा सम्माननीय श्रद्धांजलि दिया करते हैं। बौद्ध, दलित एवं अन्य आम्बेडकरवादि लोग अपने घर में उनकी मूर्ति या तस्वीर के सामने रख कर भगवान की तरह उनको अभिवादन करते हैं। इस दिन उनकी प्रतिमा को सामने रख लोग परेड करते हैं, वो लोग ढोल बजाकर नृत्य का भी आनन्द लेते हैं। भारत के अलावा विश्व के 65 से अधिक देशों में आम्बेडकर जयंती मनाई जाती हैं। सन 2016 में, आम्बेडकर की 125वीं जयंती 102 देशों में तथा संयुक्त राष्ट्र संघ में मनाई गई थी,[187][188] संयुक्त राष्ट्र संघ ने उन्हें 'विश्व का प्रणेता' कहां था।[189][190] संयुक्त राष्ट्र 2016 से अंबेडकर जयंती मना रहा है।[191][192] डॉ॰ बाबासाहेब आम्बेडकर की पहली जयंती सदाशिव रणपिसे द्वारा १४ अप्रेल १९२८ को पुणे में मनाई गई थी। रणपिसे आम्बेडकर के अनुयायी थे। उन्होंने आम्बेडकर जयंती की प्रथा शुरू की और इस अवसरों पर बाबासाहेब की प्रतिमा हाथी के अंबारी में रखकर रथ से, तथा उंट के उपर कई रैलीयां निकाली थी।[193][194]

महाराष्ट्र सरकार द्वारा आम्बेडकर का स्कूल प्रवेश दिवस, 7 नवम्बर, विद्यार्थी दिवस घोषीत किया है, राज्य की प्रत्येक स्कूल और जुनियर कॉलेजों में यह दिवस मनाया जाता हैं। क्योंकि प्रकांड विद्वान होते हुए भी आम्बेडकर जन्मभर विद्यार्थी बनकर ही रहे।[195][196] इस दिन महाराष्ट्र के सभी विद्यालयों एवं कनिष्ठ महाविद्यालयों में आम्बेडकर के जीवन पर आधारित व्याख्यान, निबंध, प्रतियोगितायें, क्विज कॉम्पिटिशन, कविता पाठ सहित विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए जाते है।[197][198]

आम्बेडकर के सन्मान में भारतीय संविधान दिवस (राष्ट्रीय कानून दिवस) 26 नवम्बर को मनाया जाता हैं। भारत सरकार के निर्देशों के अनुसार, आम्बेडकर के 125वें जयंती वर्ष के रूप में 26 नवम्बर 2015 को पहला औपचारित संविधान दिवस मनाया गया।[199] 26 नवंबर का दिन संविधान के महत्व का प्रसार करने और डॉ॰ भीमराव आम्बेडकर के विचारों और अवधारणाओं का प्रसार करने के लिए चुना गया हैं।[200][201]

भारतीय बौद्ध ध्वज यानी भीम ध्वज पर 'जय भीम'

जय भीम यह आम्बेडकरवादि लोगों द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाला एक अभिवादन वाक्यांश हैं।[202] 'जय भीम' का अर्थ होता हैं "भीमराव अम्बेडकर की जीत हो।" या "भीमराव आम्बेडकर जिंदाबाज।"[203] यह वाक्यांश आम्बेडकर के एक अनुयायी बाबू एल॰ एन॰ हरदास द्वारा गढ़ा गया था।[204] बाबू हरदास ने भीम विजय संघ के श्रमिकों की मदद से अभिवादन के इस तरीके को बढ़ावा दिया।[205]

नीला रंग आम्बेडकर का एक प्रतिक हैं। आम्बेडकर को नीला रंग प्रिय था क्योंकि वह "समानता" प्रतिक हैं। तथा नीला, आकाश का रंग हैं जोकि उसकी व्‍यापकता को दर्शाता हैं, आम्बेडकर का भी यही विजन था और निजी जीवन में भी वह इसका खासा इस्‍तेमाल करते थे। बाबासाहब की प्रतिमा हमेशा नीले रंग के कोट में दिखती है। 1942 में उन्होंने शेड्यूल्‍ड कास्‍ट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया पार्टी की स्‍थापना की थी, उस पार्टी के झंडे का रंग नीला था और उसके मध्‍य में अशोक चक्र स्थित था। इसके बाद 1956 में जब पुरानी पार्टी को खत्‍म कर रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया का गठन किया गया तो इसमें भी इसी नीले रंग के झंडे का इस्‍तेमाल किया गया। उन्होंने ये रंग महाराष्ट्र के सबसे बड़े दलित वर्ग महार के झंडे से लिया। अब यह बौद्ध धर्म का अशोकचक्र वाला यह नीला झंडा आम्बेडकर का प्रतिक चिन्ह बन चुका हैं। बाद में भारिप बहुजन महासंघ, बहुजन समाज पार्टी समेत अन्य सभी आम्बेडकरवादी संगठनों तथा पाटीओं ने भी इसी रंग को अपनाया और इस तरह यह आम्बेडकरवादी बौद्धों (नवबौद्धों) तथा दलितों के प्रतिरोध, संघर्ष और अस्मिता का प्रतीक बन गया। बौद्ध एवं दलित हर मौके पर नीला रंग तथा नीला झंडे का इस्तेमाल करते हैं।[206][207][208][209]

भीमायन: एक्यपेरियन्स ऑफ अनचलेब्लिटी (भीमायन: छुआछूत का अनुभव) यह पारदन-गोंड कलाकार दुर्गाबाई व्याम और सुभाष व्याम और लेखकों श्रीविद नटराजन और एस आनंद द्वारा निर्मित आम्बेडकर की एक ग्राफिक जीवनी है। इस पुस्तक में आम्बेडकर द्वारा बचपन से वयस्कता तक छुआछूत के अनुभवों को दर्शाया गया है। सीएनएन ने इसे शीर्ष 5 राजनीतिक कॉमिक किताबों में से एक नाम दिया।[210]

1920 के दशक में, लंदन में छात्र के रूप में रहने वाले आम्बेडकर जिस मकान में रहे, वह तिन मंजिला घर महाराष्ट्र सरकार द्वारा एक संग्रहालय में परिवर्तित कर उसे "अंतर्राष्ट्रीय आम्बेडकर मेमोरियल" में बदल दिया गया है। इसका लोकार्पण भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा 14 नवम्बर 2015 को हुआ हैं।[211][212][213]

लखनऊ में आम्बेडकर उद्यान पार्क उनकी याद में समर्पित है। चैत्य में उनकी जीवनी दिखाते हुए स्मारक हैं।[214][215]

लखनऊ के आम्बेडकर स्मारक में अम्बेडकर की कांस्य प्रतिमा; इसपर "मेरा जीवन संघर्ष ही मेरा संदेश है।" ये वचन अंकित है। वाशिंगटन, डी सी के लिंकन स्मारक में अब्राहम लिंकन की मूर्ति पर ये आम्बेडकर की मूर्ति बनी है।

भारतीय डाक ने 1966, 1973, 1991, 2001 और 2013 में उनके जन्मदिन को समर्पित डाक टिकट जारी किए और 2009, 2015, 2016 और 2017 में उन्हें अन्य टिकटों पर चित्रित किया।[216][217]

गुगल ने 14 अप्रैल 2015 को अपने होमपेज डुडल के माध्यम से आम्बेडकर के 124 वें जन्मदिन का जश्न मनाया था।[218][219] यह डूडल भारत, अर्जेंटीना, चिली, आयरलैंड, पेरू, पोलैंड, स्वीडन और यूनाइटेड किंगडम में दिखाया गया था।[220][221][222]

1990 में, भारत सरकार ने आंबेडकर की 100 वीं जयंती मनाने के लिए उनके सन्मान में ₹1 का सिक्का जारी किया था।[223] आंबेडकर की 125 वीं जयंती के उपलक्ष्य में ₹10 और ₹125 के सिक्के 2015 में प्रचलन के लिए जारी किए गए थे।[224]

भारत सरकार के विदेश मंत्रालय ने आंबेडकर के जीवन, कार्य और दर्शन को विदेशों में प्रस्तुत करने के वास्ते एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाने का निर्णय लिया हैं। फिल्म का शीर्षक होगा 'मूकनायक' जो कि आंबेडकर के पहले अखबार का नाम था। इस फिल्म का निर्माण ऑल टाइम प्रोडक्शन्स नामक एक निजी कंपनी करेगी। ऑल टाइम प्रोडक्शन्स बयान के अनुसार, 'नायकों और प्रतीकों को ढूंढती वर्तमान दुनिया में आंबेडकर की कहानी रहस्यपूर्ण है– विदेशों में एक तरह से अनकही– और भारत में ठीक से नहीं समझी गई।'[225][226]

फिल्में और धारावाहिक

सन 2000 में बनी डॉ॰ बाबासाहेब आम्बेडकर फ़िल्म का पोस्टर

आम्बेडकर के जीवन और सोच पर आधारित कई फिल्में, नाटक, किताबें, गाने, टेलीविजन धारावाहिक और अन्य कार्य हैं। जब्बार पटेल ने डॉ॰ बाबासाहेब आम्बेडकर नामक अंग्रेजी फिल्म का वर्ष 2000 में निर्देशन किया था, जिसमें मामूट्टी मुख्य किरदार निभा रहे थे।[227] इस फिल्म का निर्माण भारत के राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम और सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने किया था। विवादों के कारण फिल्म के प्रदर्शन में बहुत समय लग गया था।[228] यूसीएलए और ऐतिहासिक नृवंशविज्ञान में मानव विज्ञान के प्रोफेसर डेविड ब्लंडेल ने भारत में सामाजिक परिस्थितियों और आम्बेडकर के जीवन के बारे में रूची और ज्ञान को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से फिल्मों और कार्यक्रमों की एक श्रृंखला - एरीजिंग लाइट की स्थापना की है।[229] श्याम बेनेगल द्वारा निर्देशित भारत के संविधान के निर्माण पर एक टीवी मिनी सीरीज़ संविधान में आम्बेडकर की मुख्य भूमिका सचिन खेडेकर द्वारा निभाई गई थी।[230] आम्बेडकर और गांधी अरविंद गौर द्वारा निर्देशित और राजेश कुमार द्वारा लिखित नाटक के शीर्षक के दो प्रमुख व्यक्तित्वों को ट्रैक करता है।[231]

सर्वव्यापी आंबेडकर, ये आम्बेडकर की 125 वीं जयंती के अवसर पर 2016 में एबीपी माझा टीवी चैनल द्वारा शुरू की गई एक मराठी श्रृंखला थी। इस श्रृंखला में आंबेडकर के 11 बहुआयामी व्यक्तित्व विस्तार से दर्शाये गये, जिसमें - सत्याग्रही (महाड़ सत्याग्रह एवं कालाराम मन्दिर सत्याग्रह), संपादक, श्रमिक नेता, सियासती नेता (पूना पैक्ट एवं हिन्दू कोड बिल), बैरीस्टर, पुस्तकप्रेमी, लेखक, शिक्षाविद, अर्थशास्त्री, संविधान निर्माता और बुद्ध अनुयायी ये 13 एपिसोड थे।[232]

गर्जा महाराष्ट्र ये 26 महाराष्ट्रीयनों की एक भारतीय टेलीविजन ऐतिहासिक वृत्तचित्र श्रृंखला थी, जिन्होंने न केवल महाराष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान को आकार दिया, बल्कि भारत के सांस्कृतिक विकास के लिए भी एक मार्ग प्रशस्त किया, जिसकी मेजबानी मराठी चैनल सोनी मराठी पर अभिनेता जितेंद्र जोशी ने की। श्रृंखला में आंबेडकर के रूप में प्रशांत चौदप्पा ने भूमिका निभाई हैं।

फिल्में

आम्बेडकर के जीवन एवं विचारों पर कई फिल्में बनी हैं, जो निम्नलिखित है:

  • भीम गर्जना - विजय पवार द्वारा निर्देशित 1990 की मराठी फिल्म, जिसमें आंबेडकर की भूमिका कृष्णानंद ने निभाई थी।
  • बालक आम्बेडकर - बसवराज केत्थुर द्वारा निर्देशित 1991 की कन्नड फिल्म, जिसमें आंबेडकर की भूमिका चिरंजिवी विनय ने निभाई थी।
  • युगपुरुष डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर - शशिकांत नालवडे द्वारा निर्देशित 1993 की मराठी फिल्म।
  • डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर - जब्बार पटेल द्वारा निर्देशित 2000 की अंग्रेजी फिल्म, जिसमें आंबेडकर की भूमिका मामूट्टी ने निभाई थी।[227]
  • डॉ. बी.आर. आम्बेडकर - शरण कुमार कब्बूर द्वारा निर्देशित 2005 की कन्नड फिल्म, जिसमें आंबेडकर की भूमिका विष्णुकांत बी. ने निभाई थी।
  • तिसरी आज़ादी – जब्बार पटेल द्वारा निर्देशित 2006 की एक हिंदी फ़िल्म।
  • रायजिंग लाइट - 2006 में बनी डॉक्युमेंट्री फिल्म[233]
  • रमाबाई भीमराव आम्बेडकर - आम्बेडकर की पत्नी रमाबाई आंबेडकर के जीवन पर आधारित एवं प्रकाश जाधव द्वारा निर्देशित 2010 की मराठी फिल्म, जिसमें आंबेडकर की भूमिका गणेश जेठे ने निभाई थी।
  • शूद्रा: द राइझिंग - आम्बेडकर को समर्पित हिंदी फिल्म (२०१०)[234]
  • अ जर्नी ऑफ सम्यक बुद्ध - हिंदी फिल्म (२०१३), जो आम्बेडकर के भगवान बुद्ध और उनका धम्म ग्रन्थ पर आधारित है।[235]
  • रमाबाई - एम रंगनाथ द्वारा निर्देशित 2016 की कन्नड फिल्म, जिसमें आंबेडकर की भूमिका सिद्दराम कर्नीक ने निभाई थी।[236][237]
  • बोले इंडिया जय भीम - सुबोध नागदेवे द्वारा निर्देशित 2016 की मराठी फिल्म, जिसमें आंबेडकर की भूमिका श्याम भिमसारीयां ने निभाई थी।
  • शरणं गच्छामि – प्रेम राज द्वारा निर्देशित 2017 की तेलुगु फिल्म, जो आंबेडकर के विचारों पर आधारित है।
  • बाल भिमराव – प्रकाश नारायण द्वारा निर्देशित 2018 की मराठी फिल्म, जिसमें आंबेडकर की भूमिका मनीष कांबले ने निभाई थी।[238]
  • रमाई – बाल बरगले द्वारा निर्देशित एक आगामी मराठी फिल्म।

टेलीविज़न धारावाहिक

  • डॉ॰ अम्बेडकर, एक हिंदी टेलीविजन श्रृंखला, जो कि डीडी नेशनल पर प्रसारित हुई है, जिसमें सुधीर कुलकर्णी द्वारा आम्बेडकर की भूमिका निभाई है।
  • प्रधानमन्त्री (२०१३-१४), एक टेलीविजन श्रृंखला, जो एबीपी न्यूज पर प्रसारित हुई है, जिसमें सुरेन्द्र पाल ने आम्बेडकर की भूमिका निभाई है।
  • संविधान (2014), राज्यसभा टीवी पर प्रसारित होने वाली एक टेलीविजन श्रृंखला, जिसमें सचिन खेडेकर ने आम्बेडकर की भूमिका निभाई है।
  • सर्वव्यापी आंबेडकर (२०१६), एक मराठी टेलीविजन श्रृंखला, जो एबीपी माझा पर प्रसारित हुई।
  • गर्जा महाराष्ट्र (२०१८-१९), एक मराठी टेलीविजन श्रृंखला, जो सोनी मराठी पर प्रसारित हुई, जिसमें प्रशांत चौडप्पा ने आंबेडकर की भूमिका निभाई।
  • डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर: महामानवाची गौरवगाथा (२०१९), एक मराठी टेलीविज़न सीरीज़, जो १८ मई २०१९ से स्टार प्रवाह चैनेल पर प्रसारित हो रही है, जिसमें सागर देशमुख आंबेडकर की भूमिका निभा रहे हैं।

पुरस्कार और सम्मान

5 जून 1952 को डॉक्टर ऑफ लॉज प्राप्त करने के बाद कोलंबिया विश्वविद्यालय में वालेस स्टीवंस के साथ आम्बेडकर

1990 में, आम्बेडकर को मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार भारत रत्न से सम्मानित किया गया था।[239][240] इस पुरस्कार को सविता आम्बेडकर ने भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति रामास्वामी वेंकटरमण द्वारा आम्बेडकर के 99 वें जन्मदिवस, 14 अप्रैल 1990 को स्वीकार किया था। यह पुरस्कार समारोह राष्ट्रपति भवन के दरबार हॉल / अशोक हॉल में आयोजित किया गया था।[241]

मानद उपाधि

समर्पित स्मारक और संग्रहालय

आम्बेडकर के स्मरण में विश्व भर में कई वास्तु स्मारक एवं संग्रहालय बनाये गये हैं। कई स्मारक ऐतिहासिक रुप से उनके जुडे हैं तथा संग्रहालयों में उनकी विभिन्न चिजो का संग्रह हैं।

  • डॉ॰ बाबासाहेब आम्बेडकर वस्तु संग्रहालय - 'शांतिवन' — चिचोली गाँव (नागपुर ज़िला); इसमें आम्बेडकर के निजी उपयोग की वस्तुएँ रखी हैं।
  • डॉ॰ आम्बेडकर मणिमंडपम - चेन्नई
  • आम्बेडकर मेमोरियल पार्क - लखनऊ, उत्तर प्रदेश
  • भीम जन्मभूमि - डॉ॰ आम्बेडकर नगर (महू), मध्य प्रदेश; आम्बेडकर की जन्मस्थली
  • डॉ॰ आम्बेडकर राष्ट्रीय स्मारक - 26 अलीपुर रोड, नई दिल्ली
  • डॉ॰ बाबासाहेब आम्बेडकर सामाजिक न्याय भवन - महाराष्ट्र; राज्य के करीब हर जिले में बनी सरकारी वास्तु
  • डॉ॰ बी॰ आर॰ आम्बेडकर मेमोरियल पार्क (डॉ॰ बी॰ आर॰ अम्बेडकर स्मृति वनम) — अमरावती, आंध्र प्रदेश; यहां आम्बेडकर की 125 फीट ऊंची प्रतिमा बनने वाली हैं
  • डॉ॰ बाबासाहेब आम्बेडकर स्मारक (स्टैच्यू ऑफ इक्वैलिटी) - मुंबई, महाराष्ट्र; यहां आम्बेडकर की 450 फीट ऊंची प्रतिमा बनने वाली हैं।
  • चैत्यभूमि - मुंबई, महाराष्ट्र; आम्बेडकर की समाधि स्थली
  • भीमराव आम्बेडकर की प्रतिमा - कोयासन विश्वविद्यालय, जापान
  • डॉ॰ भीमराव रामजी आम्बेडकर स्मारक - लंदन, युनायटेड किंग्डम; लंदन में पढाई के दौरान (1921-22) में आम्बेडकर यहां रहे थे
  • डॉ॰ आम्बेडकर इंटरनेशनल सेंटर - दिल्ली
  • भारतरत्न डॉ॰ बाबासाहेब आम्बेडकर स्मारक - ऐरोली, मुंबई, महाराष्ट्र
  • राजगृह - दादर, मुंबई, महाराष्ट्र; आम्बेडकर का घर
  • डॉ॰ बाबासाहेब आम्बेडकर संग्रहालय और स्मारक - पुणे, महाराष्ट्र; राष्ट्रीय संग्रहालय
  • डॉ॰ बाबासाहेब आम्बेडकर राष्ट्रीय स्मारक - महाड, महाराष्ट्र; यहां आम्बेडकर मे महाड़ सत्याग्रह किया था
  • भारत रत्न डॉ॰ बाबासाहेब आम्बेडकर मुक्तिभूमि स्मारक - येवला, नासिक जिला, महाराष्ट्र; यहां आम्बेडकर ने धर्म परिवर्तन की घोषणा की थी
  • दीक्षाभूमिनागपुर, महाराष्ट्र; यहां आम्बेडकर ने बौद्ध धर्म कबूल किया था

गांधी से संबन्ध एवं विचार

1920 के दशक में आंबेडकर विदेश में पढ़ाई पूरी कर भारत लौटे और सामाजिक क्षेत्र में कार्य करना आरम्भ किया। उस वक्त महात्मा गांधी ने कांग्रेस पार्टी की अगुवाई में आजादी के आंदोलन शुरु कर दिया था। 14 अगस्त, 1931 को आंबेडकर और गांधी की पहली मुलाकात बंबई के मणि भवन में हुई थी। उस वक्त तक गांधी को यह मालूम नहीं था कि आंबेडकर स्वयं एक कथित ‘अस्पृश्य’ हैं। वह उन्हें अपनी ही तरह का एक समाज-सुधारक ‘सवर्ण’ या ब्राह्मण नेता समझते नेता थे। गांधी को यही बताया गया था कि आंबेडकर ने विदेश में पढ़ाई कर ऊंची डिग्रियां हासिल की हैं और वे पीएचडी हैं। दलितों की स्थिति में सुधार को लेकर उतावले हैं और हमेशा गांधी व कांग्रेस की आलोचना करते रहते हैं। प्रथम गोलमेज सम्मेलन में आंबेडकर की दलीलों के बारे में जानकर गांधी विश्वास हो चला था कि यह पश्चिमी शिक्षा और चिंतन में पूरी तरह ढल चुका कोई आधुनिकतावादी युवक है, जो भारतीय समाज को भी यूरोपीय नजरिए से देख रहा है। जब गांधी की हत्या हुई थी तो घटनास्थल पर पहुंचने वालों में सबसे पहले व्यक्ति आंबेडकर ही थे और प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक वे बहुत देर तक वहां रुके थे। 1935 में जब आंबेडकर ने हिन्दू धर्म छोड़ने और सामूहिक धर्मांतरण करने की घोषणा दी, तो 4 मार्च, 1936 को गुजरात के सावली गांव के एक कार्यक्रम में जमनालाल बजाज ने इस पर गांधी की राय पूछी। गांधी ने कहा- 'डॉ॰ आंबेडकर की जगह अगर मैं होता, तो मुझे भी इतना ही क्रोध आता। उस स्थिति में रहकर शायद मैं अहिंसावादी नहीं बनता। डॉ॰ आंबेडकर जो कुछ करें हमें नम्रता से सहना चाहिए। इतना ही नहीं, बल्कि हरिजनों की सेवा इसी में है। अगर वे सचमुच हमें जूतों से मारें, तो भी हमें सहन करना चाहिए। पर उनसे डरना नहीं चाहिए। डॉक्टर आंबेडकर की कदमबोसी करके उन्हें समझाने की भी जरूरत नहीं है। इससे कुसेवा होगी। वे या अन्य हरिजन जो हिन्दू धर्म में विश्वास न रखते हों, वह यदि धर्मांतर करें तो वह भी हमारी शुद्धि का ही कारण होगा। हम इसी योग्य हैं कि हमारे साथ ऐसा व्यवहार हो।'[243][244][245][246]

गांधी आंबेडकर के लिए 'डॉक्टर' संबोधन का इस्तेमाल करते थे, तथा आंबेडकर गांधी को 'मीस्टर गांधी' कहते थे। 1930 और 1940 के दशकों में आंबेडकर ने गांधी की तीखी आलोचना की। उनका विचार था कि सफाई कर्मचारियों के उत्थान का गांधीवादी रास्ता कृपादृष्टि और नीचा दिखाने वाला है। गांधी अश्पृश्यता के दाग को हटाकर हिंदुत्व को शुद्ध करना चाहते थे। दूसरी ओर आंबेडकर ने हिंदुत्व को ही खारिज कर दिया था। उनका विचार था कि यदि दलित समान नागरिक की हैसियत पाना चाहते हैं, तो उन्हें किसी दूसरी आस्था को अपनाना पडेगा। आंबेडकर को गिला था कि कांग्रेस ने दलितों के लिए कुछ भी नहीं किया। इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार गांधी थे, क्योंकि वे अपने अंतिम दिनों के पहले, वर्ण व्यवस्था और जाति प्रथा का विरोध करने के लिए तैयार नहीं थे, बल्कि अपने सनातनी हिंदू होने को लेकर संतुष्ट थे। हालांकि गांधी और आम्बेडकर जिंदगी भर एक दूसरे के राजनीतिक विरोधी बने रहे, लेकिन दोनों ने अपमानजनक सामाजिक व्यवस्था को कमजोर करने में पूरक भूमिका निभाई। कानूनन छुआछूत खत्म हो गया है, लेकिन भारत के कई हिस्सों में आज भी दलितों के साथ भेदभाव किया जाता है।[247][248]

26 फ़रवरी 1955 को आंबेडकर ने बीबीसी को दिए इंटरव्यू में महात्मा गांधी पर अपने विचार प्रकट किये। आंबेडकर ने कहा कि वो गांधी से हमेशा एक प्रतिद्वंद्वी की हैसियत से मिलते थे। इसलिए वो गांधी को अन्य लोगों की तुलना में बेहतर जानते थे। आंबेडकर के मुताबिक, "गांधी भारत के इतिहास में एक प्रकरण थे, वो कभी एक युग-निर्माता नहीं थे। ..." उन्होंने गांधी पर ये भी आरोप लगाया है की, गांधी हर समय दोहरी भूमिका निभाते थे। उन्होंने दो अख़बार निकाले, पहला हरिजन, इस अंग्रेज़ी समाचार पत्र में गांधी ने ख़ुद को जाति व्यवस्था और अस्पृश्यता का विरोधी बताया। और उनके दुसरे एक गुजराती अख़बार में वो अधिक रूढ़िवादी व्यक्ति के रूप में दिखते हैं। जिसमें वो जाति व्यवस्था, वर्णाश्रम धर्म या सभी रूढ़िवादी सिद्धांतों के समर्थक थे।" जबकि इन लेखों के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि गांधी ने अपने अंग्रेज़ी लेखों में जाति-व्यवस्था का समर्थन किया और गुजराती लेखों में छूआछूत का विरोध किया है। आंबेडकर ने छूआछूत के उन्मूलन के साथ समान अवसर और गरिमा पर जोर दिया था और दावा किया कि गांधी इसके विरोधी थे। उनके मुताबिक गांधी छूआछूत की बात सिर्फ़ इसलिए करते थे ताकि अस्पृश्यों को कांग्रेस के साथ जोड़ सकें। वो चाहते थे कि अस्पृश्य स्वराज की उनकी अवधारणा का विरोध न करें। गांधी एक कट्टरपंथी सुधारक नहीं थे और उन्होंने ज्योतिराव फुले या फिर आंबेडकर के तरीके से जाति व्यवस्था को खत्म करने का प्रयास नहीं किया।[56] गांधी का दलितो के लिए ‘हरिजन’ संबोधन का आंबेडकर व उनके संमर्थको ने विरोध किया था और दलित उसे ‘गाली’ के समान मानते थे। गांधी द्वारा शुरू किया गया 'हरिजन सेवक संघ' भी दलितों को नापसंद था क्योंकि, "वो एक शीर्ष जाति की मदद से दलितों के उत्थान की सोच दर्शाता था ना कि दलितों के जीवन पर उनके अपने नियंत्रण की।"[249]

गांधी और आंबेडकर ने अनेक मुद्दों पर एक जैसे विचार रखे, जबकि कई मुद्दों पर उनके विचार बिलकुल अलग या विपरीत थे। ग्रामीण भारत, जाति प्रथा और छुआ-छूत के मुद्दों पर दोनो के विचार एक दूसरे का विरोधी थे। हालांकि दोनों की कोशिश देश को सामाजिक न्याय और एकता पर आधारित करने की थी और दोनों ने इन उद्देश्यों के लिए अलग-अलग रास्ता दिखाया। गांधी के मुताबिक यदि हिंदू जाति व्यवस्था से छुआछूत को निकाल दिया जाए तो पूरी व्यवस्था समाज के हित में काम कर सकती है। इसकी तार्किक अवधारणा के लिए गांधी ने गांव को एक पूर्ण समाज बोलते हुए विकास और उन्नति के केन्द्र में रखा। गांधी के उलट आंबेडकर ने जाति व्यवस्था को पूरी तरह से नष्ट करने का मत सामने रखा। आंबेडकर के मुताबिक जबतक समाज में जाति व्यवस्था मौजूद रहेगी, छुआछूत नए-नए रूप में समाज में पनपती रहेंगी। गांधी ने लोगों को गांव का रुख करने की वकालत की, जबकि आंबेडकर ने लोगों से गांव छोड़कर शहरों का रुख करने की अपील की। गांव व शहर के बारे में गांधी व आंबेडकर के कुछ भिन्न विचार थे। गांधी सत्याग्रह में भरोसा करते थे। आंबेडकर के मुताबिक सत्याग्रह के रास्ते ऊंची जाति के हिंदुओं का हृदय परिवर्तन नहीं किया जा सकता क्योंकि जाति प्रथा से उन्हें भौतिक लाभ होता है। गांधी राज्य में अधिक शक्तियों को निहित करने के विरोधी थे। उनकी प्रयास अधिक से अधिक शक्तियों को समाज में निहित किया जाए और इसके लिए वह गांव को सत्ता का प्रमुख इकाई बनाने के पक्षधर थे। इसके उलट आंबेडकर समाज के बजाए अधिक को अधिक से ज्यादा ताकतवर बनाने की पैरवी करते थे।[250][251][252]

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

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नोट

  1. आम्बेडकर इस उपनाम की मूल व सही वर्तनी "आंबेडकर" (मराठी शब्द, और अंग्रेजी में: Āmbēḍkar) हैं, जिसे शुद्ध हिन्दी में "आम्बेडकर" लिखा जाता है। इसके अलावा "म्बेडकर, अंबेडकर", "म्बेदकर, अंबेदकर, आम्बेकर, आंबेकर" यह सब अशुद्ध या गलत वर्तनीयाँ हैं।

बाहरी कड़ियाँ

साँचा:भीमराव आम्बेडकर