"भीमराव आम्बेडकर": अवतरणों में अंतर

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==संविधान निर्माण==
==संविधान निर्माण==
[[File:Dr. Babasaheb Ambedkar, chairman of the Drafting Committee, presenting the final draft of the Indian Constitution to Dr. Rajendra Prasad on 25 November, 1949.jpg|thumb|left|300px|Ambedkar, chairman of the Drafting Committee, presenting the final draft of the Indian Constitution to Rajendra Prasad on 25 November 1949.]]
[[File:Dr. Babasaheb Ambedkar, chairman of the Drafting Committee, presenting the final draft of the Indian Constitution to Dr. Rajendra Prasad on 25 November, 1949.jpg|thumb|left|300px|ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष डॉ॰ आम्बेडकर ने [[भारतीय संविधान]] के अंतिम मसौदे को 25 नवंबर 1949 को [[राजेन्द्र प्रसाद]] को पेश किया।]]


अपने सत्य परंतु विवादास्पद विचारों और गांधी व कांग्रेस की कटु आलोचना के बावजूद बी आर आम्बेडकर की प्रतिष्ठा एक अद्वितीय विद्वान और विधिवेत्ता की थी जिसके कारण जब, [[15 अगस्त]] [[1947]] में भारत की स्वतंत्रता के बाद, कांग्रेस के नेतृत्व वाली नई सरकार अस्तित्व मे आई तो उसने आम्बेडकर को देश का पहले कानून मंत्री के रूप में सेवा करने के लिए आमंत्रित किया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। 29 अगस्त 1947 को, आम्बेडकर को स्वतंत्र भारत के नए संविधान की रचना के लिए बनी संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया। इस कार्य में आम्बेडकर का शुरुआती बौद्ध संघ रीतियों और अन्य बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन बहुत काम आया।<ref>{{cite web|title=Some Facts of Constituent Assembly |work=Parliament of India |publisher=National Informatics Centre |url=http://parliamentofindia.nic.in/ls/debates/facts.htm |quote=On 29 August 1947, the Constituent Assembly set up an Drafting Committee under the Chairmanship of B. R. Ambedkar to prepare a Draft Constitution for India |accessdate=14 April 2011 |archiveurl=https://web.archive.org/web/20110511104514/http://parliamentofindia.nic.in/ls/debates/facts.htm |archivedate=11 May 2011 |deadurl=yes |df=dmy }}</ref>
अपने सत्य परंतु विवादास्पद विचारों और गांधी व कांग्रेस की कटु आलोचना के बावजूद बी आर आम्बेडकर की प्रतिष्ठा एक अद्वितीय विद्वान और विधिवेत्ता की थी जिसके कारण जब, [[15 अगस्त]] [[1947]] में भारत की स्वतंत्रता के बाद, कांग्रेस के नेतृत्व वाली नई सरकार अस्तित्व मे आई तो उसने आम्बेडकर को देश का पहले कानून मंत्री के रूप में सेवा करने के लिए आमंत्रित किया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। 29 अगस्त 1947 को, आम्बेडकर को स्वतंत्र भारत के नए संविधान की रचना के लिए बनी संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया। इस कार्य में आम्बेडकर का शुरुआती बौद्ध संघ रीतियों और अन्य बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन बहुत काम आया।<ref>{{cite web|title=Some Facts of Constituent Assembly |work=Parliament of India |publisher=National Informatics Centre |url=http://parliamentofindia.nic.in/ls/debates/facts.htm |quote=On 29 August 1947, the Constituent Assembly set up an Drafting Committee under the Chairmanship of B. R. Ambedkar to prepare a Draft Constitution for India |accessdate=14 April 2011 |archiveurl=https://web.archive.org/web/20110511104514/http://parliamentofindia.nic.in/ls/debates/facts.htm |archivedate=11 May 2011 |deadurl=yes |df=dmy }}</ref>

07:50, 22 जुलाई 2018 का अवतरण

बोधिसत्व
बाबासाहब
भीमराव रामजी आम्बेडकर

सन 1939 में भीमराव रामजी आम्बेडकर
जन्म 14 अप्रैल 1891
महू, इंदौर जिला, मध्य प्रदेश, भारत
मौत 6 दिसम्बर 1956(1956-12-06) (उम्र 65)
दिल्ली, भारत
राष्ट्रीयता भारतीय
उपनाम बाबासाहब, बोधिसत्त्व, भीम, भिवा
शिक्षा बीए., एमए., पीएच.डी., एम.एससी., डी. एससी., एलएल.डी., डी.लिट., बार-एट-लॉ (कुल ३२ डिग्रियाँ अर्जित)
शिक्षा की जगह मुंबई विश्वविद्यालय
कोलंबिया विश्वविद्यालय
लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स
बर्लिन विश्वविद्यालय
राजनैतिक पार्टी शेड्युल्ड कास्ट फेडरेशन
भारतीय रिपब्लिकन पार्टी
धर्म बौद्ध धर्म (मानवता और विज्ञानवाद)
जीवनसाथी रमाबाई आम्बेडकर (विवाह १९०६ - निधन १९३५)
डॉ॰ सविता आम्बेडकर (विवाह १९४८)
पुरस्कार भारत रत्‍न (१९९०)
बोधिसत्व (१९५६)
‘पहले’ कोलंबियन अहेड ऑफ देअर टाईम (२००४)
‘चौथे’ द मेकर्स ऑफ दि युनिवर्स
दि ग्रेटेस्ट इंडियन (२०१२)
उल्लेखनीय कार्य {{{notable_works}}}

भीमराव रामजी आम्बेडकर (१४ अप्रैल, १८९१६ दिसंबर, १९५६) बाबासाहब आम्बेडकर के नाम से लोकप्रिय, भारतीय विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ, शिक्षाशास्त्री और समाजसुधारक थे।[1] उन्होंने दलित बौद्ध आंदोलन को प्रेरित किया और अछूतों (दलितों) के खिलाफ सामाजिक भेद भाव के विरुद्ध अभियान चलाया। श्रमिकों और महिलाओं के अधिकारों का समर्थन किया।[2] वे स्वतंत्र भारत के प्रथम कानून मंत्री, भारतीय संविधान के प्रमुख वास्तुकार एवं भारत गणराज्य के निर्माताओं में से एक थे।[3][4][5][6]

आम्बेडकर विपुल प्रतिभा के छात्र थे। उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स दोनों ही विश्वविद्यालयों से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधियाँ प्राप्त की। उन्होंने विधि, अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान के शोध कार्य में ख्याति प्राप्त की।[7] जीवन के प्रारम्भिक करियर में वह अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहे एवम वकालत की। बाद का जीवन राजनीतिक गतिविधियों में बीता; वह भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रचार और बातचीत में शामिल हो गए, पत्रिकाओं को प्रकाशित करने, राजनीतिक अधिकारों की वकालत करने और दलितों के लिए सामाजिक स्वतंत्रता की वकालत और भारत की स्थापना में उनका महत्वपूर्ण योगदान था।

1956 में उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया। 1990 में, उन्हें भारत रत्न, भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान से मरणोपरांत सम्मानित किया गया था। आम्बेडकर की विरासत में लोकप्रिय संस्कृति में कई स्मारक और चित्रण शामिल हैं।

प्रारंभिक जीवन

चित्र:Pictures of Dr Ambedkar's parents - Ramji Ambedkar and Bhimabai.jpg
भीमराव आम्बेडकर के माता-पिता की तस्वीरे, रामजी सकपाल एवं भीमाबाई सकपाल

आम्बेडकर का जन्म सन 14 अप्रैल 1891 को ब्रिटिश भारत के मध्य भारत प्रांत (अब मध्य प्रदेश में) में स्थित नगर सैन्य छावनी महू में हुआ था।[8] वे रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई की १४ वीं व अंतिम संतान थे।[9] उनका परिवार मराठी मूूल का था और वो आंबडवे गांव जो आधुनिक महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में है, से संबंधित था।[10] वे हिंदू महार जाति से संबंध रखते थे, जो अछूत कही जाती थी और इस कारण उनके साथ सामाजिक और आर्थिक रूप से गहरा भेदभाव किया जाता था।[11] डॉ॰ भीमराव आम्बेडकर के पूर्वज लंबे समय तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में कार्यरत थे और उनके पिता, भारतीय सेना की महू छावनी में सेवा में थे और यहां काम करते हुये वो सूबेदार के पद तक पहुँचे थे। उन्होंने मराठी और अंग्रेजी में औपचारिक शिक्षा प्राप्त की थी।[12]

आम्बेडकर मैट्रीक की परीक्षा उत्तिर्ण होने पर केलुसकर गुरुजी ने उन्हे स्वयं की लिखी "भगवान बुद्ध का चरित्र" पुस्तक भेंट दी थी, इसे पढकर वे बचपन में ही गौतम बुद्ध की शिक्षा से प्रभावित हुए। अपनी जाति के कारण उन्हें इसके लिये सामाजिक प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा था। स्कूली पढ़ाई में सक्षम होने के बावजूद छात्र भीमराव को अस्पृश्यता के कारण अनेका प्रकार की कठनाइयों का सामना करना पड़ रहा था। रामजी सकपाल ने स्कूल में अपने बेटे भीमराव का उपनाम ‘सकपाल' की बजाय ‘आंबडवेकर' लिखवाया था, क्योंकी कोकण प्रांत में लोग अपना उपनाम गांव के नाम से रखते थे, इसलिए आम्बेडकर के आंबडवे गांव से 'आंबडवेकर' उपनाम स्कूल में दर्ज किया। बाद में एक देवरुखे ब्राह्मण शिक्षक कृष्णा महादेव आम्बेडकर जो उनसे विशेष स्नेह रखते थे, ने उनके नाम से ‘अंबाडवेकर’ हटाकर अपना सरल ‘आम्बेडकर’ उपनाम जोड़ दिया।[13] आज वे आम्बेडकर नाम से जाने जाते हैं।

रामजी आम्बेडकर ने सन १८९८ में जिजाबाई से पुनर्विवाह कर लिया और परिवार के साथ मुंबई (तब बंबई) चले आये। यहाँ आम्बेडकर एल्फिंस्टोन रोड पर स्थित गवर्न्मेंट हाई स्कूल में, तथाकथिक "अछूत" समाज से संबंधित पहले छात्र बने।[14]

शिक्षा

माध्यमिक शिक्षा

1897 में, आम्बेडकर का परिवार मुंबई चला गया जहां एल्फिंस्टन हाई स्कूल में आम्बेडकर एकमात्र अस्पृश्य छात्र थे। अप्रैल 1906 में, जब वह लगभग 15 वर्ष आयु के थे, तो नौ साल की लड़की रमाबाई से उनकी शादी कराई गई थी।[14]

बॉम्बे विश्वविद्यालय में स्नातक अध्ययन

एक छात्र के रूप में आम्बेडकर

1907 में, उन्होंने अपनी मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की और अगले वर्ष उन्होंने एल्फिंस्टन कॉलेज में प्रवेश किया, जो कि बॉम्बे विश्वविद्यालय से संबद्ध था, ऐसा करने वाले वह पहले अस्पृश्य छात्र बन गये। छात्र भीमराव की इस सफलता को अस्पृश्यों के बीच और सार्वजनिक समारोह में मनाया गया, और उनके परिवार के मित्र एवं लेखक दादा केलुस्कर द्वारा बुद्ध की जीवनी उन्हें भेंट दी गयी।[14]

1912 तक, उन्होंने बॉम्बे विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र और राजनीतिक विज्ञान में अपनी डिग्री प्राप्त की, और बड़ौदा राज्य सरकार के साथ काम (रोज़गार) करने के लिए तैयार हुए। उनकी पत्नी ने अभी अपने नये परिवार को स्थानांतरित कर दिया था और काम शुरू किया जब उन्हें अपने बीमार पिता को देखने के लिए मुंबई वापस लौटना पड़ा, जिनका 2 फरवरी 1913 को निधन हो गया।[15]

कोलंबिया विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर अध्ययन

कोलंबिया विश्वविद्यालय में आम्बेडकर

1913 में, आम्बेडकर 22 साल की उम्र में संयुक्त राज्य अमेरिका चले गए। उन्हें सयाजीराव गायकवाड़ तृतीय (बड़ौदा के गायकवाड़) द्वारा स्थापित एक योजना के तहत न्यू यॉर्क शहर में कोलंबिया विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर शिक्षा के अवसर प्रदान करने के लिए तीन साल के लिए 11.50 डॉलर प्रति माह बड़ौदा राज्य की छात्रवृत्ति प्रदान की गई थी। वहां पहुंचने के तुरंत बाद वह लिविंगस्टन हॉल में पारसी मित्र नवल भातेना के साथ बस गए। जून 1915 में उन्होंने अपनी एमए परीक्षा पास कर दि, जिसमें अर्थशास्त्र प्रमुख, और समाजशास्त्र, इतिहास, दर्शनशास्त्र और मानव विज्ञान यह अन्य विषय थे। उन्होंने एक थीसिस, एशियंट इंडियन्स कॉमर्स (प्राचीन भारतीय वाणिज्य) प्रस्तुत किया। आम्बेडकर जॉन डेवी और लोकतंत्र पर उनके काम से प्रभावित थे।[16]

1916 में, उन्होंने अपना दूसरा थीसिस, नेशनल डिविडेंड ऑफ इंडिया - ए हिस्टोरिक एंड एनालिटिकल स्टडी दुसरे एमए के लिए पूरा किया, और आखिरकार उन्होंने लंदन के लिए छोड़ने के बाद, 1916 में अपने तीसरे थीसिस इवोल्युशन ओफ प्रोविन्शिअल फिनान्स इन ब्रिटिश इंडिया के लिए अर्थशास्त्र में पीएचडी प्राप्त की, अपने थीसिस को प्रकाशित करने के बाद 1927 में अधिकृप रुप से पीएचडी प्रदान की गई।[17] 9 मई को, उन्होंने मानव विज्ञानी अलेक्जेंडर गोल्डनवेइज़र द्वारा आयोजित एक सेमिनार में भारत में जातियां: उनकी प्रणाली, उत्पत्ति और विकास नामक एक पेपर लेख प्रस्तुत किया, जो उनका पहला प्रकाशित काम था।

लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में स्नातकोत्तर अध्ययन

लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के अपने प्रोफेसरों और दोस्तों के साथ आम्बेडकर (केंद्र रेखा में, दाएं से पहले), 1916 - 17

अक्टूबर 1916 में, डॉ॰ आम्बेडकर लंदन चले गये और वहाँ उन्होंने ग्रेज़ इन में बैरिस्टर कोर्स (विधि अध्ययन) के लिए दाखिला लिया, और साथ ही लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में दाखिला लिया जहां उन्होंने अर्थशास्त्र की डॉक्टरेट थीसिस पर काम करना शुरू किया। जून 1917 में, वह मजबूरन उन्हें अपना अध्ययन अस्थायी तौरपर बीच में ही छोड़ कर भारत लौट आए क्योंकि बड़ौदा राज्य से उनकी छात्रवृत्ति समाप्त हो गई थी। लौटते समय उनके पुस्तक संग्रह को उस जहाज से अलग जहाज पर भेजा गया था, और उस जहाज को जर्मन पनडुब्बी द्वारा टारपीडो और डूब गया था, ये प्रथम विश्व युद्ध का काल था।[15] उन्हें चार साल के भीतर अपने थीसिस के लिए लंदन लौटने की अनुमति मिली। बड़ौदा राज्य के सेना सचिव के रूप में काम करते हुये अपने जीवन में अचानक फिर से आये भेदभाव से डॉ॰ भीमराव आम्बेडकर निराश हो गये और अपनी नौकरी छोड़ एक निजी ट्यूटर और लेखाकार के रूप में काम करने लगे। यहाँ तक कि अपनी परामर्श व्यवसाय भी आरंभ किया जो उनकी सामाजिक स्थिति के कारण विफल रहा। अपने एक अंग्रेज जानकार मुंबई के पूर्व राज्यपाल लॉर्ड सिडनेम, के कारण उन्हें मुंबई के सिडनेम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनोमिक्स मे राजनीतिक अर्थव्यवस्था के प्रोफेसर के रूप में नौकरी मिल गयी। १९२० में कोल्हापुर के शाहू महाराज, अपने पारसी मित्र के सहयोग और अपनी बचत के कारण वो एक बार फिर से इंग्लैंड वापस जाने में सक्षम हो गये और वह पहले अवसर में लंदन लौट आए, और 1921 में एमएस॰सी॰ यह मास्टर की डिग्री पूरी की। उनकी थीसिस "रुपये की समस्या: इसकी उत्पत्ति और इसका समाधान" पर थी।[18] 1923 में, उन्होंने अर्थशास्त्र में डीएस॰सी॰ (डॉक्टर ऑफ साईंस) प्राप्त किया। और उसी वर्ष उन्हें ग्रेज इन ने बैरिस्टर-एट-लॉज डीग्री प्रदान की और उन्हें ब्रिटिश बार में बैरिस्टर के रूप में प्रवेश मिल गया। लंदन का अध्ययन पुरा कर भारत वापस लौटते हुये डॉ॰ भीमराव आम्बेडकर तीन महीने जर्मनी में रुके, जहाँ उन्होंने अपना अर्थशास्त्र का अध्ययन, बॉन विश्वविद्यालय में जारी रखा। किंतु समय की कमी से वे विश्वविद्यालय में नहीं ठहर सकें। उनकी तीसरी और चौथी डॉक्टरेट्स (एलएल॰डी॰, कोलंबिया विश्वविद्यालय, 1952 और डी॰लिट॰, उस्मानिया विश्वविद्यालय, 1953) सम्मानित पदवीयां थी।[19]

छुआछूत के विरुद्ध संघर्ष

सन 1922 में एक वकील के रूप में डॉ॰ भीमराव आम्बेडकर

आम्बेडकर बड़ौदा के रियासत राज्य द्वारा शिक्षित थे, और वह उनकी सेवा करने के लिए बाध्य थे। उन्हें महाराजा गायकवाड़ का सैन्य सचिव नियुक्त किया गया, लेकिन जातिगत भेदभाव के कारण कम समय में उन्हें यह नौकरी छोड़नी पडी। उन्होंने इस घटना को अपनी आत्मकथा, वेटिंग फॉर ए वीजा में वर्णित किया।[20] इसके बाद, उन्होंने अपने बढ़ते परिवार के लिए जीवित रहने के तरीके खोजने की कोशिश की। उन्होंने एकाउंटेंट के रूप में एक निजी शिक्षक के रूप में काम किया, और एक निवेश परामर्श व्यवसाय की स्थापना की, लेकिन यह तब विफल रहा जब उनके ग्राहकों ने जाना कि वह अस्पृश्य हैं।[21] 1918 में, वह मुंबई में सिडेनहम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनॉमिक्स में राजनीतिक अर्थव्यवस्था (Political Economy) के प्रोफेसर बने। हालांकि वह छात्रों के साथ सफल रहे, फिर भी अन्य प्रोफेसरों ने उनके साथ पानी पीने के जॉग साझा करने पर विरोध किया।[22]

भारत सरकार अधिनियम १९१९, तैयार कर रही साउथबरो समिति के समक्ष, भारत के एक प्रमुख विद्वान के तौर पर आम्बेडकर को गवाही देने के लिये आमंत्रित किया गया। इस सुनवाई के दौरान, आम्बेडकर ने दलितों और अन्य धार्मिक समुदायों के लिये पृथक निर्वाचिका (separate electorates) और आरक्षण देने की वकालत की।[23] १९२० में, बंबई से, उन्होंने साप्ताहिक मूकनायक के प्रकाशन की शुरूआत की। यह प्रकाशन जल्द ही पाठकों मे लोकप्रिय हो गया, तब आम्बेडकर ने इसका इस्तेमाल रूढ़िवादी हिंदू राजनेताओं व जातीय भेदभाव से लड़ने के प्रति भारतीय राजनैतिक समुदाय की अनिच्छा की आलोचना करने के लिये किया। उनके दलित वर्ग के एक सम्मेलन के दौरान दिये गये भाषण ने कोल्हापुर राज्य के स्थानीय शासक शाहू चतुर्थ को बहुत प्रभावित किया, जिनका आम्बेडकर के साथ भोजन करना रूढ़िवादी समाज मे हलचल मचा गया।[24]

आम्बेडकर एक कानूनी पेशेवर के रूप में काम किया हैं। 1926 में, उन्होंने सफलतापूर्वक तीन गैर-ब्राह्मण नेताओं का बचाव किया जिन्होंने ब्राह्मण समुदाय पर भारत को बर्बाद करने का आरोप लगाया था और बाद में उनपर अपमान के लिए मुकदमा चलाया गया था। धनंजय कीर ने नोट किया कि "ग्राहक और डॉक्टर दोनों के लिए सामाजिक और व्यक्तिगत रूप से जीत बडी रही थी।"

बॉम्बे हाईकोर्ट में कानून की प्रैक्टीस करते हुए, उन्होंने अस्पृश्यों की शिक्षा को बढ़ावा देने और उन्हें ऊपर उठाने की कोशिश की। उनका पहला संगठित प्रयास केंद्रीय संस्थान बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना थी, जिसका उद्देश्य शिक्षा और सामाजिक-आर्थिक सुधार को बढ़ावा देना था, साथ ही अवसादग्रस्त वर्गों के रूप में संदर्भित "बहिष्कार" के कल्याण के लिए भी था।[25] दलित अधिकारों की रक्षा के लिए, उन्होंने मूकनायक, बहिष्कृत भारत, समता, प्रबुद्ध भारत और जनता जैसी पांच पत्रिकाओं की शुरुआत की।[26]

सन 1925 में, उन्हें बम्बई प्रेसीडेंसी समिति में सभी यूरोपीय सदस्यों वाले साइमन कमीशन काम करने के लिए नियुक्त किया गया।[27] इस आयोग के विरोध में भारत भर में विरोध प्रदर्शन हुये और जबकि इसकी रिपोर्ट को ज्यादातर भारतीयों द्वारा नजरअंदाज कर दिया गया, डॉ॰ आम्बेडकर ने अलग से भविष्य के संवैधानिक सुधारों के लिये सिफारिशों लिखीं।[28]

1 जनवरी 1927 को आम्बेडकर ने द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध, की कोरेगाँव की लड़ाई के दौरान मारे गये भारतीय महार सैनिकों के सम्मान में कोरेगाँव विजय स्मारक (जयस्तंभ) में एक समारोह आयोजित किया। यहाँ महार समुदाय से संबंधित सैनिकों के नाम संगमरमर के एक शिलालेख पर खुदवाये गये हैं। आम्बेडकर ने कोरेगांव को दलित स्वाभिमान का प्रतीक बनाया [29]

सन 1927 तक, डॉ॰ आम्बेडकर ने छुआछूत के खिलाफ एक व्यापक एवं सक्रिय आंदोलन शुरू करने का फैसला किया। उन्होंने सार्वजनिक आंदोलनों, सत्याग्रहों और जुलूसों के द्वारा, पेयजल के सार्वजनिक संसाधन समाज के सभी लोगों के लिये खुलवाने के साथ ही उन्होनें अछूतों को भी हिंदू मंदिरों में प्रवेश करने का अधिकार दिलाने के लिये भी संघर्ष किया। उन्होंने महाड शहर में अस्पृश्य समुदाय को भी शहर की चवदार तालाब से पानी लेने का अधिकार दिलाने कि लिये सत्याग्रह चलाया।[30] 1927 के अंत में सम्मेलन में, आम्बेडकर ने जाति भेदभाव और "अस्पृश्यता" को वैचारिक रूप से न्यायसंगत बनाने के लिए, प्राचीन हिंदू पाठ, मनुस्मृति (मनु के कानून), जिसके कई पद, खुलकर जातीय भेदभाव व जातिवाद का समर्थन करते हैं,[31] की सार्वजनिक रूप से निंदा की, और उन्होंने औपचारिक रूप से प्राचीन पाठ की प्रतियां जला दीं।[32] 25 दिसंबर 1927 को, उन्होंने हजारों अनुयायियों का नेतृत्व मनुस्मृति की प्रतियों को जलाया।[33][34][35] इस प्रकार प्रतिवर्ष 25 दिसंबर को मनुस्मृति दहन दिवस के रूप में आम्बेडकरवादियों और दलितों द्वारा मनाया जाता है।[36][37]

1930 में, आम्बेडकर ने तीन महीने की तैयारी के बाद कालाराम मंदिर सत्याग्रह शुरू किया। कालाराम मन्दिर आंदोलन में लगभग 15,000 स्वयंसेवक इकट्ठे हुए, जिससे नाशिक की सबसे बड़ी प्रक्रियाएं हुईं। जुलूस का नेतृत्व एक सैन्य बैंड ने किया था, स्काउट्स का एक बैच, महिलाएं और पुरुष पहली बार भगवान को देखने के लिए अनुशासन, आदेश और दृढ़ संकल्प में चले गए थे। जब वे गेट तक पहुंचे, तो द्वार ब्राह्मण अधिकारियों द्वारा बंद कर दिए गए।[38]

पूना संधि

दूसरा गोलमेज सम्मेलन, १९३१

अब तक भीमराव आम्बेडकर आज तक की सबसे बडी़ अछूत राजनीतिक हस्ती बन चुके थे। उन्होंने मुख्यधारा के महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों की जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति उनकी कथित उदासीनता की कटु आलोचना की। आम्बेडकर ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और उसके नेता मोहनदास करमचंद गांधी की आलोचना की, उन्होने उन पर अस्पृश्य समुदाय को एक करुणा की वस्तु के रूप मे प्रस्तुत करने का आरोप लगाया। आम्बेडकर ब्रिटिश शासन की विफलताओं से भी असंतुष्ट थे, उन्होंने अस्पृश्य समुदाय के लिये एक ऐसी अलग राजनैतिक पहचान की वकालत की जिसमे कांग्रेस और ब्रिटिश दोनों का ही कोई दखल ना हो। 8 अगस्त, 1930 को एक शोषित वर्ग के सम्मेलन के दौरान आम्बेडकर ने अपनी राजनीतिक दृष्टि को दुनिया के सामने रखा, जिसके अनुसार शोषित वर्ग की सुरक्षा उसके सरकार और कांग्रेस दोनों से स्वतंत्र होने में है।

हमें अपना रास्ता स्वयँ बनाना होगा और स्वयँ... राजनीतिक शक्ति शोषितो की समस्याओं का निवारण नहीं हो सकती, उनका उद्धार समाज मे उनका उचित स्थान पाने में निहित है। उनको अपना रहने का बुरा तरीका बदलना होगा... उनको शिक्षित होना चाहिए... एक बड़ी आवश्यकता उनकी हीनता की भावना को झकझोरने और उनके अंदर उस दैवीय असंतोष की स्थापना करने की है जो सभी उँचाइयों का स्रोत है।[9]

इस भाषण में आम्बेडकर ने कांग्रेस और मोहनदास गांधी द्वारा चलाये गये नमक सत्याग्रह की शुरूआत की आलोचना की। आम्बेडकर की आलोचनाओं और उनके राजनीतिक काम ने उसको रूढ़िवादी हिंदुओं के साथ ही कांग्रेस के कई नेताओं में भी बहुत अलोकप्रिय बना दिया, यह वही नेता थे जो पहले छुआछूत की निंदा करते थे और इसके उन्मूलन के लिये जिन्होने देश भर में काम किया था। इसका मुख्य कारण था कि ये "उदार" राजनेता आमतौर पर अछूतों को पूर्ण समानता देने का मुद्दा पूरी तरह नहीं उठाते थे। आम्बेडकर की अस्पृश्य समुदाय मे बढ़ती लोकप्रियता और जन समर्थन के चलते उनको १९३१ मे लंदन में दूसरे गोलमेज सम्मेलन में, भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया। उनकी अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने के मुद्दे पर तीखी बहस हुई। धर्म और जाति के आधार पर पृथक निर्वाचिका देने के प्रबल विरोधी गांधी ने आशंका जताई, कि अछूतों को दी गयी पृथक निर्वाचिका, हिंदू समाज की भावी पीढी़ को हमेशा के लिये विभाजित कर देगी। गांधी को लगता था की, सवर्णों को अस्पृश्यता भूलाने के लिए कुछ अवधि दी जानी चाहिए, यह गांधी का तर्क गलत सिद्ध हुआ जब सवर्णों हिंदूओं द्वारा पूना संधि के कई दशकों बाद भी अस्पृश्यता का नियमित पालन होता रहा।

१९३२ में जब ब्रिटिशों ने आम्बेडकर के साथ सहमति व्यक्त करते हुये अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने की घोषणा की,[39][40] तब गांधी ने इसके विरोध में पुणे की यरवदा सेंट्रल जेल में आमरण अनशन शुरु कर दिया। गांधी ने रूढ़िवादी हिंदू समाज से सामाजिक भेदभाव और अस्पृश्यता को खत्म करने तथा हिंदुओं की राजनीतिक और सामाजिक एकता की बात की। गांधी के दलिताधिकार विरोधी अनशन को देश भर की जनता से घोर समर्थन मिला और रूढ़िवादी हिंदू नेताओं, कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं जैसे पवलंकर बालू और मदन मोहन मालवीय ने आम्बेडकर और उनके समर्थकों के साथ यरवदा मे संयुक्त बैठकें कीं। अनशन के कारण गांधी की मृत्यु होने की स्थिति मे, होने वाले सामाजिक प्रतिशोध के कारण होने वाली अछूतों पर होने होने वाले हमलों की वजह से और विश्व भर से भारी दवाब के चलते डॉ॰ अंबेडकर ने अपनी पृथक निर्वाचिका की माँग वापस ले ली। गांधी ने अपने गलत तर्क एवं गलत मत से संपूर्ण अछूतों के सभी प्रमुख अधिकारों पर पानी फेर दिया। इसके एवज मे अछूतों को सीटों के आरक्षण, मंदिरों में प्रवेश/पूजा के अधिकार एवं छूआ-छूत ख़तम करने की बात स्वीकार कर ली गयी। गाँधी ने इस उम्मीद पर की बाकि सभी सवर्ण भी पूना संधि का आदर कर, सभी शर्ते मान लेंगे अपना अनशन समाप्त कर दिया।

आरक्षण प्रणाली में पहले दलित अपने लिए संभावित उम्मीदवारों में से चुनाव द्वारा (केवल दलित) चार संभावित उम्मीदवार चुनते। इन चार उम्मीदवारों में से फिर संयुक्त निर्वाचन चुनाव (सभी धर्म \ जाति) द्वारा एक नेता चुना जाता। इस आधार पर सिर्फ एक बार सन १९३७ में चुनाव हुए। डॉ॰ आम्बेडकर २०-२५ साल के लिये राजनैतिक आरक्षण चाहते थे लेकिन गाँधी के अड़े रहने के कारण यह आरक्षण मात्र ५ साल के लिए ही लागू हुआ। पूना संधी के बारें गांधीवादी इतिहासकार ‘अहिंसा की विजय’ लिखते हैं, परंतु यहाँ अहिंसा तो डॉ॰ भीमराव आम्बेडकर ने निभाई हैं।

पृथक निर्वाचिका में दलित दो वोट देता एक सामान्य वर्ग के उम्मीदवार को ओर दूसरा दलित (पृथक) उम्मीदवार को। ऐसी स्थिति में दलितों द्वारा चुना गया दलित उम्मीदवार दलितों की समस्या को अच्छी तरह से तो रख सकता था किन्तु गैर उम्मीदवार के लिए यह जरूरी नहीं था कि उनकी समस्याओं के समाधान का प्रयास भी करता। बाद मे आम्बेडकर ने गाँधी की आलोचना करते हुये उनके इस अनशन को अछूतों को उनके राजनीतिक अधिकारों से वंचित करने और उन्हें उनकी माँग से पीछे हटने के लिये दवाब डालने के लिये गांधी द्वारा खेला गया एक नाटक करार दिया। उनके अनुसार असली महात्मा तो ज्योतीराव फुले थे।

राजनीतिक जीवन

13 अक्टूबर 1935, को येओला नासिक मे आम्बेडकर एक रैली को संबोधित करते हुए.

13 अक्टूबर 1935 को, आम्बेडकर को सरकारी लॉ कॉलेज का प्रधानचार्य नियुक्त किया गया और इस पद पर उन्होने दो वर्ष तक कार्य किया। इसके चलते अंबेडकर बंबई में बस गये, उन्होने यहाँ एक बडे़ घर 'राजगृह' का निर्माण कराया, जिसमें उनके निजी पुस्तकालय में 50,000 से अधिक पुस्तकें थीं।[41] इसी वर्ष उनकी पत्नी रमाबाई की एक लंबी बीमारी के बाद मृत्यु हो गई। रमाबाई अपनी मृत्यु से पहले तीर्थयात्रा के लिये पंढरपुर जाना चाहती थीं पर अंबेडकर ने उन्हे इसकी इजाज़त नहीं दी। आम्बेडकर ने कहा की उस हिन्दू तीर्थ में जहाँ उनको अछूत माना जाता है, जाने का कोई औचित्य नहीं है, इसके बजाय उन्होने उनके लिये एक नया पंढरपुर बनाने की बात कही। भले ही अस्पृश्यता के खिलाफ उनकी लडा़ई को भारत भर से समर्थन हासिल हो रहा था पर उन्होने अपना रवैया और अपने विचारों को रूढ़िवादी हिंदुओं के प्रति और कठोर कर लिया। उनकी रूढ़िवादी हिंदुओं की आलोचना का उत्तर बडी़ संख्या मे हिंदू कार्यकर्ताओं द्वारा की गयी उनकी आलोचना से मिला। 13 अक्टूबर को नासिक के निकट येओला मे एक सम्मेलन में बोलते हुए आम्बेडकर ने धर्म परिवर्तन करने की अपनी इच्छा प्रकट की। उन्होने अपने अनुयायियों से भी हिंदू धर्म छोड़ कोई और धर्म अपनाने का आह्वान किया।[41] उन्होने अपनी इस बात को भारत भर मे कई सार्वजनिक सभाओं मे दोहराया भी।

1936 में, आम्बेडकर ने स्वतंत्र लेबर पार्टी की स्थापना की, जो 1937 में केन्द्रीय विधान सभा चुनावों मे 15 सीटें जीती। उन्होंने अपनी पुस्तक जाति का विनाश भी इसी वर्ष प्रकाशित की जो उनके न्यूयॉर्क मे लिखे एक शोधपत्र पर आधारित थी। इस सफल और लोकप्रिय पुस्तक मे आम्बेडकर ने हिंदू धार्मिक नेताओं और जाति व्यवस्था की जोरदार आलोचना की। उन्होंने अस्पृश्य समुदाय के लोगों को गाँधी द्वारा रचित शब्द हरिजन पुकारने के कांग्रेस के फैसले की कडी़ निंदा की।[41] आम्बेडकर ने रक्षा सलाहकार समिति और वाइसराय की कार्यकारी परिषद के लिए श्रम मंत्री के रूप में सेवारत रहे।

1941 और 1945 के बीच में उन्होंने बड़ी संख्या में अत्यधिक विवादास्पद पुस्तकें और पर्चे प्रकाशित किये जिनमे थॉट्स ऑन पाकिस्तान भी शामिल है, जिसमें उन्होने मुस्लिम लीग की मुसलमानों के लिए एक अलग देश पाकिस्तान की मांग की आलोचना की। वॉट काँग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल्स? (काँग्रेस और गान्धी ने अछूतों के लिये क्या किया?) के साथ, आम्बेडकर ने गांधी और कांग्रेस दोनो पर अपने हमलों को तीखा कर दिया, उन्होने उन पर ढोंग करने का आरोप लगाया।[42]

उन्होने अपनी पुस्तक हू वर द शुद्राज़? (शुद्र कौन थे?) के द्वारा हिंदू जाति व्यवस्था के पदानुक्रम में सबसे नीची जाति यानी शुद्रों के अस्तित्व मे आने की व्याख्या की।[43] उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि किस तरह से अछूत, शुद्रों से अलग हैं। आम्बेडकर ने अपनी राजनीतिक पार्टी को अखिल भारतीय अनुसूचित जाति फेडरेशन में बदलते देखा, हालांकि 1946 में आयोजित भारत के संविधान सभा के लिए हुये चुनाव में इसने खराब प्रदर्शन किया। 1948 में हू वेयर द शुद्राज़? की उत्तरकथा द अनटचेबलस: ए थीसिस ऑन द ओरिजन ऑफ अनटचेबिलिटी (अस्पृश्य: अस्पृश्यता के मूल पर एक शोध) में आम्बेडकर ने हिंदू धर्म को लताड़ा।

हिंदू सभ्यता .... जो मानवता को दास बनाने और उसका दमन करने की एक क्रूर युक्ति है और इसका उचित नाम बदनामी होगा। एक सभ्यता के बारे मे और क्या कहा जा सकता है जिसने लोगों के एक बहुत बड़े वर्ग को विकसित किया जिसे... एक मानव से हीन समझा गया और जिसका स्पर्श मात्र प्रदूषण फैलाने का पर्याप्त कारण है?[42]

आम्बेडकर इस्लाम और दक्षिण एशिया में उसकी रीतियों के भी बड़े आलोचक थे। उन्होने भारत विभाजन का तो पक्ष लिया पर मुस्लिमो मे व्याप्त बाल विवाह की प्रथा और महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार की घोर निंदा की। उन्होंने कहा,

बहुविवाह और रखैल रखने के दुष्परिणाम शब्दों में व्यक्त नहीं किये जा सकते जो विशेष रूप से एक मुस्लिम महिला के दुःख के स्रोत हैं। जाति व्यवस्था को ही लें, हर कोई कहता है कि इस्लाम गुलामी और जाति से मुक्त होना चाहिए, जबकि गुलामी अस्तित्व में है और इसे इस्लाम और इस्लामी देशों से समर्थन मिला है। इस्लाम में ऐसा कुछ नहीं है जो इस अभिशाप के उन्मूलन का समर्थन करता हो। अगर गुलामी खत्म भी हो जाये पर फिर भी मुसलमानों के बीच जाति व्यवस्था रह जायेगी।[44]

उन्होंने लिखा कि मुस्लिम समाज मे तो हिंदू समाज से भी कही अधिक सामाजिक बुराइयां है और मुसलमान उन्हें " भाईचारे " जैसे नरम शब्दों के प्रयोग से छुपाते हैं। उन्होंने मुसलमानो द्वारा अर्ज़ल वर्गों के खिलाफ भेदभाव जिन्हें " निचले दर्जे का " माना जाता था के साथ ही मुस्लिम समाज में महिलाओं के उत्पीड़न की दमनकारी पर्दा प्रथा की भी आलोचना की। उन्होंने कहा हालाँकि पर्दा हिंदुओं मे भी होता है पर उसे धर्मिक मान्यता केवल मुसलमानों ने दी है। उन्होंने इस्लाम मे कट्टरता की आलोचना की जिसके कारण इस्लाम की नातियों का अक्षरक्ष अनुपालन की बद्धता के कारण समाज बहुत कट्टर हो गया है और उसे को बदलना बहुत मुश्किल हो गया है। उन्होंने आगे लिखा कि भारतीय मुसलमान अपने समाज का सुधार करने में विफल रहे हैं जबकि इसके विपरीत तुर्की जैसे देशों ने अपने आपको बहुत बदल लिया है।[44]

"सांप्रदायिकता" से पीड़ित हिंदुओं और मुसलमानों दोनों समूहों ने सामाजिक न्याय की माँग की उपेक्षा की है।[44]

हालांकि वे मोहम्मद अली जिन्नाह और मुस्लिम लीग की विभाजनकारी सांप्रदायिक रणनीति के घोर आलोचक थे पर उन्होने तर्क दिया कि हिंदुओं और मुसलमानों को पृथक कर देना चाहिए और पाकिस्तान का गठन हो जाना चाहिये क्योकि एक ही देश का नेतृत्व करने के लिए, जातीय राष्ट्रवाद के चलते देश के भीतर और अधिक हिंसा पनपेगी। उन्होंने हिंदू और मुसलमानों के सांप्रदायिक विभाजन के बारे में अपने विचार के पक्ष मे ऑटोमोन साम्राज्य और चेकोस्लोवाकिया के विघटन जैसी ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख किया।

उन्होंने पूछा कि क्या पाकिस्तान की स्थापना के लिये पर्याप्त कारण मौजूद थे? और सुझाव दिया कि हिंदू और मुसलमानों के बीच के मतभेद एक कम कठोर कदम से भी मिटाना संभव हो सकता था। उन्होंने लिखा है कि पाकिस्तान को अपने अस्तित्व का औचित्य सिद्ध करना चाहिये। कनाडा जैसे देशों मे भी सांप्रदायिक मुद्दे हमेशा से रहे हैं पर आज भी अंग्रेज और फ्रांसीसी एक साथ रहते हैं, तो क्या हिंदु और मुसलमान भी साथ नहीं रह सकते। उन्होंने चेताया कि दो देश बनाने के समाधान का वास्तविक क्रियान्वयन अत्यंत कठिनाई भरा होगा। विशाल जनसंख्या के स्थानान्तरण के साथ सीमा विवाद की समस्या भी रहेगी। भारत की स्वतंत्रता के बाद होने वाली हिंसा को ध्यान मे रख कर यह भविष्यवाणी कितनी सही थी।

संविधान निर्माण

ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष डॉ॰ आम्बेडकर ने भारतीय संविधान के अंतिम मसौदे को 25 नवंबर 1949 को राजेन्द्र प्रसाद को पेश किया।

अपने सत्य परंतु विवादास्पद विचारों और गांधी व कांग्रेस की कटु आलोचना के बावजूद बी आर आम्बेडकर की प्रतिष्ठा एक अद्वितीय विद्वान और विधिवेत्ता की थी जिसके कारण जब, 15 अगस्त 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद, कांग्रेस के नेतृत्व वाली नई सरकार अस्तित्व मे आई तो उसने आम्बेडकर को देश का पहले कानून मंत्री के रूप में सेवा करने के लिए आमंत्रित किया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। 29 अगस्त 1947 को, आम्बेडकर को स्वतंत्र भारत के नए संविधान की रचना के लिए बनी संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया। इस कार्य में आम्बेडकर का शुरुआती बौद्ध संघ रीतियों और अन्य बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन बहुत काम आया।[45]

संघ रीति मे मतपत्र द्वारा मतदान, बहस के नियम, पूर्ववर्तिता और कार्यसूची के प्रयोग, समितियाँ और काम करने के लिए प्रस्ताव लाना शामिल है। संघ रीतियाँ स्वयं प्राचीन गणराज्यों जैसे शाक्य और लिच्छवि की शासन प्रणाली के निदर्श (मॉडल) पर आधारित थीं। आम्बेडकर ने हालांकि उनके संविधान को आकार देने के लिए पश्चिमी मॉडल इस्तेमाल किया है पर उसकी भावना भारतीय है।

आम्बेडकर द्वारा तैयार किया गया संविधान पाठ मे संवैधानिक गारंटी के साथ व्यक्तिगत नागरिकों को एक व्यापक श्रेणी की नागरिक स्वतंत्रताओं की सुरक्षा प्रदान की जिनमें, धार्मिक स्वतंत्रता, अस्पृश्यता का अंत और सभी प्रकार के भेदभावों को गैर कानूनी करार दिया गया। आम्बेडकर ने महिलाओं के लिए धरा370व्यापक आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की वकालत की और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के लिए सिविल सेवाओं, स्कूलों और कॉलेजों की नौकरियों मे आरक्षण प्रणाली शुरू के लिए सभा का समर्थन भी हासिल किया, भारत के विधि निर्माताओं ने इस सकारात्मक कार्यवाही के द्वारा दलित वर्गों के लिए सामाजिक और आर्थिक असमानताओं के उन्मूलन और उन्हे हर क्षेत्र मे अवसर प्रदान कराने की चेष्टा की जबकि मूल कल्पना मे पहले इस कदम को अस्थायी रूप से और आवश्यकता के आधार पर शामिल करने की बात कही गयी थी। 26 नवम्बर 1949 को संविधान सभा ने संविधान को अपना लिया। अपने काम को पूरा करने के बाद, बोलते हुए, आम्बेडकर ने कहा:

मैं महसूस करता हूं कि संविधान, साध्य (काम करने लायक) है, यह लचीला है पर साथ ही यह इतना मज़बूत भी है कि देश को शांति और युद्ध दोनों के समय जोड़ कर रख सके। वास्तव में, मैं कह सकता हूँ कि अगर कभी कुछ गलत हुआ तो इसका कारण यह नही होगा कि हमारा संविधान खराब था बल्कि इसका उपयोग करने वाला मनुष्य अधम था।

1951 मे संसद में अपने हिन्दू कोड बिल के मसौदे को रोके जाने के बाद आम्बेडकर ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया इस मसौदे मे उत्तराधिकार, विवाह और अर्थव्यवस्था के कानूनों में लैंगिक समानता की मांग की गयी थी। हालांकि प्रधानमंत्री नेहरू, कैबिनेट और कई अन्य कांग्रेसी नेताओं ने इसका समर्थन किया पर संसद सदस्यों की एक बड़ी संख्या इसके खिलाफ़ थी। आम्बेडकर ने 1952 में लोक सभा का चुनाव एक निर्दलीय उम्मीदवार के रूप मे लड़ा पर हार गये। मार्च 1952 मे उन्हें संसद के ऊपरी सदन यानि राज्य सभा के लिए नियुक्त किया गया और इसके बाद उनकी मृत्यु तक वो इस सदन के सदस्य रहे।

समान नागरिक संहिता

मैं व्यक्तिगत रूप से समझ नहीं पा रहा हूं कि क्यों धर्म को इस विशाल, व्यापक क्षेत्राधिकार के रूप में दी जानी चाहिए ताकि पूरे जीवन को कवर किया जा सके और उस क्षेत्र पर अतिक्रमण से विधायिका को रोक सके। सब के बाद, हम क्या कर रहे हैं के लिए इस स्वतंत्रता? हमारे सामाजिक व्यवस्था में सुधार करने के लिए हमें यह स्वतंत्रता हो रही है, जो असमानता, भेदभाव और अन्य चीजों से भरा है, जो हमारे मौलिक अधिकारों के साथ संघर्ष करते हैं।[46]

आम्बेडकर वास्तव में समान नागरिक संहिता के पक्षधर थे और कश्मीर के मामले में धारा 370 का विरोध करते थे। आम्बेडकर का भारत आधुनिक, वैज्ञानिक सोच और तर्कसंगत विचारों का देश होता, उसमें पर्सनल कानून की जगह नहीं होती।[47]

आर्थिक नियोजन

1950 में आम्बेडकर

आम्बेडकर विदेश से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की डिग्री लेने वाले पहले भारतीय थे।[48] उन्होंने तर्क दिया कि औद्योगिकीकरण और कृषि विकास से भारतीय अर्थव्यवस्था में वृद्धि हो सकती है।[49] उन्होंने भारत में प्राथमिक उद्योग के रूप में कृषि में निवेश पर बल दिया। शरद पवार के अनुसार, आम्बेडकर के दर्शन ने सरकार को अपने खाद्य सुरक्षा लक्ष्य हासिल करने में मदद की।[50] आम्बेडकर ने राष्ट्रीय आर्थिक और सामाजिक विकास की वकालत की, शिक्षा, सार्वजनिक स्वच्छता, समुदाय स्वास्थ्य, आवासीय सुविधाओं को बुनियादी सुविधाओं के रूप में जोर दिया।[49] उन्होंने ब्रिटिश शासन की वजह से विकास के नुकसान की गणना की।[51]

भारतीय रिजर्व बैंक

आम्बेडकर को एक अर्थशास्त्री के तौर पर प्रशिक्षित किया गया था, और 1921 तक एक पेशेवर अर्थशास्त्री बन चूके थे। जब वह एक राजनीतिक नेता बन गए तो उन्होंने अर्थशास्त्र पर तीन विद्वत्वापूर्ण पुस्तकें लिखीं:

  • अ‍ॅडमिनिस्ट्रेशन अँड फायनान्स ऑफ दी इस्ट इंडिया कंपनी
  • द इव्हॅल्युएशन ऑफ प्रॉव्हिन्शियल फायनान्स इन् ब्रिटिश इंडिआ
  • द प्रॉब्लम ऑफ द रूपी : इट्स ओरिजिन ॲन्ड इट्स सोल्युशन[52][53][54]

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई), आम्बेडकर के विचारों पर आधारित था, जो उन्होंने हिल्टन यंग कमिशन को प्रस्तुत किये थे।[52][54][55][56]

दूसरा विवाह

1948 में पत्नी सविता आम्बेडकर के साथ भीमराव आम्बेडकर

आम्बेडकर की पहली पत्नी रमाबाई की लंबी बीमारी के बाद 1935 में निधन हो गया। 1940 के दशक के अंत में भारतीय संविधान के मसौदे को पूरा करने के बाद, वह नींद की कमी से पीड़ित थे, उनके पैरों में न्यूरोपैथिक दर्द था, और इंसुलिन और होम्योपैथिक दवाएं ले रहे थे। वह इलाज के लिए बॉम्बे (मुम्बई) गए, और वहां डॉक्टर शारदा कबीर से मिले, जिनके साथ उन्होंने 15 अप्रैल 1948 को नई दिल्ली में अपने घर पर विवाह किया था। डॉक्टरों ने एक ऐसे जीवन साथी की सिफारिश की जो एक अच्छा खाना पकाने वाली हो और उनकी देखभाल करने के लिए चिकित्सा ज्ञान हो।[57] डॉ॰ शारदा कबीर ने शादी के बाद सविता आम्बेडकर नाम अपनाया और उनके बाकी जीवन में उनकी देखभाल की।[42] सविता आम्बेडकर, जिन्हें 'माई' या 'माइसाहेब' कहा जाता था, का 29 मई 2003 को नई दिल्ली के मेहरौली में 93 वर्ष की आयु में निधन हो गया।[58]

बौद्ध धर्म में परिवर्तन

नागपूर के बौद्ध धम्म दीक्षा समारोह में अपने अनुयायियों को संबोधित करते हुए आम्बेडकर, १४ अक्तुबर १९५६
कुशीनारा के भन्ते चंद्रमणी द्वारा दीक्षा ग्रहण करते हुए डॉ॰ आम्बेडकर
दीक्षाभूमि स्तूप, जहां भीमराव अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म में परिवर्तित हुए।

सन् 1950 के दशक में भीमराव आम्बेडकर बौद्ध धर्म के प्रति आकर्षित हुए और बौद्ध भिक्षुओं व विद्वानों के एक सम्मेलन में भाग लेने के लिए श्रीलंका (तब सिलोन) गये।[59] पुणे के पास एक नया बौद्ध विहार को समर्पित करते हुए, डॉ॰ आम्बेडकर ने घोषणा की कि वे बौद्ध धर्म पर एक पुस्तक लिख रहे हैं और जैसे ही यह समाप्त होगी वो औपचारिक रूप से बौद्ध धर्म अपना लेंगे।[60] 1954 में आम्बेडकर ने म्यानमार का दो बार दौरा किया; दूसरी बार वो रंगून मे तीसरे विश्व बौद्ध फैलोशिप के सम्मेलन में भाग लेने के लिए गये।[61] 1955 में उन्होने 'भारतीय बौद्ध महासभा' या 'बुद्धिस्ट सोसाइटी ऑफ इंडिया' की स्थापना की।[62] उन्होंने अपने अंतिम प्रसिद्ध ग्रंथ, 'द बुद्ध एंड हिज़ धम्म' को 1956 में पूरा किया। यह उनकी मृत्यु के पश्चात सन 1957 में प्रकाशित हुआ।[62]

14 अक्टूबर 1956 को नागपुर शहर में डॉ॰ भीमराव आम्बेडकर ने खुद और उनके समर्थकों के लिए एक औपचारिक सार्वजनिक धर्मांतरण समारोह का आयोजन किया। प्रथम डॉ॰ आम्बेडकर ने अपनी पत्नी सविता एवं कुछ सहयोगियों के साथ भिक्षु महास्थवीर चंद्रमणी द्वारा पारंपरिक तरीके से त्रिरत्न और पंचशील को अपनाते हुये बौद्ध धर्म ग्रहण किया। इसके बाद उन्होंने अपने 5,00,000 अनुयायियो को त्रिरत्न, पंचशील और 22 प्रतिज्ञाएँ देते हुए नवयान बौद्ध धर्म में परिवर्तित किया।[60] हिंदू धर्म के बंधनों को पूरी तरह पृथक किया जा सके इसलिए आम्बेडकर ने अपने बौद्ध अनुयायियों के लिए 22 प्रतिज्ञाएँ स्वयं निर्धारित कीं जो बौद्ध धर्म का एक सार एवं दर्शन है। नवयान लेकर आम्बेडकर और उनके समर्थकों ने विषमतावादी हिन्दू धर्म और हिन्दू दर्शन की स्पष्ट निंदा की और उसे त्याग दिया। आम्बेडकर ने दुसरे दिन 15 अक्टूबर को फीर वहाँ अपने 2 से 3 लाख अनुयायियों को बौद्ध धम्म की दीक्षा दी, यह वह अनुयायि थे जो 14 अक्तुबर के समारोह में नहीं पहुच पाये थे या देर से पहुचे थे। आम्बेडकर ने नागपूर में करीब 8 लाख लोगों बौद्ध धर्म की दीक्षा दी, इसलिए यह भूमी दीक्षाभूमि नाम से प्रसिद्ध हुई। तिसरे दिन 16 अक्टूबर को आम्बेडकर चंद्रपुर गये और वहां भी उन्होंने करीब 3,00,000 समर्थकों को बौद्ध धम्म की दीक्षा दी।[60][63] इस तरह केवल तीन में आम्बेडकर ने स्वयं 11 लाख से अधिक लोगों को बौद्ध धर्म में परिवर्तित कर विश्व के बौद्धों की संख्या 11 लाख बढा दी और भारत में बौद्ध धर्म को पुनर्जिवीत किया। इस घटना से कई लोगों एवं बौद्ध देशों में से अभिनंदन प्राप्त हुए। इसके बाद वे नेपाल में चौथे विश्व बौद्ध सम्मेलन मे भाग लेने के लिए काठमांडू गये।[61] उन्होंने अपनी अंतिम पांडुलिपि बुद्ध या कार्ल मार्क्स को 2 दिसंबर 1956 को पूरा किया।[64]

निधन

बाबासाहेब आम्बेडकर का महापरिनिर्वाण
डॉ॰. आम्बेडकर की अंत्ययात्रा, दादर से १.४० बजे यात्रा निकली और शाम के ६ बजे दादर चौपाटी की हिंदू स्मशानभूमी में (अब चैत्यभूमि) पोहची।
चैत्यभूमि, डॉ॰ बाबासाहेब आंबेडकर की समाधि स्थली

1948 से, आम्बेडकर मधुमेह से पीड़ित थे। जून से अक्टूबर 1954 तक वो बहुत बीमार रहे इस दौरान वो कमजोर होती दृष्टि से ग्रस्त थे।[60] राजनीतिक मुद्दों से परेशान आम्बेडकर का स्वास्थ्य बद से बदतर होता चला गया और 1955 के दौरान किये गये लगातार काम ने उन्हें तोड़ कर रख दिया। अपनी अंतिम पांडुलिपि भगवान बुद्ध और उनका धम्म को पूरा करने के तीन दिन के बाद 6 दिसम्बर 1956 को आम्बेडकर का महापरिनिर्वाण नींद में दिल्ली में उनके घर मे हो गया। तब उनकी आयु ६४ वर्ष एवं ७ महिने की थी। दिल्ली से विशेष विमान द्वारा उनका पार्थिव मुंबई मेंउनके घर राजगृह में लाया गया। 7 दिसंबर को मुंबई में दादर चौपाटी समुद्र तट पर बौद्ध शैली में अंतिम संस्कार किया गया जिसमें उनके लाखों समर्थकों, कार्यकर्ताओं और प्रशंसकों ने भाग लिया।[65][66] उनके अंतिम संस्कार के समय उनके पार्थिव को साक्षी रखकर उनके 10,00,000 से अधिक अनुयायीओं ने भदन्त आनन्द कौसल्यायन द्वारा बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी, क्योकि आम्बेडकर ने 16 दिसंबर 1956 को मुंबई में एक बौद्ध धर्मांतरण कार्यक्रम आयोजित किया था।[67][67][68]

मृत्युपरांत आम्बेडकर के परिवार में उनकी दूसरी पत्नी सविता आम्बेडकर रह गयी थीं, जो दलित बौद्ध आंदोलन में आम्बेडकर के बाद (आम्बेडकर के साथ) बौद्ध बनने वाली पहली व्यक्ति थी। विवाह से पहले उनकी पत्नी का नाम डॉ॰ शारदा कबीर था। डॉ॰ सविता आम्बेडकर की एक बौद्ध के रूप में 29 मई सन 2003 में 94 वर्ष की आयु में मृत्यु हो गई।[69][70] और पुत्र यशवंत आम्बेडकर[71] आम्बेडकर के पौत्र, प्रकाश आम्बेडकर, भारिपा बहुजन महासंघ का नेतृत्व करते है[72] और भारतीय संसद के दोनों सदनों मे के सदस्य रह चुके है।[72]

एक स्मारक आम्बेडकर के दिल्ली स्थित उनके घर 26 अलीपुर रोड में स्थापित किया गया है। आम्बेडकर जयंती पर सार्वजनिक अवकाश रखा जाता है। 1990 में उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया है।[73]

हर साल २० लाख से अधिक लोग उनकी जयंती (14 अप्रैल), महापरिनिर्वाण यानी पुण्यतिथि (6 दिसम्बर) और धम्मचक्र प्रवर्तन दिवस (14 अक्टूबर) को चैत्यभूमि (मुंबई), दीक्षाभूमि (नागपूर) तथा भीम जन्मभूमि (महू) में उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए इकट्ठे होते हैं।[74] यहाँ हजारों किताबों की दुकान स्थापित की गई हैं, और किताबें बेची जाती हैं। आम्बेडकर का उनके अनुयायियों को संदेश था – "शिक्षित बनो, संघटित बनो, संघर्ष करो"।[75]

आम्बेडकरवाद

स्वतंत्र्यता, समानता, भाईचारा, बौद्ध धर्म, विज्ञानवाद, मानवतावाद, सत्य, अहिंसा आदि के विषय आम्बेडकर के कुछ सिद्धान्त थे जिसे अंबेडकरवाद के नाम से जाना जाता है।

विरासत

औरंगाबाद के डॉ॰ बाबासाहेब आम्बेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय में आम्बेडकर की मध्य मूर्ति पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनके अनुयायि।

आम्बेडकर की एक सामाजिक-राजनीतिक सुधारक के रूप में विरासत का आधुनिक भारत पर गहरा असर हुआ है।[76][77] स्वतंत्रता के बाद भारत में, उनके सामाजिक-राजनैतिक विचारों को पूरे राजनीतिक स्पेक्ट्रम में सम्मानित किया जाता है। उनकी पहल ने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों को प्रभावित किया है और आज जिस तरह से भारत सामाजिक, आर्थिक नीतियों और कानूनी प्रोत्साहनों के माध्यम से सामाजिक-आर्थिक नीतियों, शिक्षा और सकारात्मक कार्रवाई में दिख रहा है, उसे बदल दिया है। एक विद्वान के रूप में उनकी प्रतिष्ठा ने उनकी स्वतंत्र भारत के पहले कानून मंत्री और संविधान के प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में नियुक्ति की। उन्होंने आजादी से व्यक्तिगत स्वतंत्रता में ज्यादा विश्वास किया और जातिरहित समाज की आलोचना की। हिंदू धर्म को जाति व्यवस्था की नींव होने के उनके आरोपों ने उन्हें सनातनी हिंदुओं के बीच विवादास्पद और अलोकप्रिय बनाया।[78] बौद्ध धर्म के उनके रूपांतरण ने भारत और विदेशों में बौद्ध दर्शन के हित में पुनरुत्थान की शुरुआत हुई।[79]

सर्वप्रथम सप्टेंबर-अक्तुबर 1927 में आम्बेडकर के अनुयायियों द्वारा और बाद में भारतीय लोगों द्वारा आम्बेडकर को आदर एवं सन्मान से ‘बाबासाहब’ (मराठी: बाबासाहेब) कहा जाता है, जो एक मराठी वाक्यांश हैं जिसका अर्थ "पिता-साहब", क्योंकि लाखों भारतीय उन्हें "महान मुक्तिदाता" मानते हैं।[80] 

कई सार्वजनिक संस्थानों एवं ग्यारह विश्वविद्यालयों के नाम उनके सम्मान में रखे गये है। डॉ॰ बाबासाहेब आम्बेडकर अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र, डॉ॰ बी॰आर॰ आम्बेडकर राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, जालंधर, आम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली का नाम भी उनके सम्मान में है। भारतीय संसद भवन में आम्बेडकर का एक बड़ा आधिकारिक तैलचित्र प्रदर्शित है।

महाराष्ट्र सरकार ने लंदन में एक घर का अधिग्रहण कर लिया है, जहां 1920 के दशक में आम्बेडकर एक छात्र के रूप में रहते थे। इस घर को एक संग्रहालय-सह-स्मारक में परिवर्तित कर ‘डॉ॰ भीमराव रामजी आम्बेडकर आंतरराष्ट्रीय स्मारक' बनाया गया है। इस स्मारक उद्घाटन एवं लोकार्पण प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किया है।[81]

आम्बेडकर को हिस्ट्री टीवी 18 और सीएनएन आईबीएन द्वारा 2012 में आयोजित एक चुनाव सर्वेक्षण "द ग्रेटेस्ट इंडियन" (महानतम भारतीय) में सर्वाधिक वोट दिये गये थे। लगभग 2 करोड़ वोट डाले गए थे, इस पहल के शुभारंभ के बाद से उन्हें सबसे लोकप्रिय भारतीय व्यक्ति बताया गया था।[82][83] अर्थशास्त्र में उनकी भूमिका के कारण, एक उल्लेखनीय भारतीय अर्थशास्त्री नरेन्द्र जाधव ने कहा है कि, “आम्बेडकर सभी समय के उच्चतम शिक्षित भारतीय अर्थशास्त्री थे।”[84][85] अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार जीत चूके अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने कहा है कि, “आम्बेडकर अर्थशास्त्र (के क्षेत्र) में मेरे का पिता है और वे अपने देश में बहुत विवादास्पद व्यक्ति थे, हालांकि यह वास्तविकता नहीं थी। अर्थशास्त्र के क्षेत्र में उनका योगदान अद्भुत है और हमेशा के लिए याद रहेगा।”[86][87] एक आध्यात्मिक गुरू ओशो ने टिप्पणी की, "मैंने उन लोगों को देखा है जो हिंदू कानून की सबसे कम श्रेणी, शूद्र, अछूतों में पैदा हुए हैं, किंतु वे बहुत बुद्धिमान हैं: जब भारत स्वतंत्र हो गया, और जिसने भारत के संविधान का निर्माण किया, डॉ॰ बाबासाहेब अंबेडकर, वे एक व्यक्ति शूद्र थे। कानून के मुताबिक उनकी बुद्धि के बराबर कोई नहीं था - वह एक विश्व प्रसिद्ध प्राधिकरण थे।[88] अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने 2010 में भारतीय संसद को संबोधित करते हुए दलित नेता डॉ॰ बी आर आम्बेडकर को महान और सम्मानित मानवाधिकार चैंपियन और भारत के संविधान के मुख्य लेखक के रूप में संबोधित किया।[89]

आम्बेडकर के राजनीतिक दर्शन ने बड़ी संख्या में राजनीतिक दलों, प्रकाशनों और श्रमिक संघों को जन्म दिया है जो पूरे भारत में विशेष रूप से महाराष्ट्र में सक्रिय हैं। बौद्ध धर्म के बारे में उनकी पदोन्नति से भारतीय आबादी के बडे वर्गों के बीच में बौद्ध दर्शन में रुचि बढी गई है। आधुनिक समय में मानवाधिकार कार्यकर्ता बड़े पैमाने पर बौद्ध धर्मांतरण समारोह आयोजित कर, आम्बेडकर के नागपुर 1956 के धर्मांतरण समारोह का अनुकरण करते है।[90] ज्यादातर भारतीय बौद्ध, विशेष रूप से नवयान के अनुयायि उन्हें बोधिसत्व और मैत्रेय के रूप में मानते है, हालांकि उन्होंने कभी स्वयं का यह दावा नहीं किया।[91][92][93] भारत के बाहर, 1990 के उत्तरार्ध के दौरान, कुछ हंगेरियन रोमानी लोगों ने अपनी स्थिति और भारत के दलित लोगों के बीच समानताएं खींची। आम्बेडकर से प्रेरित होकर, उन्होंने बौद्ध धर्म में परिवर्तित होना शुरू कर दिया है। इन लोगों ने हंगरी में 'डॉ॰ आम्बेडकर हायस्कूल' नामक विद्यालय भी शुरू किया है, जिसमें 6 दिसम्बर 2016 को आम्बेडकर का स्टेच्यू भी स्थापित किया गया, जो हंगरी के जय भीम नेटवर्क ने भेट दिया था।[94]

लोकप्रिय संस्कृति में

आम्बेडकर का जन्मदिवस आम्बेडकर जयंती हर साल 14 अप्रैल को एक बडे उत्सव के रूप में भारत भर में मनाया जाता हैं। महाराष्ट्र के बौद्धों के लिए यह सबसे बडा त्यौहार हैं। इस दिन को पूरे भारत वर्ष में सार्वजनिक अवकाश के रुप में घोषित किया गया हैं। नयी दिल्ली, संसद में उनकी मूर्ति पर हर वर्ष भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री (दूसरे राजनैतिक पार्टियों के नेताओं सहित) द्वारा सम्माननीय श्रद्धांजलि दिया करते हैं। बौद्ध, दलित एवं अन्य आम्बेडकरवादि लोग अपने घर में उनकी मूर्ति या तस्वीर के सामने रख कर भगवान की तरह उनको अभिवादन करते हैं। इस दिन उनकी प्रतिमा को सामने रख लोग परेड करते हैं, वो लोग ढोल बजाकर नृत्य का भी आनन्द लेते हैं।[95] भारत के अलावा विश्व के 65 से अधिक देशों में आम्बेडकर जयंती मनाई को मनाया जाता हैं। आम्बेडकर की 125 वीं जयंती संयुक्त राष्ट्र संघ में मनाई गई थी,[96][97] संयुक्त राष्ट्र संघ ने उन्हें 'विश्व का प्रणेता' कहां था।[98][99] डॉ॰ बाबासाहेब आम्बेडकर की पहली जयंती सदाशिव रणपिसे इन्होंने १४ अप्रेल १९२८ में पुणे में मनाई थी। रणपिसे आम्बेडकर के अनुयायी थे। उन्होंने आम्बेडकर जयंती की प्रथा शुरू की और भीम जयंतीचे अवसरों पर बाबासाहेब की प्रतिमा हाथी के अंबारी में रखकर रथसे, उट के उपर कई रैलीयां निकाली थी।[100][101]

आम्बेडकर के जीवन और सोच पर आधारित कई फिल्में, नाटक और अन्य कार्य हैं। जब्बार पटेल ने डॉ॰ बाबासाहेब आम्बेडकर नाम की फिल्म का वर्ष 2000 में निर्देशन किया था, जिसमें मामूट्टी मुख्य किरदार निभा रहे थे।[102] इस फिल्म का निर्माण भारत के राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम और सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने किया था। विवादों के कारण फिल्म के प्रदर्शन में बहुत समय लग गया था।[103] यूसीएलए और ऐतिहासिक नृवंशविज्ञान में मानव विज्ञान के प्रोफेसर डेविड ब्लंडेल ने भारत में सामाजिक परिस्थितियों और आम्बेडकर के जीवन के बारे में रूची और ज्ञान को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से फिल्मों और कार्यक्रमों की एक श्रृंखला - एरीजिंग लाइट की स्थापना की है।[104] श्याम बेनेगल द्वारा निर्देशित भारत के संविधान के निर्माण पर एक टीवी मिनी सीरीज़ संविधान में आम्बेडकर की मुख्य भूमिका सचिन खेडेकर द्वारा निभाई गई थी।[105] आम्बेडकर और गांधी अरविंद गौर द्वारा निर्देशित और राजेश कुमार द्वारा लिखित नाटक के शीर्षक के दो प्रमुख व्यक्तित्वों को ट्रैक करता है।[106]

भीमयान: एक्यपेरियन्स ऑफ अनचलेब्लिटी (भीमयान: अस्पृश्यता का अनुभव) यह पारदन-गोंड कलाकार दुर्गाबाई व्याम और सुभाष व्याम और लेखकों श्रीविद नटराजन और एस आनंद द्वारा निर्मित आम्बेडकर की एक ग्राफिक जीवनी है। इस पुस्तक में आम्बेडकर द्वारा बचपन से वयस्कता तक अस्पृश्यता के अनुभवों को दर्शाया गया है। सीएनएन ने इसे शीर्ष 5 राजनीतिक कॉमिक किताबों में से एक नाम दिया।[107]

लखनऊ में आम्बेडकर उद्यान पार्क उनकी याद में समर्पित है। चैत्य में उनकी जीवनी दिखाते हुए स्मारक हैं।[108][109]

लखनऊ में आम्बेडकर स्मारक

गुगल ने 14 अप्रैल 2015 को अपने होमपेज डुडल] के माध्यम से आम्बेडकर के 124 वें जन्मदिन का जश्न मनाया था।[110][111] यह डूडल भारत, अर्जेंटीना, चिली, आयरलैंड, पेरू, पोलैंड, स्वीडन और यूनाइटेड किंगडम में दिखाया गया था।[112][113][114]

फिल्में

भीमराव आम्बेडकर के जीवन एवं विचारों पर कई फिल्में बनी हैं, जो निम्नलिखित है:

  • भीम गर्जना - मराठी फिल्म (१९९०)[115][116][117][118]
  • बालक आम्बेडकर - कन्नड फिल्म (१९९१)[119][120]
  • युगपुरुष डॉ॰ बाबासाहेब आम्बेडकर - मराठी फिल्म (१९९३)[121][122][123]
  • डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर - सन २००० की अँग्रेजी फिल्म[124]
  • डॉ. बी.आर. आम्बेडकर - कन्नड फिल्म (२००५)[125][126]
  • रायजिंग लाइट - 2006 में बनी डॉक्युमेंट्री फिल्म[127]
  • रमाबाई भीमराव आम्बेडकर - आम्बेडकर की पत्नी रमाबाई के जीवन पर आधारित मराठी फिल्म। (२०१०)[128][129][130]
  • शूद्रा: द राइझिंग - आम्बेडकर को समर्पित हिंदी फिल्म (२०१०)[131]
  • अ जर्नी ऑफ सम्यक बुद्ध - हिंदी फिल्म (२०१३), जो आम्बेडकर के भगवान बुद्ध और उनका धम्म ग्रन्थ पर आधारित है।[132]
  • रमाबाई - कन्नड फिल्म (२०१६)[133][134]
  • बोले इंडिया जय भीम - मराठी फिल्म, हिंदी में डब (२०१६)[135][136]
  • बाल भिमराव - २०१८ की मराठी फिल्म[137][138][139]

इसके अलावा आम्बेडकर के जीवन पर आधारित कई नाटक भी बने है।[140]

लेखन साहित्य

भीमराव आम्बेडकर प्रतिभाशाली एवं जुंझारू लेखक थे। उनको ग्रारह भाषाओं का ज्ञान था, जिसमें मराठी (मातृभाषा), अंग्रेजी, हिन्दी, पालि, संस्कृत, गुजराती, जर्मन, फारसी, फ्रेंच, कन्नड और बंगाली ये भाषाएँ शामील है।[141] आम्बेडकर ने अपने समकालिन सभी राजनेताओं की तुलना में सबसे अधिक लेखन किया हैं।[142] उन्होंने अधिकांश लेखन अंग्रेजी में किया हैं। सामाजिक संघर्ष में हमेशा सक्रिय और व्यस्त होने के साथ ही, उनके द्वारा रचित अनेकों किताबें, निबंध, लेख एवं भाषणों का बड़ा संग्रह है। वे असामान्य प्रतिभा के धनी थे। उनके साहित्यिक रचनाओं को उनके विशिष्ट सामाजिक दृष्टिकोण, और विद्वता के लिए जाना जाता है, जिनमें उनकी दूरदृष्टि और अपने समय के आगे की सोच की झलक मिलती है।

आम्बेडकर के ग्रंथ भारत सहित पुरे विश्व में बहुत पढे जाते है। भगवान बुद्ध और उनका धम्म यह उनका ग्रंथ 'भारतीय बौद्धों का धर्मग्रंथ' है तथा बौद्ध देशों में महत्वपुर्ण है।[143] उनके डि.एस.सी. प्रबंध द प्रॉब्लम ऑफ द रूपी : इट्स ओरिजिन ॲन्ड इट्स सोल्युशन से भारत के केन्द्रिय बैंक यानी भारतीय रिज़र्व बैंक की स्थापना हुई है।[144][145][146]

महाराष्ट्र सरकार के शिक्षा विभाग ने बाबासाहेब आंबेडकर के सम्पूर्ण साहित्य को कई खण्डों में प्रकाशित करने की योजना बनायी है। इसके अन्तर्गत अभी तक ‘डॉ॰ बाबासाहेब आम्बेडकर: राइटिंग्स एण्ड स्पीचेज’ नाम से 22 खण्ड अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित किये जा चुके हैं, और इनकी पृष्ठ संख्या 15 हजार से भी अधिक हैं। इस वृहत योजना के पहले खण्ड का प्रकाशन आम्बेडकर के जन्म दिवस 14 अप्रैल, 1979 को हुआ। ‘डॉ॰ बाबासाहेब आम्बेडकर: राइटिंग्स एण्ड स्पीचेज’ के खण्डों के महत्व एवं लोकप्रियता को देखते हुए भारत सरकार के ‘सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय’ के डॉ॰ आम्बेडकर प्रतिष्ठान ने इस खण्डों के हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करने की योजना बनायी और इस योजना के अन्तर्गत अभी तक "बाबा साहेब डा. अम्बेडकर: संपूर्ण वाङ्मय" नाम से 21 खण्ड हिन्दी भाषा में प्रकाशित किये जा चुके हैं।[147] इन हिन्दी खण्डों के कई संस्करण प्रकाशित किये जा चुके हैं।[148]

आम्बेडकर लिखित प्रमुख किताबें

उन्होंने राजनिती, अर्थशास्त्र, मानवविज्ञान, धर्म, समाजशास्त्र, कानून आदी क्षेत्रों में किताबें लिखी हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख किताबें निम्न हैं:[149]

  • आइडिया ऑफ ए नेशन
  • द अनटचेबल
  • फिलॉसॉफी ऑफ हिंदुइजम
  • सोशल जस्टिस एंड पॉलिटिकल सेफगार्ड ऑफ डिप्रेस्ड क्लासेज
  • गांधी एंड गांधीइज्म
  • बुद्धिस्ट रेवोल्यूशन एंड काउंटर-रेवोल्यूशन इन एनशिएंट इंडिया
  • द डिक्लाइन एंड फॉल ऑफ बुद्धिइज्म इन इंडिया


इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ


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