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1 मई 2021

  • 09:2809:28, 1 मई 2021 अन्तर इतिहास −356 सदस्य:Ankit kumar vijetaतन्हाई के बेसुध सन्नाटे में, बेबस रिश्तो का है शोर। जाने कितने टूट गये, अपनों के ऐसे डोर। जिनसे नाता तो था अपना, पर नहीं था उन पर जोर। सहमी सहमी ये बातें, और रिश्तो का होड़। तन्हाई के बेसुध सन्नाटे में, बेबस रिश्तो का है शोर। New poem by ankit मसरूफ Ka mtlb (busy) टूट जाने दो हमको बिखर जाने दो, कितना भी रोके दिल सुनने को, आज सुनकर मुकर जाने दो। कितने मसरूफ हो जिंदगी में, इतना ही कह कर निकल जाने दो। तन्हा सही इस भीड़ में, साथ रहकर निकल जाने दो। कद्र कितनी है मत कहो,... टैग: मोबाइल संपादन मोबाइल वेब संपादन
  • 09:2009:20, 1 मई 2021 अन्तर इतिहास −287 सदस्य:Ankit kumar vijetaलोग कहते हैं कि हम रोते नहीं, ये जरा साथ रहने वाले अंधेरो से पूछो. जिक्र मेरा भी होगा उनकी खामोशियों में। टैग: मोबाइल संपादन मोबाइल वेब संपादन
  • 09:0309:03, 1 मई 2021 अन्तर इतिहास −371 सदस्य:Ankit kumar vijetaNo edit summary टैग: मोबाइल संपादन मोबाइल वेब संपादन