वेदान्त देशिक

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स्वामी वेदान्त देशिक

वेदान्त देशिक (1269 – 1370) वैष्णव गुरू, कवि, भक्त, दार्शनिक एवं आचार्य थे। उनकी पादुका सहस्रम नामक रचना चित्रकाव्य की अनुपम् भेंट है। इनका दूसरा नाम वेंकटनाथ था। तेरहवीं शताब्दी में इनकी स्थिति मानी जाती है।

जीवनी[संपादित करें]

वेदांत देशिक कांजीवरम् के मूल निवासी थे पर इनका अधिकांश समय श्रीरंगम् में व्यतीत हुआ। अनेक विषयों पर इनकी लेखनी चली। इनके मुख्य दार्शनिक ग्रंथ परमतभंग और रहस्यत्रयसार तामिल में लिखे गए। पांचरात्ररक्षा नामक ग्रंथ में इन्होंने पांचरात्र धर्म के सिद्धांतों तथा गीताभाष्य पर इन्होंने टीकाएँ भी लिखीं। सेश्वर मीमांसा नामक अपने ग्रंथ में इन्होंने प्रतिपादित किया कि पूर्वमीमांसा और वेदांत एक दूसरे के पूरक हैं। पूर्वमीमांसा द्वारा प्रतिपादित कर्म ईश्वर के अनुग्रह के बिना फलदायक नहीं हो सकता। इसी प्रकार केवल ज्ञान भी तब तक निष्फल है जब तक ईश्वर में व्यक्ति अपने को पूर्णत: समर्पित करने का कर्म - उपासना - नहीं करता। अत: ईश्वरमीमांसा अर्थात् वेदात कर्म मीमांसा के बिना निष्फल है। शतदूषणी नामक अपने खंडन-मंडनात्मक संस्कृत ग्रंथ में रामानुज के मत का अनुसरण करते हुए वेदांत देशिक ने अद्वैत वेदांत की तीव्र आलोचना की है। रामानुज के बाद उनके संप्रदाय में वेदांत देशिक का ही नाम लिया जाता है।

रामानुज संप्रदाय तेरहवीं शताब्दी में दो गुटों में बँट गया। तेंगलाई अथवा दक्षिणी गुट के अनुसार तामिल प्रबंध को मुख्य प्रमाणग्रंथ माना जान लगा और संस्कृत की उपेक्षा कर दी गई। इस संप्रदाय की यह भी मान्यता थी कि ईश्वर दोष का भोग करता है। दोषभोग्यता का यह सिद्धांत आगे चलकर खतरनाक सिद्ध हुआ। इस गुट के विरोध में एक उत्तरी गुट का, जिसे वेडगलाई कहते हैं, विकास हुआ। वेदात देशिक इसी गुट के प्रतिष्ठापक आचार्य थे।

वेडगलाई गुट के अनुसार तामिल प्रबंध और संस्कृत ग्रंथों का समान रूप से प्रमाण माना जाता है। इस गुट में तामिल की अपेक्षा संस्कृत को अधिक महत्त्व दिया गया। लक्ष्मीतत्व में इन लोगों ने शाक्त धर्म की विशेषताओं का भी समावेश किया।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]