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श्रीमद्भगवद्गीता[संपादित करें]

अध्याय २, ॥६॥[संपादित करें]

न चैतद्विद्म: कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेषु: । यानेव हत्वा न जिजीविषाम स्तेडवस्थिता: प्रमुखे धार्तराष्ट्रा:॥

हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिये युद्द करना और न करना - इन दोनोंमंसें कौन - सा श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे । और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्रके पुत्र हमारे मुकाबलेमें खडे है ।

अध्याय २, ॥२७॥[संपादित करें]

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च, तस्मादपरिहार्येडर्थे न त्वं शोचितुमर्हिसि॥

क्योंकि इस मान्यताके अनुसार जन्मे हुएकी मृत्यु निश्चित है और मरे हुएका जन्म निश्चित है । इससे भी इस बिना उपायवाले विषयमें तू शोक करनेको योग्य नहीं है ॥२७॥