वार्ता:स्वाभिमान...

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आसमान में चाँद अभी भी अपनी मौजूदगी जता रहा था | साथ ही उषा रानी अपनी लालिमा समेटे चादर को फैलाने जा रही थी | बाहर बगीचे में कुमुदनी के फूल अपने में सिमट रहे थे | हरी घास ओस की बूंदों में लिपटी हुई थी | सब कुछ आम दिनों जैसा ही था पर आज न जाने क्यूँ एक थकान सी महसूस हो रही थी |

      घड़ी की ओर देखते हुए ख्याल आया कि अब अगर आलस की तो स्कूल पहुँचने में देर हो जायेगी | जैसे ही दरवाज़े तक आयी, अखबारवाला  दरवाज़े पर अखबार फेंक घंटी बजा आगे निकल गया | अखबार को उठाकर सरसरी निगाहों से ख़बरों को निहारती आँखें एक जगह टिक गयी | ‘आज के समाज में नारी का स्थान’ और उसके नीचे बड़ी-बड़ी  व्याख्यान के साथ कुछ नामचीन हस्तियों की तस्वीरें | अचानक रावती का चेहरा आँखों के सामने जीवंत हो उठा | वो बेचारी.... मन सोचने लगा ...क्या सच में बहुत कुछ बदला है ? जनकनंदिनी सीता तक को गृह-निष्कासन का दंश झेलना पड़ा तो माता अहिल्या पाषाण बना दी गयी थी ...वो तो सक्षम नारी थी तब उन्हें पीड़ा झेलनी पड़ी  | मन पुन: अपनी एक उधेड़बुन सवालों-जवाबों की नगरी में सैर करवाता कि घड़ी की सुइयों ने मुझे ये बताया कि अब जल्द तैयार न हुई तो स्कूल की बस निकल जाएगी | 

यंत्रवत काम निपटाते बस स्टॉप आते दूर से ही बस दिखी और कदमों की रफ़्तार तेज़ कर बस तक पहुँच गयी | बस में बच्चों के चिर-परिचित चेहरे और मासूम मुस्कान के बीच खुद के ओठों पर भी मुस्कान आ गयी | बस अपने गंतव्य को चल दी और इधर बच्चों की अपनी दुनिया की बातें शुरू ...और रावती फिर से दिमाग में घूमने लगी | वो एक स्वाभिमानी औरत थी | दस साल पहले उसका गाँव से शहर आकर काम खोजना फिर घर- घर बर्तन धोना और खाना पकाना ..सभी पहचान थे उसके स्वाभिमान से भरे जीवन के |

         गाँव में ही पढ़ी- लिखी, बड़ी हुई और एक दिन माँ- बाप ने उसकी शादी अपनी हैसियत के मुताबिक खेती-बाड़ी सँभालने वाले रामदीन से कर दी | कुछ दिन तो सब ठीक रहा पर नियति को शायद मंजूर नही था | उसका बाँझ होना ..उसकी सबसे बड़ी ऐब बन गयी | शुरू- शुरू में सास और ननद के ताने मिले  और फिर पति द्वारा भी तिरस्कृत होने

लगी | धीरे धीरे उसकी पहचान एक नौकरानी की तरह ज्यादा और बहू के रूप न के बराबर हो गये | तब भी इसे अपना भाग्य का लिखा मान, डांट-फटकार, मार-पीट और गालियाँ सुनते हुई समाज की मर्यादाओं को निभा रही थी | अब रामदीन भी उसे हिकारत की नजरों से देखता था | विधाता की मर्जीं कि एक दिन खेतों से वापस आते रामदीन को जहरीले सांप ने काट दिया और फिर वो हमेशा के लिए साथ छोड़ गया | पति की मौत का कलंक भी उसी पर लगा और उसे डायन- चुड़ैल बोलकर घर से निकाल दिया | पूरा गाँव खामोश रहा ..जैसे उनकी भी सहमति थी |

                एक अनजान रास्ते पर चल पड़ी वो | नहीं पता था उसे कि कहाँ जाए | माँ- बाप तो उसकी जिम्मेदारी पूरी करने के छह महीने बाद ही इस दुनिया से बारी- बारी चले गये | उसके कदम स्टेशन की ओर बढ़ चले थे | एक बार उसने सोचा क्यों न वो भी किसी ट्रेन के नीचे जाकर अपना जीवन ख़त्म कर ले | तभी ट्रेन आती दिखी और वो तेजी से दौड़ी पर भूख और कमजोरी के कारण प्लेटफॉर्म पर ही गिर गयी | लोगों की भीड़ ट्रेन से उतरने और चढ़ने वालों की और कुछ  तमाशाबीनों की | मैं उसी प्लेटफॉर्म पर अपने बेटे  को लेने  आई थी और ट्रेन के एक घंटे देर से आने की सूचना मिली | उसे कुछ लोगों की मदद से पास की बेंच पर सुलाया और पानी के छींटें उसके चेहरे पर डाली | कुछ देर बाद उसके शरीर में हरकत हुई |  लोगों ने उसे होश में आते देख  सवालों की झड़ी लगा दी | जवाब दिए बेगैर वो बस नीचे देखती रही | भीड़ के जाते मैंने उससे पूछा कि क्या हुआ ? वो निर्विकार मुझे देखती रही और फिर अचानक बोली कि क्या आप मुझे अपने साथ ले चलेंगी | मेरा कोई नहीं है इस दुनिया में | एकदम से अनजान ..किसी को ऐसे कैसे घर लेती आती.. मैं खामोश सोचने लगी | 
       तभी ट्रेन आ गयी और बेटे को देखने में मेरा ध्यान उसकी तरफ से हट गया | हम दोनों माँ-बेटे जैसे ही स्टेशन से बाहर निकले ..न जाने किधर से वो औरत फिर से सामने आ गयी और एक विनती सा करने लगी कि बस आज की रात के लिए उसे आसरा दे  दूं | बरामदे में भी वो रुक जायेगी | अगले दिन वो चली जायेगी | मैं असमंजस में बेटे को देख रही थी और  फिर बेटे ने ही सहमति जताते कहा कि  मदद कर देनी चाहिए | इस तरह वो  हमारे साथ हमारे घर  आ गयी | 

घर के बरामदे में किसी अपरिचत महिला को देखकर पतिदेव भी थोड़े नाखुश या असहज दिखे | सबके लिए चाय बनाते उसे भी चाय और बिस्किट थमाया जिसे उसने हिचकिचाते हुए मना कर दिया | रात के खाने के समय उसका ख्याल आया तो उसके लिए थाली में रोटी-सब्जी लेकर थोड़ी सख्ती दिखाई तो वो चुपचाप खाने लगी | रात को बरामदे में उसे सोने देना कुछ सही नहीं लगा और एक अनजान को घर के अंदर लाना भी आशंका मन में ला रहा था | गैरेज की छत पर बने कमरे में एक खाट लगाकर उसके सोने की जगह बनाई | सोने के पहले वो गाँव से शहर आने का सारा वाकया सुनाती गई | इसी क्रम में उसका नाम रावती पता चला |

                 अगली सुबह जब मेरी नींद खुली ..मैंने देखा बाहर सारा बरामदा साफ कर वो बगीचे में क्यारियों और आस- पास के  बिखरे सूखे पत्तों को बुहार एक कोने में कर चुकी थी | मुझे देखते वो बोली..अब चलूंगी | आपने कल रात मुझे सहारा देकर बहुत बड़ा अहसान किया | 
“कहाँ जाओगी” – मैंने पूछा .. नहीं पता – ये उसका सपाट जवाब था | फिर बोली कि क्या आप मुझे कोई काम दिला सकती हैं ? मैं घर के सारे काम कर सकती हूँ | इत्तफाक से मेरे यहाँ कामवाली दो दिन के लिए बोलकर गयी थी और चार दिन हो गये थे ..उसकी खबर नहीं थी | इनसे बात की और बोली  ठीक है जब तक मेरी कामवाली नहीं आती..तुम कुछ दिन यहाँ रहकर मेरे काम में हाथ बंटा सकती हो | तबतक देखती हूँ कोई काम मिल जाए |

कुछ उसने भी कोशिश की कुछ मैंने भी पर नाकामयाबी ही मिली | इसी बीच मेरी कामवाली वापस आ गयी और उसी की मदद से रावती को दो घरों में काम मिल गया | धीरे- धीरे उसने अपना घर जमा लिया. कभी- कभी मिलने भी आती | मुझे भी संतोष था उसकी जिन्दगी के नये रंग को देख |

       वक्त तेज़ी से गुजर रहा था | उम्र ने असर दिखाना शुरू कर दिया था | रोज़- रोज़ मालकिन की हिदायत, डांट सभी मिलते थे उसे पर वो काम छोड़ नहीं सकती थी, गरीबी के कारण | खुशहाली को टिकना नहीं था शायद उसके जिन्दगी में ..ऐसा मुझे लगने लगा था | एक सुबह कामवाली दौड़ती आई ..ये बताने रावती नहीं रही | गरीबी ..अकेलापन और अंतहीन समस्याओं से जूझती जिन्दगी ..आखिर कब तक साँसें चलने देती | बस्ती के लोगों की खामोश सवाल करती आँखें मुझे देख रही थी | अंतिम संस्कार के लिए मैंने सारी व्यवस्था करवाई | उसकी चिता की आग से निकलते धुंए के बादल कुछ संदेश देते से ....कुछ  बनती बिगड़ती तस्वीर दिखा रहे थे | उठते धुएं में मुझे  उसका चेहरा  हँसता नजर आ रहा था | मानो जिन्दगी का ऋण ख़त्म हो गया हो | मुझे लग रहा था गरीबी अभिशाप नहीं होनी चाहिए | किसी की गरीबी उसकी मजबूरी हो सकती है, मगर दूसरों के लिए उसके प्रति सम्मान न हो तो कम से कम घृणा की नजर तो कदापि  नहीं होनी चाहिए |
                       बस के पहिये थम गए और मैं अपनी यादों की दुनिया से बाहर आ गयी | मन फिर से बोझिल  हो गया वो सब फिर से याद कर.. हरी घास पर पसरी ओस की वो बूँदें मेरी पलकों पर जाकर थम गए | 
अमृता मिश्रा (वार्ता) 15:20, 11 मार्च 2019 (UTC)[उत्तर दें]