वार्ता:सीरवी

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सीरवी-समाज-का-इतिहास[संपादित करें]

हमारा सीरवी (क्षत्रिय) समाज खारड़िया एक क्षत्रिय कृषक जाति हैं | समाज क्षत्रिय से राजपूत और आज से लगभग ७०३ वर्ष (पुस्तक की प्रकाशन दिनांक १६-५-२००६ के अनुशार गणना) पूर्व राजपूत जाति से अलग होकर सीरवी (खारड़िया), जो राजस्थान के मारवाड़ व गोड़वाड़ क्षेत्र में बशिवान हुए | समाज में किसी भाई के यहाँ राव भाटों द्वारा बही बाचने पर समाज का सराहनीय इतिहास हमें सुनने को मिलता हैं | मगर समाज के खाते में सीरवी (क्षत्रिय) समाज खारड़िया के इतिहास का प्रमाण बहुत कम उपलब्ध हैं |

         जाति-भास्कर, मरदुमशुमारी राजमारवाड़ १८९१ ई. व राजपूत वंशवाली से मिली जानकारी के अनुसार :- हिन्दू धर्म विशेषकर क्षत्रिय राजपूतों के नियम और उपनियम बहुत कठोर होते थे | और ईस्वी सन आंठ्वी शताब्दी के बाद तो इतने कठोर हो गये कि किसी भी क्षत्रिय की जरा सी चुक होने, गलती कर देने पर उसे जाति के मुखियाओ द्वारा जाति से बाहर कर दिया जाता था या आपसी मन-मुटाव व विचार न मिलने से, उनके बनाये नियमों को मान्यता न देते हुए जाति से बाहर हो जाता था और किसी जाति से किसी का बाहर हो जाने का यह एक ही कारण नहीं होता,बल्कि जाति व्यवस्था का यह ढांचा समय, परिस्थतियो , प्राक्रतिक विपदाओं अतिवृष्टि, अनावृष्टि, महामारी, बाहरी आक्रमणों व विभिन्न धर्म मत के प्रचारकों एवं पंथों के सर्जनों से विभिन्न उपजातियों में बंटता ही गया |
         वैसे जाति व्यवस्था का यह ढांचा तो महर्षि परशुरामजी के समय से ही लड़खड़ा गया था | क्षत्रियों के प्रति परशुरामजी का संकल्प हमारे भारत वर्ष के हित में कुछ ज्यादा लाभदायक नहीं रहा | जब ब्राह्मण देवता परशुरामजी ज्यादा आक्रोशित हो गये तो ब्राह्मण देवता से सामना करना उचित न समझकर क्षत्रियों ने अपने नामकरण बदल दिए, अपनी जाति व व्यवसाय बदलकर अपने आप में सीमित हो गये | स्वाभाविक हैं कि जब कभी दो भाइयों में अनबन हो जाती हैं, तो तीसरा लाभ उठाता हैं | धीरे-धीरे बाहरी क्षत्रुओं को मौका मिला तो तुर्कों, अफगानों, मुगलों का आक्रमण बढ़ता गया और उसी तरह जाति व्यवस्था का यह सिलसिला १० वीं शताब्दी से और भी ज्यादा प्रभावित हुआ | ‘राजपूत वंशावली पृ. ९’ जब देश में बौद्ध और जैन धर्म प्रचारको ने अहिंसा प्रचार करना शुरू किया, तो इसका लाभ विदेशियों ने उठाया और ७ वी शताब्दी के आस-पास हर्षवर्धन के बाद देश जब छोटी-छोटी रियासतों में बाँटता गया तो विदेशियों ने इन रियासतों पर आक्रमण करना शुरू कर दिया | उनके आक्रमण इतने जोरदार होते थे, इनमें वे तबाही मचाकर रख देते थे |
         ऐसे अवसर पर वशिष्ठ पीठ के किसी ऋषि ने क्षत्रियो का एक संघ बनाया और उसने उन विदेशियों को यहाँ से खदेड़ कर पुन: शांति स्थापित की | हमारे समाज के राव-भाटों की बहियों में भी सीरवी समाज खारड़िया की कुछ गौत्रों परिहार, सोलंकी, परमार, चौहान वगैरह को अग्निवंशीय (अग्निकुंड से उत्त्पन) होने का वर्णन मिलता हैं | उपर्युक्त चर वंश (गौत्र) इस संघ में सम्मिलित हुए थे | अग्नि वंश का रहस्य – परिहार, सोलंकी, परमार, चौहान इन चार वंशो को कई इतिहासकार अग्निवंशी मानते हैं | इस मत का उल्लेख प्रथम बार चन्द बरदाई ने अपने ग्रन्थ ‘पृथ्वीराज रासौ’ में किया हैं | चन्दबरदाई का मत हैं कि जब परशुराम ने पृथ्वी को इक्कीश बार क्षत्रियों से शून्य कर दिया, तो राक्षसों ने ऋषियों को सताना आरम्भ कर दिया | ऋषियों द्वारा रचाये गये यज्ञों में राक्षस हाड़-मांस आदि डालकर अपवित्र कर नष्ट कर दिया करते थे |
         ऐसी स्तिथि में वशिष्ठ आदि कई ऋषियों ने आबू पर्वत पर एक यज्ञ रचाया और प्रभु से प्रार्थना की कि हमारी रक्षा के लिए एक शक्तिशाली जाति उत्त्पन्न की जाये | कहते हैं उस यज्ञ में चार शक्तिशाली पुरुष उत्पन्न हुए | जिन्होंने अपने-अपने नाम पर उपर्युक्त चार वंशो को चलाया | ‘मुहणऔत नैणसी’ ने अपनी ख्यात में, सूर्यमल्ल मिश्रण ने ‘वन्शभास्कर’ में, कवि धनपाल ने ‘तिलक मंजरी‘ में, अबुल फजल ने ‘आईने-ए-अकबरी‘ में, कवि जोधराज ने ‘हम्मीर रासौ‘ में, तथा पद्यगुप्त ने ‘नव साहसांक चरित्र’ में इस मत की पुष्टि की हैं | इस मत का प्रतिपादन करने वाले कहते हैं कि जहाँ यज्ञ हुआ था, वहां ‘क्षत्रियत्व अभिमंत्रित‘ चरु था | इसीलिए उसमें से उत्पन्न पुरुष अग्निवंशी क्षत्रिय कहलाए |
         ‘भविष्यपुराण’ ३-६ में भी वर्णन आता हैं कि जिस समय बौद्ध तथा जैन धर्मो का पूर्णत: विकास हुआ, तो वैदिक धर्म का सर्वनाश होता देखकर काव्य-कुन्ज ब्राह्मण ने वेद विधि से अग्निकुंड तैयार कर वैदिक मंत्रो से हवन-कुंड में ब्रह्म होम नामक यज्ञ किया था और उपर्युक्त चारों वंश उसमें दीक्षित हुए थे |
         उपर्युक्त मत के सन्दर्भ में उस समय भारत सीमांत के अंतर्गत के कुछ राज्यों में यानि गुजरात, राजस्थान और मध्यप्रदेश के कुछ क्षेत्र पर परिहार, सोलंकी, चौहान, और परमार गौत्र क्षत्रियों का शासन था और यहीं पर हुण आदि विदेशी जातिया मिलकर आक्रमण किया करती थी | अत: उन विदेशियों से लड़ने हेतुं इन सबने मिलकर एक संघ बनाया और मिल-जुलकर देश की क्षत्रुओं से रक्षा की | यह संघ ठीक उसी प्रकार का था, जैसा कि सिक्खों के दसवें गुरु-श्री गोविन्दसिंहजी ने समाज के कट्टर देशभक्तों तथा वीरों को एकत्रित करके उन्हें क्षत्रु के विरूद्ध तैयार किया | उसी प्रकार इन सभी चार गौत्र के वंशों ने अग्नि को साक्षी मानकर देश, धर्म, की रक्षा का व्रत लिया था | ऋषियों द्वारा अग्निवंशी उपाधि से विभूषित चार गौत्र परिहार, सोलंकी, परमार और चौहान थी | यह चारों गौत्र सीरवी (क्षत्रिय) समाज खारड़िया में वर्तमान में भी हैं |
         ‘मरदुमशुमारी’ के अनुसार १० वीं शताब्दी में कई विदेशी आक्रमणकारी आंधी की भांति आये और यहां की अपार धन संपदा को लुटकर सामाजिक व्यवस्था एवं धार्मिक भावना को छिन्न-भिन्न कर तूफान की भांति वापस चले गये | इससे भी ज्यादा उन विदेशी जातियों ने हमारी प्राचीन व्यवस्था को प्रभावित किया, जो यहाँ अपने धर्म और शासन का विस्तार करने के लिए स्थायी रूप से निवास करने लगे | इस प्रकार जातियों व उपजातियों के बनने एवं बिगड़ने का क्रम निरंतर चलता रहा | कुछ ऐसे पराक्रमी, शूरवीर एवं युग पुरुष भी हुए, जिन्होंने अपने बाहुबल एवं पराक्रम से प्रचलित समाज व्यवस्था के अनुकूल न बनकर समाज व्यवस्था को अपने अनुकूल बनाया | दूसरी तरफ से कुछ ऐसे संत दार्शनिक, योगी महापुरुष भी हुए, जिन्होंने अपने उपदेश एवं विचारों से समाज के कलेवर को ही बदल दिया और अपनी ओर से नवीनता देने का प्रयास किया |
         इस तरह राजपूतों (क्षत्रिय) से निकले परिवारों ने लम्बे समय तक अपनी पहचान गौत्र से ही बनाए रखते हुए जैसे आज भी हम देखते हैं कि आम तौर पर मनुष्य अपनी पहचान के लिए जाति से ज्यादा गौत्र का उपयोग करते हैं | समय परिस्तिथितियों के कारण राजपूत जाति से निकले हुए परिवार को भी अपने -अपने उसी वर्ग में मिला दिया जाता था | इस प्रकार राजपूतों के सभी वंशो में ऐसे अनेक परिवार थे, जिनकी धीरे-धीरे एक अलग ही कौम, जो १४ वीं शताब्दी के आस-पास, जिसमें एक हमारा समाज भी, जो आज सीरवी (क्षत्रिय) समाज खारड़िया नाम से परिचित हैं | संभवतः विक्रमी संवत १३६५ में अपनी जाति की पहचान बन गयी थी |
         १२ वी शताब्दी में हिन्दू समाज दोहरी मार से पीड़ित था | एक ओर तो देशी राजा आपस में लड़-भिड़कर अपनी शक्ति नष्ट कर रहे थे, दूसरी ओर विदेशी यवन मुसलमान एक हाथ में तलवार तथा दुसरे हाथ में धर्म की पताका लिए इस्लाम का प्रचार कर रहे थे | यह लोग अपने साम्राज्य के विस्तार के साथ हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाते थे | जो हिन्दू लोग इस्लाम धर्म स्वीकार नहीं करते तो उन्हें मुस्लिम शासको को जजिया कर देना पड़ता था, या युद्ध करना होता था |
         विक्रम संवत १३६८ में अलाउदीन खिलजी ने जालोर पर आक्रमण किया, तब जालोर के राजा राव कान्हड़ देव के साथ खारड़िया राजपूत बड़ी बहादुरी से लड़े | परन्तु बादशाह की सेना में कई गुणा अधिक थी एवं अच्छे हथियारों से सुसज्जित थी, जब कि राजपूतों की संख्या कम एवं साधन सीमित थे | फिर भी उन्होंने काफी दिन तक बादशाह की सेना का बड़ी वीरता से सामना किया | लम्बे समय तक युद्ध चलते रहने के कारण जालोर के किले में रसद सामग्री खत्म होने लगी | बाहर से रसद सामग्री आने के सभी रास्ते बंद थे | अत: वैशाख सुदी ५ विक्रमी संवत १३६८ के निर्णायक युद्ध (साका) में खारड़िया राजपूत (सीरवी) सम्मिलित थे जो इतिहास में जालोर के साका नाम से चर्चित हैं |
         वैसे राजपूत हजारों वर्षों तक भीषण युद्धओ में संलिप्त रहे | ई.स. से कई सौ वर्ष पूर्व ही यूनानियो ने भारत पर आक्रमण किये थे और उसके बाद शक, हुण, कुषाण, अरब, तुर्क, मंगोल आदि निरंतर इस देश पर आक्रमण करते रहे हैं | एक के बाद एक सारा का सारा समय व मुस्लिम काल भी युद्धकाल बना रहा | ऐसे भीषण आक्रमणों और युद्धों में लिप्त रहने के कारण राजपूतों को देश, धर्म, संस्कृति और अपनी जान की रक्षा करना ही कठिन हो गया | इस प्रकार युद्धों के कारण कई राजपूत वंशो की गौत्र, परम्परा और कब, कहाँ शासन किया ? कब कहाँ से कहाँ गए ? सब भूल भुलैया में पड़ गए |
         इसलिए किसी जाति की उत्पति व इतिहास के बारे में प्रमाणिकता का दावा करना कठिन हैं | फिर भी उपलब्ध प्राचीन इतिहास, साहित्य, शिलालेख, भित्तिचित्र, पौराणिक गाथाएँ, राव-भाट के पास उपलब्ध इतिहास, दंतकथाए एवं किवदंतियों के आधार पर ही किसी जाति की उत्पति एवं विकास के इतिहास तक पंहुचा जा सकता हैं | सारांश रूप में इसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता हैं कि सभी जातियां एवं उपजातियां का उद्भव वैदिक कालीन आर्यों की समाज व्यवस्था के चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र ही रहे हैं |
         ‘राजपूत वंशावली पृ. ४’ यदि किसी वंश में कोई अत्यंत महान पुरुष उत्पन्न हो जाता हैं तो उसके वंशज आगे उसे अपना गौत्र धारण कर लेते हैं  | जैसे प्रतिहारो का मूल गोत्र तो कश्यप हैं, किन्तु इस वंश में लक्ष्मण अत्यंत ही महान पुरुष हुए, जिन्हें स्वम भगवान राम ने प्रतिहार की उपाधि से विभूषित किया था | जिससे लक्ष्मण और उनके वंशज प्रतिहार से पड़ियार, परिहार कहलाने लगे | लक्ष्मण के दो पुत्र अंगद व चंद्रकेतु थे और परमारों (पंवार) का गोत्र वशिस्ठ हैं | इसका तात्पर्य हैं कि जितने भी परमार, पंवार क्षत्रिय हैं वे सब महर्षि वशिस्ठ की संतान हैं, व चौहान महर्षि वत्स, सोलंकी (चालुक्य महाराजा उदयन) गौत्र भी श्री राम के लघु भ्राता लक्ष्मण की ही संतान हैं | इसी प्रकार राठौड़ भगवान राम के पुत्र कुश और गहलोत के पूर्वज गुहिल लव की संतान हैं |
         उपलब्ध प्राचीन इतिहास का अध्ययन करने से पता चलता हैं कि हमारा समाज क्षत्रिय वंशी सीरवी (खारड़िया) जाति हम सभी मूल रूप से आर्यों की ही संतान हैं | सीरवी (खारड़िया) जाति का उद्गम भी वैदिक क्षत्रिय राजपूत जाति से ही हुआ हैं | हमारे सीरवी खारड़िया जाति की ६ मुख्य गौत्र, १८ उप गौत्र, २५ नक कहा जाता हैं | जो १८ गौत्र (खापें) हैं , वह क्षत्रिय राजपूतों से मिलती हैं तथा सीरवी जाति का उपलब्ध प्राचीन इतिहास इस बात का प्रबल प्रमाण हैं कि हमारे बांडेरू (पूर्वज) आर्य (क्षत्रिय) राजपूत हैं |
         राजपूत वंशावली व राव द्वारा मिली जानकारी से, बारहवीं शताब्दी के आस-पास भारत में राजतंत्रीय शासन व्यवस्था चल रही थी | विभिन्न राज्यों में अलग-अलग राजा अपना-अपना शासन चला रहे थे | वे बहुत ही महत्वाकांक्षी होते थे | जिनके कारण आपस में लड़ते रहते थे | एसी रियासतें गुजरात राज्य में भी थी | वहां के शासक भी राज्य विस्तार एवं आपसी मन-मुटाव के कारण युद्धरत थे | सीरवी जाति के इतिहास से यह पता चलता हैं कि गुजरात प्रान्त में जूनागढ़, राजकोट के आस पास एक राज्य संभवतः (सौराष्ट्र) में गिरनार के राजा का अपने पड़ोस के किसी राजा से बड़ा भयकर युद्ध हुआ था | जिसमे हजारों सैनिक रण क्षेत्र में खेत रहे एवं कुछ बंदी बना लिए गये, और जो क्षत्रिय बच गये थे, उन्होंने गुजरात को त्यागकर राजपुताना प्रान्त जालोर राज्य, जो गुजरात की सीमा पर ही था | वहां आकर बस गये | उस समय जालोर पर चौहान वंशीय राजा कान्हड़देव सोनगरा का शासन था |
         सीरवी श्री चन्द्रसिंहजी (अटबडा) द्वारा लिखित खारड़िया सीरवियों रौ इतिहास से पता चलता हैं कि गुजरात प्रान्त के उत्तरी भाग की भूमि खारी व खाबड़ खुबड़ होने से उसे खारी खाबड़ कहा जाता हैं | सौराष्ट्र के दक्षिण में स्थित वेरावल बंदरगाह के पास में प्रभास-पाटन में कोयलपुर (दीव द्वीप) राज्य था | जिसके शासनकर्ता अणतराय सांखला (पंवार) खारी-खाबड़ (जहाँ हमारे पूर्वजों का शासन रहा हो) एवं जूनागढ़, राजकोट के आस-पास गिरनार राज्य था, जिसका राजा कहवाट थे |
         एक बार इनके मध्य मैन मुटाव होने से युद्ध हुआ | अनन्तराय ने कहवाट को युद्ध में हराकर जेल में डाल दिया | उक्त समाचार राजा कहवाट ने अपने भाणजे उका तक गुप्त रूप से पहुंचाए | कहवाट का भाणजा सैनिकों सहित धोखे से अनंतराय सांखला के किले में घुस गया | इनके मध्य घमासान युद्ध हुआ | अनन्तराय की हार हुई | हजारों सैनिक रण क्षेत्र में खेत रहे, एवं जान माल की अपार क्षति हुई |
         कोयलपुर युद्ध के दरम्यान हारे हुए अनन्तराय व कोयलिया सैनिक उका पकड़ लिए गये और अनन्तराय के कारागार से कहवाट और एक सौ राजाओं को बाहर निकाल दिया गया | युद्ध में शहीद हुए दोनों तरफ के यौध्दाओ का दाह संस्कार किया गया, और उका द्वारा अनन्तराय को बेडी, बेड़िया, हथकडियां पहनाकर दरबार में कहवाट के सामने पेश किया गया | दरबार में मंगल द्वारा मंगवाए गये चने (भुन्गड़े) अनन्तराय को चुगाये गये | पूर्व में कहवाट व अन्य राजाओं पर अनन्तराय ने बहुत अत्याचार किये थे | लेकिन कहवाट ने उसे माफ़ करके अनन्तराय को फिर से गादी पर आसीन किया |
         अनन्तराय ने कहवाट का आभार प्रकट करते हुए सांखला परिवार से अपने बेटे, भाइयों की लडकियों का तोरण थांबला स्थापित कर एक सौ राजा एवं कहवाट के साथ विवाह कर सम्मान पूर्वक सीख दी गई | कहवाट सौ राजाओं को अपना मेहमान और कोयलिया केदी राजपूतों के साथ गिरनार पंहुचता हैं | गिरनार पहुंचते ही उका कोयलिया राजपूतों को कैद कर कारागार में डाल देता हैं | महल के झरोखे से कैदियों पर होते अत्याचार देखकर दुःखी होती गहरादे कोयलिया राजपूतो का साहस बढाती हुई कहती हैं “भाइयों ! वह दिन दूर नही जब आप भी अपने घर जायंगे और आपको मेरे भाई के कारागार से मुक्ति मिलेगी |
         कोयलपुर युद्ध में हारे हुए कोयलिया सैनिकों को उका द्वारा पकड़ लिया जाना और कोयलपुर में बंदी बनाए गये कैदियों को अनन्तराय की अपनी हार के बाद कैद से छुटे राजाओं व कहवाट के साथ अपने सांखला परिवार से लड़कियों का विवाह भी कर दिया | मगर अनन्तराय ने कोयलिया सैनिकों को छुडवाने का प्रयास तक नहीं किया | इस कारण गिरनार के कारागार में कैदी कोयलिया राजपूत अपने राजा अनन्तराय से नाराज थे | आभारी तो कहवाट की बहन गहरांदे के थे | जिसने कोयलिया राजपूतों को कैद से रिहा करवाया था | गहरांदे ने अपने ह्थलेवा कन्यादान में सोने के सिक्के देने आए भाई कहवाट से कन्यादान में गिरनार के कारागार में बंदी बनाए गए कोयलिया सैनिकों की रिहाई मांगी थी | चंवरिया में बैठी गहरांदे के मर्मस्पर्शी विचारों को चन्द्रसिंहजी ने सुंदर शब्दों में बयां किया हैं |

म्हैं कहऊँ सो दान दौ, मांगू मुख सूं आज | कोयलियों नै छोड़ दौ, राखौ म्हारी लाज ||

         बहन गहरांदे के इन शब्दों को सुन कहवाट को आश्चर्य होता हैं | बाद में उसे मालूम पड़ता हैं कि गहरांदे ने कैदी भाइयों को कैद से मुक्त कराने का वचन जो दिया था | कहवाट ने अपनी बहन की उचित मांग को मर्यादा पूर्वक स्वीकार कर कारागार में बंदी कोयलिया सैनिकों को उनके हित की बात रखते हुए कहा “अगर आप लोग शस्त्र धारण नहीं करने की शपथ ग्रहण करते हैं, तो मैं सभी कैदियों को मुक्त कर देता हूँ |” कहवाट ने सभी सैनिकों को शस्त्र धारण नहीं करने से वचनबद्ध करके रिहा कर दिया था | कोयलिया राजपूत कहवाट की कैद से मुक्त होकर कोयलपुर आने पर अनन्तराय से मिलना और उनसे जवारडा करना भी उचित नही समझा और सभी राजपूतों ने कोयलपुर छोड़ने का निर्णय कर लिया |
         विक्रमी संवत् १३३५ में एक दिन की प्रभात की पहली किरण निकलने से पहले गाड़ियों में अपने अपने परिवार के साथ दु:खी मन से कोयलपुर को पीछे छोड़कर चल दिए | वहां से उत्तर दिशा में चलते, ठहरते एक दिन जिला कच्छ में आकर सभी जनों ने राज्य अणहिलवाडा में निवास किया | कच्छ में लूनी नदी बहती हैं | लूनी नदी का पानी बालोतरा से आगे खारा होता हैं | यहां खाबड़ नगर भी हैं | इस कारण यह क्षेत्र खारी-खाबड़ के नाम से पुकारा जाता हैं | इस क्षेत्र में इन क्षत्रियों के रहने पर आगे वे चलकर ‘खारड़िया राजपूत’ कहलाने लगे | उस समय वहां अणहिलवाडा पाटन पर करण बाघेला (सोलंकी) का राज था | खारी खाबड़ क्षेत्र उसी की रियासत में आता था |
         खारी खाबड़ में राजपूतों का संगम स्थान बनने की कोयलपुर के (कोयलिया) राजपूतों ने पहल की थी | उसके बाद कन्नौज के राठौड़ भी खारी-खाबड़ पंहुचे | ठा. बहादुर सिंह बीदासर ‘क्षत्रिय जाति की सूचि’ पृष्ठ ८२ के अनुशार ‘खारड़िया सीरवियों रौ इतिहास’ ३९/३ श्री चन्द्रसिंह जी लिखते हैं सीरवी राठौड़ वंश – धुहडजी के पुत्र शिवपाल के वंशज का वंश यह प्रथम राजपूत राठौड़ थे | अब कृषको (किसानो) में मिल गये हैं, और धुहडजी के पुत्र चान्द्पाल एवं शिवपाल अपने पिताश्री के काका अजयमालजी के साथ १४-१५ वर्ष की उम्र में गुजरात पहुच गए थे | खारी खाबड़ में कोयलिया राजपूतों के साथ में रहने से यह भी खारड़िया राजपूत कहलाने लगे | बाद में समस्त खारड़िया राजपूत जालौर पहुंचे | चान्द्पाल व शिवपाल ने जालौर के पास बिठु खेड़ा बसाया | जमींदारों की भूमि में सीर की रीती के अनुशार कृषि व्यवसाय करने व कृषि भूमि के प्रबंधक होने पर यह राठौड़ भी खारड़िया सीरवी कहलाए |
         उज्जैन के किसी स्थान पर सैणक राजा था | उज्जैन पर तुर्कों का अधिकार हो जाने पर कई राजपूत उज्जैन छोड़कर पडौसी राज्य में पंहुच गए | सैणक के वंशज भी खारी खाबड़ में जाकर खारड़िया राजपूतों के साथ रहे | वहीं से सैणक राजा के नाम पर सैणचा खारड़िया राजपूत कहलाए | इसी तरह उज्जैन के ही किसी स्थान पर राजा बोडोजी थे | राजा बोडोजी के उपर भी तुर्कों का आक्रमण हुआ | युद्ध में बोडोजी काम आए | बोडोजी के ज्येष्ठ पुत्र खिवसिंह उज्जैन छोड़कर खिंवाड़ा बसाकर वहीं रहने लगे | छोटा पुत्र सावंतसिंह मेवाड़ की सेना में भर्ती हो गये | मेवाड़ के शासक रतनसिंह को भी अलाउद्दीन खिलजी ने मारकर राज्य हथिया लिया | सांवतसिंह ने मेवाड़ को छोड़ा, खारी खाबड़ पहुंचकर खारड़िया राजपूतों के साथ रहने लगे | वह भी खारड़िया राजपूत कहलाने लगे |
         ”क्षत्रिय राजवंश”, रघुनाथ सिंह कलि पहाड़ी पृष्ठ १९४, विक्रमी संवत् १३५५, ई. १२९८ में अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति उलुग खां और नसरतखां ने गुजरात विजय अभियान किया | उन्होंने जालौर के कान्हड़देव से जालौर राज्य से होकर जाने का रास्ता माँगा, परन्तु कान्हड़देव ने यह कह कर मना कर दिया कि विधर्मी गौमांस खाते हैं और ब्राहमण विरोधी हैं | अत: कान्हड़देव अपने राज्य से होकर आगे बढ़ने की इजाजत नही देता | इस उत्तर का प्रतिकूल प्रभाव हुआ, परन्तु पहले गुजरात जीतना अनिवार्य था | अत: मुस्लिम सेना गुजरात की तरफ बढ़ गई और सोमनाथ के मंदिर को तोडा | जब मुस्लिम सेना लौट रही थी, तो कान्हड़देव ने मुस्लिम सेना पर अचानक आक्रमण किया | मुस्लिम सेना को हार कर भागना पड़ा |
         “जालौर एवं स्वर्णगिरि दुर्ग का सांस्कृतिक इतिहास” पृष्ठ ६५ अलाउद्दीन खिलजी ने अपने सेनापति उलुग खां को जालौर पर चढ़ाई करने का आदेश दिया | कान्हड़देव के रास्ता नही देने से बादशाही फौजें मेवाड़ के रास्तों से बनासकांठा पहुंची, फिर मोडासा, कानम, चरोतर, बावनखेडा आदि गुजरात के नगरों को तोड़ती-फोड़ती पाटन पहुंची | पाटन की विनाश लीला एवं वहां के मंदिरों की दुर्दशा का वर्णन करते हुए पद्मनाभ कहता हैं कि मंदिरों को तोड़कर वहां खतुबे पढ़े गए | सोमनाथ का शिवलिंग तोड़ा एवं उसे बैलगाड़ीयों में भर दिया | पद्मनाभ ने अपनी मानस पीड़ा से मन-ही-मन सोमनाथ से पूछा कि “आपने कामदेव, त्रिपुर का नाश किया, हनुमान के रूप में लंका को जला दिया, पर अब आपका त्रिशूल कहां गया ?” कवि की यही पीड़ा तत्कालिक हिन्दू समाज की आपसी विग्रह लीला का दिग्दर्शन हैं | उसके अनुशार सोमनाथ का लिंग नहीं टूटा, किन्तु टूटी थी हिन्दू अस्मिता | राजाओं की आपसी फुट ने भारतीय समाज को कोई दिशा नहीं दी |
         उलूगखां ने कान्हड़देव को सन्देश भिजवा दिया कि तुम्हारे स्वर्णगिरि दुर्ग के पास पहुँच गया हूँ | कहा जाता हैं कि उसी दिन कान्हड़देव को सपना आया | स्वप्न में कान्हड़देव ने गंगा एवं गौरी को विलाप करते देखा | उन्होंने सोमनाथ के लिंग को छुड़ाने की प्रार्थना की एवं यह विश्वास दिलाया कि जीत तुम्हारी होगी | कान्हड़देव ने युद्ध के नगाड़े बजवा दिए | राजपूतों की तैयारी एवं आत्मविश्वास को देखकर उलूगखां ने घेरा उठा दिया एवं बादशाह सेना सिवाना पहुँच गई | वहां जाकर कृत्रिम दुर्ग बनाकर सैन्य तैयारी की | कान्हड़देव ने अपने सरदारों को सैन्य जानकारी के लिए भेजा | वहां उसके सरदारों ने अपना पराक्रम दिखाया, तब उलूगखान ने लक्ष्मण सेपटा से पूछा कि कान्हड़देव की सेना में तुम्हारे जैसे कितने लड़ाके हैं ? तब उसने उनकी संख्या 24 हजार बताई | कान्हड़देव के सरदारों के शाही सेना में बंदी स्त्री-पुरुषों एवं बच्चों के साथ क्रूरता की पराकास्ठा देखी एवं वहीं ऐलान किया  कि कान्हड़देव युद्ध करेगा एवं इन सबको छुडायेगा |
         कान्हड़देव ने जब शाही सेना में बंदियों की दुर्दशा की बात सुनी, तो उसने यह प्रतिज्ञा की कि “वह जब तक सोमनाथ के लिंग को एवं बंदियों को मुक्त नहीं करवा देगा, तब तक वह अन्न ग्रहण नहीं करेगा |” उसने इस युद्ध के लिए मित्र राजाओं को निमंत्रण भेजे | “खारड़िया सीरवियों रौ इतिहास” पृष्ठ ४२/२७ विक्रमी संवत् १३५५ में सभी खारड़िया राजपूत अपने घर, बाहर की सामग्री लेकर परिवार सहित जालोर पहुंच गये | कान्हड़देव ने इन सभी खारड़िया राजपूतों को जालोर की सेना में भर्ती कर लिया | पद्मनाभ के अनुशार चार लाख तलवारबाज राजपूत सरदार एकत्रित हुए | इनके घोड़ो का वर्णन एवं युद्ध में उनकी साज-सज्जा का वर्णन तत्कालिक राजपूत युद्धशैली का जीवंत वर्णन “कान्हड़देव प्रबंध” में हुआ हैं | अश्व सज्जा एवं उनके गुण धर्म का भी बहुत सुंदर वर्णन पद्मनाभ ने किया हैं | उस समय जालोर के उस युद्ध में हस्ति-पंक्ति का भी वर्णन हुआ हैं | हस्ति सेना, अश्वसेना एवं पैदल सेना की युद्ध-प्रणाली का वर्णन करते हुए कवि ने तत्कालिक युद्ध पद्धति का पूर्ण परिचय दिया हैं |
         इन राजपूत योद्धाओं ने माँ आशापुरी के दर्शन किये | माँ आशापुरी की आज्ञा लेकर राजपूत सेना स्वर्णगिरि से नीचे उतरी | जयंत देवड़ा के सेनापतित्व में राजपूत सेना सन्नद्ध हुई | बादशाही सेना का पड़ाव सिवाणा (गढ़ सिवाणा) में था | रात के समय राजपूतों ने शाही सेना पर हमला बोल दिया | रात्रि में असावधान बादशाह सेना सम्भल नही सकी एवं पराजित हुई | बंदी छोड़ दिए गये एवं उलूगखां भाग गया | भगवान सोमनाथ के लिंग के टुकड़ो को हस्तगत किया | कान्हड़देव की जय-जयकार हुई |
         हरीशंकर राजपुरोहित “जालोर गढ़ में जौहर पृष्ठ ९४” पर कान्हड़देव द्वारा अपने राज्य की सुरक्षा के प्रबंध में इस तरह लिखते हैं | जालोर के महाराजा के पास युद्ध के लिए असंख्य हाथी, घोड़े, ऊंट महावत, घुड़सवार तथा ऊंट सवारों के साथ-साथ भरपूर पैदल सेना थी और इसकी सहायता के लिए सुयोग्य सगठन था | कान्हड़देव की घोड़ो की सेना में छत्तीस वर्ण के घोड़े थे, जिनमे उत्तर देश के उत्तिरा, कन्नौज देश के कलुथा, मध्य देश के महुयदा, देवगिरि के देवगरादेषाऊ, बाहड़ देश के बोरिया, उजलागोरा, काला, सिंदूरी, तोरका, भरिजा, अहिबाणा, पहिधाणा, रूबरा, बेबाणा, सम्भाणि, पाणिपन्था, अराहा, शेरहा, कलिकंठा, किहाड़ा, करडा, करडागर, निल्डा, मल्हाडा, हरियडा, शेरषडा, तुंककना क्षेत्र खुरसानी, लहितुया, गंगटिसा, हंसजादर, उणनभ्रमर, उधस्या पोरणा, चपल-चरण विस्तीर्ण, शालिहोत्री, प्रतिष्ठान सिंह, विशेष गति वाले, मन से चलने वाले और हवा में तैरने वाले, पाटिये पत्र देकर उतरने वाले, मन में लक्ष्य साध कर चलने वाले, समुद्र में बसने वाले आदि अनेक प्रकार के विलक्ष्ण करतब करने वाले घोड़े तथा घोड़िया अस्तबल में थे |
         इन घोड़ो पर डालने के लिए तरह-तरह की काठिया थी | विभिन्न ऊँटों के लिए तरह-तरह के पलाण बने हुए थे | जिन पर चांदी और पीतल का काम भी था | हाथियों के हौदें एक से एक सुंदर थे | जिनमे से कुछ तो विशेष अवसरों पर प्रयुक्त होने वाले थे, जो सोने-चांदी में जड़े थे |
         जालोर राज्य के शस्त्रागार में तरह-तरह के अपार अस्त्र-शस्त्र जमा किये गये थे | विभिन्न तरह के भाले, भिन्न-भिन्न प्रकार की तलवारें, भांति-भांति की ढाले, अलग-अलग प्रकार के बर्छे व बर्छिया तथा, तरकस सहित धनुष-बाण भी थे | छत्तीस प्रकार के दंडायुद्ध थे | सैनिकों तथा सैनिक अधिकारीयों के लिए तरह-तरह की पौशाके, अन्गरखिये थी | अंगों की रक्षा के लिए विभिन्न प्रकार के कपड़ों की पौशाके भी भिन्न-भिन्न प्रकार की बनवाई गयी थी | जिनसे क्षत्रु द्वारा अचानक निहत्थे सिपाही पर वार कर देने के बावजूद शरीर को बचाया जा सकता था |
         “खारड़िया सीरवियों रौ इतिहास” पृष्ठ ४२/२७ जालोर पर अपना अधिकार ज़माने के लिए अलाउद्दीन खिलजी ने अपनी सेना जालोर की तरफ रवाना की | आक्रमण की सम्भावना देख कान्हड़देव ने अपने पडौसी राजाओं से सैनिक सहायता मांगी | विक्रमी संवत् १३५५ में पाटन पर अलाउद्दीन का शासन स्थापित हो गया था, और कबुतातारको पाटन का सुल्तान बनाया गया | तुर्कों का अत्याचार ज्यादा बढ़ने के कारण खारड़िया राजपूतों ने गुजरात छोड़ने का मानस बना लिया था | यह खारड़िया राजपूत जालोर जाने के इच्छुक थे | उस समय जालोर एक शक्तिशाली राज्य माना जाता था | खारड़िया राजपूतों को गुजरात में हुए अलाउद्दीन के अत्याचारों का चिंतन सता रहा था | इस कारण उन्हें जालोर की सहायता करने का अच्छा अवसर मिल गया | सभी खारड़िया राजपूत अपने घर, बाहर की सामग्री लेकर परिवार सहित जालोर पहुँच गये | कान्हड़देव ने इन खारड़िया राजपूतों को जालोर की सेना में भर्ती कर लिया | राजा कान्हड़देव ने प्रसन्न होकर इन सैनिकों को परिवार के साथ रहने के लिए उचित क्षेत्र बता दिया था |
         राठौड़, परिहार, पंवार (परमार), चौहान, सोलंकी, लचेटा, गहलोत, सेपटा, काग, भायल, पडीहारिया, देवड़ा, अंग्लेचा, भुम्भदडा, चोयल, हाम्ब्ड, सैणचा, सोनगरा, सिन्दड़ा, खंडाला, बर्फा, मोगरेचा, सियाल, मुलेवा |
         यह खारड़िया राजपूत तिलवाडा से पश्चिम में थोड़ा आगे खारी नदी के उत्तर किनारे पर खाबड़ा गांव बसाकर रहने लगे | इसी क्षेत्र में खारी नदी के दक्षिण किनारे पर जणवा सीरवियों का निवास जणवा गाँव हैं | खारड़िया राजपूत, जो गिरनार की कैद से शस्त्र धारण नहीं करने का वचन देकर रिहा हुए थे | वः गुजरात सीमा तक पूर्ण संकल्पबद्ध रहे, और जो कैद में नहीं थे, वह जवान जालोर की सेना में भर्ती हुए | वैसे देखा जाये तो शस्त्र धारण नहीं करने की जो शर्त थी, वह गुजरात में रहने तक की थी | इस कारण नौजवानो द्वारा यह बात गूंजने लगी | चन्द्रसिंह जी का जोश भरा दोहा –

गुजरात वा छुट गई, छुट गई वा आंण | नयौ राज, नव राजवी, कान्हड़दे चौहाण ||

         “खारड़िया सीरवियों रौ इतिहास” पृष्ठ, ४६/२८ के अनुशार कान्हड़देव द्वारा सहायता मांगने पर सहायता मिली, रेवंती व धानशा की तरफ से आने वाली शाही सेना को राजपूतों ने खंडाला के पास रोक दिया | शाही सेना तितर-बितर हो गई | खारड़िया राजपूतों ने जालोर की सेना में भर्ती होकर युद्ध के मैदान में अपनी चिर प्रसिद्ध वीरता दिखाई | दिल्ली बादशाह अलाउद्दीन खिलजी ने मेवाड़ के शासक रतनसिंह को मार कर मेवाड़ पर अधिकार कर लिया था | रतनसिंह की रानी पदमिनी ने अपनी सात सौ सहेलियों के साथ जौहर किया | मेवाड़ के राजपूतों ने उज्जैन के सावंतसिंह पंवार, जो राणा रतनसिंह की सेना में योग्य सरदार रहे थे, उनसे मिल मेवाड़ के सुल्तान खिजर खां से छुपकर अपनी सेना बनाई | उस समय कुछ वर्षों पहले सावंतसिंह पंवार खारड़िया राजपूतों के साथ खारी खाबड़ में रहे थे | मेवाड़ के सामंत लोगो ने सावंतसिंह पंवार को वापस मेवाड़ बुलाया | मेवाड़ सामंत सावंतसिंह को सैनिक टुकड़ी का सेनापति नियुक्त कर जालोर भेजा गया | सावंतसिंह और उनके सैनिक ने युद्ध में अभूतपूर्व वीरता दिखाई | कान्हड़देव के युद्धाओ ने पुरे जोश के साथ युद्ध किया | आखिर मुस्लिम सेना को हार कर भागना पड़ा और कान्हड़देव की जीत हुई |
         कान्हड़देव ने जीत का श्रेय सहायकों को देते हुए उनका आभार प्रकट किया | रेवंती और धानशा सैनिकों का सम्मान के साथ मेवाड़ी वीरों का सम्मान करते हुए उनका लाख लाख धन्यवाद किया और सैनिक टुकड़ी के सेनापति सावंतसिंह का युद्ध में कौशल देख, कान्हड़देव ने अपने परिवार सोनगरा में से अपनी पौत्री का विवाह सावंतसिंह के साथ कर दिया | सावंतसिंह ने जालोर में सांवतपूरा गाँव बसाया | खारड़िया राजपूतों का अपने देश के प्रति प्रेम और बलिदान देख राजा कान्हड़देव ने बहुत सम्मान किया और कहा कि अब मैं आपके विकास का पूर्ण ध्यान रखूँगा | आप लोग इसी तरह अपने देश में सहायता करते रहना, हमारे राज्य में आपको जो सुविधा चाहिए वह मांगिए | हमारी तरफ से आपको हर तरह की सुविधा मुहैया कराई जाएगी |”
         कुछ इतिहासकारों का इनमें भिन्न मत हैं | मुंशी देविप्रशाद कृत ‘मारवाड़ मर्दुमशुमारी रिपोर्ट’ के अनुशार खारड़िया राजपूत जालोर के ही निवासी थे | इतिहासकारों के इन विचारों पर हमारे बांड़ेरू एवं भाट भी सहमत हैं | जैसे खारड़िया सीरवियों में से एक गौत्र लचेटा (परिहार) के इतिहास से हमें यह जानकारी मिलती हैं कि विक्रमी संवत् ८ वीं शताब्दी के आस-पास हिन्दुजी परिहार जो लेसटाजी के पिताश्री थे, जाबालिपुर (जालोर) के पास लेटा गाँव बसाया और वहीं रहते थे | इसी तरह राव भाटों के अनुशार उपर्युक्त समय के आस-पास ही सीरवी समाज के पूर्वजों द्वारा 24 खेड़े बसाए गए थे | (जिनका विवरण आगे इसी पुस्तक में लिखा गया हैं |) खारी क्षेत्र में निवास करने के कारण ही उन्हें खारड़िया राजपूत कहा जाता था | इन्हीं खारड़िया राजपूतों का शासन जालोर पर था तथा चौहान वंशीय राजा कान्हड़देव इन्हीं में से थे |
         “खारड़िया सीरवियों रौ इतिहास” पृष्ठ ४४/२९ के अनुशार खारड़िया राजपूतों के प्रधान जांजणदे गहलोत ने अपने साथियों के मन की बात राजा कान्हड़देव के सामने रखी | महाराज ! हम कृषि व्यवसाय (खेती) करना चाहते हैं | आप हमें उपर्युक्त कृषि भूमि उपलब्ध करावें | कान्हड़देव प्रसन्न होकर उसी वक्त सभा में बैठे जालोर के जमींदारो को आदेश जारी किया गया | खारड़िया राजपूतों का आज के दिन जिस क्षेत्र में निवास हैं, उस क्षेत्र के जमींदार इन खारड़िया राजपूतों को कृषि हेतु भूमि देवें | जिसमें भूमि, पानी, खाद जमींदारों का होगा | जुताई, बीज, बुवाई, निदान, धान कड़ाई और हाथ मेहनत कास्तकारों का होगा | रबि की फसल की उपज का आधा हिस्सा और खरीफ की फसल (सांवणु खेती) की उपज का नवां हिस्सा जमींदारों का होगा |
         खारड़िया राजपूतों को जमींदारों की तरफ से कोई कस्ट नहीं होना चाहिए | सभी जमींदारों ने राजा का आदेश प्रसन्न मन से स्वीकार कर लिया | कान्हड़देव ने सभा में कहा कि “हमारे जालोर में सीर री खेती करने वालो को सीरवी कहा जाता हैं |” कान्हड़देव ने खारड़िया राजपूतों से कहा “आज से आपको खारड़िया राजपूत से खारड़िया सीरवी पुकारा जाएगा |” आप मेहनती हो, सीरवी पद की शोभा बढाओंगे और आपकी मेहनत की उपज से राज्य की आर्थिक स्थति और मजबूत होगी | कान्हड़देव का एक और आदेश था कि गणमान्य खारड़िया राजपूतों में से यदि कोई खेती करने में बल पूर्वक शारीरिक प्रयोग नहीं कर सके, उसे आपके कृषि भूमि का प्रबंधक बनाना होगा | कान्हड़देव ने सीरवी शब्द से संदर्भ में अर्थ बताते हुए कहा कि –

भूस्वामी री ओर सू, परबंधक जो होय | देखो शब्द सीरवाह, शब्द कोश में जोय ||

         सीरवाह को बोल चाल की भाषा में सीरवी कहा जाता हैं | कान्हड़देव ने आगे कहा, आपकी मांग स्वीकार कर ली गई हैं | जोगमाया आपरौ भलौ करैला | खारड़िया सीरवियों ने कान्हड़देव की जयकार लगाई | सावंतसिंह ने राजा साहब से खमा घणी करते हुए अनुरोध किया कि महाराज ! मैं लम्बे समय से खारी खाबड़ में इन राजपूतों के साथ रहा हूँ | हम सभी राजपूत भाई हैं | मैं भी इन राजपूत भाइयों के साथ रहकर इनकी तरह कृषि व्यवसाय करना चाहता हूँ | मुझे भी सीरवी पद दिलवाने की कृपा करावें | जवाई जी की यह बात सुनकर राजा प्रसन्न होकर सावंतसिंह को भी “सीरवी खारड़िया” इन पद से नवाजा गया |
         कान्हड़देव के मुखारविन्द से – आज विक्रमी संवत् १३६५ की वैशाख शुक्ला द्वितीया हैं | आज का यह शुभ दिन आपके लिए “सीरवी जयंती” दिवस हैं | आप और यह साडी सभा विधि विधान से इन दिन को मनाओंगे | प्रधान को आदेश देकर एक सझा हुआ हळ मंगवाया गया | जाजणदे गहलोत और सावंतसिंह पंवार (परमार)खारड़िया सीरवियों की उपस्तिथि में जोगमाया, हनुमान, आशापुरी देवी एवं समस्त देवी-देवताओं का स्मरण करते हुए अन्नपूर्णा देवी की भी पूजा की गई | देश की जनता के लिए सुख शांति व खारड़िया सीरवियों की एकता बनी रहे यह कामना करते हुए विधि विधान से हळ की पूजा की गई | हळ के हत्था पर मुखिया जाजणदे गहलोत का हाथ रखवा कर “सीरवी जयंती” उत्सव का श्री गणेश हुआ |
         “क्षत्रिय राजवंश” पृष्ठ १९४ से चौहान राजवंश के बाबत ज्ञात होता हैं कि सामंतसिंह ने अलाउद्दीन खिलजी की बढती हुई शक्ति को देखकर अपने पुत्र कान्हड़देव को जालोर का राज्य दे दिया और जालोर राजवंश क्रम में कान्हड़देव का विक्रमी सम्वत १३५०-१३६८ तक समय रहा था | विक्रमी सम्वत १३५५ में कान्हड़देव के आक्रमण का सामना मुस्लिम सेना नहीं कर पाई और मुस्लिम सेना को हार कर भागना पड़ा | बाद विक्रमी संवत १३६२ में बादशाह ने एन उल मुल्क सुल्तान के नेतृत्व में एक सेना जालोर भेजी | परन्तु मुस्लिम सेना नायक ने आदरपूर्वक संधि का आश्वासन दिलाकर राजा कान्हड़देव को दिल्ली भेज दिया |
         “जालोर गढ़ में जौहर” में हरिशंकर जी लिखते हैं कि दिल्ली सुल्तान के सेनानायक मुल्तानी केवल अच्छा सेनापति ही नहीं था, बल्कि वह बहुत अच्छा तार्किक व विद्वान व्यक्ति था | जालोर के कुल शिरोमणि  पूर्व महाराज सामन्तसिंह से उसकी पुरानी पहचान व दोस्ती थी | एक रोज जुम्मे के दिन (ग्यारस का दिन भी था) दोनों ओर की फौजे आपसी सहमती से अपने-अपने धार्मिक उत्सव और कार्य में व्यस्त थीं, और लड़ाई में भी ढील दी हुई थी | तब पुरानी दोस्ती की बात कहकर सिपहसालार मुल्तानी ने पूर्व महाराज से मुलाकात की, इच्छा जाहिर की तो महाराज सामंसिंह की स्वीकृति पर दोनों “बड़ों” की मुलाकात की व्यवस्था जालोर राज्य की सीमा में कर दी गई | दोनों ही मिलकर बहुत प्रसन्न हुए | पुरानी यादें और वर्तमान परिस्थतियों में शांति बनाए रखने की इच्छा दोनों ओर से व्यक्त की गई | पूर्व महाराज सामंतसिंह तो शांति चाहते थे | फिर उनका पुराना साथी, जो एक होशियार व बुद्धिमान सिपहसालार बनकर आया था | उसकी ओर से पूरा विश्वास दिलाया जा रहा था कि जालोर की गरिमा तथा सीमा को किसी भी प्रकार नीचा दिखने की बात नहीं थी | तब रावल कान्हड़देव को पिता की सलाह मानने पर विवश होना पड़ा | आपसी बातचीत व समझौते के लिए दूतों के द्वारा सिपहसालार मुल्तानी और जालोर के अधिपति रावल कान्हड़देव की वार्ता का आयोजन कराया गया | जिसमें रावल कान्हड़देव को दिल्ली सुल्तान के दरबार में उचित सम्मान दिए जाने का वचन दिया गया | दोनों पक्षों की ओर से कोई हर्जाना या नजराना, कोई लेन-देन न करने की बात मान ली गई और भविष्य में शांति बनाए रखने की लिए जालोर-दिल्ली संधि सम्मानजनक रूप से स्वीकार कर ली गई |
         “सीरवी समाज का उदभव एवं विकास” के अनुशार हिन्दू शास्त्रों में लिखा हैं कि विपत्ति में क्षत्रिय भी वैश्य वर्ण के कर्म को अपना सकता हैं | अत: इन्होने कृषि को ही अपना मुख्य व्यवसाय बनाया था | इस कारण राजा कान्हड़देव ने इन खारड़िया राजपूतों को खेती व्यवसाय हेतु अपने राज्य में बसने की अनुमति प्रदान की एवं उनसे पैदावार का ९ वां हिस्सा राजकोष में देने का ताम्र-पत्र स्थाई लिखित आदेश जारी किया | यह 24 गौत्र के राजपूत गुजरात प्रान्त के खारी खाबड़ क्षेत्र से आये थे | अत: खारड़िया सीरवी कहलायें |

निष्कर्षत –

         उपर्युक्त लिखे अनुशार विक्रमी संवत् १३५५ के युद्ध में अलाउद्दीन खिलजी की सेना हारना और विक्रमी संवत् १३६२ में अलाउद्दीन खिलजी का राजा कान्हड़देव के साथ संधि करना यह दर्शाता हैं की राजतंत्रीय विद्या के समय में कान्हड़देव ने अलाउद्दीन खिलजी द्वारा की गई संधि के विश्वास से सैन्य बल पर कम और अपनी आर्थिक स्थिति पर ज्यादा ध्यान दिया, इसी दरम्यान खारड़िया राजपूतों के साथ कृषि व्यवसाय हेतू विक्रमी संवत् १३६५ में ताम्र-पत्र (लिखित आदेश) जारी किया जाना प्रतीत होता हैं और खेती एक दुसरे के सहयोग व सीर में ही होती हैं | अत: सीरवियों के साथ एवं अपने बंधुओ के साथ आपसी सीर में खेती करने से खारड़िया राजपूत भी खारड़िया सीरवी कहलाने लगे और हमारे पूर्वजों ने भी अपनी कौम का नाम “सीरवी खारड़िया”स्वीकार कर लिया था |
         समाज के राव-भाट बन्सिलालजी, राणारामजी भैरावत एवं गाँव लेटा मीणों के राव दौलतराम जी के अनुसार जालोर (जाबालिपुर) नरेश कान्हड़देव के समय से पहले समाज पूर्वजों (खारड़िया राजपूतों) ने (जो विक्रमी संवत् १३६५ में कौम सीरवी (क्षत्रिय) समाज खारड़िया के नाम मुकर्रर हुई) जालोर, आहोर, सिरोही के आस-पास पहाड़ी इलाकों में व कुछ आज पाली जिले में हैं, २४ खेड़े बसाये, जो निम्न हैं –

राठौड़ (बिठू द्वितीय) परिहार (नाचोली) पंवार (मानपुरा) चौहान (बिठुडा) सोलंकी (उकरला) गहलोत (कुरजिया) लचेटा (लेटा) सेपटा (हिंगोला) काग (कुक्षी/कागवा) भायल (खेजडिया) परिहारिया (जोगणी) देवड़ा (आका थुम्बा) आगलेचा (आकों रा पादरला) भुम्भाडीया (बगोड़ा) चोयल (पादरला) हाम्बाड (जैतपुरा) सैणचा (केरला प्रथम) सोनगरा (सामतिपुरा) सिन्दड़ा (सोदरा) खंडाला (माण्डवाला) बर्फा (गोखडू) मोगरेचा (केरला द्वितीय) सियाल (बडली) मुलेवा (मुलेवा) | जालोर साका –

         “क्षत्रिय राजवंश” पृष्ठ १९५ कान्हड़देव का पुत्र विरमदेव दिल्ली दरबार में रहता था | वहां रहते एक शहजादी फिरोज का विरमदेव से प्रेम हो गया | परन्तु विधर्मी होने के कारण विवाह के लिए तैयार नहीं हुआ और जालोर लौट आया | अलाउद्दीन की दक्षिण विजय के प्रयास में जालोर बाधक हो सकता हैं आदि कारणों से प्रेरित होकर उसने जालोर पर आक्रमण की योजना बनायीं | मार्ग में सिवाना पड़ता था | सिवाना का सुदृढ़ दुर्ग उस समय सतालदे चौहान के अधिकार में था | सतालदे भी बहुत वीर था | यह सिवाना की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए बराबर लगा हुआ था | वह बिना युद्ध किये खिलजी की सेना को इधर से जाने नहीं देना चाहता था |
         सतालदे ने मुस्लिम सेना का मुकाबला किया तथा मुस्लिम सेना के बहुत से प्रयत्नों को उसने विफल कर दिया | मुस्लिम सेना वहां कई महीनों पड़ी रही, परन्तु उसे विजय नही मिली | सीढियों से दुर्ग में घुसने के प्रयत्न हुए, परन्तु राजपूतों के प्रक्षेप यंत्रों ने सबको विफल कर दिया | फिर पश्विकों की सहायता से ऊँचे बुर्जो तक चढने की कोसिस की और एक राजद्रोही भावले की सहायता से गौ-रक्त डलवाकर किले के कुंडों को अपवित्र कर दिया | खाद्य सामग्री भी खत्म ह्पो गई, तब वीर बालाओं ने जौहर व्रत किया और राजपूतों ने किले के बाहर आकर हँसते-हँसते अपने प्राणोत्सर्ग किए | तब कहीं मुस्लिम सेना का किले पर अधिकार हुआ |
         सुल्तान अलाउद्दीन दिल्ली लौट गया, परन्तु उसकी फ़ौज कमालुद्दीन के नेतृत्व में जालोर की और बढ़ी | इधर कान्हड़देव ने तैयारी की | उसने मालदेव को बड़ी और विरमदेव को भाद्रजुन भेजा | मुस्लिम फ़ौज ने जालोर के किले को घेर लिया | काफी दिन गुजरने पर भी किले को जितने की आशा नही रही, तब एक दहिया राजपूत बिका को राज्य का लालच देकर अपनी ओर मिला लिया | उसने किसी तरह शत्रु को किले में घुसने का मार्ग बता दिया | बिका की पत्नी को पति द्वारा किये गए कुकृत्य का पता चला, तो उसने अपने पति को रात्रि में ही मार दिया और इसका पता कान्हड़देव को दिया |
         परन्तु शत्रु किले में घुस चूका था | दुर्ग की रक्षा हेतु कंधाई, जैता देवड़ा, लुणकर्ण, अर्जुन आदि ने शत्रुओं से लड़कर वीर गति पाई | कान्हड़देव भी सच्चे राजपूत की तरह लड़ता हुआ वीर गति को प्राप्त हुआ | कान्हड़देव का पुत्र विरमदेव बची हुई शक्ति से ही शत्रु से लड़ता रहा, परन्तु शत्रुओं से घिर जाने के कारण अधिक समय तक युद्ध का संचालन नही कर सका और स्वयं ने पेट में कटारी मार कर इहलीला समाप्त की | वीरांगनाओं ने जौहर व्रत किया | विरमदेव का सिर दिल्ली ले जाया गया और शहजादी को दिया गया | वह उसके साथ सती होने को तैयार हुई और अंत में दाह संस्कार कर शहजादी ने स्वयं ने यमुना में कूदकर आत्म हत्या कर ली | इस प्रकार अलाउद्दीन खिलजी का विक्रमी सम्वत १३६८ में जालोर पर आधिपत्य हो गया |

राव बंशीलालजी का दोहा –

शाहजादी हट जेलियो, जळी सोनींगरा संग | मरियो पण नीवियों नहीं, रंग सोनींगरा रंग ||

         जालोर के किले पर जब अलाउद्दीन खिलजी का अधिकार हो गया | अधिकारीयों ने हिन्दू प्रजा और किसानों से उपज के नौवे भाग की बजाय जजिया (श्रावणु खेती) फसल का आधा हिस्सा वसूलना शुरू कर किया | जनता से अधिक लेवी वसूलना, आदेशों से काम लेना, मजदूरों को बिना अनाज दिए काम लेना, अत्याचार बढ़ने का एक यह भी कारण माना गया कि शहजादी फिरोजा विरमदेव से प्रेम करती थी | परन्तु शहजादी का विधर्मी होने के कारण विरमदेव विवाह के लिए तैयार नहीं हुए |
         बादशाह को अपनी लड़की शहजादी फिरोजा का अपने प्रेमी के पीछे आत्म हत्या का दु:ख सता रहा था | बादशाह को यह मालूम पड गया कि राजपूतों ने हंसते हंसते मौत को गले लगा लिया, मगर झुकें नही | यह राजपूत वीर हैं | अपनी आन, बान, शान और अपने स्वाभिमान के लिए कुछ भी कर सकते हैं | आने वाले कल में मेरा राज, फिर से मेरे हाथों से छीन सकते हैं | बादशाह ने राजपूत वंश को ही खत्म करने के अंदाज में राजपूतों की औरतों के पेट परनालना, वीर क्षत्रियों को पकड पकड कर कलमा पढवानी, हिन्दुओं को जबरन मुस्लिम बनाया जा रहा था | इस तरह के अत्याचारों की आंधी में राजपूत (क्षत्रिय) तितर-बितर हो गए |

खारड़िया सीरवियों के सारणेश्वेर महादेव –

         खारड़िया राजपूतों  में से चौदह सिरोही के पहाड़ों व जंगलों में और कुछ आबू के पहाड़ों में, जिसको जहाँ उचित स्थान मिला वहां चले गये | भाट द्वारा समाज की बही में खारड़िया राजपूतों के ठहरने का मुख्य व सुरक्षित स्थान सारणेश्वेर महादेव मंदिर ही माना गया |
         चौदह सरदारों – परिहार, पंवार (परमार), सोलंकी, चौहान, सेपटा, लचेटा, काग, भायल, परिहरिया, गहलोत, देवड़ा, राठौड़, आगलेचा, भुम्भदडा, यह खारड़िया राजपूतों में से हैं | इन्होने मुस्लिम सेना से बचने के लिए सारणेश्वेर महादेव की शरण ली थी |
         श्रीमान् सिरोही दरबार साहब केशर विलास श्री रघुवीर सिंहजी देवड़ा के मुखारविंद से प्राप्त हुई जानकारी में सन १२९८ विक्रमी संवत १३५५ दीपावली के दिन सारणेश्वेर (आपने शुद्ध नाम बताया श्राणेश्वेर ) महादेव मंदिर का प्रतिष्ठान हुआ था और पुराने समय में वहां कुछ राजपूतों का पुजारी के रूप में छुपे रहना व महादेवजी की पूजा करना बताए जाने की सहमती जताई और आपने रैबारियों का जिक्र करते हुए कहा कि मुस्लिम सैनिकों पर राईकों ने भी गोपणियों में पत्थर डालकर उनपर फैकते हुए और राजा विजय हुए | उस दिन से सारणेश्वेर महादेव के मंदिर पर देव झुलनी एकादशी का महामेला आयोजन करने का रेबारियों (राईका) का एक दिन के लिए पूर्ण स्वं अधिकार होता हैं |
         “खारड़िया सीरवियों रौ इतिहास” में भी लिखा हैं कि विक्रमी संवत् १३५५ में खारड़िया राजपूतों ने कोयलपुर छोडकर जालोर प्रस्थान किया | उपर्युक्त विचारों से यह ज्ञात होता हैं कि सारणेश्वेर महादेव मंदिर से खारड़िया सीरवियों का विशेष संबंध हैं | भाट की बही के अनुसार हमारे समाज के बांड़ेरुओं का सारणेश्वेर में शिवलिंग स्थापना से जुड़े होना मालूम पड़ता हैं | सारणेश्वेर  महादेव के मंदिर में धीरे-धीरे खारड़िया राजपूतों की संख्या बढ़ती गई | समाज का महादेव के की भक्ति में लीन और अटूट विश्वास देख एक दिन महादेव तुष्टमान हुए |
         उपरोक्त चौदह सरदारों (खारड़िया राजपूतों) ने महादेव से अपनी रक्षा की पुकार की | देवों के देव महादेव ! “आप असुरों विधर्मियों से हमारी रक्षा करें | हम सब आपकी ही संन्तान हैं और सनातन धर्मी हैं | हम अपना धर्म छोड़ना नहीं चाहते | बादशाह हम लोगो को जबरन मुस्लिम बनाना चाहता हैं | हम मुस्लिम नही बनना चाहते | इसलिए हम सब आपकी शरण में आए हैं, हमारी रक्षा करों प्रभु !” राव-भाटों की बही के अनुसार समाज पर महादेव मेहरबान, तुष्ट मान हुए | खारड़िया सीरवियों के हुलिये में बदलाव, तुतलाती बोली और समाज का वर्ण पलटना यह सब महादेव की कृपा दृष्टी से हुआ हैं |
         राव-भाटों की बही के मुताबिक विक्रमी संवत् १३६२-१३६८ के आस-पास समाज ने शस्त्र धारण करने का मोह त्याग दिया | अपने परिवार को ले आए | सर्व प्रथम सारणेश्वेर जो आज सिरोही से तिन किलोमीटर दुरी पर हैं, वह गांव बसाया | वहीं से अपना कृषि व्यवसाय प्रारंभ किया | बादशाह को मालूम पड़ने पर पूछताछ करने पर यह कहा गया कि हम सब शिवरी पूजा और खेती करते हैं | राव-भाटों का यह भी कहना हैं कि समाज की सीरवी पहचान शिवरी पूजा करने के पीछे शिवरी से आगें चलकर सीरवी हो गया |

किवदंतियों, जनश्रुतियों एवं कवि बगसू के अनुसार –

         सीरवी सिरोही के मुख्य सूत्रधार रहे हैं, सल्तनत काल में मुसलमान शासकों द्वारा बार-बार हिन्दू-मंदिरों की तोड़-फोड़ करने का सिलसिला जारी रहा | तब “सीरवियों” ने सारणेश्वेर महादेव में स्थित काली “शिव-लिंग” व भगवान की रक्षा करने के लिए “राजपूत सेना” का सहयोग कर मुस्लिम सेना से ही बार-बार लोहा लिया | इसमें सीरवी समाज के जांबाजों ने अपने प्राण न्योछावर किये | “किवदंती” में बताते हैं कि सिरोही का प्राचीन नाम “देवनगरी” था | सिरोही के ऐतिहासिक ग्रन्थ आज भी गवाह हैं कि सिरोही “देवनगरी” कहलाता था | सीरवियों ने सिरोही को बचाया तथा नाम ‘सिरोही’ रखा गया | उसके रखने का अभीप्राय: “सिर के बदले शिव भगवान” की रक्षा की | अत: सिरोही नाम पड़ा | जिसका पर्यायवाची शब्द – सिरोही, तलवार, सीरवी, देवनगरी आदि हैं |
         सिरोही के पास सारणेश्वेर में खेती करते सीरवियों पर जब बादशाह के सैनिकों को राजपूत होने का संदेह हुआ | बादशाह के हुक्म से सेना ने किसानों पर आक्रमण किया | इतिहास की पुस्तकों में हमे पढने को मिलता हैं कि मुस्लिम शासक कुछ ऐसे ही विचार रखते थे | उन बातों को हजम नहीं किया जा सकता | अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाने वालों को युद्ध करो या मुसलमान बनो, का आदेश मिलता था | समाज ने इन दोनों विचारों को अमान्य करते हुए सारणेश्वेर से अपनी गाड़ियों की पोंटिया पूटली और वहां से रवाना होकर लूनी नदी के आस-पास आ बसे |
         समाज के कुछ बन्धुओं ने नदी के पास आते ही विश्राम करने के लिए अपनी गाड़ियाँ रोक कर भोजन बनाने की तैयारिया करने लगे और बहुत से भाइयों का विचार था कि नदी को पार करके ही भोजन पाएंगे | नदी के दक्षिण की ओर पहले से ही जणवा सीरवी ठहरे हुए थे और सीरवी खारड़िया ने नदी को पार करके उत्तर किनारे पर अपना पड़ाव किया | भाटों के अनुसार साढ़े सात बीसी (१५०) गाड़ियों के काफिले के साथ कुछ ऊंट, घोड़े-घोड़िया अन्य साधन बताए जाते हैं | बड़ी सख्या में लोगो (समाज) का एक जगह, एक गाँव में रहना कठिन था | इसलिए लूनी नदी के उत्तर की तरफ व आस-पास जिसकों जहां सुविधा मिली, वह वहां से अलग-अलग स्थानों की ओर पलायन हो गए | ‘सीरवियों रौ इतिहास’ के अनुसार कुछ बन्धुओं का जालोर से अन्य राज्यों में वसीवान होने का मारवाड़ के शासनकर्ता रिडमल जी का समय रहा था |
         सीरवी लचेटा गौत्र के राव बन्सिलालजी (केकिंदडा) की बही के अनुसार विक्रमी संवत् १३८१ में समाज ने सारणेश्वेर से प्रस्थान किया | जिसमे खारड़िया सीरवियों में से कुछ भाई नाडोल पहुंचे और कुछ गुन्दोज व बिलाड़ा, सोजत आदि (समस्त गांवों के नाम नहीं लिख पाने का मुझे खेद हैं) गांवों में व आसपास वसीवान हुए |
         खारड़िया सीरवियों द्वारा गुन्दोज में आकर पहला सम्मेलन और विवाह उत्सव आयोजित किया गया | सम्मेलन में समाज संचालन हेतु सर्वमान्य नियमों की व्यवस्था और गौत्रों की समीक्षा की गई | जिसमे गौत्र, उपगौत्र एवं नक सहित ३६ गौत्र का वर्णन मिलता हैं |
         विक्रमी संवत् वैशाख सुदी तीज के दिन समाज की ३६ गौत्र का महत्वपूर्ण आयोजन रखा गया था | जिसमे सामूहिक विवाह के रूप में समाज की कन्याओं का पानिग्रहन संस्कार करवाया गया | उसी दिन विवाह उत्सव में सम्मिलित होकर कुरोजी पंवार ने अपने पिता सावंतजी के पीछे मौसर (यज्ञ) किया था | कुरोजी को महादेव का इस्ट था, समाज ने कुरोजी के नेतृत्व में राव चुन्दोजी के राज में महादेव के नाम से यज्ञ सम्पूर्ण किया गया | जिसमे जाति न्यौता जाट, जणवा, कलबी, पीटल, खेतिघर कुम्हार, सरावा समस्त कौमो को निमत्रण दिया गया |
         सीरवी खारड़िया दीपाजी लचेटा के पुत्र नगोजी व मगाजी सारणेश्वेर से नाडोल, फिर नाडोल से विक्रमी संवत् में गुन्दोज और गुन्दोज से नगोजी के पुत्र मोटाजी ने सीरवी समाज के छ: गौत्रों के बधुओं के साथ मिलकर विक्रमी संवत् १५०७ में ठाकुर साहब गोविन्द सिंहजी राव साहब सातलजी राठौड़ के समय में गाँव सोजत आकर बेरा (ढीमडा) पावटा खुदवाया | विक्रमी संवत् १५३७ में राव (राजा) सुजाजी के समय में सीरवी मोटाजी लचेटा के पुत्र सोनजी और सोनजी के पुत्र केराजी ने बिसलपुर (जो पालासनी के पास हैं) में वास किया | बिसलपुर गाँव पर मीणों का हमला एवं गायों की वार में केराजी लचेटा जुंझार (वीरगति प्राप्त) हुए | वर्तमान गाँव पालासनी में चिडियानाथ जी का आश्रम (धुणा) हैं और जुंझार केराजी की स्मृति में जो चबूतरा बनाया गया था | वह वर्तमान में बिसलपुर गाँव के दक्षिण दिशा में स्तिथ हैं |
         सोजत में पावटा बेरा पर खारड़िया सीरवी समाज द्वारा हनुमानजी की मूर्ति स्थापित की गई | जो आज भी सोजत सिटी बस स्टेंड के पास स्थित हैं | जहां आज भी नक सहित ४९ गौत्रो के खारड़िया सीरवियों द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी सोजत आकर हनुमानजी की पूजा, अर्चना की जाती हैं |
         कुछ जानकारों के अनुसार हमारे समाज द्वारा कलबी और जणवा के साथ सीर में खेती करना, जो उपरोक्त कौमे विक्रमी संवत् ८०८ से सीरवी नाम से विख्यात थी और वह खेती करते थे | एक लेखक ने सीरवी खारड़िया का जणवा के साथ सगाई-सम्बंध करना लिखा, सो वह उचित नही हैं, क्यूंकि जणवा के पूर्वजों के कार्य, व्यवहार एवं संस्कार के साथ उनकी उत्त्पति के इतिहास को देखने पर, जो उन्होंने अपने पुराने काम को छोडकर आठवी शताब्दी के आस-पास खेती व्यवसाय चालू किया था |

जणवा –

         जणवा की पैदायश के बारे में रिपोर्ट-मरदुमशुमारी राजमारवाड़ १८९१ ई., तृतीय संस्करण पृष्ठ स. ९९ पर रायबहादुर मुंशी हरदयालसिंह लिखते हैं कि ये लोग अपनी पैदायश गोरमऋषि के चेले विजयपाल से लगाते हैं, जो आबू के पहाड़ों पर तपस्या करते थे | उनके दो चेले विजयपाल और विजयऋषि थे, दोनों गुरु की आज्ञा लेकर तीर्थ को गये, वापस आते हुए पाली में ठहरे, वहां एक सोमजी नाम पारिक ब्राहमण उनको दूध पिलाया करता था, उसकी दो बेटिया फुलवंती और जसोधा थी | एक दिन सोमजी तो कहीं गया था और उसकी बेटियों ने दूध में चावल डाल दिए, वे अनाज नही खाते थे, इससे वे इन लड़कियों पर बहुत खफा हुए और श्राप देने लगे कि इतने में सोमजी आ गया , उसने उन लड़कियों को उन्हीं के नजर कर दी | विजयऋषि ने तो कबूल नहीं की और विजयपाल ने जसोधा से शादी कर ली | चेले की शादी से खफा गुरु ने उसको अपने पास आश्रम में रहने की इजाजत नहीं देने पर विजयपाल आबू पर एक झोपड़ी बांधकर रहा, जसोधा के गर्भ रहा, जब जनने का वक्त आया तो प्रसव न होने पर विजयपाल लाचार होकर अपने गुरु के पास गया तब गुरु ने कहा, जावो जणों, गुरु के कहने से लड़का हुआ और नाम जणोंजी रखा गया | जणों नाम का बालक बड़ा होकर भीलो में मिलकर लूटमार करने लगा, इस तरह कुछ जोर पकड़कर उसने अबू के निचे जणपुर नाम का एक शहर बसाया | वहां उसके गोवा, गिरधर, ऊका, अगरा, आसा, लोला, लिखमी दास, आलमसी, कालू, भाण, भद्दर, आलण नाम के बारह बेटे हुए और इनके अन्य साथी भी बारह ही थी, जिनकी जात पांत का ज्ञात नहीं हुआ, धाडा मारा करते थे | एक दिन पाली से पल्लिवालो की ४४ कंवारी लड़कियों को पकड लाए, पल्लिवाल जब तक पहुंचे, ये उनके साथ शादी क्र चुके थे | पल्लिवालों ने इस सम्भव से लाचार होकर जणोजी से कहा कि खैर जो हुआ, सो हुआ, अब हमारी भी दो बातें आपको भी माननी पड़ेगी कि इन लड़कियों से जो औलाद हो, उसका सगपन दूध पीकर किया जावे और उसको मांस न खाने देवें | जणोजी ने कबुल किया और यह दोनों बातें अब तक इस कौम में जारी हैं | उन चौबीसों ही की औलाद का नाम अपने मुखिया जणोंजी के नाम पर जणवा हुआ और कई कौमो का मेल होने एवं समय के बदलते लूटमार छोडकर विक्रमी सम्वत की आठवी शताब्दी के आस-पास खेती का पेशा करने से यह जणवा सीरवी कहलाने लगे | इनकी चौबीस खांपे जो निम्न हैं :-

लोया तलोटिया मोटार जोजल आयड अराडिल रावलया कलाटीया सायर गाबू आवारन आकोदिया सरल नवटया बिंजवा अलयार जवळ खर भोवर बूंट हिरण नोया मोर और एक का नाम मालूम नहीं हुआ | पिटल और कलबी –

         रिपोर्ट-मरदुमशुमारी राजमारवाड़ १८९१ ई., तृतीय संस्करण पृष्ठ स. १०७ पर रायबहादुर मुंशी हरदयालसिंह के अनुसार यह दोनों कौम एक ही हैं, कलबी नाम पुराना हैं और पीछे कुछ लोगो के पाटन में रहने से पिटल हुआ हैं | यह लोग खेती के सिवाय और कोई धंधा नहीं करते और खेती भी अच्छी करते हैं | इनका पुराना नाम कलबी की उत्त्पति फारसी लब्ज कलबे से, जिसके मायने हल से माना जावे तो कुछ अनुचित नहीं हैं क्यूंकि हिन्दुस्थान की अक्सर कौमो के वास्ते फारसी नाम पेशे के लिहाज से मुसलमानों के ज़माने में मुकरर्र हो गए थे | इस जाति की उत्त्पति का कलबियों का इतिहास और इनके भाटों की कथाओं के अनुसार यह बात जाहिर होती हैं की यह कौम कलबी राजपूतों और ब्राहमणों के मेल से पैदा हुई हैं और इसके पैदा होने का जमाना भी बहुत पुराना नही मालूम होता, एक हजार वर्ष के आस-पास जब कि बहुत से राजपूतों ने मुसलमानों के दबाव से हथियार बांधना छोडकर अपनी अलग एक कौम मुकर्रर अथवा अपने को दूसरी कौमो में शामिल कर दिया था | उन में से कुछ राजपूत भागकर गुजरात की तरफ गये हों और किसी सबब से ब्राहमण कौम की औरते उनको मिल गई हो जैसे कि बाजे बाजे कलबी कि जिन को यह कथा मालूम नहीं हैं वे सिर्फ इतना ही कहते कि हमारे बड़ेरे राजपूत थे और उन्होंने नागर ब्राह्मणों की औरतों से शादी की थी | कलबियों की औरतों जो आज तक भी अक्सर अपने खावन्दों के साथ खाने पीने से परहेज रखती हैं | वे मांस दारू नहीं खाती पीती और अपने बर्तन भी अलग से रखती हैं | यह शायद उसी अव्वल दिन के उन ब्राहमण औरतों के छुत छात का विचारांश हैं जो कलबियों की औरतों में विर से (दायां भाग) के माफिक चला आ रहा हैं |
         कलबी कौम की शुरुवात लेखक की समझ में विक्रमी संवत् की बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी के बीच में हुई हैं, क्यूंकि उनके भाट कहते हैं कि वे भीनमाल से उठकर गुजरात के पट्टन में गये और वहां से सांचोर आये और सांचोर से आठ पीढ़ी पीछे मारवाड़ के दुसरे परगनों में फैले पचभद्रे में विक्रमी संवत् १५८१ में और सिवाने में १७५५ में इनके आने का समय हैं | खाप अथवा मूल शाखा व गौत्र -परमार, चौहान, सोलंकी, गोयल वगैरह हैं जिनको ये लोग नख कहते हैं और खांपे एक एक नख की कई दो हो गई हैं जैसे परमार नख की खाप बोका, तुर्क, सिलाणा, मालवी, कुकल, पाण, काग, टाटिया, आकोदिया, हरनी और चौहान की धूनी, ओड़, कुरड, भांड और वग वगैरा हैं, सोलंकी और गोयल की कोई खाप नहीं हैं और इन खांपो के नख मालूम नहीं हुए फक, काठोतरया, काला, मूजी, बागड़ा, कोया, बिच्छु |

कलबियों का इतिहास (आंजणा) के अनुसार इनके खाप अथवा मूल शाखा व नख सहित लगभग २३२ गौत्र हैं | खाप अथवा मूल शाखा व कुछ गौत्रो का विवरण लिखा गया हैं |

चावड़ा – अजगल, अंट, आमट, बला, सायर, सुंडल, संकट

गोयल – अपलोणा, किशोर, कोंदली, नडिकाट, पिलास, बगला, भुंगर

परिहार – अलवोणा, गागोड़ा, ढा, तीतारिया, पावा, बहेरा, मुडक, लोहाय, हडमता, हाडिया

सिसोदिया – आइडी, उवड़ा, उजाला, कुरुंद, गोदा, टंढार, डेकलिया, हुण

राठौड़ – आवडा, डांगी, डोंवलिया, बूंबी, भूरिया

चौहान – आकोदिया, ओड़, उदरा, करड, कठोतरिया, कोंयला, खींची, गाडरिया, गुडाल वीसी,

सोंपिवाल, हरनी

झाला – उबड़ा, गुडल, घोई, जुडाल, पांचतरोड बूबकिया

सोलंकी – करवड, कहावा, भूतडिया, रातडा, लोगरड, सिंगाल, सुंडाल, सेडा, होला

कच्छवाह – कुहांत, कोंडला, धोलिया, हडुआ

यादव – कनेर, जडमल, तेतुर्वा, नव, भटिया, भीलोल, भुन्सीया, मुंजी, मेहर, वला

परमार – काला, काक, कुकल, कुवा, कुकान, कुंकणा, खरसण, खागडा, गया, टोंटिया, डोडिया,

तरख, तुरग्र, धुअनिया, पविया, पाकरिया, पोंण, फग, बग, बहिया, बांका, बोया,

भजवाड, भांड, मलवी, वागडा, सरावग, साठ, सिलोणा, सीह

तुंवर – कुम्पलिया, गोहित, टॉड, तुन्गडा, बडवाल, भैंसा, साकरिया

जेठवा – जगपाल, जीबला, जोंपलिया, नावी, वेलाकत

मकवाणा – पूलिया, भलोल, मरुवालय, मावल, मुजल

वगैरह और कुछ नख के नाम से जाने जाते हैं |

         उपर्युक्त लिखी गई समाज की किसी भी गौत्र के साथ सीरवी खारड़ियों का कोई किसी प्रकार का सामाजिक संबंध नहीं हैं | ऊपर लिखे मुजब सीर में खेती व्यवसाय किया होगा, जो लेखक ने दोनों जातियों को पारिवारिक संबंधो में जोड़ दिया होगा | राव-भाटों के अनुसार हमारे सीरवी समाज के गौत्रीय खारड़िया राजपूतों ने राव कान्हड़देव के शासन काल में सीर की खेती की, तब से सीरवी कहलाए | सीरवी खारड़िया हम अपने सगाई-संबंध पिता एवं माता की गौत्र टालकर अपनी ही समाज में नक सहित ४९ गौत्रो में ही करते हैं |
         समाज में घुंघट प्रथा का प्रचलन एवं विवाह प्रक्रिया रात्रि में सम्पन्न होने का मुख्य कारण मुसलमान शासक थे | पहले पुराने समय में सूर्य की उपस्थिती में विवाह संस्कार सम्पन्न होते थे | उसी परम्परा का निर्वहन करते हुए आज भी किसी जीव के देह त्यागने पर सूरज की साख में ही उक्त देह का अंतिम संस्कार किया जाता हैं |
         हमारे खारड़िया सीरवी समाज संस्कृति, संस्कार और समाज व्यवस्था में खारड़िया राजपूत संस्कारों में से कुछ रीति रिवाज और पुरानी धार्मिक प्रथाओं का चलन जो आज भी हमारे समाज में रीति-रिवाज के तौर पर अपनाया जाता हैं | शुभविवाह (पाणीग्रहण) के समय पर दुल्हन को पुरानी परंपरा अनुसार कोळझोलिया (हल्दी युक्त सफेद कपड़े का पर्दा) ओढ़ाया जाता हैं | जैसे आज भी राजपूत घराने की औरते घर से बाहर भ्रमण के लिए निकलने पर सफेद कपड़े का ओढ़ना ओढ़ा करती हैं और औरत को ससुराल में अपने पितृकुल को प्रधानता देना (पितृकुल के नाम से पुकारा जाना) | ब्राह्मणों का सम्मान करना और आज भी हमारा “एक समाज एक नियम”के अनुसार समाज व्यवस्था और अपने भले-बुरे जो भी फैसले हो, कोर्ट कचहरी में समय बर्बाद नहीं करते, क्यूंकि विवादित दोनों पक्षों को उनकी भूल का एहसास भी उनके अदौस-पडौस, समाज या गांव वाले ही करा सकते हैं | वह पुराने समय की पंच-पंचायत व्यवस्था के अनुसार आपस में ही एक दुसरे की समझाईस से अपने समाज स्तर पर करते हैं |

समाप्त |

पुस्तक : सीरवी (क्षत्रिय) समाज खारड़िया का इतिहास एवं बांडेरू वाणी लेखक एवं प्रकाशक : सीरवी जसाराम लचेटा (रामपुरा कलां), रामपुरम, चेन्नई, भारत (संपर्क : ९४४४७५९३०७) ऑनलाइन प्रकाशन : सीरवी दिनेश काग, बाली , राजस्थान , भारत (सम्पर्क : ९००१५६०२५६) अध्याय – १ : सीरवी (क्षत्रिय) समाज खारड़िया का इतिहास ref-http://seervisamaj.org/सीरवी-समाज-का-इतिहास