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वार्ता:मूर्तिपूजा

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Latest comment: 4 वर्ष पहले by Yusha shad khan

पवित्र कुरआन मे मूर्ति पूजा का विरोध मूर्ति पूजा के लए कुरआन में एक उदाहरण प्रस्तुत किया गया है जो (गौर) विचार करने योग्य है। ‘‘अल्लाह को छोड़कर तुम जिन वस्तुओं को पूजते हो वह सब मिलकर एक मक्खी भी पैदा नहीं कर सकतीं, और पैदा करना तो दूर की बात है यदि मक्खी उनके सामने से कोई चीज प्रसाद इत्यादि छीन ले तो वापस नहीं ले सकतीं। फिर कैसे कायर है पूज्य और कैसे कमजोर हैं पूजने वाले, और उन्होंने उस अल्लाह की कद्र नहीं कि जैसी करनी चाहिये थी जो ताक़तवर और जबरदस्त है।‘‘ क्या अच्छी मिसाल है, बनाने वाला तो स्वंय ईश्वर होता है अपने हाथों से बनायी गयी मूर्तियों के हम बनाने वाले यदि इन मूर्तियों में थोड़ी बहुत समझ होती तो वह हमारी पूजा करतीं।

एक बोदा विचार कुछ लोगों का मानना यह हैं कि हम उनकी पूजा इस लिए करते हैं कि उन्होंने ही हमें मालिक का मार्ग दिखाया और उनके वास्ते से हम मालिक की दया प्राप्त करते हैं। यह बिल्कुल ऐसी बात हुई कि कोई कुली से ट्रेन के बारे में मालूम करें जब कुली उसे ट्रेन के बारे में जानकारी दे दे तो वह ट्रेन की जगह कुली पर ही सवार हो जाये, कि इसने ही हमें ट्रेन के बारे में बताया है। इसी तरह अल्लाह की सही दिशा और मार्ग बताने वाले की पूजा करना बिल्कुल ऐसा है जैसे ट्रेन को छोड़कर कुली पर सवार हो जाना। कुछ भाई यह भी कहते हैं कि हम केवल ध्यान जमाने के लिए इन मूर्तियों को रखते हैं। यह भी खूब रही कि खूब गौर से कत्ते को देख रहे हैं और कह रहे हैं कि पिताजी का ध्यान जमाने के लिए कुत्ते को देख रहे हैं। कहाँ पिताजी कहाँ कुत्ता? कहाँ यह कमजो़र मूर्ति और कहा वह अत्यन्त बलवान, दयावान मालिक, इस से ध्यान बंधेगा या हटेगा। निष्कर्ष यह है कि किसी भी प्रकार से किसी को भी उसका साझी मानना सबसे बड़ा पाप है जिसको ईश्वर कभी माफ़ नहीं करेगा, और ऐसा आदमी सदा के लिए नरक का ईधन बनेगा।

सर्वश्रेष्ठ नेकी ईमान है इसी तरह सब से बड़ी भलाई, पुण्य और नेकी ‘‘ईमान‘‘ है जिसके बारे में संसार के तमाम धर्म वाले कहते हैं कि सब कुछ यहीं छोड़ जाना है। मरने के बाद आदमी के साथ केवल ईमान जायेगा। ईमानदारी या ईमान वाला उसको कहते हैं जो हक़ वाले को हक़ देने वाला हो। और हक़ मारने वाले को ज़ालिम कहते है। इस मनुष्य पर सब से बड़ा अधिकार उसके पैदा करने वाले का है। वह यह कि सब को पैदा करने वाला ज़िन्दगी देने वाला मालिक, रब, और पूजा के योग्य वह अकेला है तो फिर उसी की पूजा की जाये, उसी को मालिक लाभ-हानि इज्ज़त-जिल्लत देने वाला समझा जाये और यह दिया हुआ जीवन उसी की मर्जी और आज्ञा के पालन के साथ व्यतीत किया जाए, अर्थात उसी को माना जायें और उसी की मानी जायें इसी का नाम ईमान है। उस मालिक को अकेला माने बिना और उसके आज्ञा पालन के बिना इन्सान ईमानदार नहीं हो सकता। अपितु वह बेईमान कहलाएगा। मालिक का सबसे बड़ा हक़ (अधिकार) मारकर लोगों के सामने ईमानदारी दिखाना ऐसा ही है कि एक डाकू बहुत बड़ी डकैती से धनवान बन जायें और फिर दुकान पर लालाजी से कहे कि आपका एक पैसा हिसाब में ज्यादा चला गया है आप ले लीजिए इतना माल लूटने के बाद दो पैसे का हिसाब देना जैसी ईमानदारी है अपने मालिक को छोड़कर किसी और की पूजा अर्चना करना उस से भी बुरी ईमानदारी है। ईमानदारी केवल यह है कि इन्सान अपने मालिक को अकेला माने उस अकेले की पूजा करे और उसके द्वारा दिये गये जीवन की हर घड़ी को मालिक की मर्जी और उसकी आज्ञा पालन के साथ व्यतीत करे। उसके दिये हुए जीवन को उसकी आज्ञा के अनुसार बिताना ही धर्म कहलाता है और उसकी आज्ञा का उल्लंधन करना अधर्म।

सच्चा धर्म सच्चा धर्म शुरू से ही एक है और सब की शिक्षा है कि उस अकेले को माना जाये, और उसकी आज्ञा का पालन किया जाये पवित्र कुरआन ने कहा है ‘‘धर्म तो अल्लाह का केवल इस्लाम है और इस्लाम के अतिरिक्त जो भी धर्म लाया जायेगा वह मान्य नहीं है‘‘ (सुरः आले इमरान: 85) इन्सान की कमजोरी है कि उसकी आँख एक विशेष सीमा तक देख सकती है, उसके कान एक सीमा तक सूंघने, चखने और छूने की शक्ति भी सीमित है, इन पाँच इन्द्रियों से उसकी बुद्धि को मालूमात मिलती है। इसी प्रकार बुद्धि के कार्य की भी एक सीमा है। वह मालिक किस तरह का जीवन पसन्द करता है, उसकी पूजा किस प्रकार की जाये, मरने के बाद क्या होगा? स्वर्ग और नरक में ले जाने वाले कर्म क्या हैं? यह सब मनुष्य की बुद्धि और स्वंय इन्सान पता नहीं लगा सकता।

ईशदूत इन्सान की इस कमज़ोरी पर दया करके उसके मालिक ने उन महान पुरूषों पर जिनको उसने इस पदवी के योग्य समझा अपने, दूतों (फरिश्तों) के द्वारा अपने आदेश भेजे जिन्होंने मनुष्य को जीवन व्यतीत करने और अपनी उपासना के ढंग बताये और जीवन की वह हकीकतें बतायीं जो वह अपनी बुद्धि के आधार पर नहीं समझ सकता था। ऐसे महान पुरूषों के नबी, रसूल या पैग़म्बर (संदेष्टा) कहा जाता है। उसे अवतार भी कह सकते है यदि अवतार का मतलब यह हो जिस पर उतारा जाये। आजकल अवतार का मतलब यह समझा जाता है कि वह स्वंय ईश्वर है अथवा ईश्वर उसके रूप में उतरा। यह अन्धविश्वास है। यह बहुत बड़ा पाप है। इस अन्धविश्वास ने एक मालिक की पूजा से हटा कर मनुष्य को मूर्ति पूजा की दलदल मे फँसा दिया। यह महापुरूष जिन को अल्लाह ने लोगों को सच्चा मार्ग बताने के लिए चुना, और जिन को नबी, रसूल कहा गया। हर बस्ती और क्षेत्र और हर ज़माने में आते रहे हैं। उन सब ने एक ईश्वर को मानने, केवल उसी अकेले की पूजा करने और उसकी मर्ज़ी से जीवन व्यतीत करने का जो ढंग (शरीअत या धार्मिक कानून) वह लायें हैं उनका पालन करने को कहा। उनमें से एक रसूल ने भी एक ईश्वर के अलावा किसी को भी पूजा के लिए नहीं बुलाया अपितु उन्होंने सब से ज्यादा इसी पाप से रोका उनकी बातों पर लोगों ने यक़ीन किया और सच्चे रास्तों पर चलने लगे।

मूर्ति पूजा का आरम्भ ऐसे तमाम संदेष्टा (पैग़म्बर) और उनके अनुयायी मनुष्य थे, उनको मौत आनी थी (जिसको मृत्यू नहीं वह केवल खुदा है) नबी या रसूल के मरने के पश्चात उनके अनुयायियों को उनकी याद आयी और वे उन के दुःख में बहुत रोते थे। शैतान को अवसर मिल गया वह मनुष्य का दुश्मन है। और मनुष्य की परीक्षा के लिए उस मालिक ने उसको बहकाने और बुरी बातें उसके दिल में डालने की शक्ति ही है। कि देंखे कौन उस पैदा करने वाले मालिक को मानता है और कौन शैतान को मानता है। शैतान लोगों के पास आया और कहा कि तुम्हें अपने महागुरू (रसूल या नबी) से बड़ा प्रेम है। मरने के बाद वे तुम्हारी निगाहों से ओझल हो गये है। अतः मैं उनकी एक मूर्ति बना देता हूँ उसको देखकर तुम सन्तुष्टि पा सकते हो। शैतान ने मूर्ति बनाई। जब उसका जी करता वह उसे देखा करते थे। धीरे-धीरे जब इस मूर्ति का प्रेम उन के मन मे बस गया शैतान ने कहा कि यदि तुम इस मूर्ति के आगे अपना सिर झुकाओगे तो इस मूर्ति में भगवान को पाओगे। मनुष्य के दिल में मूर्ति की बड़ाई पहले ही भर चुकी थी। इसलिए उसने मूर्ति के आगे सिर झुकाना और उसे पूजना आरम्भ कर दिया और यह मनुष्य जिसके जिसके पूजने योग्य केवल एक ईश्वर तथा मूर्तियों को पूजने लगा और शिर्क में फँस गया। इस समस्त संसार का सरदार (मनुष्य) जब पत्थर या मिट्टी के आगे झुकाने लगा तो वह ज़लील हुआ और मालिक की निगाह से गिर कर सदा के लिए नरक का ईधन बन गया। उसके बाद अल्लाह ने फिर अपने रसूल भेजे जिन्होने लोगों को मूर्ति पूजा और अल्लाह के अलावा दूसरे की पूजा से रोका, कुछ लोग उनकी बात मानते रहे तथा कुछ लोगों ने उनकी अवमानना कीं। जो लोग मानते थे अल्लाह उनसे प्रसन्न होते, और जो लोग उनके उपदेशो की अवहेलना करते उनके लिए आसमान से विनाश के फैसले कर दिये जाते है।

रसूलों की शिक्षा एक के बाद एक नबी और रसूल आते रहे, उनके धर्म का आधार एक होता वह एक धर्म की ओर बुलाते कि एक ईश्वर को मानो, किसी को उसके व्यक्तित्व और गुणों मे ंसाझी न बनाओं, उसकी पूजा में किसी को साझी न करो, उसके सब रसूलों को सच्चा जानों, उसके फरिश्तों को जो उसकी पवित्रा मख़लूक हैं न खाते पीते है न सोते हैं, हर काम में मालिक की आज्ञा पालन करते हैं, सच्चा जानों, उसने अपने फरिश्तों के माध्यम से वाणी भेजी या ग्रन्थ उतारे है उन सब को सच्चा जानों, मरने के बाद दोबारा जीवन पाकर अपने अच्छे बुरे कार्यो का बदला पाना है इस पर यकी़न करो, और यह भी जानो कि जो भाग्य अच्छा या बुरा है वह मालिक की ओर से है और मैं इस समय जो शरीयत और जीवन बिताने के ढंग लेकर आया हूँ उनका पालन करो। जितने अल्लाह के नबी और रसूल आये सब सच्चे थे और उन पर जो धार्मिक ग्रन्थ उतरे वह सब सच्चे थे उन सब पर हमारा ईमान (श्रद्धा) है और हम उनमें अन्तर नही करते। सच्चाई का तराजू यह है कि जिन्होंने एक ईश्वर को मानने की ओर आमन्त्रित किया हो और उनकी पूजा की बात न हो। अतः जिन महापुरूषों के यहाँ मूर्तिपूजा या अनेकेश्वरवाद की शिक्षा हो वे या तो रसूल नहीं हैं अथवा उनकी शिक्षाओं मे फेरबदल हो गया है। मुहम्मद साहब के पूर्व के तमाम रसूलों की शिक्षाओं में फेरबदल कर दिया गया है और कही-कही ग्रन्थों को भी बदल दिया गया। --Yusha shad khan (वार्ता) 09:26, 21 अगस्त 2020 (UTC) यूशाउत्तर दें