वार्ता:नियोग

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लेखन संबंधी नीतियाँ

नियोग व्यवस्था को लोग गलत तरीके से समझते हैं सबसे पहले तो मैं कहना चाहूँगा कि वैदिक या हिन्दू धर्म में अपनी पत्नी के सिवाय दूसरी स्त्री से सम्बन्ध तो दूर मन से सोचना भी पाप है और ऐसा ही स्त्री के लिए है. अब यदि स्त्री का पति, या पुरुष की पत्नी कोई मर जाता है तो सबसे पहले तो उसको ब्रह्मचर्य के पालन की आज्ञा है किन्तु यदि वो व्यक्ति या स्त्री उस श्रेणी में नहीं आते हैं और संतान उत्पत्ति चाहते हैं तो समाज की सहमती से विवाह के समान नियोग व्यवस्था है. और इस व्यवस्था का उद्देश्य सिर्फ संतान उत्पत्ति करना ही होता है वैसे भी हमारे धर्म के अनुसार वैवाहिक जीवन में भी स्त्री-पुरुष का शारीरिक सम्बन्ध केवल संतान पैदा करने के लिए ही होना चाहिए और इतना न कर सकें तो कम से कम होना चाहिए किन्तु उनको प्यार से रहना चाहिए जैसे कोई प्रेमी-प्रेमिका हो. और ये आजकल दीखता भी है प्रेमी-प्रेमिका में प्यार होता है जब तक उनके बीच शारीरिक सम्बन्ध न हो एक आकर्षण में बंधे होते हैं वो, किन्तु विवाह के पश्चात उनका ध्येय केवल शारीरिक सम्बन्ध रह जाता है इस कारण ही प्रेम में कमी आ जाती है और आकर्षण विकर्षण में परिवर्तित होने लगता है . वैदिक धर्म ये नहीं कहता कि विवाह में शारीरिक सम्बन्ध वर्जित है किन्तु उसका उद्देश्य केवल संतान उत्पत्ति के लिए प्रेमपूर्वक ही हो तो उनके मध्य बेहतर सम्बन्ध और शुद्ध प्रेम रहता है. ये बात आपको शायद अजीब लग रही हो क्योंकि आज कल तो केवल सेक्स को ही प्रेम माना जाता है पर साथ-२ आप ये भी देख सकते हैं कि आज-कल के वैवाहिक जीवन में कितने ही राड़-द्वेष-क्लेश उत्पन्न हो चुके हैं, कितने विवाह-विच्छेद होने लगे हैं.

खैर हम नियोग कि बात करते हैं नियोग व्यवस्था विवाह की तरह ही है किन्तु उसका नाम नियोग इसलिए रखा गया है ताकि समाज में अव्यवस्था न हो. उदाहरण के तौर पर स्त्री के पति की मौत के पश्चात पति की आर्थिक संपत्ति पर पत्नी का अधिकार होता है और यदि वह पुनर्विवाह करती है तो उसके पूर्व पति की संपत्ति भी नए पति की हो जायेगी जिस कारण अव्यवस्था फैलेगी इस कारण इसको नियोग नाम दिया गया जोकि विवाह की भांति समाज के सहमती से ही संतान उत्पत्ति के लिए होता है किन्तु इसमें स्त्री के पूर्व पति की संपत्ति पर नियोगित पुरुष का अधिकार नहीं होता है. यदि नियोगित पुरुष भी मर जाये और स्त्री दूसरी संतान पैदा करना चाहे तो उसी प्रकार से समाज की सहमती से दुसरे व्यक्ति को नियोगित किया जाता है. इसमें नियम यह है कि विधवा स्त्री के साथ वो ही नियोगित होगा जिसकी पत्नी मर चुकी है और इसी तरह से किसी व्यक्ति के लिए भी. विवाहित व्यक्ति या स्त्री का नियोग उसी अवस्था में संभव है यदि उनमें से एक संतान उत्पत्ति के लायक नहीं है और वो संतान चाहते हैं तो सर्व सहमति से पति या पत्नी किसी से विवाह की भांति नियोग कर सकते हैं किन्तु उनकी संतान के माता-पिता वैवाहिक पति-पत्नी ही होंगे. छिपकर सम्बन्ध बनाने से बेहतर है आपसी सहमती से हो वरना वो व्यभिचार कि श्रेणी में आता है. वैदिक मतानुसार ये माना जाता है और ये सही लगता भी है यदि कोई व्यक्ति अपनी पत्नी से या स्त्री अपने पति से शारीरिक सम्बन्ध बना चुके हैं और उनमें से किसी एक मर जाने पर पुनर्विवाह में सात्विक प्रेम की कमी रहेगी क्योंकि उनका सम्बन्ध अपने पूर्व पति या पत्नी से हो चुका है और शुद्ध प्रेम विवाह की सबसे पहली कसौटी है, इस कारण नियोग एक आपातकालीन व्यवस्था है संतान उत्पत्ति के लिए है जो विवाह की भांति समाज की सहमती से होती है, यह व्यवस्था समाज में व्यभिचार को और सामाजिक व्यवस्था को रोकने के लिए है. ये बहुत से लोगो को पहली बार में गलत लग सकती है किन्तु गहराई से अनुसंधान करके सोचो तो इसमें बुराई नज़र नहीं आती. पर यह व्यवस्था एक आदर्श समाज में ही चल सकती है नाकि आजकल के समाज में जिसमें विवाह के पश्चात भी आदमी इधर-उधर व्यभिचार के लिए भटकता रहता है और विवाह का प्रयोजन केवल शारीरिक सम्बन्ध तक ही सीमित रहता है, तो आज के हिसाब से पुनर्विवाह ही बेहतर विकल्प है क्योंकि जब पहले में ही शुद्ध प्रेम नहीं है तो दूसरे के बारे में क्या सोचें. इसी कारण महर्षि दयानंद ने भी अपने काल में अनेक विधवाओं का पुनर्विवाह करवाया जो कि समाज के द्वारा शोषित हो रही थी.

एक बात और नियोग व्यवस्था में बहुत लोग देवर का गलत अर्थ सोचते हैं उनके अनुसार देवर केवल पूर्व पति का छोटा भाई ही होता है क्यूंकि लोक-व्यवहार में देवर पति के छोटे भाई को ही बोला जाता है किन्तु शास्त्र में देवर का अर्थ दूसरे पति के लिए होता है वो कोई भी सर्वसहमति से पति के समान चुना हुआ नियोगित पुरुष होता है. जिस प्रकार कई स्थानों पर शास्त्रों में ईश्वर को अग्नि, आकाश, इन्द्र आदि नामों से प्रसंगवश पुकारा जाता है किन्तु उन शब्दों का लोक-व्यवहार में अलग अर्थ भी होता है. तो शब्दों के अर्थ कि निश्चितता के लिए उसके प्रसंग पर अवश्य ध्यान देना चाहिए नहीं तो अर्थ का अनर्थ हो जाता है.

--98.248.108.243 ०१:०३, १६ नवंबर २००९ (UTC)सौरभ आत्रेय[1]

कुरान नाम सन्दर्भ में सुधारने का अनुरोध[संपादित करें]

व्यवस्थापक'

सन्दर्भ में जानबूझकर ग़लत जानकारी दी गयी है, जहाँ title में The Laws of Manu था उसके स्थान पर 'कुरान' कर दिया गया। इसे ठीक किया जाना चाहिए, साथ ही इस अनुवादित पृष्ठ में इंग्लिश विकि के दूसरे संदर्भ भी उन्हीं स्थानों पर दिए जाएं तो बहतर है।

इसे [1] बदला जाना है।

अन्य संदर्भ Clause 1 के लिए [2] Clause 5 के लिए [3]

धन्यवाद

M. Umar kairanvi 13:50, 11 फ़रवरी 2022 (UTC)

  1. Bühler, George (1886). "Chapter IX". कुरान. Sacred Books of the East. 25. मूल से 15 मई 2012 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2012-05-11.
  2. "The Laws of Manu IX". www.sacred-texts.com. अभिगमन तिथि 2016-03-16.
  3. "नियोग और हिन्दू धर्म ग्रन्थ niyog in hinduism - Vedic Press". मूल से 2017-07-23 को पुरालेखित.