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वर्णमण्डल

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(वर्णमंडल से अनुप्रेषित)
सन् १९९९ के पूर्ण सूर्यग्रहण के समय सूर्य का वर्णमण्डल दिखायी दे रहा है

सूर्य के वायुमंडल का निम्नस्तर, जो प्रकाशमंडल (photosphere) के ठीक ऊपर स्थित है उत्क्रमण मंडल (Reversing layer) कहलाता है। इस उत्क्रमण मंडल से ऊपर लगभग 11,200 किलोमीटर तक फैले हुए गोलीय मंडल को वर्णमंडल कहते हैं। पूर्ण सूर्यग्रहण के समय इस मंडल का वर्ण सिंदूरी (scarlet) होता है। यह वर्ण हाइड्रोजन के परमाणुओं द्वारा किए गए विकिरण की अधिकता के कारण उत्पन्न होता है।

वर्णमंडल तीक्ष्ण पट्टियों का बना होता है, जिन्हें कंटिकाएँ (spicules) कहते हैं। कंटिका घास के फलकों की भाँति एक दूसरे से लिपटी हुई दिखाई देती हैं। कंटिकाओं का अर्धव्यास कई सौ मील का होता है और ऊँचाई 800 किलोमीटर से 16,000 किलोमीटर तक होती है। विषुवतीय प्रदेशों में कंटिकाओं की दिशाएँ प्रकाशमंडल की त्रिज्याओं का अनुसरण नहीं करती हैं। इसके विपरीत ध्रुवप्रदेश की अधिकांश कंटिकाएँ त्रिज्याओं की दिशा में ऊपर उठती हैं। ये कंटिकाएँ वर्णमंडल को सूर्य के साधारण चुंबकीय क्षेत्र से संबंधित करती हैं। यदि यह कल्पना की जाए कि सूर्य का चुंबकीय क्षेत्र द्विध्रुवी चुंबक के कारण है, जिसका अक्ष सूर्य के परिक्रामी अक्ष की दिशा में है, तो चुंबकीय क्षेत्र की रेखाएँ विषुवतीय प्रदेशों में त्रिज्याओं के साथ अधिक कोण बनाएँगी तथा ध्रुवीय प्रदेशों में वे त्रिज्याओं की दिशाओं का लगभग अनुसरण करेंगी।

विषुवतीय एवं ध्रुवी प्रदेशों की कंटिकाओं की रचनाओं में एक और भी महत्वपूर्ण अंतर है। ध्रुवीय कंटिकाएँ विषुवतीय कंटिकाओं की अपेक्षा अधिक शीघ्रता से उत्पन्न होती हैं। ध्रुवीय कंटिकाएँ प्रकाश मंडल पर एक फफोले के रूप में प्रकट होती हैं, जिसका विस्तार शीघ्रता से बढ़ता जाता है और अंत में वह फट जाता है। इस समय कंटिका के शिखर से एक गैसीय धारा प्रचंड वेग से ऊपर की ओर उठती हैं, ज्यों ज्यों यह धारा ऊपर की ओर बढ़ती जाती है, त्यों त्यों उसकी ज्योति घटती जाती है और साथ ही फफोला भी संकुचित होता हुआ विलीन हो जाता है। कंटिकाओं का औसत जीवन काल चार से पाँच मिनट होता है। कंटिकाओं के अवशेष पदार्थ पुन: वर्णमंडल में नहीं लौटते, वे किरीट में मिल जाते हैं।

सौरज्वाला (Prominences)

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वर्णमंडल का पदार्थ कभी-कभी तीव्र गति से ऊपर उठता हुआ, कभी कभी घने मेघों के सदृश वर्णमंडल के ऊपर छाया हुआ और कभी कभी वर्णमंडल की ओर गिरता हुआ दृष्टिगत होता है। वर्णमंडल के ऊपर उठी हुई गैसों की ये लपटें सौरज्वाला कहलाती हैं। सौरज्वालाएँ अनेक आकार एवं विस्तार में प्रकट होती हैं। सौरज्वाला कोमल धागों की गुथी हुई गुच्छियों जैसी लगती है। अजंबुजा (1948 <Ç.) के मतानुसार पूर्ण रूप से विकसित सौरज्वाला गैसों का एक तंतु है, जो औसतन् 20,00,000 किलोमीटर लंबा, 4,000 किलोमीटर ऊँचा और 6,000 किलोमीटर के लगभग मोटा होता है। सूर्यबिंब के कोर पर सौरज्वालाएँ चाप के आकार की दिखाई देती हैं। सौरज्वाला में पदार्थों की गति ठीक फुहारे के जल के सदृश होती है। सौरज्वाला कितने ऊपर तक उठ सकती है, इसका अनुमान 4 जून 1946 ई. को हुए विस्फोट से लग सकता है। इस विस्फोट की गणना प्रचंड विस्फोटों में की जाती है। ठीक सूर्योदय के समय सूर्यबिंब की कोर पर प्रज्वलित गैस एक विशाल चाप के आकार में प्रकट हुई जिसकी ऊँचाई लगभग, 6,400 किलोमीटर थी। देखते ही देखते लगभग 33 मिनटों में इसकी ऊँचाई 4,00,000 किलोमीटर हो गई। सौरज्वाला की ऊँचाई लगभग 64,00,000 किलोमीटर प्रति घंटे की गति से बढ़ती गई और प्रथम प्रेक्षण के 1 घंटे 20 मिनट के पश्चात् चाप इतना ऊपर उठ गया कि वह दूरदर्शी के प्रेक्षण क्षेत्र से बाहर निकल गया। पटी (Petit) का मत है कि यह असंभव नहीं है कि यह चाप सूर्य के व्यास की ऊँचाई से भी ऊँचा उठ गया हो।

सौर ज्वालाओं का वर्गीकरण

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सौर ज्वालाओं को लक्षण और विकास के विचार से पटी ने निम्नलिखित वर्गों में विभक्त किया है :

(1) सक्रिय (Active), (2) उद्गारी (Eruptive), (3) कलंक संबंधी, (4) सौरज्वाला भँवर (Torando), (5) शांत, तथा (6) किरीटीय।

इन वर्गों के नाम उनके लक्षणों के द्योतक हैं। इनमें से कुछ का वर्णन निम्नलिखित है :

(1) सक्रिय सौरज्वाला के तीन अंतर्विभाग हैं :

  • अंतरासक्रिय,
  • साधारण सक्रिय तथा
  • किरीटीय

अंतरासक्रिय सौरज्वाला दो या दो से अधिक सौरज्वालाओं का समूह होता है; साधारण सक्रिय सौर ज्वाला लिपटे हुए तंतुओं एवं ग्रंथियों के रूप में होती है; किरीटीय सक्रिय सौर ज्वाला किरीट के बाह्य खंडों से आती हुई दिखाई देती है।

(2) उद्गारी सौर ज्वाला, गैसीय वर्णमंडल की ओर जाती हुई दृष्टिगत होती है।

(3) सूर्यकलंक संबंधी सौर ज्वाला, सौर कलंकों के ऊपर विद्यमान रहती है। पटी ने इन्हें नौ वर्गों में विभक्त किया है, जो आकार और अन्य लक्षणों में एक दूसरे से भिन्न होते हैं।

(4) सौर ज्वाला भँवर, तूफान में देखे जाते हैं और शंकु के आकार के होते हैं। अभी तक यह निश्चित नहीं किया जा सका है कि किन बलों के कारण ये भँवर कई मास तक स्थायी रहते हैं। इनके संबंध की अनेक बातों के, जैसे सूर्य कलंक से संबंधित इनके आकार तथा रूप, ऊपर उठानेवाला बल आदि, के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है।

सौर ज्वाला के पदार्थों का घनत्व किरीटीय पदार्थों के घनत्व से लगभग 10 गुना तथा ताप 1/200 गुना होता है। सौरज्वाला की गति का रहस्य अभी तक पूर्ण रूप से समझा नहीं जा सका है।

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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