वरतन्तु

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वरतन्तु (4360 ईसा पूर्व, जिसे बारट्रेंड या वार्ट्रेंड के नाम से भी जाना जाता है) प्राचीन भारत के एक ऋषि थे जिन्होंने दिलीप द्वितीय के पुत्र और भगवान राम के पितामह रघु द्वितीय के राज्य में बच्चों की शिक्षा के लिए भरूच में एक बड़ा गुरुकुल चलाते थे। [1]

कथा[संपादित करें]

राजा रघु के राज्य में वरतन्तु नाम के एक ऋषि थे। वे बड़े विद्वान्, बड़े महात्मा और बड़े तपस्वी थे। उनका आश्रम एक वन में था। सैकड़ों ब्रह्मचारियों का वे पालन-पोषण भी करते थे और उन्हें पढ़ाते भी थे। उनमें कौत्स नाम का एक ब्रह्मचारी था। उसका विद्याध्ययन जब समाप्त हो गया तब महात्मा वरतन्तु ने उसे घर जाने की आज्ञा दी। उस समय कौत्स ने आचार्य वरतन्तु को गुरु-दक्षिणा देनी चाही। अतएव, दक्षिण के लिए धन माँगने की इच्छा से, वह राजा रघु के पास आया। परन्तु,उस समय, राजा रघु महानिर्धन हो गये थे, क्योंकि विश्वजित् नामक यज्ञ में उसने अपनी सारी सम्पत्ति खर्च कर डाली थी। अतएव, उसके खजाने में एक फूटी कौड़ी भी न थी। सोने और चाँदी के पात्रों की तो बात ही नहीं, पीतल के भी पात्र उसके पास न थे। पानी पीने और भोज्यपदार्थ रखने के लिए उसके पास मिट्टी ही के दो चार पात्र थे। वे पात्र यद्यपि चमकदार न थे, तथापि रघु का शरीर उसके अत्यन्त उज्ज्वल यश से खूब चमक रहा था। शीलनिधान भी वह एक ही था। अतिथियों का विशेष करके विद्वान् अतिथियों का सत्कार करना वह अपना परम कर्तव्य समझता था। इस कारण जब उसने उस वेद-शास्त्र सम्पन्न कौत्स के आने की सूचना सुनी तब उन्हीं मिट्टी के पात्रों में अर्घ्य और पूजा की सामग्री लेकर वह उठ खड़ा हुआ। उठाही नहीं, वह उठ कर कुछ दूर तक गया भी, और उस तपोधनी अतिथि को अपने साथ लिवा लाया। यद्यपि रघु उस समय सुवर्ण-सम्पत्ति से धनवान् न था, तथापि मानरूपी धन को भी जो लोग धन समझते हैं उनमें वह सबसे बढ़ चढ़ कर था। महा-मानधनी होने पर भी रघु ने उस तपोधनी ब्राह्मण की विधिपूर्वक पूजा की। विद्या और तप के धन को उनने और सब धनों से बढ़ कर समझा। चक्रवर्ती राजा होने पर भी रघु का अभ्यागत के आदरातिथ्य की क्रिया अच्छी तरह मालूम थी। अपने इस क्रिया-ज्ञान का यथेष्ट उपयोग करके रघु ने कौत्स को प्रसन्न किया। जब वह स्वस्थ होकर आसन पर बैठ गया तब रघु ने हाथ जोड़ कर, बहुत ही नम्रतापूर्वक, उससे कुशल-समाचार पूछना आरम्भ किया। वह बोला-

हे कुशाग्रबुद्धे ! कहिए, आप के गुरुवर तो अच्छे हैं ? मैं उन्हें सर्वदर्शी महात्मा समझता हूँ। जिन ऋषियों ने वेद-मन्त्रों की रचना की है उनमें उनका आसन सब से ऊँचा है। मन्त्र-कर्ताओं में वे सबसे श्रेष्ठ हैं। जिस तरह सूर्य से प्रकाश प्राप्त होने पर, यह सारा जगत्, प्रातःकाल, सोते से जग उठता है, ठीक उसी तरह, आप अपने पूजनीय गुरु से समस्त ज्ञान-राशि प्राप्त करके और अपने अज्ञानजन्य अन्धकार को दूर करके जाग से उठे हैं। एक तो आपकी बुद्धि स्वभाव ही से कुश की नोक के समान तीव्र; फिर महर्षि वरतन्तु से अशेष ज्ञान की प्राप्ति । क्या कहना है !
हाँ, महाराज, यह तो कहिए-आपके विद्यागुरु वरतन्तु जी की तपस्या का क्या हाल है ? उनके तपश्चर्य के बाधक कोई विघ्न तो उपस्थित नहीं; विघ्नों के कारण तपश्चर्या को कुछ हानि तो नहीं पहुँचती? महर्षि बड़ा ही घोर तप कर रहे हैं। उनका तप एक प्रकार का नहीं, तीन प्रकार का है। कृच्छ चान्द्रायणादि व्रतों से शरीर के द्वारा, तथा वेद-पाठ और गायत्री आदि मन्त्रों के जप से वाणी और मन के द्वारा, वे अपनी तपश्चर्या की निरन्तर वृद्धि किया करते हैं। उनका यह कायिक, वाचिक और मानसिक तप सुरेन्द्र के धैर्य को भी चञ्चल कर रहा है। वह डर रहा है कि कहीं ये मेरा आसन न छीन लें। इसीसे महर्षि के तपश्चरण-सम्बन्ध में मुझे बड़ी चिन्ता रहती है। मैं नहीं चाहता कि उसमें किसी तरह का विघ्न पड़े; क्योंकि मैं ऐसे महात्माओं को अपने राज्य का भूषण समझता हूँ।

"आपके आश्रम के पेड़-पौधे तो हरे भरे हैं ? सूखे तो नहीं ? आँधी और तूफ़ान आदि से उन्हें हानि तो नहीं पहुँची ? आश्रम के इन पेड़ों से बहुत आराम मिलता है। आश्रमवासी तो इनकी छाया से आराम पाते ही हैं, अपनी शीतल छाया से ये पथिकों के श्रम का भी परिहार करते हैं। इनके इसी गुण पर लुब्ध होकर महर्षि ने इन्हें बच्चे की तरह पाला है। थाले बना कर उन्होंने इनको, समय-समय पर,सींचा है, तृण की टट्टियाँ लगा कर जाड़े से इनकी रक्षा की है, और काँटों से घेर कर इन्हें पशुओं से खा लिये जाने से बचाया है।

मुनिजन बड़े ही दयालु होते हैं। आपके आश्रम की हरिणियाँ जब बच्चे देती हैं तब ऋषि लोग उनके बच्चों की बेहद सेवा-शुश्रूषा करते हैं। आश्रम के पास पास सब कहीं वन है। उसमें साँप और बिच्छू आदि विषैले जन्तु भरे हुए हैं। उनसे बच्चों को कष्ट न पहुँचे, इस कारण ऋषि प्रायः उन्हें अपनी गोद से नहीं उतारते। उत्पन्न होने के बाद, दस-बारह दिन तक, वे उन्हें रात भर अपने उत्सङ्ग ही पर रखते हैं। अतएव उनके नाभि-नाल ऋषियों के शरीर ही पर गिर जाते हैं। परन्तु इससे वे अल्पमात्र भी अप्रसन्न नहीं होते। जब ये बच्चे बढ़ कर कुछ बड़े होते हैं तब यज्ञ आदि बहुत ही आवश्यक क्रियाओं के निमित्त लाये गये कुशों को भी वे खाने लगते हैं। परन्तु, उन पर ऋषियों का अत्यन्त स्नेह होने के कारण, वे उन्हें ऐसा करने से भी नहीं रोकते। उनके धार्मिक कार्यों में चाहे भले ही विघ्न आ जाय, पर मृगों के छौनों की इच्छा का वे विधात नहीं करना चाहते । आप की यह स्नेह-संवर्धित हरिण-सन्तति तो मजे में है ? उसे कोई कष्ट तो नहीं ?
आपके तीर्थ-जलों का क्या हाल है ? उनमें कोई खराबी तो नहीं ? वे सूख तो नहीं गये? पशु उन्हें गन्दा तो नहीं करते? इन तीर्थ-जलों को इन तालाबों और बावलियों को-मैं आपके बड़े काम की चीज़ समझता हूँ। यही जल नित्य आपके स्नानादि के काम आते हैं। अग्निष्वात्तादि पितरों का तर्पण भी आप इन्हीं से करते हैं। इन्हीं के किनारे, रेत पर, आप अपने खेतों की उपज का षष्ठांश भी, राजा के लिए, रख छोड़ते हैं।
बलि-वैश्वदेव के समय यदि कोई अतिथि आ जाय तो उसे विमुख जाने देना मना है। अतएव जिस वनतृण-धान्य (साँवा, कोदो आदि) से आप अपने शरीर की भी रक्षा करते हैं और अतिथियों की क्षुधा भी शान्त करने के लिए सदा तत्पर रहते हैं उसे, भूल से छूट आये हुए, गाँव और नगर के पशु खा तो नहीं जाते?
सब विद्याओं में निष्णात करके आप के गुरु ने आप को गृहस्था श्रम सुख भोगने के लिए क्या प्रसन्नता-पूर्वक आज्ञा दे दी है ? ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास- इन तीनों आश्रमों पर उपकार करने का सामर्थ्य एक मात्र गृहस्थाश्रम ही में है। आपकी उम्र अब उसमें प्रवेश करने के सर्वथा योग्य है। आप मेरे परम पूज्य हैं। इस कारण केवल आपके आगमन से ही मुझे आनन्द की विशेष प्राप्ति नहीं हो सकती। यदि आप दया करके मुझ से कुछ सेवा भी लें तो अवश्य मुझे बहुत कुछ आनन्द और सन्तोष हो सकता है। अतएव, आप मेरे लिए कोई काम बतावें- कुछ तो आज्ञा करें? हाँ, भला यह तो कहिए कि आप ने जो मुझ पर यह कृपा की है वह आपने अपने ही मन से की है या अपने गुरु की आज्ञा से। वन से इतनी दूर मेरे पास आने का कारण क्या ?"

राजा रघु के मिट्टी के पात्र देख कर कौत्स, बिना कहे ही, अच्छी तरह समझ गया था कि यह अपना सर्वस्व दे चुके हैं। अब इसके पास कौड़ी नहीं। अतएव, यद्यपि राजा ने उसका बहुत ही आदर-सत्कार किया और बड़ी ही उदारता से वह उससे पेश आया, तथापि कौत्स को विश्वास हो गया कि इससे मेरी इच्छा पूर्ण होने की बहुत ही कम आशा है। मन ही मन इस प्रकार विचार करके, उसने रघु के प्रश्नों का उत्तर देना आरम्भ किया:-

"राजन् ! हमारे आश्रम में सब प्रकार कुशल है। किसी तरह की कोई विघ्न-बाधा नहीं। आपके राजा होते, भला हम लोगों को कभी स्वप्न में भी कष्ट हो सकता है। बीच आकाश में सूर्य के रहते मजाल है जो रात का अन्धकार अपना मुँह दिखाने का हौसला करे। लोगों की दृष्टि का प्रतिबन्ध करने के लिए उसे कदापि साहस नहीं हो सकता। हे महाभाग! पूजनीय पुरुषों का भक्ति-भाव-पूर्वक आदरातिथ्य करना तो आपके कुल की रीति ही है। आपने तो अपनी उस कुल-रीति से भी बढ़ कर मेरा सत्कार किया। पूजनीयों की पूजा करने में आप तो अपने पूर्वजों से भी आगे बढ़े हुए हैं। मैं आप से कुछ याचना करने के लिए आया था, परन्तु याचना का समय नहीं रहा। मैं बहुत देरी से आया। इसी से मुझे दुःख हो रहा है। अपनी सारी सम्पत्ति का दान सत्पात्रों को करके आप इस समय खाली हाथ हो रहे हैं। कुछ भी धन-सम्पत्ति आपके पास नहीं। एक मात्र आपका शरीर हो अब अवशिष्ट है। अरण्य-निवासी मुनियों के द्वारा बालें तोड़ ली जाने पर साँवाँ, कोदों आदि तृण धान्यों के पौधे जिस तरह धान्य-विहीन होकर खड़े रह जाते हैं, उसी तरह आप भी इस समय सम्पत्ति-हीन होकर शरीर धारण कर रहे हैं। विश्वजित यज्ञ करके और उसमें अपना सारा धन खर्च करके आपने, पृथ्वी-मण्डल के चक्रवर्ती राजा होने पर भी, अपने को निर्धन बना डाला है। आपकी यह निर्धनता बुरी नहीं। उसने तो आपकी कीर्ति को और भी अधिक उज्ज्वल कर दिया है- उससे तो आपकी शोभा और भी अधिक बढ़ गई है। देवता लोग चन्द्रमा का अमृत जैसे-जैसे पीते जाते हैं वैसे ही वैसे उसकी कलाओं का क्षय होता जाता है; और सम्पूर्ण क्षय हो चुकने पर, फिर क्रम क्रम से, उन कलाओं की वृद्धि होती है। परन्तु उस वृद्धि की अपेक्षा चन्द्रमा का वह क्षय ही अधिक लुभावना मालूम होता है। आपका साम्पत्तिक क्षय भी उसी तरह आपकी शोभा का बढ़ाने वाला है, घटाने वाला नहीं। हे राजन् ! गुरु-दक्षिणा तो मुझे कहीं से लानी ही होगी; और आप से तो उसके मिलने की आशा नहीं। अतएव अब मैं और कहीं से उसे प्राप्त करने की चेष्टा करूँगा। आपको इस सम्बन्ध में मैं सताना नहीं चाहता। सारे संसार को जल-वृष्टि से सुखी करके शरत्काल को प्राप्त होने वाले निर्जल मेघों को, पतङ्ग-योनि में उत्पन्न हुए चातक तक, अपनी याचनाओं से, तङ्ग नहीं करते। फिर मैं तो मनुष्य हूँ और गुरु की कृपा से चार अक्षर भी मैंने पढ़े हैं। भगवान् आपका भला करे, मैं अब आप से विदा होता हूँ।"

इतना कह कर महर्षि वरतन्तु का शिष्य कौत्स खड़ा हो गया और वहाँ से जाने लगा। यह देख, राजा रघु ने उसे रोक कर थोड़ी देर ठहरने की प्रार्थना की। राजा ने कहा-

"हे पण्डितवर ! आप यह तो बता दीजिए कि गुरु-दक्षिणा में कौन सी वस्तु आप अपने गुरु को देना चाहते हैं और कितनी देना चाहते हैं।

यह सुन कर, इतने बड़े विश्वजित् नामक यज्ञ को यथाविधि करने पर भी जिसे गर्व छू तक नहीं गया, और जिसने ब्राह्मण आदि चारों वर्णों तथा ब्रह्मचर्य आदि चारों आश्रमों की रक्षा का भार अपने ऊपर लिया है उस राजा रघु से उस चतुर ब्रह्मचारी ने अपना गुरु-दक्षिणा-सम्बन्धी प्रयोजन, इस प्रकार, स्पष्ट शब्दों में कहना प्रारम्भ किया। उसने कहा:-

"जब मेरा विद्याध्ययन हो चुका- जो कुछ मुझे पढ़ना था सब मैं पढ़ चुका- तब मैंने आचार्य वरतन्तु से प्रार्थना की कि आप कृपा करके गुरु-दक्षिणा के रूप में मेरी कुछ सेवा स्वीकार करें। परन्तु महर्षि के आश्रम में रह कर मैंने बड़े ही भक्ति-भाव से उसकी सेवा की थी। इससे वे मुझ पर पहले ही से बहुत प्रसन्न थे। अतएव, बिदा होते समय, मेरी प्रार्थना के उत्तर में उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा कि तेरी अकृत्रिम भक्ति ही से मैं सन्तुष्ट हूँ; मुझे गुरु-दक्षिणा नहीं चाहिए। परन्तु मैंने हठ की। गुरु-दक्षिणा स्वीकार करने के लिए मेरे बार-बार प्रार्थना करने पर प्राचार्य को क्रोध हो आया। इस कारण, मेरी दरिद्रता का कुछ भी विचार न करके, उन्होंने यह आज्ञा दी कि मैंने जो तुझे चौदह विद्यायें सिखाई हैं उनमें से एक एक विद्या के बदले एक एक करोड़ रुपया ला दे। यही चौदह करोड़ रुपया माँगने के लिए मैं आप के पास आया था। परन्तु, मेरा सत्कार करने के समय आपने मिट्टी के जिन पात्रों का उपयोग किया उन्हें देख कर ही मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ कि इस समय आप के पास प्रभुता का सूचक "प्रभु" शब्द मात्र शेष रह गया है। सम्पत्ति के नाम से और कुछ भी आप के पास नहीं। फिर,महर्षि वरतन्तु से प्राप्त की गई चौदह विद्याओं का बदला भी मुझे थोड़ा नहीं देना ! अतएव इतनी बड़ी राशि आप से माँगने के लिए मेरा मन गवाही नहीं देता। मैं, इस विषय में, आपसे आग्रह नहीं करना चाहता ।"

जिसके शरीर की कान्ति चन्द्रमा की कान्ति के समान आनन्ददायक थी, जिसकी इन्द्रियों का व्यापार पापाचरण से पराङ्मुख था, जिसने कभी कोई पापकर्म नहीं किया था- ऐसे सार्वभौम राजा रघु ने, वेदार्थ जानने वाले विद्वानों में श्रेष्ठ, कौत्स, ऋषि की पूर्वोक्त विज्ञप्ति सुन कर, यह उत्तर दिया:--

"आपका कहना ठीक है; परन्तु मैं आपको विफल-मनोरथ होकर लौट नहीं जाने दे सकता। कोई सुनेगा तो क्या कहेगा ! सारे शास्त्रों का जानने वाला कौत्स ऋषि, अपने गुरु को दक्षिणा देने के लिए, याचक बन कर आया; परन्तु रघु उसका मनोरथ सिद्ध न कर सका। इससे लाचार होकर उसे अन्य दाता के पास जाना पड़ा। इस तरह के लोकापवाद से मैं बहुत डरता हूँ। मैं, अपने ऊपर, ऐसे अपवाद के लगाये जाने का मौका नहीं देना चाहता। इस कारण, आप मेरी पवित्र और सुन्दर अग्निहोत्र-शाला में -जहाँ आहवनीय, गार्हपत्य और दक्षिण, ये तीनों अग्नि निवास करते हैं- दो तीन दिन, मूर्तिमान चौथे अग्नि की तरह, ठहरने की कृपा करें। मान्यवर, तब तक मैं आपका मनोरथ सिद्ध करने के लिए, यथाशक्ति, उपाय करना चाहता हूँ।"

यह सुन कर वह ब्राह्मण श्रेष्ठ बहुत प्रसन्न हुआ। उसने कहा:- "बहुत अच्छा। महाराज, आप सत्यप्रतिज्ञ हैं। आपकी आज्ञा मुझे सर्वथा मान्य है।" यह कह कर वह ऋषि राजा रघु की यज्ञ-शाला में जा ठहरा।

इधर राजा रघु ने सोचा कि पृथ्वी-मण्डल में जितना द्रव्य था वह तो मैं, दिग्विजय के समय, प्रायः सभी ले चुका। थोड़ा बहुत जो रह गया है उसे भी ले लेना उचित नहीं। अतएव, कौत्स के निमित्त द्रव्य प्राप्त करने के लिए कुवेर पर चढ़ाई करनी चाहिए। इस प्रकार मन में सङ्कल्प करके उसने धनाधिप से ही चौदह करोड़ रुपया वसूल करने का निश्चय किया। कुवेर तक पहुँचना और उसे युद्ध में परास्त करना रघु के लिए कोई बड़ी बात न थी। महामुनि वशिष्ठ ने पवित्र-मन्त्रोच्चारण-पूर्वक रधु पर जो जल छिड़का था, उसके प्रभाव से राजा रघु का सामर्थ्य बहुत ही बढ़ गया था। बड़े बड़े पर्वतों के शिखरों पर, दुस्तर महासागर के भीतर, यहाँ तक कि आकाश तक में भी-वायु से सहायता पाये हुए मेघ की गति के समान-उसके रथ की गति थी। कोई जगह ऐसी न थी जहाँ उसका रथ न जा सकता हो।

राजा रघु ने कुवेर को एक साधारण माण्डलिक राजा समझ कर, अपने पराक्रम से उसे परास्त करने का निश्चय किया। अतएव उस महाशू-वीर और गम्भीर राजा ने, सायं काल, अपने रथ को अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित किया; और, प्रातःकाल, उठ कर प्रस्थान करने की इच्छा से रात को उसी के भीतर शयन भी किया। परन्तु प्रभात होते ही उसके कोशागार के सन्तरी दौड़े हुए उसके पास आये। उन्होंने आकर निवेदन किया कि महाराज, एक बड़े ही आश्चर्य की बात हुई है। आपके कोष में रात को आकाश से सोने की वृष्टि हुई है। यह समाचार पा कर राजा समझ गया कि देदीप्यमान सुवर्ण-राशि की यह वृष्टि धनाधिप कुवेर ही की कृपा का फल है। उसी ने यह सोना आसमान से बरसाया है। अतएव, अब उस पर चढ़ाई करने की आवशयकता नहीं। इन्द्र के वज्राघात से कट कर भूमि पर गिरे हुए सुमेरु-पर्वत के शिखर के समान, आकाश से गिरा हुआ, सुवर्ण का वह सारा का सारा ढेर, उसने कौत्स को दे डाला।

कौत्स तो इधर यह कहने लगा कि जितना द्रव्य मुझे गुरु दक्षिणा में देना है उतना ही चाहिए, उससे अधिक मैं लूँगा ही नहीं। उधर राजा यह आग्रह करने लगा कि नहीं, आपको अधिक लेना ही पड़ेगा। जितना सोना मैं देता हूँ उतना सभी आपको लेना होगा। यह दशा देख कर अयोध्या-वासी जन दोनों को धन्य-धन्य कहने लगे। मतलब से अधिक द्रव्य न लेने की इच्छा प्रकट करने वाले कौत्स की जितनी प्रशंसा उन्होंने की, उतनी ही प्रशंसा उन्होंने माँगे हुए धन की अपेक्षा अधिक देने का आग्रह करने वाले रघु की भी की।

इसके अनन्तर राजा रघु ने उस सुवर्ण-राशि को, कौत्स के गुरु वरतन्तु के पास भेजने के लिए, सैकड़ों ऊँटों और खच्चरों पर लदवाया। फिर, कौत्स के बिदा होते समय, अपने शरीर के ऊपरी भाग को झुका कर और विनयपूर्वक दोनों हाथ जोड़ कर, वह उसके सामने खड़ा हुआ। उस समय राजा के अलौकिक औदार्य से अत्यन्त सन्तुष्ट हो कर कौत्स ने उसकी पीठ ठोंकी और इस प्रकार उससे कहा:-

हे राजऩ! न्याय-पूर्वक सम्पदाओं का सम्पादन, वर्द्धन, पालन और फिर उनका सत्पात्रों को दान- यह चार प्रकार का राज-कर्तव्य है। इन चारों कर्तव्यों के पालन में सदा सर्वदा तत्पर रहने वाले राजा के सारे मनोरथ यदि पृथ्वी पूर्ण करे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। परन्तु, महाराज, आपकी महिमा इस से कहीं बढ़ कर है। उसे देख कर अवश्य ही आश्चर्य होता है। क्योंकि, आपने पृथ्वी ही को नहीं, आसमान को भी दुह कर अपना मनोरथ सफल कर लिया। अब मैं आपको क्या आशीर्वाद दूँ ? कोई वस्तु ऐसी नहीं जो आपको प्राप्त न हो। आपकी जितनी इच्छायें थीं सब परिपूर्ण हो चुकी हैं। उन्हीं में से फिर किसी इच्छा को परिपूर्ण करने के लिए आशीर्वाद देना पुनरुक्ति मात्र होगी। ऐसे चर्वित चर्वण से क्या लाभ ? इस कारण, मेरा यह आशीर्वाद है कि जिस तरह आपके पिता दिलीप ने आपके जैसा प्रशंसनीय पुत्र पाया, उसी तरह, आप भी अपने सारे गुणों से सम्पन्न, अपने ही जैसा एक पुत्र-रत्न पावें!"

राजा को यह आशीर्वाद देकर कौत्स ऋषि अपने गुरु वरतन्तु के आश्रम को लौट गया। उधर गुरु को दक्षिणा देकर उसके ऋण से उसने उद्धार पाया, इधर उसका आशीर्वाद भी शीघ्र ही फलीभूत हुआ।

वरतन्तु गोत्र[संपादित करें]

गोत्र, "वंश" का प्रतीक है। प्रत्येक गोत्र एक प्रसिद्ध ऋषि के नाम पर होता है जो उस वंश के पूर्वज थे। ऋषि वरतन्तु के वंशज वरतन्तु गोत्र के अन्तर्गत आते हैं।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. Mittal, JP (2006). History of Ancient India: From 7300 BC to 4250 BC. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788126906154.