लोकरंग

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लोकरंग- 2010 : पधारो म्हारो जोगिया रे

कुशीनगर जिले के जोगिया गांव में लोकरंग के तीसरे संस्करण में आठ और नौ मई को लोक कलाकारों, साहित्यकारों, रंगकर्मियों की एक बार फिर जुटान हुई। लोक कलाकारों और साहित्यकारों के लिए जोगिया एक बार फिर सजा धजा था। रंग-बिरंगे झण्डों, पतंगों, गुब्बारों और कविता-गीत के पोस्टरों के साथ। नाट्य मंचन में असुविधा को देखते हुए इस पर गांव के लोगों ने पक्का चबूतरा बना दिया था। इस चबूतरें पर 20 गुणे 12 फीट का भव्य बैकड्राप कार्यक्रम में चार चांद लगा रहा था। कार्यक्रम में भाग लेने बुन्देलखण्ड से डॉ॰ रामभजन सिंह, पटना से तनवीर अख्तर की इप्टा टीम और छत्तीसगढ, रायगढ़ से डॉ॰ योगेन्द्र चौबे की गुड़ी टीम तो पहुंची ही थीं साथ ही देश के तमाम लेखक, कवि, कथाकार, रंगकर्मी भी पधारे थे। सभी का कथाकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा की अगुवाई में गांव के युवाओं और ग्रामीणों ने टिका लगाकर तुरही की तुरर-तुरर के बीच स्वागत किया। रात्रि में कार्यक्रम स्थल पर पिछले दो कार्यक्रमों के मुकाबले ज्यादा भीड़ जुटी थी। लोग कार्यक्रम शुरू होने का बेसब्री से इन्तजार कर रहे थे। महाश्वेता देवी जी के सन्देश से हुआ उद्घाटन लोकरंग-2010 का उद्घाटन सुप्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी के सन्देश से हुआ। वह कार्यक्रम की मुख्य अतिथि थीं और उन्हें ही उद्घाटन करना था लेकिन स्वास्थ्य खराब होने के कारण नहीं आ पाई थीं। उन्होंने लोकरंग कार्यक्रम के लिए भेजे लिखित सन्देश में कहा है कि वह लोकरंग में न आ पाने के कारण हृदय से दुखी है। स्वास्थ्य ठीक नहीं हैं और पश्चिम बंगाल में जारी संकट के कारण उन्हें बहुत काम करना पड़ रहा है। इस स्थिति में क्या करूं ? मै लोकरंग कार्यक्रम से बहुत नजदीक से जुड़ाव महसूस करती हूं। उन्होंने पत्र में लोकरंग सांस्कृतिक समिति के अध्यक्ष सुभाष चन्द्र कुशवाहा को इस आयोजन के लिए बधाई देते हुए आयोजन की रिपोर्ट भेजने को कहा है। महाश्वेता देवी का सन्देश आलोचक एवं पत्रकार अनिल सिन्हा ने पढ़ा। लोकरंग स्मारिका का लोकार्पण लोकरंग के उद्घाटन अवसर पर वरिष्ठ कथाकार शिवमूर्ति, आलोचक वीरेन्द्र यादव और नाटककार हृषिकेश सुलभ ने स्मारिका लोकरंग-2010 का लोकार्पण किया। स्मारिका में सोहनी-रोपनी के गीत, मोहर्रम गीत, झारी गीत, होरी गीत, जन्तसार गीत सहित कई गीत संकलित किए गए है। इसके अलावा कई महत्वपूर्ण लेख हैं। अंजन जी और रामपति रसिया का सम्मान स्मारिका के लोकार्पण के बाद भोजपुरी क्षेत्र के दो महत्वपूर्ण लोक गीतकारों, राधा मोहन चौबे उर्फ अंजन जी और नथुनी प्रसाद कुशवाहा उर्फ रामपति रसिया को सम्मानित किया गया। अंजन जी बिहार के गोपालगंज जिले के शाहपुर डिघवा गांव के रहने वाले हैं और उन्होंने सैकड़ों लोकगीत लिखे हैं जो उनकी कजरौटा, फुहार, संझवत, पनका, सनेश आदि किताबों में संकलित हैं। रामपति रसिया कुशीनगर जिले के मोरवन गांव के रहने वाले हैं। उन्हें 50 से अधिक निर्गुण लिखे हैं जो उनकी पुस्तक अंजोरिया में बदरी में संकलित हैं। और बजा नक्कारा उद्घाटन सत्र के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू हुए। कार्यक्रम की शुरूआत जोगिया गांव की किशोरियों द्वारा छठ गीत व रोपनी गीत से हुआ। इसके बाद दिल्ली से आए कवि रमाशंकर विद्रोही ने काव्य पाठ किया। खास तेवर की कविताओं और उनके पाठ करने के अन्दाज पर साहित्यकारों के साथ-साथ ग्रामीणों ने भी ताली बजाई। गोपालगंज बिहार से आए मोहन गौड़ और उनके साथियों ने फरी नृत्य प्रस्तुत किया। इसमें पहले कलाकारों ने नक्कारे की आवाज पर नृत्य प्रस्तुत किया। इसके बाद उन्होंने बिरहा पर नृत्य किया। अन्तिम भाग में नक्कारे की आवाज के साथ ताल मिलाकर पलटी मारने, गोता लगाने जैसे करतब प्रस्तुत किए गए। बुन्देलखण्ड से आए लोक कलाकारों ने अचरी, बृजवासी और ईसुरी फाग गायन प्रस्तुत किया। अचरी नवरात्रि में रात्रि जागरण में गाया जाने वाला गीत है तो बृजवासी खेतों की कटाई के समय स्त्री और पुरूष मजदूरों द्वारा मिल कर गाने वाला गायन है। फाल्गुनी बयार के शुरू होते ही बुन्देलखण्ड में होली गीत शुरू होते हैं और फाग गायन के पितामह ईशुरी के फाग गाए जाने लगते हैं। बुन्देलखण्डी लोक कलाकारों ने अपनी प्रस्तुतियों से बुन्देलखण्डी लोक संस्कृति की झलक दिखाई। छत्तीसगढ़ से आए गुडी संस्था के कलाकारों ने छत्तीसगढ़ी लोक गीत गाए। नौ मई के रात के कार्यक्रम की शुरूआत उपेन्द्र चतुर्वेदी और उनकी टीम के भोजपुरी गीतों की प्रस्तुति से हुई। इसके बाद जितई प्रसाद और उनकी टीम ने हुड़का नृत्य प्रस्तुत किया। हुड़का नृत्य प्रस्तुत करने वाली यह टीम महराजगंज जिले के परसौनी बुजुर्ग गांव से आई थी। हुड़का नृत्य के बाद पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक और मशहूर लोकनृत्य पखावज को चिखुरी, सुखराज, शोभी प्रसाद और उनके साथियों ने प्रस्तुत किया। दोनों ही नृत्य अब बहुत कम देखने को मिलते हैं। कार्यक्रम में फाजिलनगर के संगीत अध्यापक मंगल मास्टर ने दो भोजपुरी गीतों को प्रस्तुत किया। जब उन्होंने अंजन जी का गीत चिन्ता की अगनी तोहके लेस लेस खा जइहें ए मैना तू असरा छोड़ तोता अब ना अइहें और ऐतना से काम न चली न कटी विपतिया, रोई-रोई पतिया लिखवाए रजमतिया सुनाई। कुशीनगर जिले के कप्तानंगज से आए कौव्वाल असगर अली और उनके साथियों ने अमीर खुसरो की रचना छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाय के, अनवर फर्रूखाबादी की रचना बस तुम्हारे करीब आने से, दुश्मनी हो गई जमाने से और दानिश जौनपुरी की रचना पत्थर की इबादत से तुझे कुछ नहीं मिलेगा, दिल में मेरी तस्वीर सजा क्यूं नहीं लेते सुनाकर लोगों की वाहवाही पाई। बाबा पाखण्डी और गबरघिचोरन के माई लोकरंग में दो नाटकों का मंचन हुआ। आठ मई की रात छत्तीसगढ़ की गुडी संस्था के कलाकारों ने बाबा पाखण्डी नाटक का मंचन किया। छत्तीसगढ़ी लोक कथा पर आधारित यह नाटक एक ऐसे चरित्र के ईद-गिर्द घूमता है जो भविष्यवाणियां करता है और खुद को बाबा के रूप में प्रस्तुत कर लोगों को मूर्ख बनाता है। नाटक में वैश्वीकरण के बाजार में पाखण्ड और अन्धविश्वासों के सहारे पाखण्डियों की पनप रही जमात पर करारा प्रहार किया गया है। नाटक का निर्देशन डॉ॰ योगेन्द्र ने किया। पटना से आई इप्टा की टीम ने भिखारी ठाकुर के दो नाटकों को मिलाकर बनाए गए नाटक गबरघिचोरन के माई की जानदार प्रस्तुति से लोगों का दिल जीत लिया। इस नाटक में स्त्री पीड़ा की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है। वरिष्ठ रंगकर्मी तनवीर अख्तर के निर्देशन में मंचित इस नाटक में युवक गलीच अपनी ब्याहता को छोड़ कलकत्ता चला जाता है और 15 वर्ष तक कोई खोज-खबर नहीं लेता है। इस बीच उसकी पत्नी बच्चे को जन्म देती है। जब गलीज लौटकर आता है तो किशोर हो चुके अपने बेटे को कलकत्ता ले जाने की कोशिश करता है लेकिन उसकी पत्नी उसका विरोध करती है। गबरघिचोर भी मां को छोड़कर परदेश जाने से मना करता है। तभी गांव का एक दूसरा व्यक्ति गड़बड़ी गबरघिचोर को अपना बेटा बताता है। इसको लेकर पंचायत होती है और पंच बने भिखारी ठाकुर गबरघिचोर पर मां का हक बताते हुए उसके पक्ष में फैसला देते हैं। लोकगीतों को नई धार, विचार से लैस करने की जरूरत लोकरंग के दूसरे दिन लोकगीतों की प्रासंगिकता पर संगोष्ठी आयोजित की गई। संगोष्ठी में साहित्यकारों ने लोकगीतों और लोकसंस्कृति पर बाजार, अपसंस्कृति और सत्ता के हमले पर चिन्ता जाहिर करते हुए इसको बचाने और नई धार, विचार से लैस करने के लिए आन्दोलन की जरूरत पर बल दिया। गोष्ठी में शिरकत करते हुए वरिष्ठ आलोचक वीरेन्द्र यादव ने कहा कि लोक का तन्त्र में अधिग्रहण हो गया है। लोकगीत जिन परिस्थितियों में रचे जाते हैं उन स्थितियों का अभी लोप नहीं हुआ है। स्त्रियों, दलितों की पीड़ा अभी भी है। लोकसंस्कृति जिस जमीन पर पनपते थे वह अभी कायम हैं लेकिन उसके कार्य में परिवर्तन जरूर हुआ है। आज गांव बदले हैं, जीवन शैली बदली है लेकिन मूल संवेदना बरकरार है। इस मूल संवेदना को आन्दोलनात्मक तेवर देने की जरूरत है। कवि दिनेश कुशवाह ने कहा कि शुद्र और स्त्रियों ने 75 प्रतिशत लोकगीतों की रचना की है। उन्होंने कई लोकगीतों को लय में गाते हुए लोकमानस से निकले स्रोत को भदेस कह कर खारिज करने वाले अभिजात्य वर्ग की कड़ी आलोचना की। उन्होंने कहा कि भाषाएं और बोली क्षतिग्रस्त हो रही हैं जिसे बचाने की लिए काम करने की जरूरत है। साहित्यकार अरूणेश नीरन ने कहा कि लोकगीत अध्ययन करने की चीज नहीं बल्कि इसे जिया जाता है। उन्होंने लोक को पाश्चात्य फोक से अलग कर विवेचन करने की जरूरत पर बल दिया। कथाकार शिवमूर्ति ने कहा कि लोकगीतों की प्रासंगिकता पर प्रश्न नहीं हैं बल्कि उस पर आ रहे खतरों को पहचानने और उसका मुकाबला करने की जरूरत है। रंगकर्मी राजेश कुमार ने लोकगीतों और लोकनाट्य रूपों की घार के कुन्द होते जाने पर चिन्ता व्यक्त करते हुए इसे सत्ता तन्त्र की गहरी साजिश बताया। पटना से आए लेखक तैयब हुसैन ने कहा कि वैश्वीकरण भाषाई नस्लवाद ला रहा है जो लोकगीतों की उपेक्षा का कारण है। नाटककार हृषिकेश सुलभ ने कहा कि जीवन का यथार्थ बदल रहा है जो लोक संवेदना को भी प्रभावित कर रहा है। उन्होंने कहा कि हमें गांव में रहने वाले लोगों की सांस्कृतिक भूख की चिन्ता करनी होगी। कथाकार देवेन्द्र ने बहस में हस्तक्षेप करते हुए कहा कि जिस तरह आर्थिक संरचना बदल रही है, उसमें सामुदायिक जीवन का ह्रास हो रहा है उसमें सामुदायिकता से उपजे गीत शायद ही बचें। गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे आलोचक एवं पत्रकार अनिल सिन्हा ने कहा कि लोक गीत हमारे जीवन का मूल रहा है। लोकगीत यथार्थ से उपजी अभिव्यक्ति हैं इसलिए वे नष्ट नहीं होंगे लेकिन उनके उपर बाजारवाद, फूहड़ता, सांस्कृतिक दरिद्रता का खतरा है। गोष्ठी में डॉ॰ योगेन्द्र चौबे, रामभजन सिंह, सत्यदेव त्रिपाठी ने भी हिस्सा लिया। संचालन सुधीर सुमन व धन्यवाद ज्ञापन `लोकरंग सांस्कृतिक समिति´ के अध्यक्ष सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने किया।

लोकरंग में भाग लेने वाले कलाकारों और आयोजन को सफल बनाने वाले श्री मंजूर अली, विष्णुदेव राय, भुवनेश्वर राय, संजय कुशवाहा, इसरायल अंसारी, मुंशरीम, हदीश अंसारी, सुरेन्द्र शर्मा को लोकरंग सांस्कृतिक समिति की ओर से स्मृति चिन्ह प्रदान करने के साथ ही कार्यक्रम का समापन हुआ। लोकरंग के पहले और दूसरे सत्र का संचालन सुधीर सुमन ने और तीसरे सत्र का संचालन दिनेश कुशवाह ने किया।

मनोज कुमार सिंह एम0आइ0जी0-71, राप्तीनगर, फेज-1, गोरखपुर 273003



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