लालमणि मिश्र
डॉ. लालमणि मिश्र, (एम.ए., पी.एच.डी., डी.म्यूज. (वीणा), एम.म्यूज. (कण्ठ-संगीत), बी.म्यूज. (सितार, तबला), "साहित्य रत्न") भारतीय संगीत जगत के ऐसे मनीषी थे, जो अपनी कला के समान ही अपनी विद्वत्ता के लिए जाने जाते थे। वे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में "संगीत एवं ललित कला संकाय" के डीन व प्रमुख रहे ।
संगीत के प्रति रुचि
[संपादित करें]माता के संगीत शिक्षक को अपनी प्रतिभा से प्रभावित कर बालक लालमणि की संगीत यात्रा आरम्भ हुई। पण्डित शँकर भट्ट और मुँशी भृगुनाथ लाल से ध्रुपद और धमार की परम्परागत शिक्षा हुई। रामपुर सेनी घराना के उस्ताद वज़ीर खाँ के शागिर्द उस्ताद मेंहदी हुसैन खान से उन्होने खयाल गायन सीखा। ध्रुवपद, भजन और तबला की शिक्षा स्वामी प्रमोदानन्द जी से प्राप्त हुई। उस्ताद अमीर अली खाँ के देख रेख मे अनेक संगीत वाद्योँ जैसे सितार, सुरबहार, सरोद, संतूर, जलतरंग, वायलिन, तबला आदि में महारत हासिल की। जब वह केवल बारह वर्ष के थे, उन्हें कलकत्ता की शहंशाही रिकार्डिंग कम्पनी में सहायक संगीत निर्देशक के पद पर नियुक्ति मिली। अगले दो वर्षों में उन्होने कई फिल्मोँ में संगीत दिया। उस्ताद अमीर अली खाँ का सान्निध्य और संगीत निर्देशन—इन्हीँ दोनोँ के सँयोग से ऑर्केस्ट्रेशन के प्रति उनमें रुझान पैदा हुआ। youtuber apsra queen please subscrcribe my youtube channel
संगीतः जीवन सहचर
[संपादित करें]पिता के स्वर्गवास के बाद सन 1940 में वे कानपुर लौट आए। अपनी नैसर्गिक प्रतिभा से प्रेरित वो बालकोँ को संगीत सिखाने के नये रास्ते ढूँढ रहे थे; वह भी तब जब पारम्परिक समाज में कुलीन व्यक्ति संगीत को हेय दृष्टि से देखते थे। एक एक कर उन्होनें कई बाल संगीत विद्यालय स्थापित किए; विद्यार्थी की ज़रूरत के मुताबिक़ औपचारिक, अनौपचारिक पाठ्यक्रमोँ में परिवर्तन किया; वाद्य वृन्द समिति की स्थापना की। क्षेत्र के प्रसिद्ध संस्थान भारतीय संगीत परिषद का गठन किया तथा पहला उच्च शिक्षण का आधार गाँधी संगीत महाविद्यालय आरम्भ किया। संगीत के हर आयाम से परिचित उन्होने शैली, शिक्षण पद्धति, वाद्य-रूप, वादन स्वरूप -- सभी पर कार्य किया जिससे उन्हें सभी ओर से आदर और सम्मान मिला।
विश्व-दर्शन
[संपादित करें]प्रख्यात नृत्य गुरु पण्डित उदय शंकर ने अपनी नृत्य मंडली में उन्हें संगीत निर्देशक के पद पर आमंत्रण दिया जिसे लालमणि जी ने सहर्ष स्वीकार किया। मंडली की अभिनव नृत्य प्रस्तुतिओं तथा पौराणिक एवं आधुनिक विषयों पर आधारित बैले, ऑपेरा आदि के लिये उन्होंने मनोहारी संगीत रचनाएँ की। सन 1951 से 1955 तक भारत के कई नगरों से होता हुआ उदय शंकर जी का ट्रुप श्रीलंका, इंग्लैण्ड, फ्रांस, बेल्जियम, अमेरिका, कनाडा आदि का भ्रमण करता रहा। इस प्रयोगधर्मी नृत्य मंडली के लिये उनका बहु-वाद्य-पारंगत होना तथा ऑर्केस्ट्रा में रुचि रखना फलदायी सिद्ध हुआ।
उनके लिए भी इसका अनुभव अर्थपूर्ण रहा। स्वदेश लौटते ही उन्होंने मीरा ऑपेरा की रचना की, जिसका प्रथम मंचन सन् 1956 में कानपुर में किया गया। भगवान कृष्ण की मूर्ति में मीरा का विलीन हो जाना दर्शकों को स्तम्भित कर गया।
संगीत शिक्षा-शास्त्री
[संपादित करें]भारत वापस पहुँचने पर भारतीय शास्त्रीय संगीत के सर्वाधिक ख्यात संगीत संस्थान, "अखिल भारतीय गन्धर्व मंडल महविद्यालय", बम्बई का रजिस्ट्रार नियुक्त किया गया। किंतु अपने नगरवासियों का अनुरोध न टाल पाने के कारण सन 1956 में ही उन्हें कानपुर लौट कर स्वयम द्वारा स्थापित 'गांधी संगीत महाविद्यालय' का प्राचार्य पद सम्भालना पड़ा।
इसी दौरान सन 1950 में काशी हिन्दु विश्वविद्यालय, वाराणासी में पण्डित ओँकार नाथ ठाकुर के प्राचार्यत्व में संगीत एवं ललित कला महाविद्यालय की स्थापना हो चुकी थी। सन 55-56 तक प्रारम्भिक समस्याओं से उबर यह विकास के लिए तैयार था। इस की पुनर्संरचना के लिये तत्कालीन कुलपति डॉ सर सी पी रामास्वामी की प्रेरणा से योजना बनायी गयी। पण्डित ओँकार नाथ ठाकुर के आग्रह पर में लालमणि मिश्र तीसरी बार कानपुर छोड़ने को बाध्य हुए और सन 1957 में वाराणासी पहुँच महाविद्यालय में रीडर का पदभार ग्रहण किया।
उच्च शि़क्षा निर्देशन
[संपादित करें]पण्डित ओंकार नाथ ठाकुर और डॉ. बी. आर. देवधर द्वारा स्थापित इस युवा संस्थान को पल्लवित करने की चुनौती को डॉ. लालमणि मिश्र ने अत्यंत सहजता से स्वीकारा और इसका कुशलता से निर्वहन किया। उनके निर्देशन में काशी हिन्दु विश्वविद्यालय का संगीत एवं ललित कला महाविद्यालय भारतीय शास्त्रीय संगीत शिक्षण का अद्वितीय संस्थान बन गया। सामान्य पाठ्यक्रमों के साथ साथ प्रदर्शन एवं रचनाकर्म पर केन्द्रित डिप्लोमा से लेकर स्नातक, स्नातकोत्तर तथा डॉक्टोरल उपाधि -- डी. म्यूज़. -- का अनूठा कार्यक्रम आरम्भ किया गया जिसमें विभिन्न देशों के छात्रों ने प्रवेश लिया और आज यहाँ के पूर्व छात्र विश्व भर में संगीत संस्थानों में शीर्ष पदों पर कार्यरत हैं। पेन विश्वविद्यालय, फिलाडेल्फिया ने डॉ. मिश्र को विज़िटिंग प्रोफेसर के रूप में आमंत्रित किया जहाँ वे 1969 से 1978 तक जाते रहे। उनके ज्ञान, शिक्षण की सरसता और संवेदनशील व्यवहार के कारण दुनिया भर से छात्र उनके पास आते रहे। स्वयं उदय शंकर जी ने अपने पुत्र आनन्द शंकर को सितार वादन तथा वाद्य वृन्द की बारीकियाँ समझने उनके पास भेजा।
संगीत लेखन
[संपादित करें]बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ मिश्र ने पटियाला के उस्ताद अब्दुल अज़ीज़ खाँ को सुन गुप्त रूप से विचित्र वीणा हेतु वादन तकनीक विकसित करने के साथ साथ भारतीय संगीत वाद्यों के इतिहास तथा विकासक्रम पर अनुसन्धान किया। भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली ने इसे पुस्तक रूप में सन 1973 में (द्वितीय संस्करण 2002, तृतीय 2005) भारतीय संगीत वाद्य शीर्षक से प्रकाशित किया। डॉ मिश्र ने इस पुस्तक में भारतीय संगीत वाद्यों के उद्भव को तर्कपूर्ण आधार से बताते हुए उन से जुड़े अनेक भ्रमों का निवारण किया। आज तक यह पुस्तक वाद्यों की पहचान, वर्गीकरण तथा उनके अंतर्सम्बन्ध को समझने का प्रमुख स्रोत है। इसके अलावा भी उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखीं। चार युग्म ग्रंथों में से एक, तंत्री नाद सन 1979 में प्रकाशित हुआ; दूसरा ततनिनाद शीघ्र प्रकाश्य है। 1979 में उनके देहावसान उपराँत उनके पुत्र डॉ गोपाल शँकर मिश्र ने पिता की हस्त-लिखित पांडुलिपियों पर कार्य आरम्भ किया किंतु पिता की स्मृति में मधुकली भोपाल द्वारा आयोजित कार्यक्रम की पूर्व सन्ध्या पर 13 अगस्त 1999 को हृदय गति रुक जाने से उनका भी निधन हो गया। उनकी पुत्री डॉ रागिनी त्रिवेदी ने पिता द्वारा लिखे लेखों का सँपादन किया संगीत और समाज, जो भोपाल के मधुकली प्रकाशन द्वारा सन 2000 में प्रकाशित हुई। बाल एवँ किशोरों हेतु लिखी गयी अनेक पुस्तकें जैसे संगीत सरिता, तबला विज्ञान आदि डॉ मिश्र के जीवनकाल में ही प्रकाशित हो चुकीं थीं। अप्रकाशित पांडुलिपियों पर अब उनकी पुत्री कार्य कर रही हैं।
अनुसन्धान एवं आविष्कर्ता
[संपादित करें]वैदिक संगीत पर शोध करते हुए उन्होंने सामिक स्वर व्यवस्था का रहस्य सुलझाया। सामवेद के इन प्राप्त स्वरों को संरक्षित करने के लिए उन्होंने राग सामेश्वरी का निर्माण किया। भरत मुनि द्वारा विधान की गयी बाईस श्रुतिओं को मानव इतिहास में पहली बार डॉ मिश्र द्वारा निर्मित वाद्य यंत्र श्रुति-वीणा पर एक साथ सुनना सम्भव हुआ। इसके निर्माण तथा उपयोग की विधि “श्रुति वीणा” में दी गयी है जिसे नरेन्द्र प्रिंटिंग वर्क, वाराणासी द्वारा 11 फ़रवरी 1964 को प्रकाशित किया गया। सामेश्वरी के अतिरिक्त उन्होंने कई रागोँ की रचना की जैसे श्याम बिहाग, जोग तोड़ी, मधुकली, मधु-भैरव, बालेश्वरी आदि। डॉ मिश्र ने पूर्ण रूप से तंत्री वाद्यों के लिए निहित वादन शैली की रचना की जिसे मिश्रबानी के नाम से जाना जाता है। इस हेतु उन्होंने सैकड़ों रागों में हज़ारों बन्दिशों की रचना की जिनका सँकलन उनकी पुस्तकों के अतिरिक्त उनके शिष्यों की पुस्तकों, संगीत पत्रिकाओं में मिलता है। सन 1996 में युनेस्को द्वारा म्यूज़िक ऑव लालमणि मिश्र के शीर्षक से उनके विचित्र वीणा वादन का कॉम्पैक्ट डिस्क जारी किया गया।
स्रोत और लिंक
[संपादित करें]- संगीतेन्दु पण्डित लालमणि जी मिश्र: एक प्रतिभवान संगीतज्ञ, ल़क्ष्मी गणेश तिवारी. स्वर-साधना, केलिफोर्निया, 1996.
- श्रुति और स्मृति:महान संगीतज्ञ पण्डित लालमणि मिश्र, ओमप्रकाश चौरसिया, सं०. मधुकली प्रकाशन भोपाल अगस्त 1999.
- विचित्र वीणा पर सिन्दूरा, एक लघु छाया-चित्र Online Music Education
- Chordophones in Abhinavabhāratī शोध पत्र -- इन्द्राणी चक्रवर्ती
- Celestial Music of Pandit Lalmani Misra. डी०वी०डी०. स्वर-साधना, केलिफोर्निया,2007.
- राग-रूपान्जलि. रत्ना प्रकाशन: वराणासी. 2007. संगीतेन्दु पण्डित लालमणि मिश्र की बन्दिशों का संकलन -- डॉ पुष्पा बसु.
- संगीत श्रवण हेतु लिन्क