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लयनकाय

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कोशिका विज्ञान
प्राणि कोशिका चित्र

लयनकाय झिल्ली-बद्ध पुटिका संरचना होती है जो संवेष्टन विधि द्वारा गॉल्जीकाय में बनते हैं। पृथक्कृत लयनकाय पुटिकाओं में सभी प्रकार की जलापघटनीय प्रकिण्व (हाइड्रोलेस: लाइपेस, प्रोटीएसकार्बोडाइड्रेस) मिलतें हैं जो अम्लीय परिस्थितियों में सर्वाधिक सक्रिय होते हैं। ये प्रकिण्व कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, लिपिड, नाभिकीयाम्ल आदि के पाचन में सक्षम हैं।[1]

क्रिश्चियन डी डूवे ने सर्वप्रथम सन् 1958 में लाइसोसोम की खोज की। ये गोलाकार काय होते हैं, जिनके व्यास 0.4u-0.8u तक होता है। ये इकहरी युनिट मेम्ब्रेन से बने होते हैं तथा इनके अन्दर सघन मैट्रिक्स भरा रहता है, जिसमें ऐसिड फास्फेटेज एन्जाइम भरे रहते हैं।

  • न्यूक्लिएस - ये नाभिकीय अम्लों का नाइट्रोजनी क्षार , फास्फेट तथा शर्करा में जल - अपघटन करते हैं।
  • फॉस्फेटेस - ये फॉस्फेट यौगिकों का जल - अपघटन करते हैं।
  • प्रोटीएस - ये प्रोटीनों का अमीनो का अम्लों में जल अपघटन करते हैं।
  • ग्लाइकोसाइडेस - ये जटिल कार्बोहाइड्रेट्स का मोनोसैकेराइड्स में जल अपघटन करते हैं।
  • सल्फेटेस - ये सल्फेट यौगिकों का जल अपघटन करते हैं।
  • लाइपेस - ये लिपिड अणुओं का ग्लिसरॉल तथा वसीय अम्लों में जल अपघटन करते हैं।
  • लयनकाय के फटने के साथ ही कोशिका विभाजन का प्रक्रम आरम्भ हो जाता है।
  • नर युग्मक (शुक्राणु) के प्रवेश के लिए अण्ड कोशिका (Ovum Cell) के भित्ति को गलाने या पचाने हेतु एक विशिष्ट एन्जाइम स्त्रावित करती हैं।

विशेषता

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लयनकाय के कुछ प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं:

  • झिल्लीमय कोश जो गाल्जीकाय से मुकुलित होकर अलग हो जाते हैं।
  • इनके भीतर अनेक प्रकिण्व (लगभग 40) होते हैं।
  • वे पदार्थ, जिन पर प्रकिण्वों की अभिक्रिया होती है, लयनकाय के भीतर पहुँच जाते हैं।
  • लयनकाय को 'स्वघाती थैली' कहते हैं क्योंकि इसमें विद्यमान प्रकिण्व कोशिका के अपने क्षतिग्रस्त या मृत पदार्थ को पचा डालते हैं।

महत्त्व

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  • भोजन को पचाकर कोशिका के पोषण में सहायता करना, क्योंकि इनमें विभिन्न जलापघटनीय प्रकिण प्राचुर्य में विद्यमान रहते हैं जिनकी सहायता से ये जीवित कोशिका के लगभग सभी मुख्य रासायनिक अवयवों को पचा सकते हैं।
  • रोगजनकों को समाप्त कर, जैसे कि श्वेत रूधिर कोशिकाओं में होता है, रोगों से सुरक्षा प्रदान करने में सहायता करना।
  • कोशिका के क्षतिग्रस्त पदार्थ को नष्ट कर कोशिका को स्वच्छ रखने में सहायता करना ।
  • पोषण के अभाव में स्वयं कोशिका के भागों का ही भक्षण कर कोशिका को ऊर्जा प्रदान करना।
  • अण्डे की झिल्ली को भेदकर उसके भीतर वीर्याणु को प्रवेश कराने में सहायता करना ।
  • पादप कोशिकाओं में परिपक्व दारु कोशिकाओं के समस्त कोशिकीय पदार्थ लयनकाय की सक्रियता के कारण नष्ट हो जाते हैं।
  • जब कोशिकाएँ पुरानी, रोगग्रस्त अथवा क्षतिग्रस्त हो जाती हैं तब लयनकाय अन्य कोशिकांगों पर आक्रमण कर देते हैं और उन्हें समाप्त कर डालते हैं। दूसरे शब्दों में लयनकाय स्वभक्षक होते हैं।

सन्दर्भ

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  1. त्रिपाठी, नरेन्द्र नाथ (मार्च २००४). सरल जीवन विज्ञान, भाग-२. कोलकाता: शेखर प्रकाशन. पृ॰ ४-५. |access-date= दिए जाने पर |url= भी दिया जाना चाहिए (मदद)