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रूपवाद (साहित्य)

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रूपवाद (अंग्रेज़ी: Formalism) किसी ग्रन्थ की भाषिक संरचना पर केंद्रित साहित्यिक आलोचना और साहित्य सिद्धान्त की एक पद्धति है। इसमें भाषा को अत्यधिक महत्व दिया गया है। यह साहित्यिक पाठ के अध्ययन का आधार भाषा को मानता है। यह पाठ का अध्ययन उसकी भाषा पर पड़ने वाले किसी बाहरी प्रभाव पर विचार किए बगैर करता है। यह साहित्यिक आलोचना में प्रायः सांस्कृतिक मूल्यों, सामाजिक प्रभावों या लेखक के जीवन की अनदेखी करता है। विषयवस्तु के बजाय यह ग्रन्थ की भाषा के स्वरूप, विधा आदि पर ध्यान देता है।

रूपवादी सिद्धान्त

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साहित्य सिद्धान्त में रूपवाद उस आलोचनात्मक पद्धति को कहा जाता है जिसमें पाठ की भाषा में मौजूद विशेषताओं का विश्लेषण, विवेचन, उद्घाटन और मूल्यांकन किया जाता है। इस पद्धति में भाषा की व्याकरण या उत्पत्ति सम्बन्धी बातों के साथ ही छंद और अलंकार जैसी साहित्यिक प्रयुक्तियों पर विचार करना भी शामिल रहता है। रूपवादी पद्धति साहित्य की आलोचना के लिए उसके सांस्कृतिक, ऐतिहासिक या लेखक के जीवन संबंधी संदर्भों की जरूरत के महत्व को कम करती है। किसी भी कृति के कथ्य के महत्त्व को भी यह सिद्धांत अस्वीकार करता है। वास्तव में रूपवाद का उदय बीसवीं सदी के शुरुआती दौर में स्वच्छंदतावाद की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था। स्वच्छंदतावादी साहित्य सिद्धांत साहित्यकार और व्यक्तिगत रचनात्मक प्रतिभा को केंद्रीय महत्व प्रदान करता था। रूपवाद ने साहित्यकार और व्यक्तिगत प्रतिभा को हटाकर पाठ का महत्व पुनः प्रतिष्ठित किया। उसने पाठ के जरिए यह दिखाने की कोशिश की कि किस तरह उसमें रूप निर्मित हुए हैं जिसके कारण वह रचना महत्वपूर्ण हो गई है।

रूपवाद का इतिहास

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रूपवाद का आरंभ प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान रूस में हुआ। इसके २ मुख्य केंद्र थे- पहला मॉस्को और दूसरा सेंट पीटर्सबर्ग। मॉस्को में यह १९१५ में शुरु हुआ। सेंट पीटर्सबर्ग में इसकी शुरुआत अगले वर्ष १९१६ से मानी जाती है। सोवियत संघ के गठन के पश्चात् रूपवादियों का केन्द्र चेकोस्लोवाकिया की राजधानी प्राग बन गया। वहाँ पर रूपवादियों ने मिलकर प्राग लिंग्विस्टिक सर्किल संगठन का गठन किया। बोरिस ईकेनबाम, विक्टर श्क्लोवस्की, रोमन जैकोब्सन, रेनेवेलक, जॉन मुकारोवस्की इत्यादि रूपवादी लेखक हैं। आगे चलकर रूपवाद दो धाराओं- रूसी रूपवाद और आँग्ल अमेरिकी नई समीक्षा- में बँट गया। दूसरे विश्व युद्ध के अंत से लेकर १९७० ई. तक रूपवाद अमेरिकी साहित्यिक अध्ययन का एक प्रभावी प्रकार बना रहा था। यह विशेष रूप से रेने वेलेक और ऑस्टिन वारेन के साहित्य सिद्धांतों (1948, 1955, 1962) में दिखाई पड़ता है। १९७० के दशक के अंत में रूपवाद नए साहित्य सिद्धांतों द्वारा विस्थापित कर दिया गया। इन नए सिद्धांतों में कुछ राजनीतिक लक्ष्य वाले थे जबकि कुछ में यह संकल्पना निहित थी कि साहित्यिक रचनाओं को इसकी उत्पत्ति और उपयोग से पृथक करना शायद ही संभव है। बाद में रूपवाद को समाज निरपेक्ष होने जैसे नकारात्मक संदर्भ में विरोधियों के लिए प्रयुक्त किया जाने लगा। कुछ अकादमिक साहित्यिक आलोचना के नए प्रचलन इस बात की ओर संकेत करते हैं कि रूपवाद की पुनर्वापसी हो सकती है।

रूपवाद के प्रकार

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रूपवादी साहित्यिक आलोचना आगे चलकर दो धाराओं में विकसित हुई-

  1. रूसी रूपवाद
  2. आंग्ल अमेरिकी नई समीक्षा में।

रूसी रूपवाद

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प्राथमिक रूप से १९१६ ई. में बोरिस ईकेन बॉम, विक्टर श्कलोवस्की तथा यूरी तान्यनोव द्वारा सेंट पीटर्सबर्ग और फिर पेट्रोग्राद में स्थापित काव्य भाषा अध्ययन समुदाय (OPOYAZ) के कार्यों को रूसी रूपवाद कहा जाता है। इसमें १९१४ ई. में रोमन जैकोब्सन द्वारा स्थापित द मॉस्को लिंग्विस्टिक सर्कल के कार्य भी शामिल किए जाते हैं। प्रायः फूकोवादी ब्लादिमीर पोप भी इस आंदोलन से जुड़े माने जाते हैं। ईकेन बॉम ने 1926 ई. में ”रूपवादी पद्धति का सिद्धांत”("द थियोरी ऑफ द ‘फॉर्मल मेथड’") शीर्षक एक निबंध लिखा था। यह रूपवादियों द्वारा प्रस्तावित की गई पद्धति का परिचय देने वाला है। इसमें निम्नलिखित आधारभूत विचारों को शामिल किया गया है–

  1. इसका लक्ष्य “साहित्य का एक ऐसा विज्ञान जो स्वतंत्र और तथ्यपरक दोनों होगा” जिसे कभी कभी काव्यशास्त्र कहकर भी संबोधित किया जाता है पैदा करना है।
  2. चूंकि साहित्य भाषा द्वारा निर्मित होता है इसलिए भाषाविज्ञान साहित्य के विज्ञान का आधारभूत तत्व होगा।
  3. साहित्य बाहरी स्थितियों से स्वायत्त होता है इस अर्थ में कि साहित्यिक भाषा सामान्य प्रयोगों की भाषा से विशिष्ट होती है, कम-से-कम क्योंकि यह उस तरह पूर्णतः संप्रेषणात्मक नहीं होती है।
  4. साहित्य का एक अपना इतिहास है; रूपवादी संरचना में आविष्कार का इतिहास; और यह बाहरी भौतिक पदार्थों के इतिहास से निर्धारित नहीं होता है जैसा की मार्क्सवाद के कुछ क्रूर संस्करणों में बताया जाता है।
  5. साहित्यिक कृति जो कहती है उसे जैसे वह कहती है इससे अलगाया नहीं जा सकता है। इसलिए रूप और वस्तु अविच्छन्न और एक दूसरे के भाग होते हैं

आइचनबॉम के अनुसार स्कोलोवस्की इस समूह के सबसे अग्रणी आलोचक थे। उन्होंने इससे संबंधित दो संकल्पनाएं दी हैं।

  • (१) अपरिचितिकरण (डिफिमिलियराइजेशन)
  • (२) कथानक का विशिष्टीकरण

रूसी रूपवादियों ने साहित्यिक आलोचना में प्रायः सांस्कृतिक मूल्यों, सामाजिक प्रभावों या लेखक के जीवन की भूमिका को अस्वीकार किया। विक्टर श्क्लोवस्की के शुरुआती लेखन "कला जैसे कि एक उपकरण" (Iskusstvo kak priem , 1916) के मुख्य तर्कों में इस सिद्धांत का स्पष्ट उल्लेख देखा जा सकता है। [1]

रूपवादी शोध अध्ययन करने का वह मार्ग अपनाता है जिसमें विद्यार्थी अपना लेखन प्रस्तुत करते हैं। [2] इस तरीके में भाषा को स्वामी लेखक का स्थान मिलता है। रूपवादी शोध के दूसरे तरीके में संदर्भों को काटकर पाठकों को रचनाएं पढ़ने को दी जाती हैं। इस तरीके में भाषा के बजाय शिक्षक स्वामी लेखक की स्थिति में होता है।

रूपवाद और रीति सम्प्रदाय

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भारतीय रीति सम्प्रदायों या अलंकार सम्प्रदायों को रूपवादी समीक्षा आन्दोलन के समान मानना उचित नहीं है। इसका सबसे मुख्य कारण है रूपवाद की एकांगी प्रवृत्ति। यद्यपि रीति और अलंकार सम्प्रदाय ने भी रचना-प्रक्रिया, रचना पद्धति शैली या अलंकार के महत्त्व को रेखांकित किया है। इन्होंने भी काव्य के एक तत्व जैसे रीति या अलंकार को काव्य की आत्मा माना है, किन्तु इन्होंने अन्य तत्वों का बहिष्कार नहीं किया है बल्कि अन्य तत्वों को भी अपने चिंतन में शामिल करके उसे पूर्ण बनाने की चेष्टा की है। पर यूरोपीय रूपवादी चिन्तन में इस सर्वांगीणता का अभाव रहा है और एकांगिकता ही प्रधान रही है। [3]

रूपवाद और नई समीक्षा

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नई समीक्षा ने पाठक के महत्त्व को स्थापित करने का कार्य किया। संरचनावाद ने पाठ को महत्त्व दिया परंतु लेखक का अंत कर दिया था।

आंदोलन का अंत

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रूप पर अतिशय जोर देने के कारण रूपवाद की काफी आलोचना हुई। साहित्य और कला केवल शैली या रचना पद्धति के ही विषय हैं । शैली के सन्दर्भ में ही इनका विवेचन विश्लेषण और मूल्यांकन सम्भव है । इस प्रकार रूपवादी समीक्षा में कला और साहित्य के अन्य सब तत्त्वों की उपेक्षा करके सम्पूर्ण ध्यान केवल स्वरूप रूप रचना, शैली अथवा बाह्य रूप पर ही केन्द्रित रहा । इस एकांगी आग्रह ने रूपवाद का शीघ्र ही अंत कर दिया। [4]

इन्हें भी देखें

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सन्दर्भ

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  1. Viktor Shklovsky (1917) Art as Technique Archived 2009-12-05 at the वेबैक मशीन
  2. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> का गलत प्रयोग; Cain, Mary Ann 1999 नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है।
  3. डॉ मैथिली प्रसाद, भारद्वाज (2011). पाश्चात्य काव्यशास्त्र के सिद्धांत. पंचकूला: हरियाणा साहित्य अकादमी. पृ॰ 18८.
  4. डॉ मैथिली प्रसाद, भारद्वाज (2011). पाश्चात्य काव्यशास्त्र के सिद्धांत. पंचकूला: हरियाणा साहित्य अकादमी. पृ॰ 18८.