रूद्र संहिता
शिव पुराण | |
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शिव, गीताप्रेस गोरखपुर का आवरण पृष्ठ | |
लेखक | वेदव्यास |
देश | भारत |
भाषा | हिन्दी |
श्रृंखला | पुराण |
विषय | शिव भक्ति |
प्रकार | हिन्दू धार्मिक ग्रन्थ |
पृष्ठ | २४,००० श्लोक |
शिव पुराण' हिंदू धर्म में अठारह पुराणों में सबसे अधिक पढ़ा जाने वाला पुराण है। यह सनातन भगवान शिव और उनकी पत्नी देवी पार्वती के चारों ओर केंद्रित है। भगवान शिव सनातन धर्म में सबसे अधिक पूजे जाने वाले भगवानों में से एक हैं। [1]
शिव महापुराण में ७ (सात) 'संहिता' (छंदों का संग्रह) शामिल हैं जो भगवान शिव के जीवन के विभिन्न पहलुओं का एक ज्वलंत विवरण प्रदान करते हैं।
शिवमहापुराण की दूसरी संहिता रुद्र संहिता है। रुद्र संहिता के पांच खंड यानि भाग है। प्रथम खंड में बीस अध्याय हैं। दूसरे खंड को सती खंड कहा गया है, जिसमें 43 अध्याय हैं। तीसरा खंड पार्वती खंड है, जिसमें 55 अध्याय हैं। चौथा खंड कुमार खंड के नाम से जाना जाता है, जिसमें 20 अध्याय हैं। इस संहिता का पांचवां खंड युद्ध खंड के नाम से जाना जाता है, इसमें कुल 59 अध्याय हैं। [2] इसी संहिता में 'सृष्टि खण्ड' के अन्तर्गत जगत् का आदि कारण शिव को माना गया हैं शिव से ही आद्या शक्ति 'माया' का आविर्भाव होता हैं फिर शिव से ही 'ब्रह्मा' और 'विष्णु' की उत्पत्ति बताई गई है।[3] इस पुराण में २४,००० श्लोक है तथा इसके क्रमश: ६ खण्ड है-
(शिव +रूद्र =शूद्र )अतः शूद्र, रूद्र का ही रूप है अतः शूद्रो का कुल वंश शिव से ही है उनके आदि देव शिव, गणेश और रुद्रवतार हनुमान जी है।
विद्येश्वर संहिता, रुद्र संहिता, कोटिरुद्र संहिता, उमा संहिता, कैलास संहिता, वायु संहिता।
रुद्र संहिता प्रथम भाग (सृष्टि खण्ड)
[संपादित करें]रुद्र संहिता प्रथम भाग(सृष्टि खण्ड) में कुल २० अध्याय हैं। इस खंड में निम्न विषयों पर कथा देखी जा सकती है :-
- ऋषियों के प्रश्न के उत्तर में नारद-ब्रह्म-संवाद की अवतारणा करते हुए सूतजी का उन्हें नारदमोह का प्रसंग सुनाना; कामविजय के गर्व से युक्त हुए नारद का शिव, ब्रह्मा तथा विष्णु के पास जाकर अपने तप का प्रभाव बताना
- मायानिर्मित नगर में शीलनिधि की कन्यापर मोहित हुए नारद जी का भगवान् विष्णु से उनका रूप माँगना, भगवान् का अपने रूप के साथ उन्हें वानर का-सा मुँह देना, कन्या का भगवान् को वरण करना और कुपित हुए नारद का शिवगणों को शाप देना
- नारदजी का भगवान् विष्णु को क्रोधपूर्वक फटकारना और शाप देना; फिर माया के दूर हो जाने पर पश्चात्तापपूर्वक भगवान् के चरणों में गिरना और शुद्धि का उपाय पूछना तथा भगवान् विष्णु का उन्हें समझा-बुझाकर शिव का माहात्म्य जानने के लिये ब्रह्माजी के पास जाने का आदेश और शिव के भजन का उपदेश देना
- नारदजी का शिवतीर्थों में भ्रमण, शिवगणों को शापोद्धार की बात बताना तथा ब्रह्मलोक में जाकर ब्रह्माजी से शिवतत्त्व के विषय में प्रश्न करना
- महाप्रलयकाल में केवल सद्ब्रह्म की सत्ता का प्रतिपादन, उस निर्गुण-निराकार ब्रह्म से ईश्वरमूर्ति (सदाशिव) का प्राकट्य, सदाशिव द्वारा स्वरूपभूता शक्ति (अम्बिका) का प्रकटीकरण, उन दोनों के द्वारा उत्तम क्षेत्र (काशी या आनन्दवन) का प्रादुर्भाव, शिव के वामांग से परम पुरुष (विष्णु) का आविर्भाव तथा उनके सकाश से प्राकृत तत्त्वों की क्रमश: उत्पत्ति का वर्णन
- भगवान् विष्णु की नाभि से कमल का प्रादुर्भाव, शिवेच्छावश ब्रह्माजी का उससे प्रकट होना, कमलनाल के उद्गम का पता लगाने में असमर्थ ब्रह्मा का तप करना, श्रीहरि का उन्हें दर्शन देना, विवादग्रस्त ब्रह्मा-विष्णु के बीच में अग्नि-स्तम्भ का प्रकट होना तथा उसके ओर-छोर का पता न पाकर उन दोनों का उसे प्रणाम करना
- ब्रह्मा और विष्णु को भगवान् शिव के शब्दमय शरीर का दर्शन[4]
- उमा सहित भगवान् शिव का प्राकट्य, उनके द्वारा अपने स्वरूप का विवेचन तथा ब्रह्मा आदि तीनों देवताओं की एकता का प्रतिपादन; श्रीहरि को सृष्टि की रक्षा का भार एवं भोग-मोक्ष-दान का अधिकार दे शिव का अन्तर्धान होना
- शिवपूजन की विधि तथा उसका फल भगवान् शिव की श्रेष्ठता तथा उनके पूजन की अनिवार्य आवश्यकता का प्रतिपादन; शिवपूजन की सर्वोत्तम विधि का वर्णन
- विभिन्न पुष्पों, अन्नों तथा जलादि की धाराओं से शिवजी की पूजा का माहात्म्य; सृष्टि का वर्णन
- स्वायम्भुव मनु और शतरूपा की, ऋषियों की तथा दक्षकन्याओं की संतानों का वर्णन तथा सती और शिव की महत्ता का प्रतिपादन
- यज्ञदत्तकुमार को भगवान् शिव की कृपा से कुबेरपद की प्राप्ति तथा उनकी भगवान् शिव के साथ मैत्री
- भगवान शिव का कैलास पर्वत पर गमन तथा सृष्टिखण्ड का उपसंहार [5]
रूद्र संहिता (द्वितीय) सती खण्ड
[संपादित करें]रूद्र संहिता का (द्वितीय) सती खण्ड; इसमें ४३ अध्याय हैं:-
- नारदजी के प्रश्न और ब्रह्माजी के द्वारा उनका उत्तर, सदाशिव से त्रिदेवों की उत्पत्ति तथा ब्रह्माजी से देवता आदि की सृष्टि के पश्चात्ए क नारी और एक पुरुष का प्राकट्य कामदेव के नामों का निर्देश, उसका रति के साथ विवाह तथा कुमारी संध्या का चरित्र
- वसिष्ठ मुनि का चन्द्रभाग पर्वत पर उसको तपस्या की विधि बताना
- संध्या की तपस्या, उसके द्वारा भगवान् शिव की स्तुति तथा उससे संतुष्ट हुए शिव का उसे अभीष्ट वर दे मेधातिथि के यज्ञ में भेजना संध्या की आत्माहुति, उसका अरुन्धती के रूप में अवतीर्ण होकर मुनिवर वसिष्ठ के साथ विवाह करना, ब्रह्माजी का रुद्र के विवाह के लिये प्रयत्न और चिन्ता तथा भगवान् विष्णु का उन्हें 'शिवा' की आराधना के लिये उपदेश देकर चिन्तामुक्त करना
- दक्ष की तपस्या और देवी शिवा का उन्हें वरदान देना ब्रह्माजी की आज्ञा से दक्ष द्वारा मैथुनी सृष्टि का आरम्भ, अपने पुत्र हर्यश्वों और शबलाश्वों को निवृत्तिमार्ग में भेजने के कारण दक्ष का नारद को शाप देना
- दक्ष की साठ कन्याओं का विवाह, दक्ष और वीरिणी के यहाँ देवी शिवा का अवतार, दक्ष द्वारा उनकी स्तुति तथा सती के सद्गुणों एवं चेष्टाओं से माता-पिता की प्रसन्नता सती की तपस्या से संतुष्ट देवताओं का कैलास में जाकर भगवान् शिव का स्तवन करना
- ब्रह्माजी का रुद्रदेव से सती के साथ विवाह करने का अनुरोध, श्रीविष्णु द्वारा अनुमोदन और श्रीरुद्र की इसके लिये स्वीकृति
- सती को शिव से वर की प्राप्ति तथा भगवान्शि व का ब्रह्माजी को दक्ष के पास भेजकर सती का वरण करना
- ब्रह्माजी से दक्ष की अनुमति पाकर देवताओं और मुनियों सहित भगवान् शिव का दक्ष के घर जाना, दक्ष द्वारा सबका सत्कार तथा सती और शिव का विवाह
- सती और शिव के द्वारा अग्नि की परिक्रमा, श्रीहरि द्वारा शिवतत्त्व का वर्णन, शिव का ब्रह्माजी को दिये हुए वर के अनुसार वेदी पर सदा के लिये अवस्थान तथा शिव और सती
का विदा हो कैलास पर जाना
- सतीका प्रश्न तथा उसके उत्तर में भगवान् शिव द्वारा ज्ञान एवं नवधा भक्ति के स्वरूप का विवेचन
- दण्डकारण्य में शिव को श्रीराम के प्रति मस्तक झुकाते देख सती का मोह तथा शिव की आज्ञा से उनके द्वारा श्रीराम की परीक्षा
- श्रीशिव के द्वारा गोलोकधाममें श्रीविष्णुका गोपेशके पदपर अभिषेक तथा उनके प्रति प्रणामका प्रसंग सुनाकर श्रीरामका सतीके मनका संदेह करना सतीका शिवके द्वारा मानसिक त्याग
- प्रयाग में समस्त महात्मा मुनियोंद्वारा किये गये यज्ञ में दक्ष का भगवान् शिव को तिरस्कारपूर्वक शाप देना तथा नन्दी द्वारा ब्राह्मणकुल को शाप-प्रदान, भगवान् शिव का नन्दी को शान्त करना
- दक्ष के द्वारा महान् यज्ञ का आयोजन, उसमें ब्रह्मा, विष्णु, देवताओं और ऋषियों का आगमन, दक्ष द्वारा सबका सत्कार, यज्ञ का आरम्भ, दधीचि द्वारा भगवान् शिव को बुलाने का अनुरोध और दक्ष के विरोध करने पर शिव-भक्तों का वहाँ से निकल जाना
- दक्षयज्ञ का समाचार पा सती का शिव से वहाँ चलने के लिये अनुरोध, दक्ष के शिवद्रोह को जानकर भगवान् शिव की आज्ञा से देवी सती का पिता के यज्ञमण्डप की ओर शिवगणों के
साथ प्रस्थान
- यज्ञशाला में शिव का भाग न देखकर सती के रोषपूर्ण वचन, दक्ष द्वारा शिव की निन्दा सुन दक्ष तथा देवताओं को धिक्कार-फटकार कर सती द्वारा अपने प्राण-त्याग का निश्चय
- सती का योगाग्नि से अपने शरीर को भस्म कर देना, दर्शकों का हाहाकार, शिवपार्षदों का प्राणत्याग तथा दक्ष पर आक्रमण, ऋभुओं द्वारा उनका भगाया जाना तथा देवताओं की चिन्ता
- आकाशवाणी द्वारा दक्ष की भर्त्सना, उनके विनाश की सूचना तथा समस्त देवताओं को यज्ञमण्डप से निकल जाने की प्रेरणा गणों के मुख से और नारद से भी सती के दग्ध होने की बात सुनकर दक्षपर कुपित हुए शिव का अपनी जटा से वीरभद्र और महाकाली को प्रकट करके उन्हें यज्ञविध्वंस करने और विरोधियों को जला डालने की आज्ञा देना
- प्रमथगणों सहित वीरभद्र और महाकाली का दक्षयज्ञ-विध्वंस के लिये प्रस्थान, दक्ष तथा देवताओं को अपशकुन एवं उत्पातसूचक लक्षणों का दर्शन एवं भय होना
- दक्ष के यज्ञ की रक्षा के लिये भगवान् विष्णु से प्रार्थना, भगवान् का शिवद्रोहजनित संकट को टालने में अपनी असमर्थता बताते हुए दक्षको समझाना तथा सेनासहित वीरभद्र का आगमन
- देवताओं का पलायन, इन्द्र आदि के पूछने पर बृहस्पति का रुद्रदेव की अजेयता बताना, वीरभद्र का देवताओं को युद्ध के लिये ललकारना, श्रीविष्णु और वीरभद्र की बातचीत तथा विष्णु आदि का अपने लोक में जाना एवं दक्ष और यज्ञ का विनाश करके वीरभद्र का कैलास को लौटना
- श्रीविष्णु की पराजय में दधीचि मुनि के शाप को कारण बताते दधीचि और क्षुव के विवाद का इतिहास, मृत्युंजय-मन्त्र के अनुष्ठान से दधीचि की अवध्यता तथा श्रीहरि का क्षुव को दधीचि की पराजय के लिये यत्न करने का आश्वासन
- श्रीविष्णु और देवताओं से अपराजित दधीचि का उनके लिये शाप और क्षुव पर अनुग्रह देवताओं सहित ब्रह्मा का विष्णुलोक में जाकर अपना दुःख निवेदन करना, श्रीविष्णु का उन्हें शिव से क्षमा माँगने की अनुमति दे उनको साथ ले कैलास पर जाना तथा भगवान् शिव से मिलना
- देवताओं द्वारा भगवान् शिव की स्तुति, भगवान् शिव का देवता आदि के अंगों के ठीक होने और दक्ष के जीवित होने का वरदान देना, श्रीहरि आदि के साथ यज्ञमण्डप में पधारकर शिव का दक्ष को जीवित करना तथा दक्ष और विष्णु आदि के द्वारा उनकी स्तुति
- भगवान् शिव का दक्ष को अपनी भक्तवत्सलता, ज्ञानी भक्त की श्रेष्ठता तथा तीनों देवताओं की एकता बताना, दक्ष का अपने यज्ञ को पूर्ण करना, सब देवता आदि का अपने-अपने स्थानको जाना, सतीखण्डका उपसंहार और माहात्म्य
रुद्र संहिता तृतीय ( पार्वती) खण्ड
[संपादित करें]रुद्र संहिता का पार्वती खण्ड ५५ अध्याय ० तृतीय ( पार्वती) खण्ड
- हिमालय के स्थावर-जंगम द्विविध स्वरूप एवं दिव्यत्व का वर्णन, मेना के साथ उनका विवाह तथा मेना आदि को पूर्वजन्म में प्राप्त सनकादि के शाप एवं वरदान का कथन
- देवताओं का हिमालय के पास जाना और उनसे सत्कृत हो उन्हें उमाराधन की विधि बता स्वयं भी एक सुन्दर स्थान में जाकर उनकी स्तुति करना
- उमादेवी का दिव्यरूप से देवताओं को दर्शन देना, देवताओं का उनसे अपना अभिप्राय निवेदन करना और देवी का अवतार लेने की बात स्वीकार करके देवताओं को आश्वासन देना
- मेना को प्रत्यक्ष दर्शन देकर शिवादेवी का उन्हें अभीष्ट वरदान से संतुष्ट करना तथा मेना से मैनाक का जन्म
- देवी उमाका हिमवान् के हृदय तथा मेना के गर्भ में आना, गर्भस्था देवीका देवताओं द्वारा स्तवन, उनका दिव्यरूप में प्रादुर्भाव, माता मेना से बातचीत तथा नवजात कन्या के रूप में परिवर्तित होना
- पार्वती का नामकरण और विद्याध्ययन, नारद का हिमवान् के यहाँ जाना, पार्वती का हाथ देखकर भावी फल बताना, चिन्तित हुए हिमवान् को आश्वासन दे पार्वती का विवाह शिवजी के साथ करने को कहना और उनके संदेह का निवारण करना
- मेना और हिमालय की बातचीत, पार्वती तथा हिमवान् के स्वप्न तथा भगवान् शिव से मंगल- ग्रह की उत्पत्ति का प्रसंग
- भगवान् शिव का गंगा वतरण तीर्थ में तपस्या के लिये आना, हिमवान् द्वारा उनका स्वागत, पूजन और स्तवन तथा भगवान् शिव की आज्ञा के अनुसार उनका उस स्थानपर दूसरों को न जाने देने की व्यवस्था करना
- हिमवान् का पार्वती को शिव की सेवा में रखने के लिये उनसे आज्ञा माँगना और शिव का कारण बताते इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर देना
- पार्वती और शिव का दार्शनिक संवाद, शिव का पार्वती को अपनी सेवा के लिये आज्ञा देना तथा पार्वती द्वारा भगवान् की प्रतिदिन सेवा
- तारकासुर के सताये हुए देवताओं का ब्रह्माजी को अपनी कष्टकथा सुनाना, ब्रह्माजी का उन्हें पार्वती के साथ शिव के विवाह के लिये उद्योग करने का आदेश देना, ब्रह्माजी के समझाने से तारकासुर का स्वर्गको छोड़ना और देवताओं का वहाँ रहकर लक्ष्यसिद्धि के लिए प्रयत्नशील होना
- इन्द्र द्वारा काम का स्मरण, उसके साथ उनकी बातचीत तथा उनके कहने से काम का शिवको मोहने के लिये प्रस्थान
- रुद्र की नेत्राग्नि से काम का भस्म होना, रति का विलाप, देवताओं की प्रार्थना से शिव का काम को द्वापर में प्रद्युम्न रूप से नूतन शरीर की प्राप्ति के लिये वर देना और रति का
शम्बर-नगर में जाना
- ब्रह्माजी का शिव की क्रोधाग्नि को वडवानल की संज्ञा दे समुद्र में स्थापित करके संसार के भय को दूर करना, शिव के विरह से पार्वती का शोक तथा नारद जी के द्वारा उन्हें तपस्या के लिये उपदेशपूर्वक पंचाक्षर मन्त्र की प्राप्ति श्रीशिव की आराधना के लिये पार्वतीजी की दुष्कर तपस्या
- पार्वती की तपस्याविषयक दृढ़ता, उनका पहले से भी उग्र तप, उससे त्रिलोकी का संतप्त होना तथा समस्त देवताओं के साथ ब्रह्मा और विष्णु का भगवान् शिव के स्थान पर जाना
- देवताओं का भगवान् शिव से पार्वती के साथ विवाह करने का अनुरोध, भगवान् का विवाह के दोष बताकर अस्वीकार करना तथा उनके पुनः प्रार्थना करने पर स्वीकार कर लेना
- भगवान् शिव की आज्ञा से सप्तर्षियों का पार्वती के आश्रम पर जा उनके शिव विषयक अनुराग की परीक्षा करना और भगवान् को सब वृत्तान्त बताकर स्वर्ग को जाना[6]
रुद्र संहिता का (चतुर्थ) कुमार खण्ड
[संपादित करें]रुद्र संहिता के कुमार खण्ड में २० अध्याय हैं:-
- 1-8.देवताओंद्वारा स्कन्दका शिव-पार्वती के पास लाया जाना, उनका लाड़-प्यार, देवोंके माँगनेपर शिवजीका उन्हें तारक- वधके लिये स्वामी कार्तिकको देना, कुमारकी अध्यक्षतामें देव – सेनाका प्रस्थान, महीसागर-संगमपर तारकासुरका आना और दोनों सेनाओंमें मुठभेड़, वीरभद्र का तारकके साथ घोर संग्राम, पुनः श्रीहरि और तारकमें भयानक युद्ध
- 9-12.ब्रह्माजीकी आज्ञासे कुमारका युद्धके लिये जाना, तारकके साथ उनका भीषण संग्राम और उनके द्वारा तारकका वध, तत्पश्चात् देवोंद्वारा कुमारका अभिनन्दन और स्तवन, कुमारका उ्हें वरदान देकर कैलासपर जा शिव-पार्वतीके पास निवास करना
- 13-18. शिवाका अपनी मैलसे गणेश को उत्पन्न करके द्वारपाल-पदपर नियुक्त करना, गणेशद्वारा शिवजीके रोके जानेपर उनका शिवगणोंके साथ भयंकर संग्राम, शिवजीद्वारा गणेशका शिरश्छेदन, कुपित हुई शिवाका शक्तियोंको उत्पन्न करना और उनके द्वारा प्रलय मचाया जाना, देवताओं और ऋषियोंका स्तवनद्वारा पार्वतीको प्रसन्न करना, उनके द्वारा पुत्रको जिलाये जानेकी बात कही जानेपर शिवजीके आज्ञानुसार हाथी का सिर लाया जाना और उसे गणेशके धड़से जोड़कर उन्हें जीवित करना
- 19. पार्वतीद्वारा गणेशजीको वरदान, देवोंद्वारा उन्हें अग्रपूज्य माना जाना, शिवजीद्वारा गणेशको सर्वाध्क्ष-पद प्रदान और गणेशचतुर्थीवरतका वर्णन, तत्पश्चात् सभी देवताओंका उनकी स्तुति करके हर्षपूर्वक अपने-अपने स्थानको लौट जाना
- 20 स्वामिकार्तिक और गणेशकी बाल-लीला, दोनोंका परस्पर विवाहके विषयमें विवाद, शिवजीद्वारा पृथ्वी परिक्रमाका आदेश, कार्तिकेयका प्रस्थान, गणेशका माता-पिताकी परिक्रमा करके उनसे पृथ्वी- परिक्रमा स्वीकृत कराना, विश्वरूपकी सिद्धि और बुद्धि नामक दोनों कन्याओंके साथ गणेशका विवाह और उनसे क्षेम तथा लाभ नामक दो पुत्रोंकी उत्पत्ति, कुमारका पृथ्वी-परिक्रमा करके लौटना और क्षुब्ध होकर क्रौंचपर्वतपर चला जाना, कुमारखण्डके श्रवणकी महिमा
रुद्र संहिता का (पांचवां)युद्ध खण्ड
[संपादित करें]इस खंड में ५९ अध्याय हैं:-
- तारकपुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली और कमलाक्ष की तपस्या, ब्रह्माद्वारा उन्हें वर-प्रदान, मयद्वारा उनके लिये तीन पुरोंका निर्माण और उनकी सजावट-शोभाका वर्णन
- तारकपुत्रोंके प्रभावसे संतप्त हुए देवोंकी ब्रह्माके पास करुण पुकार, ब्रह्माका उन्हें शिवके पास भेजना, शिवकी आज्ञासे देवोंका विष्णुकी शरणमें जाना और विष्णुका उन दैत्योंको मोहित करके उन्हें आचारभ्रष्ट करना
- देवोंका शिवजीके पास जाकर उनका स्तवन करना, शिवजीके त्रिपुरवधके लिये उद्यत न होनेपर ब्रह्मा और विष्णुका उन्हें समझाना, विष्णुके बतलाये हुए शिव-मन्त्रका देवोंद्वारा तथा विष्णुद्वारा जप, शिवजीकी प्रसन्नता और उनके लिये विश्वकर्माद्वारा सर्वदेवमय रथका निर्माण
- सर्वदेवमय रथका वर्णन, शिवजीका उस रथपर चढ़कर युद्धके लिये प्रस्थान, उनका पशुपति नाम पड़नेका कारण, शिवजी द्वारा गणेश का और त्रिपुर-दाह, मयदानवका त्रिपुरसे जीवित बच निकलना
- देवोंके स्तवनसे शिवजीका कोप शान्त होना और शिवजीका उन्हें वर देना, मय दानव का शिवजीके समीप आना और उनसे वर-याचना करना, शिवजीसे वर पाकर मयका वितललोकमें जाना
- दम्भकी तपस्या और विष्णुद्वारा उसे पुत्रप्राप्तिका वरदान, शंखचूडका जन्म, तप और उसे वरप्राप्ति, ब्रह्माजीकी आज्ञासे उसका पुष्करमें तुलसीके पास आना और उसके साथ वार्तालाप, ब्रह्माजीका पुनः वहाँ प्रकट होकर दोनोंको आशीर्वाद देना और शंखचूडका गान्धर्व विवाहकी विधिसे तुलसीका पाणिग्रहण करना
- शंखचूडका असुरराज्यपर अभिषेक और उसके द्वारा देवोंका अधिकार छीना जाना, देवोंका ब्रह्माकी शरणमें जाना, ब्रह्माका उन्हें साथ लेकर विष्णुके पास जाना, विष्णुद्वारा शंखचूडके जन्मका रहस्योद्घाटन और फिर सबका शिवके पास जाना और शिवसभामें उनकी झाकी करना तथा अपना अभिप्राय प्रकट करना
- देवताओंका रुद्र के पास जाकर अपना दुःख निवेदन करना, रुद्रद्वारा उन्हें आश्वासन और चित्ररथको शंखचूडके पास भेजना, चित्ररथके लौटनेपर रुद्रका गणों, पुत्रों और भद्रकालीसहित युद्धके लिये प्रस्थान, उधर शंखचूडका सेनासहित पुष्पभद्राके तटपर पड़ाव डालना तथा दानवराजके दूत और शिवकी बातचीत
- देवताओं और दानवोंका युद्ध, शंखचूडके साथ वीरभद्रका संग्राम, पुनः उसके साथ भद्रकालीका भयंकर युद्ध करना और आकाशवाणी सुनकर निवृत्त होना, शिवजीका शंखचूडके साथ युद्ध और आकाशवाणी सुनकर युद्धसे निवृत्त हो विष्णुको प्रेरित करना, विष्णुद्वारा शंखचूडके कवच और तुलसीके शीलका अपहरण, फिर रुद्रके हाथों त्रिशूलद्वारा शंखचूडका वध, शंखकी उत्पत्तिका कथन[7]
- विष्णुद्वारा तुलसी के शील-हरणका वर्णन, कुपित हुई तुलसीद्वारा विष्णुको शाप देना
- उमाद्वारा शम्भुके नेत्र मूँद लिये जानेपर अन्धकारमें शम्भुके पसीनेसे अन्धकासुरकी उत्पत्ति, हिरण्याक्ष की पुत्रार्थ तपस्या और शिवका उसे पुत्ररूपमें अन्धकको देना, हिरण्याक्षका त्रिलोकीको
जीतकर पृथ्वीको रसातलमें ले जाना और वराह रूपधारी विष्णुद्वारा उसका वध
- हिरण्यकशिपु की तपस्या और ब्रह्मासे वरदान पाकर उसका अत्याचार, नृसिंह द्वारा उसका वध और प्रह्लादको राज्यप्राप्ति
- भाइयोंके उपालम्भसे अन्धक का तप करना और वर पाकर त्रिलोकीको जीतकर स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त होना, उसके मनत्रियोंद्वारा शिव-परिवारका वर्णन, पार्वतीके सौन्दर्यपर मोहित होकर अन्धकका वहाँ जाना और नन्दीश्वरके साथ युद्ध, अन्धकके प्रहारसे नन्दीश्वरकी मूर्च्छा, पार्वतीके आवाहनसे देवियोंका प्रकट होकर युद्ध करना, शिवका आगमन और युद्ध, शिवद्वारा शुक्राचार्यका निगला जाना, शिवकी प्रेरणासे विष्णुका कालीरूप धारण करके दानवोंके रक्तका पान करना, शिवका अन्धकको अपने त्रिशूलमें पिरोना और युद्धकी समाप्ति
- नन्दीश्वर द्वारा शुक्राचार्य का अपहरण और शिवद्वारा उनका निगला जाना, सौ वर्षके बाद शुक्रका शिवलिंगके रास्ते बाहर निकलना, शिवद्वारा उनका ‘शुक्र’ नाम रखा जाना, शुक्रद्वारा जपे गये मृत्युंजय- मन्त्र और शिवाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रका वर्णन, शिवद्वारा अन्धकको वर-प्रदान
- शुक्राचार्यकी घोर तपस्या और इनका शिवजीको चित्तरल्न अर्पण करना तथा अष्टमूत्त्यष्टक-स्तोत्रद्वारा उनका स्तवन करना, शिवजीका प्रसन्न होकर उन्हें मृतसंजीवनी विद्या तथा अन्यान्य वर प्रदान करना
- श्रीकृष्ण द्वारा बाणकी भुजाओंका काटा जाना, सिर काटनेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्ण को शिवका रोकना और उन्हें समझाना, श्रीकृष्णका परिवारसमेत द्वारका को लौट जाना, बाणका ताण्डव नृत्यद्वारा शिवको प्रसन्न करना, शिवद्वारा उसे अन्यान्य वरदानोंके साथ महाकालत्वकी प्राप्ति
*गजासुर की तपस्या, वर-प्राप्ति और उसका अत्याचार, शिवद्वारा उसका वध,उसकी प्रार्थनासे शिवका उसका चर्म धारण करना और ‘कृत्तिवासा’ नामसे विख्यात होना तथा कृत्तिवासेश्वरलिंगकी स्थापना करना दुन्दुभिनिह्हाद नामक दैत्यका व्याघ्ररूपसे शिवभक्त पर आक्रमण करनेका विचार और शिवद्वारा उसका वध
- विदल और उत्पल नामक दैत्योंका पार्वती पर मोहित होना और पार्वती का कन्दुक प्रहारद्वारा उनका काम तमाम करना, कन्दुकेश्वर की स्थापना और उनकी महिमा[8]
.
रूद्र, शूद्र, छुद्र सम्बन्ध
सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ "संक्षिप्त शिवपुराण (विशिष्ठ संस्करण)", कोड संख्या १४६८, गीता प्रेस, गोरखपुर, मूल से 20 फ़रवरी 2022 को पुरालेखित, अभिगमन तिथि 27 फ़रवरी 2022
- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 20 फ़रवरी 2022 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 20 फ़रवरी 2022.
- ↑ https://aadesh.guru/shiva-purana/#%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0_%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE
- ↑ https://www.prabhatkhabar.com/religion/1034257/
- ↑ https://ebook.pustak.org/index.php/books/bookdetails/2079
- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 20 फ़रवरी 2022 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 20 फ़रवरी 2022.
- ↑ https://m-hindi.webdunia.com/shravan/shiv-mahapuran-116080400041_1.html
- ↑ https://hindi.webdunia.com/shravan/shiv-mahapuran-116080400033_1.html