रुपारेल नदी

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रूपारेल या बारा नदी भारत के राजस्थान प्रान्त की एक महत्वपूर्ण नदी है। यह यमुना की एक सहायक नदी है। इस नदी का उद्गम अलवर जिले के थानागाजी तहसील के टोडी गाँव के पूर्वी ढाल पे स्थित उदयनाथ की पहाड़ी से होता है। रूपारेल रिवर का विलय सीकरी बाध भरतपुर में होता है यह नदी राजस्थान के दो जिले अलवर और भरतपुर होते हुए उत्तर प्रदेश में प्रवेश करती है और आगरा और मथुरा के बीच यमुना नदी से जुड़ जाती है। रूपारेल नदी २०वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में भरतपुर और अलवर के राज्यों में विवाद की एक वजह रह चुकी है। नदी के जल बंटवारे के विवाद पर सन १९२८ में ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार ने अपना फैसला सुनाया। इस फैसले के तहत नटनी बारा का निर्माण कर अलवर और भरतपुर में जल का बंटवारा किया गया। नटनी बारा से गुजरने की वजह से रूपारेल नदी को बारा नदी के नाम से भी जाना जाता है। अत्यधिक जंगलों की कटान की वजह से इस नदी का सदानीरा चरित्र ७० का दशक आते आते बदल गया और यह नदी एक बरसाती नदी में बदल गयी। हलांकि तरुण भारत संघ नमक संस्था और जल बिरादरी के लोगों के एक लम्बे प्रयास के बाद जनसहभागिता द्वारा इस नदी को पुनर्जीवन मिला और यह फिर से वर्ष भर बहने वाली नदी बन चुकी है।[1] 2023 जून यह नदी िफर स॓ सूख़ गई है।

भौगोलिक विस्तार[संपादित करें]

रूपारेल नदी का जलागम क्षेत्र ४४८८ वर्ग किलोमीटर है। कुल लम्बाई १०४ किलोमीटर है। इस नदी पर तरुण भारत संघ द्वारा जन सहभागिता से कुल ५९० जल संरचनाओं का निर्माण किया गया है। इन संरचनाओं की देखभाल के लिए गाँव विकास संगठन बनाये गए है।[2]

इतिहास[संपादित करें]

रूपारेल नदी २०वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में भरतपुर और अलवर के राज्यों में विवाद की एक वजह रह चुकी है। नदी के जल बंटवारे के विवाद पर सन १९२८ में ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार ने अपना फैसला सुनाया। इस फैसले के तहत नटनी बारा का निर्माण कर अलवर और भरतपुर में जल का बंटवारा किया गया। रूपारेल नदी का प्राकृतिक रास्ता भरतपुर राज्य को जल देते हुए यमुना तक जाता था। अलवर के तत्कालीन राजा इस जल को अपने राज्य अलवर में ही रोके रखना चाहते थे। इस मुद्दे को लेकर दोनों राज्यों में विवाद बढ़ता गया और फिर मामला ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार की लंदन की अदालत में पंहुचा। लंदन में लगने वाली अदालत में ये लड़ाई ४ वर्षो तक चलती रही जिसका निपटारा जनवरी १९२८ को हुआ। 

इस फैसले के तहत नटनी का बारा में एक समतल जगह पर एक दीवार खडी की गई और नदी के जल का दो राज्यों में बंटवारा किया गया और फैसले में अलवर राज को नदी के ४५ प्रतिशत जल के उपयोग का अधिकार मिला जबकि भारतपुर राज को ५५ प्रतिशत जल पर अधिकार दिया गया। अलवर के महाराज चाहते थे की राज्य में बरसने वाला जल राज्य में रुका रहे और रूपारेल नदी में बहकर भरतपुर राज्य को न जाए। इस वजह से उन्होंने सरिस्का के वन को संरक्षित शिकारगाह घोषित कर दिया ताकि क्षेत्र में बरसने वाला जल पहाड़ियों को पोषित कर सके और उसके नीचे के कुंओं में खेती के लिए जल स्तर बना रहे। जनवरी १९२८ में जल विवाद के निपटारे के बाद दोनों राज्यों ने संयुक्त उत्सव मनाया जिसमे भरतपुर के महाराज श्री किशन सिंह और अलवर के महाराज श्री जय सिंह शामिल हुए। उत्स्स्व में दोनों राज्यों की जनता ने भी भी भाग लिया।[3]

१९९६ की भयंकर बाढ़[संपादित करें]

रूपारेल नदी के जलागम क्षेत्र में २४ जून १९९६ को विकराल बाढ़ आई जो कि नवंबर १९९६ तक जारी रही। इस बाढ़ के कारण कृषि योग्य भूमि का एक बड़ा भाग प्रभावित हुआ। बाढ़ की वजह से हजारों लोगों को इस क्षेत्र से पलायन करना पड़ा और लंबे समय तक दूसरे गावों में शरण लेकर रहना पड़ा। तरूण भारत संघ द्वारा किए गए सर्वे में पाया गया कि बाढ़ की वजह से अलवर जिले को ८०० करोड़ तथा भरतपुर जिले को १००० करोड़ का आर्थिक नुकसान सहना पड़ा।

नदी का पुनर्जीवन[संपादित करें]

सन 1987 में सरकार ने रुपारेल नदी के पूरे जलागम इलाके को अंधेरा क्षेत्र घोषित कर दिया था। मोेहन श्रोत्रिय और अविनाश द्वारा लिखित किताब के अनुसार उस समय हाल है ऐसा था कि पानी की कीमत पर लोग बिकने के लिए तैयार थे। उन्हीं दिनों तरुण भारत संघ नाम की संस्था पानी के पुनर्सिंचन को लेकर अलवर के गांव गांव में घूम रही थी। रूपारेल नदी को पुनर्जीवित करने को लेकर संस्था की आशा पर विश्वास की मोहर तब लगी जब लावा का बास की दो महिलाओं ने पानी के लिए कुछ भी कर दिखाने की हिम्मत संस्था के सामने रखी थी। लावा का बास रूपारेल नदी के ऊपरी हिस्से पर बसा हुआ एक गांव है। रूपारेल के जलागम क्षेत्र में सबसे पहला तालाब इसी गांव में बना। इस तलाब के निर्माण में गांव की दो महिलाओं ने अहम भूमिका अदा किया। 1993 में नदी के जलागम क्षेत्र के नांगलहेड़ी, तोलास, रईकामाला, दुहारमाला, सुकोल, डाबली, मेंजोड़, श्यामपुर,टोडी, जोधावास और उदयनाथ जैसे स्थानों पर छोटे-छोटे जोहड़ बनाए गए। रूपारेल की तीसरी धारा जो अधिरे से शुरू होती है उस पर भी 1986 -87 से जोहड़ तालाब, बांध, इत्यादी के निर्माण का काम शुरू हुआ। धीरे धीरे इस नदी के जलागम क्षेत्र का भूजल स्तर बढ़ता गया और २०१५ आते-आते रूपारेल नदी फिर एक बार बारहमासी नदी बन गई।

संदर्भ[संपादित करें]

  1. मोहन, श्रोत्रिय; अविनाश. फिर से बहने लगी रूपारेल. अलवर, राजस्थान, भारत: तरूण भारत संघ.
  2. नीलेश, हेड़ा; विनोद, बोधनकर; गोपाल, सिंह; नरेंद्र, चुघ (२०१८). आओ नदी को समझें. झांसी, उत्तर प्रदेश: परमार्थ समाज सेवी संस्थान. पपृ॰ ६४-६५.
  3. मोहन, श्रोत्रिय; अविनाश. फिर से बहने लगी रूपारेल. पपृ॰ ९-२५.