राष्ट्रीय अखंडता दिवस

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अखंडता शब्द 42 वे संविधान द्वारा जोडा गया इस शब्द का प्रयोग पृथक वादी प्रवृत्तियों को रोकने के लिए किया गया यह धारणा संविधान की संघात्मक प्रगति में ही निहित है अनुच्छेद 1 में प्रयुक्त भारत राज्यों का एक संघ होगा पदावली का प्रयोग संविधान के जनक कौन है इसी उद्देश्य किया है

अनुच्छेद 19 के अंतर्गत राज्य को नागरिकों की स्वतंत्रता ऊपर देश की अखंडता के आधार पर एक निबंधन लगाने की शक्ति प्राप्त है।

परिचय[संपादित करें]

राष्ट्रीय अखंडता दिवस 31 अक्टूबर को मनाया जाता है।

संस्कृति[संपादित करें]

हमारा देश विभिन्न संस्कृतियों का देश है जो समूचे विश्व में अपनी एक अलग पहचान रखता है। अलग-अलग संस्कृति और भाषाएं होते हुए भी हम सभी एक सूत्र में बंधे हुए हैं तथा राष्ट्र की एकता व अखंडता को अक्षुण्ण रखने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं।

एकता[संपादित करें]

संगठन ही सभी शक्तियों की जड़ है,एकता के बल पर ही अनेक राष्ट्रों का निर्माण हुआ है,प्रत्येक वर्ग में एकता के बिना देश कदापि उन्नति नहीं कर सकता। एकता में महान शक्ति है। एकता के बल पर बलवान शत्रु को भी पराजित किया जा सकता है।

राष्ट्रीय एकता का मतलब ही होता है, राष्ट्र के सब घटकों में भिन्न-भिन्न विचारों और विभिन्न आस्थाओं के होते हुए भी आपसी प्रेम, एकता और भाईचारे का बना रहना। राष्ट्रीय एकता में केवल शारीरिक समीपता ही महत्वपूर्ण नहीं होती बल्कि उसमें मानसिक,बौद्धिक, वैचारिक और भावात्मक निकटता की समानता आवश्यक है।   

मूल और विचार[संपादित करें]

हमारे मूल्य गहराई से अपनी जड़ों से जुड़े हुए हैं जिन पर हमारे ऋषि-मुनियों और विचारकों ने बल दिया है। हमारे इन मूल्यों को सभी धर्मग्रंथों में स्थान मिला है। चाहे कुरान हो या बाइबिल,गुरुग्रंथ साहिब हो या गीता, हजरत मोहम्मद, ईसा मसीह, गुरुनानक, बुद्ध और महावीर,सभी ने मानव मात्र की एकता,सार्वभौमिकता और शांति की महायात्रा पर जोर दिया है। भारत के लोग चाहे किसी भी मजहब के हों,अन्य धर्मों का आदर करना जानते हैं। क्योंकि सभी धर्मों का सार एक ही है। इसीलिए हमारा राष्ट्र धर्मनिरपेक्ष है।

जब देश आजाद हुआ था तो उस वक्त प्रबुद्ध समझे जाने वाले कई लोगों ने यह घोषणा की थी कि विविधताओं के इस देश का बिखरना तय है। सीधे तौर पर देखें तो आज उनकी बात असत्य मालूम पड़ती है। पर अगर गहराई में जाकर समझा जाए तो यह समझने में देर नहीं लगती है कि भले ही देश ना टूटा हो लेकिन धर्म,जाति आदि के नाम पर समाज बंटा जरूर है। सियासतदान समय-समय पर धर्म,जाति के नाम पर लोगों को बांटकर राजनीति की रोटी सेंकते रहे हैं। फिरकापरस्ती के लिए अब भाषा और क्षेत्र को भी हथियार बनाया जा रहा है।    भाषा और क्षेत्र के नाम पर बढ़ने वाली हिंसा से सामाजिक संतुलन का बिगड़ना भी स्वाभाविक है। इससे क्षेत्रवाद और जातिवाद फैलेगा। समाज खांचों में बंटने लगेगा। माइक्रो लेवल की चीजों को बढ़ावा देने से क्षेत्रीय असंतुलन भी बढेग़ा। इससे एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि जिनकी भलाई के नाम पर हिंसा की जा रही है,उनकी हालत पर भी नकारात्मक असर ही पड़ने वाला है।

किसी भी सभ्य और लोकतान्त्रिक राष्ट्र की आधारशिला यह है कि वह अपने नागरिकों में लिंग,धर्म,जाति,आर्थिक स्थिति आदि के आधार पर बिना किसी भेदभाव के सबके साथ समान व्यवहार करें। वास्तव में राज्य द्वारा नागरिकों से समान व्यवहार की यह प्रक्रिया समाज में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उन तार्किक सामाजिक मूल्यों की स्थापना करती है,जो किसी भी राष्ट्र के जीवन और विकास की आधारभूत आवश्यकता होती है।

सन्दर्भ[संपादित करें]