रामचन्द्र चन्द्रिका

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रामचंद्रिका के नाम से विख्यात रामचंद्र चंद्रिका (रचनाकाल सन् १६०१ ई०) हिन्दी साहित्य के रीतिकाल के आरंभ के सुप्रसिद्ध कवि केशवदास रचित महाकाव्य है। उनचालीस प्रकाशों (सर्गों) में विभाजित इस महाकाव्य में कुल १७१७ छंद हैं। इसमें सुविदित भगवान राम की कथा ही वर्णित है, फिर भी यह अन्य रामायणों की तरह भक्तिप्रधान ग्रन्थ न होकर काव्य ग्रन्थ ही है।

सामान्य-परिचय एवं प्रमुख प्रकाशित संस्करण[संपादित करें]

'रामचंद्र चंद्रिका' केशवदास की सुप्रसिद्ध कृति है जो सामान्यतः 'रामचंद्रिका' कहलाती है। इसके रचनाकाल का स्पष्ट उल्लेख स्वयं कवि ने ग्रन्थारम्भ में किया है-

     सोरह सै अट्ठावने कातिक सुदि बुधवार।
     रामचन्द्र की चन्द्रिका तब लीन्हों अवतार।।[1]

इस प्रकार इसका रचनाकाल १६०१ ई० (सं० १६५८) है। इसके मूल पाठ का संस्करण लिथो छपाई में कन्हैयालाल राधेलाल, लखनऊ के द्वारा प्रकाशित हुआ था। इसकी जानकी प्रसाद कृत टीका वेंकटेश्वर प्रेस, मुंबई से सन १९०७ ई० में और नवलकिशोर प्रेस, लखनऊ से सन् १९१५ ई० में प्रकाशित हुई। लाला भगवानदीन की आधुनिक ढंग की हिन्दी टीका 'रामचंद्रिका' की सर्वाधिक प्रसिद्ध टीका रही है। दीन जी की टीकासहित 'रामचंद्र चंद्रिका' का पूर्वार्ध साहित्य सेवासदन, बनारस से तथा उत्तरार्ध साहित्य भूषण कार्यालय, बनारस से १९२३ ई० में प्रकाशित हुआ। लालाजी की टीका की पुनरावृत्तियाँ सन् १९२९ ई० से रामनारायण लाल बुकसेलर, प्रयाग द्वारा प्रकाशित होने लगीं।[2] इसके मूल पाठ का एक प्रामाणिक संस्करण आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के संपादन में 'केशव-ग्रंथावली, भाग-2' के रूप में हिंदुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद से भी प्रकाशित हो चुका है।

रचनात्मक स्वरूप[संपादित करें]

'रामचंद्र चंद्रिका' ३९ प्रकाशों में कथा सूची सहित १७१७ छंदों में पूरा हुआ है। इन्ही कारणों की वजह से रामस्वरूप चतुर्वेदी जी ने इसे छन्दों का अजायब घर तक कह दिया है। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के अनुसार यद्यपि इस में सुप्रसिद्ध रामकथा वर्णित है तथापि यह काव्य का ग्रंथ है, भक्ति का नहीं। केशव 'निंबार्क संप्रदाय' में दीक्षित होने के नाते राधा कृष्ण के उपासक थे, राम के नहीं।[2] यद्यपि रामचंद्रिका रामकथा संबंधी महाकाव्य है फिर भी इस में वर्णित कथा वाल्मीकीय रामायण और रामचरितमानस से भिन्नता रखती है। हालाँकि कवि के उल्लेख के अनुसार इस महाकाव्य को रचने की प्रेरणा उन्हें आदिकवि वाल्मीकि से ही मिली। उन्होंने लिखा है कि

     वाल्मीकि मुनि स्वप्न में, दीन्हों दर्शन चारु।
     केशव तिनसों यों कह्यो क्यों पाऊँ सुख सारु।।
     मुनि पति यह उपदेश दै, जब ही भये अदृष्ट।
     केशवदास  तहीं  कर्यो  रामचन्द्र  जू  इस्ट।।[3]

इस के पूर्वार्ध की कथा वाल्मीकीय रामायण से कुछ-कुछ साम्य भी रखता है किंतु उत्तरार्ध में कवि की निजी उद्भावना एवं व्यवस्था ही प्रमुख है। इस काव्य के माध्यम से कवि का पांडित्य प्रदर्शित हुआ है। संवाद-योजना, अलंकार-योजना, छंद-योजना की दृष्टि से यह काव्य कवि के आचार्यत्व के कौशल को ही प्रस्तुत करता है। इसमें कवि ने सुसंबद्ध कथात्मक परंपरा को तोड़ दिया है।[4] वस्तुतः उन्होंने इस ग्रंथ-रचना में प्रत्यक्ष सहयोग संस्कृत के 'प्रसन्नराघव', 'हनुमन्नाटक' आदि ग्रंथों से लिया है। 'कादम्बरी' का भी स्पष्ट प्रभाव है। नाटकों का आधार लेने से और कथा भाग छोड़ देने से संवाद के वक्ताओं के नाम इन्हें पद्य से पृथक रखने पड़े हैं। संवाद-योजना नाटकीय ढंग से की गयी है, इसलिए दृश्य काव्य के रूप में इसका उपयोग विशेष सरलता से हो सकता है। केशव के इस काव्यग्रंथ में भक्ति की प्रधानता न होते हुए भी राम को अवतारी माना गया है तथा अनेक स्थलों पर उनसे उपदेश दिलाया गया है। परिणामस्वरुप उपदेशात्मक अंश काफी हो गये हैं और काव्यत्व को क्षति पहुँची है।[2]

केशव को रीतिकाल का युगनिर्माता साहित्यकार तथा हिन्दी का प्रथम आचार्य कवि माना गया है।[5] इस दृष्टि से रामचंद्रिका में भी आचार्यत्व की प्रबलता स्पष्ट दिखती है। शैली की दृष्टि से इसमें विविध प्रकार के छंदों के उदाहरण प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है। ऐसा जान पड़ता है कि कवि किसी को पिंगल की पद्धति सिखा रहे हों। रामचंद्रिका की भाषा संस्कृतप्रधान ब्रजभाषा है। संस्कृत शब्दों के अत्यधिक प्रयोग तथा अलंकार के चमत्कार के चक्कर में पड़ जाने से रचना बोझिल और क्लिष्ट हो गयी है। इस ग्रन्थ में कवि की सहृदयता से कहीं अधिक पाण्डित्य का प्रदर्शन प्रबल है। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के शब्दों में निःसंदेह यह केशव के महान पाण्डित्य एवं आचार्यत्व को पूर्ण रूप से अभिव्यक्त करती है। प्राचीन हिन्दी साहित्य का मर्मज्ञ होने के लिए रामचंद्र चंद्रिका का अध्ययन निर्विवाद रुप से अनिवार्य है।[2] हिन्दी साहित्य में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके कटु आलोचक भी इसके पठन-पाठन पर बल देते आये हैं।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. केशव-कौमुदी, प्रथम भाग (रामचंद्रिका सटीक पूर्वार्ध), टीकाकार- लाला भगवानदीन, रामनारायण लाल, अरुण कुमार (प्रकाशक), इलाहाबाद, तेरहवाँ संस्करण-१९८९, पृष्ठ-५, छंद-६.
  2. हिन्दी साहित्य कोश, भाग-2, संपादक- धीरेंद्र वर्मा एवं अन्य, ज्ञानमंडल लिमिटेड, वाराणसी, संस्करण-2011, पृष्ठ-505.
  3. केशव ग्रंथावली, खंड-2, संपादक- विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, हिंदुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, तृतीय संस्करण-1996, पृष्ठ-229-30, छंद-7 एवं 18.
  4. डॉ० रमेशचन्द्र मिश्र, 'केशवदास', संपादक- विजयपाल सिंह, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-1989, पृष्ठ-20.
  5. 'केशवदास', संपादक- विजयपाल सिंह, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-1989, पृष्ठ-209.

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]