राजकमल चौधरी
राजकमल चौधरी | |
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जन्म | राजकमल चौधरी 13 दिसम्बर 1929[1] रामपुर हवेली, बिहार, भारत[1] |
मौत | 19 जून 1967[1] महिषी, बिहार, भारत | (उम्र 37 वर्ष)
पेशा | लेखक, उपन्यासकार, कवि |
जीवनसाथी | शशिकांता चौधरी, सावित्री शर्मा[1] |
राजकमल चौधरी (१३ दिसंबर १९२९-१९ जून १९६७) हिन्दी और मैथिली के प्रसिद्ध कवि एवं कहानीकार थे।[1] मैथिली में स्वरगंधा, कविता राजकमलक आदि कविता संग्रह, एकटा चंपाकली एकटा विषधर (कहानी संग्रह) तथा आदिकथा, फूल पत्थर एवं आंदोलन उनके चर्चित उपन्यास हैं। हिन्दी में उनकी संपूर्ण कविताएँ भी प्रकाशित हो चुकी हैं।[2]
जीवनी
[संपादित करें]आरंभिक जीवन
[संपादित करें]राजकमल चौधरी का जन्म उत्तरी बिहार में मुरलीगंज के समीपवर्ती गाँव रामपुर हवेली में हुआ था। उनका वास्तविक नाम मणीन्द्र नारायण चौधरी था लेकिन स्नेह से लोग उन्हें फूलबाबू कह कर पुकारा करते थे। बचपन के आरंभिक दिनों में (जब उनकी आयु १०-१२ साल के आस-पास रही होगी) उनकी माँ त्रिवेणी देवी का असामयिक निधन हो गया। छोटे मणीन्द्र को अपनी माँ के आँचल की कमी का गहरा प्रभाव पड़ा। उनका शुरूआती बचपन अपने पैतृक गाँव महिषी में गुज़रा। बाद में वो अपने पिता के साथ नवादा, बाढ़ और जयनगर भी गए जहाँ उनके पिता नौकरी किया करते थे। हालाँकि ग्रीष्मावकाश में वो अपने पैतृक गाँव महिषी लौट आया करते थे। राजकमल के माता की मृत्यु के उपरान्त उनके पिता मधुसूदन चौधरी ने जमुना देवी से पुनर्विवाह कर लिया था। जमुना देवी, राजकमल के हमवयस्क थी। घर में सौतेली माँ के आगमन के पश्चात से ही राजकमल के पिता से संबंध मधुर नहीं रहे। इस शादी की वजह से राजकमल ने कभी भी अपने पिता को माफ़ नहीं किया[1]। यहाँ तक कि १९६७ में पिता के देहावसान के बाद राजकमल ने अपने पिता को मुखाग्नि नहीं दी थी लेकिन बाकी का श्राद्धकर्म पूरा किया था।
शिक्षा
[संपादित करें]राजकमल ने १९४७ में नवादा उच्च विद्यालय, बिहार से मैट्रिकुलेशन की परीक्षा पास की। तदुपरांत पटना के बी. एन. कॉलेज के इंटरमीडिएट (कला) में उन्होंने दाखिला लिया। वह बी. एन. कॉलेज के छात्रावास में कुछ दिन रहे जहाँ वह साहित्य एवं चित्रकला की ओर उन्मुख हुए। वह मित्रों के बीच काफी लोकप्रिय थे एवं बहुत शीघ्रता से दोस्त बना लेते थे। वह अपने महिला मित्रों को सहजता से आकर्षित कर लेते थे। यहीं पर शोभना नाम की एक छात्रा से उनका परिचय हुआ जिसकी तरफ वो आकर्षित हो गए। इसी बीच शोभना के पिता का स्थानांतरण भागलपुर हो गया जहाँ वो अपने पिता के साथ चली गयी। शोभना के नजदीक होने के लिए राजकमल भी भागलपुर चले गए जहाँ १९४८ में उन्होंने मारवारी कॉलेज में इंटरमीडिएट (वाणिज्य) में दाखिला लिया। उस समय के तात्कालिक व्यवधानों/विमुखता के कारण राजकमल भागलपुर में अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर सके और गया जाकर गया कॉलेज में दाखिला ले लिया। वहाँ से उन्होंने इंटरमीडिएट (वाणिज्य) और पुनश्च बी. ए. (वाणिज्य) की उपाधि १९५४ ईस्वी में हासिल की।
वृत्ति
[संपादित करें]स्नातक की डिग्री हासिल करने के बाद ऊपर पारिवारिक जीवन में स्थिरता का दबाव था (राजकमल की शादी १९५१ में शशिकांता चौधरी से हुई थी)। १९५५ में उन्होंने पटना सचिवालय के शिक्षा विभाग में सरकारी सेवा शुरू की। राजकमल ने नौकरी को कभी अपने जीवन का लक्ष्य नहीं माना। उनके लिए नौकरी का मतलब महज दो वक़्त की रोटी का ज़रिया भर था। सारिका में प्रकाशित एक लेख से पता चलता है कि कहीं न कहीं उनके विचारों में यह बात स्थापित थी कि जीवन बस ऐसा ना हो कि डिग्री पायी, नौकरी शुरू की, सेवक बने, पेंशन पाया और चल बसे। ऐसा माना जाता है कि १९५७ में वो नौकरी छोड़कर चले गए या उन्हे बर्खास्त कर दिया गया। ऐसा कई बार लम्बी अवधि के लिए सूचना दिए बिना नौकरी से बाहर रहने के लिए हुआ हो सकता है। इसी मध्य उनके जीवन में कुछ नयी घटनाएं घटित हो रही थी जिसमे से एक है मसूरी की सावित्री शर्मा से उनकी शादी। उसके छः साल बाद तक वह पत्रकार/ लेखक/अनुवादक/कवि के तौर पर कलकत्ता में रहे एवं मृत्युपर्यंत लेखनी करते रहे।
निजी जीवन
[संपादित करें]राजकमल को कॉलेज के दिनों में शोभना नाम की लड़की से प्रेम हुआ था। १९५१ में उनकी शादी चानपुरा, दरभंगा की शशिकांता से हुई जो कि सौराठ सभा के माध्यम से हुई थी। यह शादी राजकमल ने पारिवारिक दबाव में की थी। १९५६ में उन्होंने मसूरी की सावित्री शर्मा से दूसरी शादी अपने प्रथम विवाह में रहते हुए की। सावित्री काफी धनी परिवार से थी। लेकिन राजकमल से उनकी यह शादी एक वर्ष भी नहीं चल पायी। मसूरी में रहते हुए उन्हें संतोष नाम की एक और महिला से लगाव हो गया था। संतोष, सावित्री की भतीजी थी। इन सबंधों के बावजूद राजकमल का गहरा लगाव उनकी प्रथम पत्नी शशिकांता से रहा। उनकी कहानी जीभ पर बूटों के निशान की पात्र शशि शायद उनकी पत्नी को रूपित करती है जिसके बारे में वो लिखते हैं-
“ | वह बालों को हल्का झटका देकर, निगाहों को टेढ़ी कर, ओंठ सिकोड़कर, दबी आवाज़ में बातें करना नहीं जानती है। उसमे पागल बना देने वाला हुस्न नहीं है, बेहोश कर देने वाली अदाएं नहीं हैं क्योंकि वह बीवी है, हिन्दुस्तानी बीवी जो खाना पका सकती है, थके पाँव दबा सकती है, पंखा झल सकती है। मगर चेहरे पर बहुत सारा प्यार बिखराकर, साँसे गरम कर, नथुने फाड़कर, कंधे फैलाकर, आँचल बिखराकर यह नहीं कह सकती कि उसे मुझसे बहुत प्यार है, बहुत बहुत। इसलिए शशि पर कोई गीत नहीं लिखा जा सकता, कोई कहानी नहीं लिखी जा सकती, कोई उपन्यास नहीं रचा जा सकता, अब तक रचा भी नहीं गया है। रचना की नायिका पद के लिये चाहिए कोई परकीया राधा, रावण द्वारा हर ली जाने वाली सीता, या फिर तरह-तरह की कुंठाओं, या तरह तरह की दमित वासनाओं वाली कोई आधुनिक भद्र महिला . | ” |
साहित्यिक योगदान
[संपादित करें]वाणिज्य में स्नातक की उपाधि प्राप्त करने के बाद, राजकमल ने स्वयं को रचनात्मक कार्यों में समर्पित कर दिया। उनकी रचनात्मकता कवि, उपन्यासकार, कहानी लेखक, नाटककार आदि कई रूपों में सामने आई। उनकी रचनात्मकता मुख्यतः तीन भाषाओं मैथिली, हिंदी एवं बंगाली तक सीमित रही। हालाँकि उन्होंने अंग्रेजी में भी कुछ कवितायें लिखी।
मैथिली में
[संपादित करें]ऐसा माना जाता है कि राजकमल ने लेखनी की शुरुआत अपनी मातृभाषा मैथिली से की। कहा जाता है कि नवादा उच्च विद्यालय के एक अपने शिक्षक से प्रभावित होकर उन्होंने लयबद्ध कवितायें लिखी थी जिसके बाद उन्हें एहसास हुआ था कि वह भी कवितायें लिख सकते हैं। उनकी कुछ शुरूआती पंक्तियाँ, जो अभी तक अप्रकाशित हैं, अपनी स्कूल की पुस्तिका पर लिखी गयी थी। पंक्तियों की परिपक्वता को देखकर, कई लोगों का मानना था कि यह किसी नौसिखिये की कृति नहीं हो सकती, जो कि निम्न है-
“ | चान सन सज्जित धरा पर कय रहल प्रियतमा अभिनय |
” |
. उनकी प्रथम मैथिली कहानी अपराजिता १९५४ में वैदेही पत्रिका में प्रकशित हुई थी। उनकी प्रथम मैथिली कविता भी वैदेही से ही पटनिया टट्टूक प्रति शीर्षक से १९५५ प्रकशित हुई थी। इस समय तक उन्होंने हिंदी में भी नियमित रूप से लिखना शुरू कर दिया था। बहुत ही कम समय में उन्होंने अपनी पहचान दूरदृष्टि वाले एक ऐसे लेखक के रूप में कर ली थी, जिनकी सोच समय से बहुत आगे की थी। उनकी मैथिली कृतियों में ग्रामीण समाज के रूढ़िवादी ढाँचे पर गहरा प्रहार है। उनके जीवनकाल में ही उनकी पहली मैथिली कविता कविताओं के संग्रह स्वरगंधा का प्रकाशन १९५८ में हुआ था। उनकी अगली कविता संग्रह कविता राजकमलक का प्रकाशन मोहन भरद्वाज के संपादन में उनके देहावसान के २४ वर्षों के बाद हुआ। उनकी कविताओं की खासियत यह थी कि उनमे किसी तरह की लयबद्धता अथवा किसी काव्य नियम का बंधन नहीं थी। मन के अनुरूप उनके कविताओं की संरचना भी निर्बंध थी। उनकी रचनाओं में क्षण विशेष का प्रभाव था एवं उनके निजी अनुभवों से ओत-प्रोत था। किसी विषय को देखने का नज़रिया अपने समकालीन रचनाकारों से भिन्न श्रेणी में बहुत लग खड़ा करता था। उदहारण के तौर पर यह पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं-
मूल कविता (मैथिली) |
हिंदी अनुवाद |
अंग्रेजी अनुवाद |
मैथिली में उन्होंने करीब १०० कवितायें, तीन उपन्यास, ३७ कहानियाँ, तीन एकांकी और चार आलोचनात्मक निबंध लिखे। उनके वृहत साहित्यिक लेखन का अधिकांश हिस्सा उनके जीवनकाल में अप्रकाशित रहा। उनकी मृत्यु के लगभग दस महीने के बाद बी॰आई॰टी॰ सिन्दरी स्थित मित्रों ने उनकी मैथिली कहानियों का प्रथम संग्रह ललका पाग का प्रकाशन किया। उसके पश्चात निर्मोही बालम हमर और एक अनार एक रोगाह का प्रकाशन हुआ। १९८० में मैथिली अकादेमी ने कृति राजकमलक का प्रकाशन किया। तदुपरांत १९८३ में तारानंद वियोगी के संपादन में एकटा चम्पाकली, एकटा विषधर का प्रकाशन हुआ। उनकी कहानी एकटा चम्पाकली एकटा विषधर में मिथिला में व्याप्त बेमेल पुनर्विवाह पर गहरा चोट है जिसमें यह बताया गया कि आर्थिक दंश पीड़ित मैथिल समाज (कहानी में लड़की की माँ) किस तरह बेझिझक एक फूल सी प्यारी लड़की को उसके पिता के हमउम्र विधुर पुरुष के सामने शादी के लिए हाजिर करती है।
हिंदी में
[संपादित करें]यद्यपि राजकमल ने हिंदी की तुलना में मैथिली में ज्यादा समय तक लिखा, लेकिन उनका हिंदी साहित्य में योगदान काफी समृद्ध रहा। हिंदी में उन्होंने आठ उपन्यास, करीब २५० कवितायें, ९२ कहानियाँ, ५५ निबंध और तीन नाटक लिखे। उनका हिंदी में कविता लेखन १९५० के आस पास शुरू हो चुका था। १९५६ के बाद हिंदी लेखन में प्रवाह काफी बढ़ गया। उनकी पहली प्रकाशित कविता का शीर्षक था - बरसात: रात: प्रभात। हिंदी में उनकी लेखनी, मैथिली से कई मायनों में भिन्न थी। यह भिन्नता रचना में केन्द्रित समस्या, संबोधित वर्ग एवं रचना की बुनियादी संरचना में थी। हिंदी एवं मैथिली की रचनाओं में स्त्री पात्रों के माध्यम से सामजिक-आर्थिक समस्याओं पर ठोस प्रहार करते थे। उनके रचनात्मक लेखन का काफी भाग कलकत्ता में गुज़रा। इसीलिए उनके लेखन में कलकत्ता, वहाँ का जीवन, वर्ग-संघर्ष का बहुधा चित्रण मिलता है। इसके अलावा उनकी लेखनी में पाश्चात्य साहित्य का कई बार सन्दर्भ मिलता है। उनके साहित्य में ऐसे विषयों का उल्लेख है जो उस समय तक कई साहित्यकारों के लिए अछूत अथवा त्यज्य कोटि था। बहुत लम्बे समय तक भारतीय साहित्य में स्त्री से संबंधित विषय तथा उनकी समस्याएं, समाज में शालीनता की ओट में छुपी अश्लीलता और धर्म एवं संस्कृति के नाम स्त्रियों का यौनिक दमन ऐसे विषय रहे हैं जिनसे कई महान लेखकों ने अपना वास्ता दूर रखा। जिन लेखकों ने उन समस्याओं पर लिखना चाहा, उनपर वैचारिक विकृति और सस्ते साहित्य लेखन के आरोप लगे। राजकमल के रचनाकर्म में इन सारे विषयों में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से निर्भीकता से साथ किया हुआ चित्रण है। इसी निर्भीकता के फलस्वरूप उनके कई समकालीन साहित्यकारों ने उनके रचनाकर्म को काफी हेय दृष्टि से देखा और उनकी उपस्थिति को दरकिनार किया एवं बहिष्कार किया।
प्रकाशित कृतियाँ
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सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ अ आ इ ई उ ऊ यादव, सुभाष चन्द्र. राजकमल चौधरी का सफ़र. सारांश प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली २००१. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-7778-037-9.
- ↑ समकालीन भारतीय साहित्य (पत्रिका). नई दिल्ली: साहित्य अकादमी. जनवरी मार्च १९९२. पृ॰ १९२.
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में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद);|access-date=
दिए जाने पर|url= भी दिया जाना चाहिए
(मदद) - ↑ Chaudhary, Rajkamal. Machhali Mari Hui. Rajkamal Publication, 1994. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-7178-823-8.
- ↑ Chaudhary, Rajkamal. Dehgaatha. Rajkamal Publication,.सीएस1 रखरखाव: फालतू चिह्न (link)
- ↑ Chaudhary, Rajkamal. Pratinidhi Kahaaniyaan. Rajkamal Publication, 1994. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-7178-452-6.
- ↑ Chaudhary, Rajkamal. Muktiprasang. Vani Publication, 2006.
(रचनाकोश में राजकमल चौधरी)