मौरी मेला (Mauri Mela)

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मौरी मेला एक पौराणिक पांडव मेला हैं, ”मौरी” मेले का आयोजन उत्तराखण्ड राज्य के पौड़ी गढ़वाल जिला मे पट्टी गगवाड़स्यूँ के अंतर्गत पड़ने वाले ग्राम सभा तमलाग कुंजेठा में किया जाता इस धार्मिक मेले की अवधि छः महीने है। मौरी” मेले का आरम्भ दिसंबर मंगशिर्ष में 22 गते को पूरे बिधि विधान से किया जाता है इसकी समापन तिथि २२ गतै अषाढ़ है। इन छः महीनों के मध्य पूर्वजों द्वारा ग्राम के मध्य एक सुंदर भैरव मंदिर के प्रांगण में दिव्य शक्तियों व ग्राम वासियों द्वारा पांडव नृत्य होता रहता है। यह मेला पांडव से सम्बधित है।

मौरी मेला विश्व का सबसे ज्यादा दिनों तक चलने वाला धार्मिक मेला है इस धार्मिक मेले कि अवधि छः महीने तमलाग गाँव में और समापन के बाद अगले छह महीने सबदरखाल के कुण्डी गाँव में है, इसमें हर रोज दिन और रात के कुछ पहर पांडव का आवाहन किया जाता है।

मौरी का अर्थ क्या होता है? और इसका नाम मौरी क्यों पड़ा? इसका आयोजन ग्राम सभा तमलाग और कुण्डी में ही क्यों किया जाता है?मौरी शब्द माहौरू शब्द का अपभ्रश रूप है मौरी शब्द माहौरू से बना है इस शब्द का जिक्र एक जागर में बड़े स्पष्ट रूप से होता है। 

दिशा कूs माहौरू,
माहौरू लगाण
बांझू माहौरू, माहौरू लगाण
भैजी चल्दू बणाण,
माहौरू लगाण

इस मेले कि समाप्ति इस माहौरू शब्द की व्याख्या को पूर्णता प्रदान करती है। मौरी शब्द का अर्थ होता है दान देकर किसी बंजर इलाके को हरा-भरा करके समृद्ध बनाना। अब सवाल यह उठता है की आखिर दान देकर किसको समृद्ध बनाया गया। दन्त कथाओं में कहते है की पांडव की एक धर्म बहन थी जिसका नाम रूपेणा था। जिसका विवाह नारायण के साथ हुआ था। एक बार नारायण नदी के किसी कुंड में स्नान कर रहे थे वही उस नदी के ऊपर वाले कुंड कुसमा कुवेण नाम की एक नारी भी स्नान कर रही थी जो दिखने में बहुत सुंदर थी। कहते है की उसकी सुनेहरी लटे थी। स्नान करते समय उसकी एक लट टूटकर नारायण की ऊँगली से उलझ जाती है। नारायण इस लट को देख कर अचंभित रह जाता है। और अपने मन में सोचता है कि जिस नारी की लट ही सोने की है तो वह खुद कितनी ख़ूबसूरत होगी वह उस लट के सहारे कुसमा तक पहुचते है। तथा कुसमा के रूप सौंदर्य यौवन को देखकर हमेशा के लिए कुसमा कुवेण के हो जाते है। इस दौरान वह अपनी राज रानी रूपेणा तथा राजपाट और अपने भावी कुल वंश को भूल जाते है।

इस समय का लाभ उठाकर कुछ राक्षस उसके राज्य पर हमला कर उसके हरे-भरे राज्य को उजाड़कर बंजर बना देते है। तथा उसके पुत्रों को मार देते है। रूपेणा को अपने राज्य का सर्वनाश और पुत्रों की अकाल मृत्यु से बहुत बड़ा आघात पहुचता है। तब उसे इस दुःख की घड़ी में अपने धर्म भाई पांडव का स्मरण आता है। और वह यह सोच कर हस्तिनापुर आ जाती है की मेरे भाई मेरी मदद जरूर करेंगे। हस्तिनापुर आकर जब वह अपनी सारी दास्तां कुंती माता को सुनती है। उसकी दुःख भरी दास्ता सुनकर कुंती उसे बचन देती है कि मै तेरे राज्य को  एक बार फिर खुशहाल और समृद्ध बनाऊंगी। तुझे जो भी दान चाहिए मै वह दान देकर तुझे अपनी बेटी की तरह विदा करुँगी। इस प्रकार रूपेणा कुंती से दान में भतीजा भिभीसैण, भतीजी भभरोन्दी, कल्यलुहार, नागमौला तथा काली दास ढोली की मांग करती है।

काली दास ढोली जिसे समस्त ढोल सागर का ज्ञान था आज की तारीख में यह लोग हमारी संस्कृति के अभिन्न अंग है। अगर मै सरल शब्दों में यह कहूं की मौरी मेला का अर्थ ही ढोल बादक है तो अतिशयोक्ति नहीं होगा। अगर इनकी यह बिद्या ज़िंदा है तो मौरी मेला है अन्यथा आने वाले समय में यह मेला अपना अस्थित्व् खो देगा। इसलिए हमें इनकी इस बिद्या और इनकी कला को ज़िंदा रखने के लिए अभी से उन्चित कदम उतने होंगे जिससे हम अपनी आने वाली पीढ़ी को इस अमूल्य धरोहर को देने में सक्षम हो सके। इस प्रकार पांच पांडव अपनी धर्म बहन रूपेणा को दान में सब खुछ देकर उसे उसकी थाती तक विदा करते है। और इस प्रकार रूपेणा का राज्य एक बार फिर अन्न धन से खुशाल और समृद्ध हो जाता है। यह इस मेले का अंतिम दृश्य होता है यह दृश्य काफी भावुक होता है। तमाम देवी देवता रांसा, ऐसा अलाप जिसमे मन करुणा में आनंदित होता है।  लोगों की आँखों में अंसधरा बहने लगती है।यह दृश्य ऐसे प्रतीत होता है मनो लोग अपनी बेटी को विदा कर रहें हो। पूरा वातावरण पांडव भक्तिमय हो जाता है। लोग एक दूसरे को गले से लगते है। और फिर आने वाले बारह साल बाद इस मेले के कारण अपने पित्र भूमि में मिलने तथा इकट्ठे होने का संकल्प लेते है। यह मेला केवल ग्राम सभा तमलाग कुंजेठा के गाँवों वालों को ही इस देव कार्य में इकट्ठे होने का काम नहीं करता अपितु गगवाड़स्यूं पट्टी के आलावा आस-पास में पड़ने वाली पट्टियों के गाँवको भी एक साथ लाने का कार्य करता है।  दूसरा सवाल यह है की यह मेला तमलाग गाँव में ही क्यों होता है। तो इस बारे में मानपति दास बताता है जब पांडव अपने वनवास काल के समय गढ़वाल से गुजर रहे थे तो उनका कुछ दिन का वास तमलाग गाँव में हुआ था। गाँव वालों ने पांडवो का आदर संस्कार अपने बेटों जैसा किया था। इस कारण माता कुंती ने तमलाग गाँव को अपने ससुराल की उपाधि दी। जिस कारण तमलाग गांव वाले हर १२ साल बाद पांडव का विशेष आवाहन करते है। इसी प्रकार सबदरखाल के कुण्डी गाँव में भी पांडव ने कुछ दिन का वास किया था तो माता कुंती ने कुण्डी गाँव को अपने मायके की उपाधि दी  इसलिए इस मेले में कुण्डी गाँव की अहम् भूमिका होती है। और मेले के दिन ग्राम सभा तमलाग कुंजेठा के पांडव कुण्डी के पांडव को निमंत्रण देकर उन्हें आदर पूर्वक ढोल दामो के साथ गाँव की सीमा पर उनकी अगुवाई करके चांदणा चौक(मंदिर के पास) में लाते है। कुण्डी गाँव के देव पांडव और नर नारी रांसे लगाते हुए अपने नृत्य स्थल तक पहुंचता है, इस दृश को हजारों लोग आस-पास कि छतों से देखकर अपने आप को धन्य समझते है। इस वक्त असे प्रतीत होता है मनो तैंतीस कोटि देवी देवता आज धरती पर उतर आयें हो। सारा वातावरण पांडव भक्तिमय हो जा जाता है। भक्तगण पूरी रात देवताओं का आशीर्वाद लेते रहते है, कुण्डी गाँव के अलावा इस मेले में गगवाड़स्यूं पट्टी के और गाँव भी सिरकत करते है। इन गाँव को ग्राम सभा तमलाग के द्वारा निमंत्रण भेजा जाता है। ऐ प्रमुख़ गांव है, गुमाई,पुर सुमेरपुर, पंडोरी, चमल्याखल,और नेगयाना, ये सारे गाँव अपनी पतकाओं और ढोल दमों के साथ इस मेले में सिरकत करते है। इन गाँव का अतिथि देवो भावो कि तर्ज पर गाँव में स्वागत किया जाता है। इस प्रकार भक्तजन रातभर पांडव नृत्य करते रहते है। और प्रातः काल सारे देवी देवता गाँव के धारा मगरों में स्नान करके वापस मेला स्थल चांदणा चौक में आते है। कुंती माता सभी देवी देवताओं पर रौली ज्यूंदाल (चावल कि पिटाई) लगाती है। इसके बाद हजारों नर नारी पांडव नृत्य करते हुए सुमेरपुर स्थित जंगल में चीड़ के पेड़ लेन के लिए जाते है। जहाँ इन पेड़ों पर कुछ दिन पहले ज्यूंदाल् लगाकर उन्हें चिन्हित (न्यूती) किया जाता है। ज्यूंदाल लगते ही ये पेड़ दैविक चमत्कार से खुद ब खुद कांपने लगते है। मेले के अंतिम दिन कुण्डी तथा तमलाग गाँव के भीम, बजरंबली हनुमान, और नारायण इन पेड़ों पर चढ़कर इन्हे जड़ सहित उखड़ते है। इस दैविक चमत्कार को देखने के लिए सुमेरपुर के जंगल में लाखों लोगों का जनसमूह एकत्र रहता है। इन पेड़ों को जड़ से उखडकर बिना जमीं पर टिकाये जैंती की थाती में लाया जता है। तथा इनकी पूजा अर्चना करके कुछ दिन पश्चात इन्हे नदी में बिसर्जित कर दिया जाता है। इन पेड़ों को जड़ सहित उखारड़कर लेन के पीछे भी एक दन्त कथा है।

कहते है कि पांडव के पिता पांडू राजा और कुरूक्षेत्र के युद्ध में मारे गए अनेक सगे संबंधियों की अकाल मृत्यु से मुक्ति प्रदान करने के लिए पांडव द्वारा यज्ञ का आयोजन किया गया था, इस यज्ञ को सफल बनाने के लिए उन्हें गैंडे कि खाल(खगोटी) की अवश्यकता थी। यह खाल(खगोटी) केवल नागलोक में ही मिलनी थी। जहाँ की रानी वासुदेवा(उलपी) थी। जब पांडव के बीच इस बात पर मंथन चल रहा था कि नागलोक से गैंडे कि खाल(खगोटी) कौन लेकर आयेगा। उसी रात अर्जुन के सपने में नागलोक कि रानी अर्जुन के सपने में आती है और धनजय कि वीरता को ललकारती है। और कहती है कि अगर तू सच्चा क्षत्रीय है तो मुझे पाँसौ (चौपड़) में हराकर ले जा। अर्जुन वासुदेवा कि इस चुनौती को स्वीकार करता है। और अपने बड़े भैया से नागलोक जाने की अनुमति मांगता है धर्मराज से अनुमति लेने के बाद जब अर्जुन नागलोक जाने के लिए तैयार होने लगता है तो द्रौपदी भी अर्जुन के साथ चलने कि जिद्द करने लगती है। अर्जुन द्रौपदी को काफी समझता है पर वह नहीं मानती और अंत में अर्जुन द्रौपदी की स्त्री हट हार जाता है और उसे अपने साथ ले जाने को तैयार हो जाता है। इस प्रकार जब अर्जुन और द्रौपदी नागलोक जाने के लिए एक घनघोर वन से गुजर रहे थे तभी अर्जुन द्रौपदी से बिश्राम करने के लिए कहता है और दोनों के दोनों दो जुड़वाँ पेड़ों के निचे विश्राम करने लगते है। इस बीच द्रौपदी को घनघोर निंद्रा आ जाती है। अर्जुन द्रौपदी को नींद में छोड़कर अकेले ही नागलोक चला जाता है। इधर जब द्रौपदी नींद से जागती है तो अर्जुन को वहाँ पर ना पाकर समझ जाती है कि अर्जुन मुझे छोड़कर अकेले ही नागलोक चला गया है। तब वह उन दोनों जुड़वाँ पेड़ों को वचन देती है कि अगर मेरा अर्जुन सुख शांति से वापस घर हस्तिनापुर आ जायेगा तो मै तुम्हें जड़ सहित अपनी थाती में ले जाकर तुम्हारी बिधि विधान से पूजा करवांगी। कुछ समय पश्चात जब अर्जुन रानी वासुदेवा को पांसों में हराकर गैंडे की खाल(खगोटी) के साथ वापस हस्तिनापुर आता है तब द्रौपदी इन दोनों पेड़ों को जड़ सहित उखाड़कर इनकी पूजा करवाती है। तथा गैंडे कि खाल से यज्ञ सफल बनाकर राजा पांडु कि आत्मा को मोक्ष प्रदान करते है lमौरी मेला में पहले छः महीने का पण्डो तमलाग गाँव और मेले के सम्पति के बाद छः महीने कुण्डी गाँव में नाचते है। कुण्डी गाँव में दो केले के बृक्ष को जड़ सहित उखाड़ कर लाया जाते है।अक्सर लोगों ने यह भ्रम फैलाया है कि गैंडे के प्रतीक के रूप में रखे खाडू (भेड़) के साथ लोग छीना झपटी करते है जिससे भेड़ की दर्दनाक मौत होती है, यह बात सरासर मिथ्य है। लोग भेद के साथ छीना झपटी नहीं करते है बल्कि उस छूने की कोशिश करते है, कोई उसे इधर से छूने की कोशिश करता है तो कोई उसे उधर से जिससे वह छीना झपटी का रूप ले लेता, इस भेड़ को छूने की पीछे एक कथा है, 

धर्मशास्त्रों के अनुसार प्राचीन काल में गयासुर नामक शक्तिशाली असुर भगवान विष्णु का भक्त था। उसकी निरंतर तपस्या से देवगण चिंतित होकर विष्णु भगवान जी के पास गए विष्णु जी ने सभी देवताओं समेत गयासुर के सामने उपस्थित होकर उसकी तपस्या भंग करने हेतु दर्शन दिए और वरदान मांगने को कहा। गयासुर ने सभी देवताओं से अधिक पवित्र होने का वरदान मांगा। भगवान तथास्तु कह दिया। इसके बाद तो घोर पापी भी गयासुर के शरीर को छू कर स्वर्ग लोक जाने लगे। जिससे स्वर्ग लोक में अराजकता फ़ैल गयी, इंद्र इसका समाधान निकले के लिए भगवान विष्णुं जी के पास गए। भगवान विष्णुं ने गयासुर से सबसे पवित्र जगह पर यज्ञ करने की बात कही और कहा की इस धरती पर सबसे ज्यादा पवित्र जगह आपका शरीर है, और योजना के तहत यज्ञ के नाम पर गयासुर का सम्पूर्ण शरीर मांग लिया। गयासुर ने भगवान विष्णु की बात स्वीकार कर ली और दक्षिण दिशा की तरफ सिर और उत्तर दिशा की तरफ पांव करके धरती पर लेट कर अपना शरीर समर्पित कर दिया, यज्ञ समाप्त होने के बाद यज्ञ की रख को जब उसके सर के बीच में लगाया गया तो वहां पर सींग निकल आया और गयासुर ने गैंडे का रूप ले लिया, जिस इंद्र ने नाग लोक में भेज दिया की वहाँ कोई नहीं जा सके।  इस मेले में अहम् भूमिका ढोल वादक निभाता है। 

मेले का समय [संपादित करें]

अब यह मेला 7 दिसम्बर 2025 में शुरू होगा और 7 जुलाई 2026 जुलाई में समाप्त होगा , 

आवागमन[संपादित करें]

वायु मार्ग

हवाई जहाज से जाने वाले पर्यटक जॉलीग्राण्ट विमानक्षेत्र देहरादून तक वायु मार्ग से जा सकते है। इसके बाद बस या कार या बस की सुविधा ले सकते है।

रेल मार्ग

मौरी मेला देखने के लिए जाने के लिए पर्यटक कोटद्वार और ऋषिकेश तक रेल सुविधा ले सकते है। इसके पश्चात बस, कार व अन्य वाहनो से  पौड़ी से होते हुए मंदिर तक पहुंचा जा सकता है। पौड़ी देश के सभी प्रमुख शहरो से सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है।

सड़क मार्ग

मौरी मेला मंदिर दिल्ली से 330 कि॰मी॰ कि दूरी पर स्थित है। दिल्ली से कोटद्वार, या हरिद्वार देवप्रयाग से होते हुए पर्यटक पौड़ी पहुंच सकते है तथा उसके बाद गगवाड़स्यूं ग्राम तमलाग जाया जा सकता हैं,  सड़क मार्ग सभी सुविधाओ से युक्त है। रास्ते मे काफी सारे होटल है जहां पर विश्राम किया जा सकता है। सड़के पक्की बनी हुई है।

प्रमुख शहरों से दूरी[संपादित करें]

आस पास के लिए घूमने की जगह[संपादित करें]

यहाँ से आप कंडोलिया, नागदेव, डांडा नागराज, आदि मंदिरों का दर्शन कर सकते हो, इसके आलावा कंडोलिया की चोटी से शाम क के समय सूर्य अस्त का बिहंगम दृश्य का लुप्त उठा सकते हो, ऐतिहासिक शहर पौड़ी भी आप घूम सकते हों, 

सन्दर्भ[संपादित करें]

[1] [2][3] [4] [5]

Bibliography[संपादित करें]

  • Sax, William Sturman (2002). Dancing the Self: Personhood and Performance in the Pāṇḍava Līlā of Garhwal. Oxford University Press. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9780195139150.
  1. "अद्भुत: पेड़ उखाड़कर मनाते हैं पांडवों की जीत का जश्न". Amar Ujala. Amar Ujala.
  2. "इस जंगल में पांडवों ने ‌बिताए थे 12 साल". Amar Ujala. Amar Ujala.
  3. "आस्था के सामने हर कोई नतमस्तक". Dainik Jagran. Dainik Jagran.
  4. "पांडवों की याद में होता है मोरी मेला". Amar Ujala. Amar Ujala.
  5. "History of Gaya: ज्ञान एवं मोक्ष की भूमि गया, जहां खुद भगवान राम ने किया था पिता दशरथ का पिंडदान, जानें यहां का इतिहास और महत्व". ABP News.