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मौन व्रत

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मौन व्रत, या केवल मौन (अंग्रेज़ी: Vow of silence) का सामान्य अर्थ चुप रहना, निःशब्द रहना या न बोलना है। आमतौर पर इसका अर्थ इसी रूप में लिया जाता है, किंतु साधारण निःशब्दता और भारतीय संदर्भ में प्रचलित 'मौन' की अवधारणा में काफ़ी अंतर है। मूल रूप से यह मनुष्य के जीवन की एक उच्चकोटि की मानसिक स्थिति है। संस्कृत में इस शब्द की व्याख्या 'मुनैर्भावः इति मौन' (अर्थात मुनियों का भाव ही मौन है) के रूप में की गई है।

विभिन्न उद्देश्य

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मौन के निम्नलिखित उद्देश्य हो सकते हैं:

  • परम आनंद की अवस्था में मन को ले जाना (उन्मन होना)।
  • एक प्रकार का मानसिक तप करना।
  • मननशीलता या निरंतर चिंतन की स्थिति।
  • आत्मसंयम और अंत:करण की शुद्धि।
  • मानसिक तप और मन की स्थिरता प्राप्त करना, विचारों पर नियंत्रण।
  • अंतर्मुखता को बढ़ावा देना।

स्वरूप एवं कारण

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किसी दुःख के कारण, भय के मारे, स्वास्थ्य खराब होने पर, अज्ञानतावश, न बोलने का निश्चय करके, प्रतिक्रिया देने की स्थिति से बचने के लिए, वाणी में बाधा आने पर, असमंजस पैदा करने वाले लोगों के सामने आने पर, अपराधबोध होने पर, पाप के भय से, अत्यधिक कृतित्व वाले व्यक्ति के दर्शन से, भांडण या बहस के हालात पैदा होने पर, चिंतन के लिए, आदि अनेक कारणों से प्राय: मौन धारण किया जाता है या व्यक्ति मौन हो जाता है।[उद्धरण चाहिए]

मौन के गुण अथवा लाभ

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एकाग्रता बढ़ना, ज्ञान की उत्पत्ति, गंभीरता आना, सन्मार्ग पर चलना, मन पर अच्छे संस्कार होना, झगड़े-बहस से बचना, वाणी में सिद्धि प्राप्त होना - ये मौन के अनेक गुण और लाभ हैं। (मौनं सर्वार्थ साधनम् - मौन से सभी प्रयोजन सिद्ध होते हैं)।[उद्धरण चाहिए]

मौन और नियम व क़ानून

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आधुनिक समय के अधिकांश लोकतांत्रिक क़ानून अदालती प्रक्रिया के दौरान भी व्यक्ति के मौन रहने के अधिकार को मान्यता देते हैं। कोई व्यक्ति जो बोल रहा है, क्या वह सच बोल रहा है? इसे परखने के लिए हाल के समय में कुछ परीक्षण (जैसे पॉलीग्राफ़) उपलब्ध हुए हैं, जिनका उपयोग न्यायालय की अनुमति से किया जाता है। परंतु ऐसे परीक्षण के दौरान की गई बातों को अदालत स्वीकारोक्ति या सबूत के तौर पर स्वीकार नहीं करती।

विभिन्न सरकारी और गैर-सरकारी कार्यालयों में, विशिष्ट अधिकारी व्यक्तियों के अलावा अन्य लोगों को जानकारी न दिए जाने के नियमों द्वारा जो सख्ती बरती जाती है, उसका परिणाम 'विशिष्ट विषय तक सीमित मौन' के रूप में सामने आता है।

मूक सहमति, मूक स्वीकृति: संस्कृति और क़ानून

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मौन से जो विभिन्न अर्थ निकलते हैं, उनमें तटस्थता, इनकार और स्वीकृति जैसे परस्पर विरोधी अर्थ भी परिस्थिति के अनुसार प्रकट हो सकते हैं। मौन का अर्थ हर बार मूक सहमति नहीं होता, परंतु ऐसी स्थिति का फ़ायदा उठाकर हितसंबंधी व्यक्ति इसे 'सहमति मान लेने' का अवसर बना सकता है। इसीलिए सामने वाले व्यक्ति को कम से कम ठेस पहुँचाते हुए स्पष्ट इनकार व्यक्त करने पर ज़ोर दिया जाता है। इसके अलावा, परामर्शदाता समय-समय पर यह सलाह देते हैं कि संयम रखना चाहिए, लेकिन अन्याय सहन नहीं करना चाहिए।

प्रेम विवाह और साथ ही पारंपरिक भारतीय विवाह पद्धति में लड़कियों की मूक सहमति को प्राय: मान्यता दी जाती रही है (मौनं संमतीदर्शकम् - मौन सहमति का द्योतक है)। व्यवसाय करते समय भी, विपणन क्षेत्र के लोग सीधे आदेश माँगने के बजाय अप्रत्यक्ष सहमति प्राप्त करने का तरीका अपनाते हैं। अनुबंध अधिनियम (कॉन्ट्रैक्ट एक्ट) रेस्तराँ तथा टैक्सी आदि विविध सेवा व्यवसायों में सेवा स्वीकार करने को ही अप्रत्यक्ष मूक सहमति के रूप में मान्यता देता है। महिलाओं से संबंधित अनेक क़ानूनी मामलों और मुकदमों में उनके मौन का परिस्थिति के अनुसार किया गया अर्थांतरण महत्त्वपूर्ण होता है।

कॉपीराइट क़ानून में, कॉपीराइट घोषित किए बिना भी, संबंधित कलाकृति, लेखन या फोटोग्राफ का निर्माता चाहे मौन ही क्यों न रहे, उसका कॉपीराइट स्वत: ही बन जाता है। हालाँकि, कॉपीराइट का उपयोग करने का अधिकार देने को स्पष्ट रूप से व्यक्त किया जाना आवश्यक होता है। यही बात वारसाहक्क (उत्तराधिकार) क़ानून के संबंध में है। संबंधित व्यक्ति द्वारा स्पष्ट निर्देश न दिए जाने पर संबंधित वारिसों के अधिकार मान लिए जाते हैं।

योग, अध्यात्म तथा धर्म

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कुछ परंपराएँ आध्यात्मिक और धार्मिक कारणों से, साथ ही प्रार्थना से पहले या योगाभ्यास से पूर्व, और विपश्यना में मन को शांत करने की प्रक्रिया के भाग के रूप में मौन पालन का मार्गदर्शन करती हैं। मृत आत्मा को शांति मिले और उसके प्रति आदर व्यक्त करने की दृष्टि से, श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए सार्वजनिक कार्यक्रमों में कुछ क्षणों के लिए सामूहिक मौन पालन की प्रथा देखी जाती है।

जैन समुदाय के लोग मार्गशीर्ष महीने की एकादशी को 'मौनी एकादशी' का व्रत रखते हैं, जबकि माघ महीने की अमावस्या को 'मौनी अमावस्या' का व्रत किया जाता है।[1][2]

कब मौन रहना चाहिए

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"ऐसे ते अचिंत्य काय हो बोलावे | मौन स्वीकारावे हेचि भले ||" - ज्ञानेश्वर


उपर्युक्त उद्धरण का भावार्थ है कि बिना सोचे-विचारे बोलने से अच्छा है कि मौन स्वीकार कर लिया जाए।

दूसरा व्यक्ति बोल रहा हो तो उसका बोलना पूरा होने तक मौन धारण करना चाहिए। दो व्यक्ति आपस में बात कर रहे हों तो तीसरे व्यक्ति को मौन रहना चाहिए। बड़े लोग आपस में बात कर रहे हों तो वहाँ उपस्थित छोटे बच्चों को सामान्यतः मौन पालन करना चाहिए। इस प्रकार के संवाद कौशल से जुड़े संकेत होते हैं।[उद्धरण चाहिए]

"आत्मनो मुखदोषेण बध्यन्ते शुकसारिकाः ।

कास्तत्र न बध्यन्ते मौनं सर्वार्थसाधनम् ॥"--पंचतन्त्र ४.४८

अर्थ: अपने मुख के दोष (अनर्गल बोलने) के कारण तोता और मैना पिंजरे में बंध जाते हैं, किंतु बगुला वहाँ बंधन में नहीं आता (क्योंकि वह चुप रहता है)। मौन से सब कुछ साधा जा सकता है।

  • "विशेषतः सर्वविदां समाजे | विभूषणं मौनमपण्डितानाम् ||" — भर्तृहरि (सुभाषित संग्रह)[उद्धरण चाहिए]



अर्थ: विशेष रूप से विद्वानों के समाज में मौन अज्ञानी (अपंडित) लोगों का आभूषण है।

  • "उच्चारे मिथुनेचैव प्रस्रावे दन्तधावने। स्नाने भोजनकालेच षट्सु मौनं समाचरेत्।।" — हारीत स्मृति (धर्मग्रंथ)

मनुष्य को कब मौन धारण करना चाहिए, इस बारे में सामान्यतः कहा जाता है कि - बोलने से पहले, मैथुन करते समय, शौच या मूत्र विसर्जन के समय, दाँत साफ़ करते समय, स्नान करते समय और भोजन करते समय - इन छह अवसरों पर मौन रहना चाहिए।[3]

राजनीतिक मौन

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महात्मा गांधी के साथ-साथ आचार्य विनोबा भावे, अन्ना हजारे आदि व्यक्तियों ने अपने राजनीतिक आंदोलनों के एक भाग के रूप में मौन व्रत का पालन किया है।

  1. हिंदी विकिपीडिया (हिंदी मजकूर)8 नोव्हेंबर 2011 10:50 UTC ८ नोव्हे २०११ दुपारी ४ वाजून २० मिनिटांनी जसा दिसला
  2. महाराष्ट्र टाइम्स संकेतस्थळावरील मौनं सर्वार्थ साधनम्‌ हा 28 Jul 2010, 0412 hrs IST तारखेचा लेख Archived 2016-03-13 at the वेबैक मशीन दिनांक ८ नोव्हे २०११ दु. ४वाजून २० मि.वाजता जसा दिसला
  3. तरुण भारत नागपूर.[मृत कड़ियाँ] दिनांक ०४ नोव्हें.२०११ रोजी पाहिले.