मैथिली लोककथा में नारीवाद

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सृष्टि में स्त्री सत्ता बहुत ही महनीय घटना है. नारी के बिना पुरुष का कोई अस्तित्व नहीं है. नारी कभी पुरुष-पौरुष की जननी दृष्टिगोचर होती है तो कभी अर्धांगिनी. वैदिक साहित्य में पुत्री को पुत्र के समतुल्य माना गया है.

ऋग्वेद(8.31.8) में कहा गया है कि- पुत्री स्त्री-पुरुष के अंग- अंग से प्रसूत हुई है अतः वह भी पुत्रवत है. ब्राम्हण साहित्य में स्त्रियों के सन्दर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किए गए हैं. तैतरीयब्राम्हण में कहा गया है कि वो व्यक्ति अपूर्ण है जो अविवाहित है. वृह्दारन्यक उपनिषद में पंडिता कन्या की आशा व्यक्त की गई है. ऐतरेय उपनिषद लिखता है नारी हमारी पालन करती है अतः उसकी पालना करना हमारा कर्तव्य है. ना सिर्फ वैदिक ग्रंथों में पुत्र और पुत्री को समतुल्य माना गया है अपितु वेद कालीन समाज में भी ऐसा दीखता है. वेदकालीन समाज में अपाला, घोषा, लोपामुद्रा, विश्ववारा, सिक्ता जैसी ऐसी स्त्रियाँ हुई है, जिन्होंने वेदों को रचने में अपना सहयोग दिया था. तब स्त्रियों की शिक्षा भी पुरुषों के सामानांतर ही महत्व रखती थी. वैदिक समाज में नारियों को वो सभी अधिकार थे जो पुरुषों को था. वो अपने मन से पति चुन सकती थी और उसे मन से छोड़ भी सकती थी. विधवाओं के विवाह का भी तब प्रावधान था. बहुपतित्व प्रथा अर्थात एक से अधिक पति के साथ एक समय या समय अन्तराल पर संबध बनाने की मानसिकता को भारतीय लोक साहित्य में निंदनीय कहा गया है लेकिन वैदिक काल में बहुत सी महिलाएं ऐसी थी जिनके अनेक पति हुए. यथा: अनुरागपरा दो व्यक्तियों से विवाह करती है. अनंगप्रभा के आठ पति होने का प्रसंग भारतीय लोक साहित्य में दृष्टिगत होता है. द्रौपदी के पांच पुरुषों से विवाह का उल्लेख महाभारत में आया है. भारतीय पुराण और इतिहास में ऐसी कई महिला चरित्र दिखाई पड़ती है जिन्होंने युद्ध में महनीय भूमिका निभाई. रामायण में केकयी और सीता का प्रसंग आया है. भारतीय लोक साहित्य में जिस स्त्री नायिका को सर्वोपरी स्थान प्राप्त है उनमें सीता प्रमुख हैं. सीता के सन्दर्भ में कई लोककथाएं हैं जहाँ वो राम से ताकतवर मानी गयी है. मैथिली लोकसाहित्य में सीता और सहस्त्र रावन के युद्ध की कथा लोक प्रचलित है. मैथिली भाषा में लिखित लालदास रामायण में ये कथा उधृत है. कथा के अनुसार राम और सहस्त्र रावन के मध्य हुए युद्ध में जब राम मुर्च्छित हो गए तब सीता ने अपनी शक्ति से उसे परास्त किया और राम की भी रक्षा की. उपर्युक्त तथ्यों के अलावा अगर हम सीता के संदर्भ में उन तथ्यों को तलाशें जो सीता के सबल पक्ष को प्रकट करता है , और नारीवाद की अवधारणा को बल देता है तो ऐसे अनगिनत लिखित और मौखिक लोककथाएं दिख ही जाती है जिसमें सीता किसी पुरुष पात्र के समकक्ष या श्रेष्ठ जान पड़ती हैं. सीता कभी राम के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर जंगलों में हिंसक जानवरों से अपनी आत्म रक्षा करती दिखती हैं तो कभी भारी शिव धनुष को अपने एक हाथ से उठा कर पुरुषों के समान बलशाली दिखाई पड़ती है.

सीता के अलावा मैथिली लोककथा में बिहुला नाम की एक महिला की कथा लोक प्रचलित है जिसमें हमें नारी के शक्ति संपन्ना वाली रूप दिखाई देती है. कथा के अनुसार- एक लोकदेवी द्वारा बदले की भावना से बिहुला के पति की हत्या कर दी जाती है. और बिहुला अपने अद्भुत सामर्थ्य का परिचय देते हुए उस विदारक स्थिति में ना सिर्फ खुद को मजबूत रखती है बल्कि देवताओं से अपने पति को जिन्दा भी करवाती है. ये कथा सावित्री की कथा से मिलती है. सावित्री की कथा में भी सावित्री अपने मृत पति के प्राण को यमराज से वापस ले आती है. सावित्री की कथा में सावित्री के अद्भुत सामर्थ्य, बुद्धि और दृढ़ निश्चय का दर्शन होता है.

मैथिली साहित्य के इतिहास को देखें तो मिथिला में महिलाओं की स्थिति बौद्ध काल से बिगड़ने लगी और कालांतर में और मुगलकाल में ख़राब होती चली गयी. मैथिली भाषा के प्रख्यात कवि जो तेरहवी शताब्दी में हुए ने इन बातों को अपने गीत में जगह-जगह उधृत किया है. मैथिली समाज में महिलाओं की स्थिति अन्य भारतीय समाजों से अच्छी नहीं होने के बाद भी यहाँ कई ऐसे महिला चरित्र हुए हैं जो अपनी विद्वता के लिए लोक प्रसिद्ध है. कुछ लोक चर्चित विदूषी महिलाओं की प्रतिभा को देखते हैं जिन्होंने अपनी विशेष पहचान बनाई है. महादेवी सूर्या: ऋग्वेद के दशम मंडल के पचासीवें सूक्त की रचना इन्होने ही की है जिसमें इन्होने नवविवाहिता स्त्रियों के प्रति मंगलकामना व्यक्त की है. ये भारतीय लोककथा साहित्य में अपनी स्थान रखती हैं. विश्ववारा और आपला: इन दो देवियों ने भी ऋग्वेद के पांचवे मंडल के 28 वें सूक्त की रचना की है.

वाक् महादेवी: लोककथा में इनका सम्बन्ध नेपाल के तराई क्षेत्र से मन जाता है. इन्होने अपना पूरा जीवन ज्ञान अर्जन में ही लगा दिया था. ऐसा माना जाता है कि भारतीय दर्शन की अद्वैतवाद को सर्वप्रथम इन्होने ही परिकल्पित किया था. ऋग्वेद के दसवें मंडल के 125 सूक्त की रचना इन्होने ही की थी. जिसे देवी सूक्त के नाम से घर-घर में जाना है. इस सूक्त में नारी शक्ति की स्तुति की गयी है. जहाँ देवी को सभी देवताओं से श्रेष्ठ बताया गया है. महाविदूषी मैत्रेयी: ये प्रसिद्ध मित्र ऋषि की पुत्री थी. ये बचपन से ही तीक्षण बुद्धि की थी और समकालीन विद्या की प्रकांड पंडिता थी. इनका दर्शन ज्ञान बहुत ही उन्नत था. एक बार दर्शनशास्त्र के गूढ़ विषय पर मैत्रेयी के तर्क-वितर्क से याज्ञवल्क्य प्रभावित हुए और दोनों ने आपस में विवाह कर लिया. अपने ज्ञान के लिए मैत्रेयी आज भी भारतीय समाज में पूजनीय है. महाविदूषी गार्गी: इनके सन्दर्भ में कथा है कि एक बार ब्रम्ह-ज्ञान-विशारद राजा जनक के दरबार में यज्ञ के उपलक्ष्य में बहुत से विद्वान् और विदूषी आये हुए थे. राजा जनक ने यग्य मंडप के समीप ही सहस्त्र गायों को बांध रखा था जिसके सींगों में स्वर्ण मुद्राएँ बंधी हुई थी. जनक ने उपस्थित सभी विद्वानों से कहा कि ये सब उनके लिए ही है. जो व्यक्ति खुद को सबसे बड़ा ज्ञानी मानता गई वो सभी गायों को ले जा सकता है. समस्त सभ सन्न रह गयी. तब ऋषि याज्ञवल्क्य ने कहा कि मैं सभी गौ को ले जा रहा हूँ. इस पर सभी उपस्थित लोग एक दुसरे का मूंह देखने लगे. कुछ लोगों ने आगे बढ़ कर प्रश्न भी किया मगर उन्हें मूंह की कहनी पड़ी. सभा के एक कोने में शांत बैठी मैत्रयी ने याज्ञवल्क्य से कहा- क्या सबसे बड़े ज्ञानी आप ही है? इस पर याज्ञवल्क्य ने हाँ में उत्तर दिया. फिर गार्गी का ब्रम्ह ज्ञान पर शास्त्रार्थ अद्वितीय विद्वान ऋषि याज्ञवल्क्य के हुआ, जिसमें इन्होने ऋषि को अपने ज्ञान से अचंभित और असहज कर दिया. गार्गी अपनी विद्वता के लिए आज भी याद की जाती हैं. वृहदारण्यक उपनिषद में इनके शास्रार्थ को उल्लिखित किया गया है. भारती: विदूषी भारती मैत्रेयी की तरह ही तीक्षण बुद्धि की थी इन्होने कम आयु में ही सभी प्रमुख धर्म शास्त्रों और साहित्यों को पढ़ लिया था. ये प्रकांड विद्वान मंडन मिश्र की पत्नी थी. ये अपने समय में आदर्श विदूषी के मान से प्रचलित थी. विद्वतमंडल इनकी विद्वता को देख के विस्मित हो जाते थे. इन्हें मिथिला के लोक साक्षात सरस्वती के अवतार मानते थे. मंडन मिश्र का जब अद्वैत वेदांत के प्रतिपादक शंकराचार्य से जब शास्रार्थ हुआ तब भारती ही निर्णायक की भूमिका में थी. बाद में जब मंडन मिश्र पराजित हो गए तो भारती ने शंकर से शास्त्रार्थ किया. ये शास्त्रार्थ महीनो से अधीन चली. जब भारती ने देखा कि शंकर हार नहीं रहे तो उन्होंने उनसे गृहस्थ धर्म और काम शास्त्र के बारे में पूछना प्रारंभ कर दिया. जिससे शंकर असमंजस में आ गए. उन्होंने उत्तर देने के लिए समय की मांग की. भारती ने एक वर्ष का समय दिया.जिस समय में शंकर ने काम कला सम्बन्धी ज्ञान को समझा और एक वर्ष पश्चात पुनः भारती के समक्ष उपस्थित हो उत्तर दिया. मिथिला समाज में भारती आज भी अपनी ज्ञान के लिए प्रसिद्द है.

निष्कर्ष: ये सच है कि भारती और मैथिली समाज में स्त्रियों की स्थिति हजारों वर्षों से चिंतनीय रही है और स्त्री को शिक्षा से भी वंचित रखा गया. उन्हें कमजोर माना गया. महिलाओं को उपभोग की वस्तु के रूप में देखा गया. कई बाल विवाह, विधवा विवाह, बहुविवाह, अनमेल विवाह और सतीप्रथा के कष्टकारी रिवाज़ों को नारियों ने वर्षों तक सिसकते हुए झेला. इसके बावजूद लोक साहित्य और कथाओं में ऐसे कई चरित्र दिख जाते हैं जो नारी कि एक स्थापित परिभाषा को तोड़ने का काम करते हैं. और अपनी वीरता और विद्वता को ले जग जाहिर हैं. वहां लो कथाओं में वो पुरुषों के पिछलग्गू की तरह नहीं दिखते बल्कि अपनी एक अलग पहचान बनाते हुए दिखाई देते हैं. उर्मिला, विद्या, अहिल्या, अरुंधती आदि कई ऐसे चरित्र हैं जो अपनी प्रतिभा और दृढ़ शक्ति के लिए प्रसिद्ध हैं. ये भारतीय नारियों के श्रेष्ठ पथ प्रदर्शक हैं.