मेरठ का प्रकाशन उद्योग
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आरम्भ
[संपादित करें]मेरठ के प्रकाशन उद्योग की यात्रा का आधुनिक मेरठ शहर के विकास से गहरा नाता रहा है। लगभग दो सौ साल पहले 1806 में ब्रितानियों ने मेरठ में कैंट की स्थापना की। इसी समय को आधुनिक मेरठ शहर के सफरनामे की शुरुआत का भी माना जा सकता है। मेरठ में कैंट की स्थापना के आसपास ही मेरठ में प्रकाशन उद्योग की नींव पड़ी। मेरठ में पहला [छापाखाना]] कब स्थापित हुआ, इसका फिलहाल कोई साक्ष्य नहीं मिला है। हो सकता है आगे शोध के दौरान इसके बारे में कुछ मालूम हो सके।
1849 में समाचार पत्रों और मुद्रणालयों से संबंधित एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई। यह रिपोर्ट वर्तमान उत्तर प्रदेश (तत्कालीन दक्षिणी उत्तरी भागों) की थी। इस रिपोर्ट के मुताबिक उस समय तक उत्तर प्रदेश (तत्कालीन दक्षिणी उत्तरी भागों) में 23 मुद्रणालय थे। इनमें पुस्तक मुद्रण के अतिरिक्त 29 समाचार पत्र और पत्रिकाएं छपते थे।
1850 तक तत्कालीन दक्षिणी उत्तरी भागों (इसमें लखनउ शामिल नहीं है) में कुल 24 मुद्रणालय थे। इनमें आगरा में सात, बनारस चार, दिल्ली में दो, मेरठ में दो, लाहौर में दो और बरेली, कानपुर, इंदौर व शिमला में एक-एक छापेखाने थे। मेरठ के प्रकाशन उद्योग के विकास में हिन्दी और उर्दू दोनों सगी बहनों का बराबर का योगदान था। लेकिन शुरुआती सालों में मेरठ उर्दू प्रकाशन के ही जाना जाता था। मेरठ के छापेखानों में आज से सवा सौ साल पहले तक अधिकांश प्रकाशन उर्दू में ही होते थे। 1850 के आसपास मेरठ से एक समाचार पत्र जाम ए जम्शैदनिकलता था। हालांकि यह अखबार किस छापेखाने में छपता था और पत्र की सामग्री के विषय में कुछ भी मालूम नहीं है।
मेरठ के ऐतिहासिक कस्बे सरधना की बेगम समरु, जिन्होंने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था, का भी प्रकाशन उद्योग के विकास में सराहनीय योगदान है। बेगम समरु के ईसाई धर्म स्वीकार करने से सरधना रोमन कैथोलिक मिशनरियों का केन्द्र बन गया। यहां ईसाई मिशनरियों ने 1848 के आसपास एक मुद्रणालय खोला। इसका उद्देश्य धर्म प्रचार में योगदान करना था। इसमें 1850 से पहले उनकी धार्मिक पुस्तकें प्रकाशित होती थीं इसके अलावा ईसाई पादरियों के व्याख्यान और वार्तालाप फारसी और देवनागरी में छापे जाते थे।
1857 के गदर से पहले देश के कई हिस्सों में जनमानस में ब्रितानियों के खिलाफ माहौल बन रहा था। मेरठ से प्रकाशित होने वाली पुस्तकों, समाचार पत्रों, पंपलेटों आदि ने यहां इस भूमिका को बखूबी निभाया। 1857 में जमीलुद्दीन हिज्र साहब मेरठ से अपना एक पत्र निकालते थे। वह दिल्ली के सादिक उल अखबार का भी संपादन करते थे। उनका यह अखबार शाही महल भी जाया करता था। 1857 के गदर के बाद जब मुगिलया सल्तनत के अंतिम बादशाह बहादुरशहर जफर के खिलाफ ब्रितानियों ने मुकदमा चलाया, उसमें इस अखबार का जिक्र बार बार आया है। इसके चलते हिज्र साहब को गिरफ्तार किया गया। उनके खिलाफ भी मुकदमा चला और उन्हें तीन साल की सजा मिली।
१९वीं सदी का अन्तिम काल : हिन्दी और देवनागरी में प्रकाशन में गति
[संपादित करें]उन्नीसवीं सती के अंतिम दशकों से पहले खड़ी बोली के गढ़ मेरठ के प्रकाशन उद्योग में हिन्दी का प्रकाशन अपेक्षाकृत कम होता था। लेकिन सदी के अंतिम दशकों में इसमें बदलाव हुआ। इसमें दयानन्द सरस्वती के आर्य समाज और मेरठ के ही स्थानीय निवासी पंडित गौरीदत्त शर्मा का भारी योगदान था। स्वामी दयानंद सरस्वती के भाषणों से प्रभावित होकर खुद को देवनागरी के प्रचार के लिए समर्पित कर देने वाले पंडित गौरीदत्त शर्मा ने 1887 में एक मासिक पत्र 'देवनागरी गजट' और 1892 में देवनागरी प्रचारक ' निकाला। 1894 में नागरी प्रचारिणी सभा का गठन कर मासिक पत्र देवनागर का प्रकाशन किया। ये सभी पत्र यही के छापेखानों में प्रकाशित होते थे। इसके अलावा पंडित जी ने एक उपन्यास देवरानी जेठानी की कहानी' भी लिखा था। पहली बार 1870 में इसका प्रकाशन मेरठ के जियाई छापेखाने में लीथो पद्धति से हुआ। इसकी प्रति आज भी कलकत्ता के नेशनल लाइब्रेरी में सुरक्षित है। हिन्दी के मशहूर साहित्यकार आचार्य क्षेमचंद्र सुमन ने इसे खड़ी बोली हिन्दी का पहला उपन्यास कहा है। पंडित जी ने अपने पत्रों के जरिए देवनागरी को बढ़ावा देने के लिए देवनागरी गजट में भजन और आरती प्रकाशित किए। उनके भजन महिलाओं में काफी लोकप्रिय थे। पंडित जी देवनागरी के प्रचार को लेकर इतने समर्पित थे कि वे परस्पर अभिवादन में भी जय नागरी का प्रयोग करते थे।
आचार्य क्षेमचंद्र सुमन के मुताबिक हिन्दी का दूसरा उपन्यास वामा शिक्षकमुंशी कल्याणराय ने मुंशी ईश्वरी प्रसाद के साथ मिलकर 1872 में लिखा था। यह लगभग 11 साल बाद 1883 में मेरठ के विद्या दर्पण छापेखाने में मुद्रित हुआ था। इन साहित्यकारों के प्रयास से खड़ी बोली के गढ़ जनपद मेरठ में उन्नीसवीं सदी के अंत में हिन्दी प्रकाशन भी बहुतायत में होने लगे।
शुरुआती दौर में मेरठ के पुरानी तहसील के आसपास ही अधिकांश प्रकाशक थे। इसके अलावा वर्तमान सुभाष बाजार (सिपट बाजार) भी प्रकाशन केन्द्र था।
मेरठ के प्रकाशन उद्योग में स्वामी तुलसीराम स्वामी का भारी योगदान था। उन्होंने 1885 में मेरठ में स्वामी प्रेस की स्थापना की। शुरुआती दौर में यहां लीथो पद्ध्ति से छपाई होती थी। तुलसीराम जी आर्यसमाज के अध्यक्ष थे। उन्होंने बुढ़ाना गेट आर्यसमाज की स्थापना भी की थी। साम्यवेद का भाष्य उनका बड़ा प्रमाणिक ग्रंथ माना जाता है। इसके अलावा भी उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं और प्रकाशित कीं। ये सारी पुस्तकें स्वामी प्रेस से ही प्रकाशित हुई थीं। उस समय स्वामी प्रेस मतदाता सूचियों के प्रकाशन में काफी नाम रखता था। यहां लखनउ तक की मतदाता सूचियां प्रकाशित होती थीं। उनके पौत्र उमा शंकर शर्मा ने बताया कि उनके दादाजी के समय स्वामी प्रेस अपने समय की बहुत बड़ी प्रेस हुआ करती थी। उस समय उनके यहां करीब 200 कर्मी काम किया करते थे। अपनी पुस्तकों और मतदान सूचियों के अलावा भी स्वामी प्रेस में कई प्रकाशन समूहों की पुस्तकें और अन्य सामग्रियां प्रकाशित होती थीं। तुलसीराम जी ने वैदिक धर्म के प्रचार के लिए वेद प्रकाश नामक मासिक पत्र भी निकाला। तुलसीराम का 42 साल की अवस्था में ही निधन हो गया। अब तो बस इस प्रेस की यादें ही कुछेक मेरठवासियों के जेहन में हैं।
आर्यसमाज के ही एक अन्य प्रतिष्ठित विद्वान घासीराम एमए एलएलबी ने भी मेरठ के प्रकाशन उद्योग के विकास में काफी योगदान दिया। उन्होंने कई पुस्तकें लिखी। इसके अलावा अंग्रेजी भाषा की कुछेक पुस्तकों का हिन्दी अनुवाद भी किया।
वर्तमान समय में
[संपादित करें]मौजूदा समय में मेरठ का प्रकाशन उद्योग पूरी तरह से शैक्षिक प्रकाशनों का केन्द्र बन गया है। हालांकि 20वीं शताब्दी में ही मेरठ में इस तरह की पुस्तकों के प्रकाशन की शुरुआत हुई लेकिन 19वीं शताब्दी के अंतिम चरण में विषय संबंधी ज्ञान देने वाले कई पत्र पत्रिकाएं प्रकाशित हुईं। सर विलियम म्योर (भूतपूर्व लैफिटनेंट गर्वनर उप्र) के संरक्षण में साप्ताहिक उर्दू पत्र का प्रकाशन मेरठ से होता था। यह सुल्तान उल मुद्रणालय में छपता था। इस पत्र में प्रकाशित सामग्री विद्यार्थियों के उपयोग की थी।
लगभग दौ सौ साल पहले शुरू मेरठ का प्रकाशन उद्योग अब प्रमुखतया शैक्षिक पुस्तकों के प्रकाशन तक केन्द्रित होकर रह गया है। आजादी के पहले तक मेरठ शैक्षिक पुस्तकों के विक्रय का प्रमुख केन्द्र था। उस समय मेरठ में कई बड़े पुस्तक विक्रेता थे, जिनका मुख्य व्यवसाय पुस्तक विक्रय था। साथ ही ये कुछ पुस्तकें भी प्रकाशित करते थे। इनमें रामनाथ केदारनाथ, जयप्रकाश नाथ एंड कंपनी, खैराती लाल, रस्तोगी एंड कंपनी, राजहंस प्रकाशन आदि प्रमुख थे। उस समय शैक्षिक पुस्तकों का प्रकाशन प्रमुख रूप से सरकारी प्रकाशन हाउस ही करते थे। उत्तर भारत के कई शहरों में मेरठ से ही पाठय पुस्तकें जाती थीं। आजादी के बाद स्थिति में बदलाव हुआ। मेरठ कालेज के एमए अर्थशास्त्र के छात्र राजेन्द्र अग्रवाल की पहल से मेरठ के प्रकाशन उद्योग के स्वरूप में बदलाव हुआ। राजेन्द्र अग्रवाल ने सर्वप्रथम मेरठ कालेज के हास्टल मदन मोहन से 1950 में भारत भारती के नाम से प्रकाशन व्यवसाय शुरू किया। बाद में कालेज प्रशासन की आपत्ति के बाद कचहरी रोड पर किराए पर आफिस लिया। उस दौर में मेरठ में पुस्तक विक्रय और प्रकाशन के सभी केन्द्र सुभाष बाजार में ही थे। सुभाष बाजार से बाहर उस समय प्रकाशन हाउस खोलने की बात भी नहीं सोची जा सकती थी। शुरू में तब के कई प्रकाशकों ने राजेन्द्र अग्रवाल को समझाने का प्रयास किया। लेकिन बाद में धीरे-धीरे कमोबेश सभी बड़े प्रकाशक कचहरी रोड पर ही आ गए। अब तो कचहरी रोड को प्रकाशन मार्ग भी कहा जाता है। इस समय कचहरी रोड पर चित्रा प्रकाशन, नगीन प्रकाशन, प्रगति प्रकाशन, जीआर बाटला एंड संस, भारत भारती प्रकाशन आदि मेरठ के बड़े प्रकाशनों के आफिस बने हैं। आज मेरठ में शैक्षिक प्रकाशनों के कई बड़े नाम हैं। मात्र दस साल पहले शुरू अरिहंत प्रकाशन प्रतियोगी परीक्षाओं के प्रकाशन में पूरे देश में अग्रणी है। अभी हालात यह हैं कि शायद ही पूरे देश में कोई ऐसी दुकान होगी जहां मेरठ से प्रकाशित पुस्तकें न हों। मेरठ को प्रकाशनों का शहर भी कहा जा सकता है। मेरठ के प्रकाशनों की कोई आधिकारिक गिनती तो नहीं की गई है लेकिन मेरठ के प्रकाशन उद्योग से जुड़े लोगों का मानना है कि मेरठ में छोटे बड़े तकरीबन 75 प्रकाशन हैं। उद्योग से जुड़े लोग इसका सालाना टर्नओवर तकरीबन दो सौ करोड़ मानते हैं। इस व्यवसाय में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से तकरीबन एक लाख लोगों को रोजगार मिला हुआ है। व्यवसाय को इस स्थिति में पहुंचाने के लिए मेरठ के प्रकाशकों ने जी तोड़ मेहनत की है।