मृतभार घाटा

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आर्थिक संतुलन में हस्तक्षेप से मृतभार घाटा उत्पन्न होता है, जिस से समाज को हानि पहुँचती है। इस चित्र में सरकार द्वारा बाज़ार में किसी माल या सेवा पर मूल्य छत लगाने से उत्पन्न मृतभार घाटा देखा जा सकता है।

मृतभार घाटा (Deadweight loss) आर्थिक दक्षता में हुआ वह घाटा है जो किसी माल या सेवा के बाज़ार में सर्वोत्तम मात्रा का उत्पादन व उपभोग न होने से उत्पन्न होता है। यह बाज़ार में आर्थिक संतुलन में हस्तक्षेप करने से होता है। यह हस्तक्षेप सरकारी नियमन या दबाव, एकाधिकार या अन्य किसी कृत्रिम कारण के रूप में हो सकता है।[1][2][3]

उदाहरण और दुषप्रभाव[संपादित करें]

मान लीजिए कि एक बाज़ार में दीवार में लगाने वाली कीलें बिक रही हैं और उत्पादकों की आपूर्ति और उपभोक्ताओं की माँग में आर्थिक संतुलन से इस मुक्त बाज़ार में कीलों की कीमत ₹2 उभर कर आती है। इसी दाम पर कीले बिक रहीं है। इस कीमत पर अलग-अलग उत्पादक को अपने अलग-अलग उत्पादक अधिशेष (supplier surplus) और अलग-अलग उपभोक्ता अधिशेष (consumer surplus) मिल रहें हैं, जिनका कुल जोड़ बाज़ार का आर्थिक अधिशेष है।

अब सरकर में निर्णय होता है कि ग्राहकों को फायदा पहुँचाने के लिए कीलों की कीमत पर एक मूल्य छत लगाई जाएगी और कीलों की कीमत अधिक-से-अधिक ₹1 हो सकती है। यह कई उत्पादकों के स्वीकृत प्राप्त मूल्य (वह कम-से-कम कीमत जिसपर उत्पादक बेच सकता है) से कम होगा। इस कारणवश कई उत्पादक समय के साथ-साथ बाज़ार से निकल जाएँगे और बाज़ार में उपल्ब्ध कीलों की कीमत घट जाएगी। अब एक नया संतुलन उभरेगा जो पहले से हीन होगा, जिसकी कीमत सरकार द्वारा निर्धारित ₹1 होगी, लेकिन किलों की मात्रा पहले से कम होगी। इस नए संतुलन में कई उपभोक्ता जिनकों पहले कीलें मिलती थीं, अब नहीं मिलेंगी। उनका कहना होगा कि "बाज़ार में किलें पहले से सस्ती हैं, लेकिन अक्सर मिलती ही नहीं।" कीलों में अभाव अर्थव्यवस्था आरम्भ होगी। आर्थिक अधिशेष का जो भी अंश खोया जाएगा वही मृतभार घाटा है। ध्यान दें कि यह अर्थव्यास्था में सिकुड़न है, मसलन जिन लोगों को पहले अधिक कीलें बनाने के लिए नौकरियाँ मिलनी थी, उनका रोज़गार अब अर्थव्यवस्था से समाप्त हो चुका है।

यह भी ध्यान दें कि ऐसे भी उपभोक्ता होंगे जो ₹2 देने को तैयार है (जो पहले भी दे रहे थे)। उनमें से कुछ अब उत्पादकों को भ्रष्ट करना चाहेंगे और आग्रह करेंगे कि उत्पादक बाज़ार में बेचने से पहले ही कीले छुपा लें और उनसे छुपकर ₹2 ले लें ताकि वे आश्वस्त रूप से कीले खरीद सकें। इस से एक काला बाज़ार जन्मेगा। इसी प्रकार से जब सरकार आर्थिक व्यवस्था में अधिक हस्तक्षेप करती है, तो समाज में एक अपराधिक और भ्रष्ट संस्कृति पनपने लगती है। सरकार में जब आर्थशास्त्र से अपरिचित अफसर अपनी ओर से समाजिक भलाई करने के लिए आर्थिक संतुलन में हस्तक्षेप करते हैं तो अनपेक्षित परिणाम मिलते हैं और अभाव, बेरोज़गारी व भ्रष्टाचार तीनों बढ़ते हैं।[4]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. Varian, Hal R. (1992), Microeconomic Analysis, Vol. 3. New York: W.W. Norton.
  2. Anderson, James C., Dipak Jain, and Pradeep K. Chintagunta (1993), "Understanding Customer Value in Business Markets: Methods of Customer Value Assessment," Journal of Business-to-Business Marketing, 1 (1), 3–30.
  3. Breidert Christoph, Hahsler, Michael, and Reutterer (2006), "A Review of Methods for Measuring Willingness-to-Pay", Innovative Marketing, 2(4), 8–32.[1]
  4. Case, Karl E.; Fair, Ray C. (1999). Principles of Economics (5th संस्करण). Prentice-Hall. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-13-961905-2.