सामग्री पर जाएँ

मूलमध्यमककारिका

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से

मूलमध्यमककारिका, नागार्जुन द्वारा रचित बौद्ध धर्म के महायान सम्प्रदाय का मुख्य दार्शनिक ग्रन्थ है जिसमें मध्यमक सिद्धान्त की मूलभूत बातें कहीं गयी हैं।

मूलमध्यमककारिका के प्रथम श्लोक में ही वे पदार्थ की उत्पत्ति से सम्बन्धित यह कहते हैं-

न स्वतो नापि परतो न द्वाभ्यां नाप्यहेतुतः ।
उत्पन्ना जातु विद्यन्ते भावाः क्व चन के चन ॥

मूलमध्यमककारिका में २७ अध्याय और ४४८ सूत्र हैं। अध्यायों के नाम निम्नलिखित हैं-

  1. प्रत्ययपरीक्षा
  2. गतागतपरीक्षा
  3. चक्षुरादीन्द्रियपरीक्षा
  4. स्कन्धपरीक्षा
  5. धातुपरीक्षा
  6. रागरक्तपरीक्षा
  7. संस्कृतपरीक्षा
  8. कर्मकारकपरीक्षा
  9. पूर्वपरीक्षा
  10. अग्नीन्धनपरीक्षा
  11. पूर्वपरकोटिपरीक्षा
  12. दुःखपरीक्षा
  13. संस्कारपरीक्षा
  14. संसर्गपरीक्षा
  15. स्वभावपरीक्षा
  16. बन्धनमोक्षपरीक्षा
  17. कर्मफलपरीक्षा
  18. आत्मपरीक्षा
  19. कालपरीक्षा
  20. सामग्रीपरीक्षा
  21. संभवविभवपरीक्षा
  22. तथागतपरीक्षा
  23. विपर्यासपरीक्षा
  24. आर्यसत्यपरीक्षा
  25. निर्वानपरीक्षा
  26. द्वादशाङ्गपरीक्षा
  27. दृष्टिपरीक्षा

कुछ उद्धरण

[संपादित करें]
  • अस्तीति शाश्वतग्राहो नास्तीत्युच्छेददर्शनम्।
तस्मादस्तित्वनास्तित्वे नाश्रीयेत विचक्षणः॥१५-१०॥
किसी वस्तु का अस्तित्व स्वीकार करने का अर्थ है कि वह सदा ग्राह्य है। किसी वस्तु का अस्तित्व नकारने का अर्थ है उसके उच्छेद को देखना है।
इसलिये बुद्धिमान मनुष्य को अस्तित्व या नास्तित्व पर आश्रित नहीं रहना चाहिये।
  • न निर्वाणसमारोपो न संसारापकर्षणम्।
यत्र कस्तत्र संसारो निर्वाणं किं विकल्प्यते॥ १६-१॥
जहाँ न निर्वाण का समारोप है और न ही संसार का अपकर्षण है, वहाँ कौन से संसार का किस निर्वाण से अन्तर किया जायेगा?
  • तथागतो यत्स्वभावस्तत्स्वभावमिदं जगत्।
तथागतो निःस्वभावो निःस्वभावम् इदं जगत्॥२२-१६॥
तथागत (बुद्ध) का जो स्वभाव है वही स्वभाव जगत् का है। तथागत निःस्वभाव हैं ; यह जगत भी निःस्वभाव है।
  • न संसारस्य निर्वाणात् किं चिद् अस्ति विशेषणं
न निर्वाणस्य संसारात् किं चिद् अस्ति विशेषणं॥२५-१९॥
इस संसार में कोई ऐसी विशेषता नहीं है जो इसे निर्वाण से अलग करे। (और) निर्वाण में ऐसी कोई विशेषता नहीं है जो उसे संसार से अलग करे।
  • निर्वाणस्य च या कोटिः कोटिः संसरणस्य च।
न तयोरन्तरं किंचित्सुमूक्ष्ममपि विद्यते॥२५-२०॥
निर्वाण की कोटि (सीमा या परिमाण) है और संसार की कोटि में कोई सुसूक्ष्म भी अन्तर नहीं है।

बाहरी कड़ियाँ

[संपादित करें]