माहिष्य

माहिष्य (बंगाली: মাহিষ্য) एक बंगाली हिन्दू परंपरागत खेतीकार योद्धा जाति है,[1][2] और अविभाजित बंगाल में सबसे बड़ी जाति है।[3] माहिष्य अतीत में भी और आज भी एक अत्यंत विविध जाति हैं, जिसमें भौतिक परिस्थितियों और रैंकों के संदर्भ में सभी संभावित वर्ग शामिल हैं।[4][5] इस समुदाय का बंगाल में महत्वपूर्ण कृषि, आर्थिक और राजनीतिक प्रभाव का इतिहास रहा है।
विशेष निवासक्षेत्र | |
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प्रेसिडेंसी डिवीज़न (तब इसमें खुलना डिवीज़न शामिल था) • बर्दवान डिवीज़न (इसमें मेदिनीपुर डिवीज़न भी शामिल है) • राजशाही डिवीज़न (इसमें मालदा डिवीज़न भी शामिल है) • ढाका डिवीज़न | ~२३.८ लाख (प्रांत की हिन्दू आबादी का लगभग एक चौथाई साँचा:लगभग) |
भाषाएँ | |
बंगाली भाषा | |
धर्म | |
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मूल, शिलालेख और ग्रंथ
[संपादित करें]४४० ईस्वी का कलाईकुरी-सुल्तानपुर ताम्रपत्र शिलालेख गुप्त काल में वरेन्द्र में स्थानीय सभा (अधिकारण) में कैवर्तशर्मन, जो एक ब्राह्मण कुटम्बिन (किसान भूमिधारक) थे, की उपस्थिति को उजागर करता है।[6][7]
स्मृति, पुराण और मध्यकालीन ग्रंथ
[संपादित करें]याज्ञवल्क्य स्मृति और गौतम धर्मसूत्र जैसे कुछ हिन्दू शास्त्रों के अनुसार, माहिष्य को एक क्षत्रिय पिता और एक वैश्य माता के मिलन से उत्पन्न बताया गया है, एक ऐसा वंश जिसे पारंपरिक ग्रंथों में अक्सर अनुकूल माना जाता है।[8][9] ब्रह्म वैवर्त पुराण, जो विभिन्न मिश्रित जातियों का वर्णन करता है, कैवर्त की उत्पत्ति भी इसी प्रकार (क्षत्रिय पिता और वैश्य माता) बताता है,[10][11] एक ऐसा शब्द जो ऐतिहासिक रूप से कृषि का अभ्यास करने वाले माहिष्यों से जुड़ा हुआ है। यह वंश, जिसमें परंपरागत रूप से उच्च वर्णों के माता-पिता शामिल हैं, ग्रंथों में वर्णित अन्य मिश्रित उत्पत्ति से अलग है। 'माहिष्य' शब्द इस विशिष्ट शास्त्रीय उत्पत्ति से जुड़ा हुआ है, जो समुदाय को जलिय कैवर्त जैसे समूहों से अलग करता है, जो विभिन्न उत्पत्ति और व्यवसायों से जुड़े हैं और परंपरागत रूप से मछली पकड़ने में लगे हैं।[12][13][14][15]
सोलहवीं शताब्दी के अंत के ग्रंथ चंडीमंगल में एक प्रकार के दासाओं का उल्लेख किया गया है, जो कृषक थे।[16] 'चासी-कैवर्त' शब्द पहली बार भारतचंद्र राय के अन्नदा मंगल (1753) में आया।[17]
इतिहास
[संपादित करें]अब माहिष्य के नाम से जाना जाने वाला समूह मूल रूप से कैवर्त या कैवर्तास के नाम से जाना जाता था। आठवीं से तेरहवीं शताब्दी तक, कैवर्तास के प्रशासक और कानूनी अधिकारियों के पद धारण करने के कई उदाहरण हैं।[18] पाल शासन के दौरान, कई कैवर्तास, कई ब्राह्मणों के साथ मिलकर, शाही दरबारों में मंत्रियों के रूप में कार्य करते थे।[19] ग्यारहवीं शताब्दी में, एक विद्रोही शत्रुता में, दिव्य, जो मूल रूप से एक सामंती प्रमुख थे, ने महीपाल द्वितीय को मार डाला, वरेन्द्र पर कब्जा कर लिया और वहां एक शासन स्थापित किया। थोड़े समय के लिए वरेन्द्र ने तीन कैवर्त राजाओं - दिव्य, रुदोक और भीम की सर्वोच्चता को स्वीकार किया।[20][21][22] इतिहासकार रोमिला थापर के अनुसार, यह शायद भारतीय इतिहास का पहला किसान विद्रोह था।[23][24][25][26] अपने शासनकाल में भीम ने ब्राह्मणवादी और अन्य लाभार्थियों को बेदखल कर दिया और उनसे कर लगाए, और किसानों के हितों को प्राथमिकता दी।[27] ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दियों के दौरान कुछ कैवर्ता संस्कृत में पारंगत थे और कविताएँ रचते थे।[20]
१९वीं शताब्दी के अंत में विद्वानों के बीच बंगाली समाज में माहिष्यों के पद पर मतभेद दिखाई दिया। संस्कृतज्ञ और पुरातनपंथी राजेंद्रलाल मित्रा ने सुझाव दिया कि माहिष्य छोटे किसानों की जाति हो सकती है जिनमें आधुनिक शिक्षा तक पहुँच का अभाव है। हालांकि, नदिया पंडितों के कॉलेज के अध्यक्ष और १८९६ के प्रमुख ग्रंथ "हिंदू कास्ट्स एंड सेक्ट्स" के लेखक जोगेन्द्रनाथ भट्टाचार्य ने टिप्पणी की कि मिदनापुर के तामलुक और कोंताई उपखंडों में, जहां वे संख्या में अधिक थे और उच्च जाति की आबादी कम थी, कैवर्ता को स्थानीय अभिजात वर्ग में माना जा सकता था, और अन्य जिलों में उनकी स्थिति कायस्थों के ठीक बाद थी।[28] १९वीं शताब्दी के अंत में माहिष्य आंदोलन सफल व्यक्तियों द्वारा संचालित था जिन्होंने वाणिज्य, शिक्षा और व्यवसायों में नए अवसरों का लाभ उठाया था, अक्सर पारंपरिक समाजपति (भूमिधारक सामाजिक नेता) के विपरीत जिन्होंने कभी-कभी आंदोलन का विरोध किया।[29][30] तब तक, इन विविध व्यक्तियों को आम तौर पर चासी-कैवर्त के रूप में पहचाना जाता था। चासी-कैवर्त आबादी, विशेष रूप से मिदनापुर के पूर्वी और दक्षिणी हिस्सों में प्रभावशाली, ने भूमि का उद्धार करके, ज़मींदारों और जोतदारों से लेकर छोटे किसानों तक विभिन्न स्तरों पर कब्जा करके कृषि अर्थव्यवस्था में एक मजबूत स्थिति स्थापित की। मेदिनीपुर के कई प्रमुख अर्ध-शाही परिवार, जिनमें तामलुक राज परिवार, काजलागढ़ राज परिवार और मोयना राज परिवार शामिल हैं, खुद को माहिष्य के रूप में पहचानते हैं।[31][32]
ढाका जैसे जिलों में, माहिष्यों (जिन्हें पराशर दास या हालीक दास के नाम से भी जाना जाता है) के उच्च और मध्यम वर्ग मुस्लिम शासन के समय से ही उल्लेखनीय ज़मींदार और महत्वपूर्ण भूमिधारक थे। बर्दवान, हुगली, नदिया, २४ परगना और पूर्वी क्षेत्रों जैसे फरीदपुर जैसे अन्य जिलों में, उन्होंने कृषि में महत्वपूर्ण स्थान धारण किया, कुछ महत्वपूर्ण भूमिधारक, अनाज व्यापारी और किसान-मालिक थे।[33][34] कलकत्ता के प्रमुख भूमिधारक परिवार जैसे जानबाजार में मारह परिवार और बावली के मंडल परिवार भी माहिष्य थे।[35][36] शहरी क्षेत्रों में, एक महत्वपूर्ण माहिष्य दल व्यापार, विनिर्माण और कानून जैसे व्यवसायों में लगा हुआ था।[37][29]
जबकि कई माहिष्य ग्रामीण क्षेत्रों में पारंपरिक कृषि कार्य जारी रखे हुए हैं, एक पीढ़ी के भीतर, बड़ी संख्या में हावड़ा और कोलकाता के शहरीकृत क्षेत्रों में कृषि से इंजीनियरिंग और कुशल श्रम में संक्रमण हुआ। हावड़ा में, माहिष्य विशेष रूप से संख्या में अधिक और सफल व्यवसायी हैं। २०वीं शताब्दी की शुरुआत में जब अधिकांश भूमि और कारखाने कायस्थों के स्वामित्व में थे, तब की तुलना में १९६७ तक, जिले में ६७ प्रतिशत इंजीनियरिंग व्यवसायों का स्वामित्व माहिष्य समुदाय के पास था।[38][39][40]
स्वतंत्रता आंदोलन में भूमिका
[संपादित करें]नदिया के छोटे ज़मींदार और साहूकार दिगंबर विश्वास और बिष्णु चरण विश्वास ने नदिया और जैसोर के किसानों को संगठित किया और लाठियालों और भालाधारियों की एक सेना खड़ी की। उन्होंने इस क्षेत्र में नील विद्रोह का नेतृत्व किया और विद्रोह के बाद किसानों के ऋण चुकाए। नील कारखानों के असंतुष्ट पूर्व कर्मचारी, ग्राम प्रधान (मंडल), और कुछ अन्य किसान समुदायों के सदस्यों ने भी यूरोपीय बागान मालिकों के खिलाफ इस विद्रोह में बड़े पैमाने पर भाग लिया।[41][42]
माहिष्यों ने राष्ट्रवादी आंदोलन में एक प्रमुख भूमिका निभाई।[43] देशप्राण बिरेन्द्रनाथ शासमल[44] ने 1919 में यूनियन बोर्ड करों के खिलाफ माहिष्यों का नेतृत्व किया जो बाद में मिदनापुर में असहयोग आंदोलन के साथ विलय हो गया।[45] [सविनय अवज्ञा आंदोलन] के दौरान माहिष्यों ने तामलुक और कोंताई के क्षेत्रों में ब्रिटिश प्रशासन के वस्तुतः पतन के लिए भविष्य की कार्रवाई का मार्ग प्रशस्त किया।[46][47]
१९४० के दशक तक, माहिष्य मिदनापुर और पूरे दक्षिण बंगाल में कांग्रेस के नेतृत्व वाले उग्र राष्ट्रवादी आंदोलन की रीढ़ थे। वास्तव में, मिदनापुर में भारत छोड़ो आंदोलन के अधिकांश नेता और सिपाही माहिष्य थे। उन्होंने तामलुक में एक समानांतर सरकार ताम्रलिप्त जातीय सरकार[48] की स्थापना की जो लगभग दो वर्षों (१९४२-४४) तक चली। इसकी अपनी सेना, न्यायपालिका और वित्त विभाग था। बिप्लबी, मिदनापुर में समानांतर राष्ट्रीय सरकार का मुखपत्र, बाद में अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ।[35][49]
वर्ण स्थिति
[संपादित करें]बंगाल में पारंपरिक वर्ण व्यवस्था को कभी-कभी ब्राह्मणों और शूद्रों के बीच एक प्राथमिक विभाजन द्वारा विशेषता दी गई है, जिसमें कई गैर-ब्राह्मण समूहों, जिनमें ऐतिहासिक रूप से क्षत्रिय और वैश्य स्थिति का दावा करने वाले भी शामिल हैं, को कुछ वर्गीकरणों में मोटे तौर पर शूद्र छाते के तहत वर्गीकृत किया गया है।[50] हालांकि, माहिष्यों ने लगातार एक विशिष्ट और उच्च स्थिति पर जोर दिया है। शास्त्रीय रूप से, जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, याज्ञवल्क्य स्मृति, गौतम धर्मसूत्र, और ब्रह्म वैवर्त पुराण जैसे ग्रंथ माहिष्य (या कैवर्त, जो ऐतिहासिक रूप से इस समूह से जुड़े हैं) को एक क्षत्रिय पिता और एक वैश्य माता के मिलन से उत्पन्न बताते हैं।[51][52][53] ऐतिहासिक रूप से, समुदाय ने इस उत्पत्ति के अनुरूप मान्यता के लिए सक्रिय रूप से प्रयास किया, १९०१ की जनगणना में वैश्य स्थिति और १९३१ की जनगणना में क्षत्रिय या माहिष्य क्षत्रिय स्थिति का दावा किया।[54][55][56] स्वपन दासगुप्ता जैसे विद्वान उनके क्षत्रिय पृष्ठभूमि के दावे का समर्थन करते हैं, जो उनके किसान-मिलिशिया इतिहास की ओर इशारा करते हैं, और उड़ीसा के खंडायत जैसे समूहों के साथ समानताएं खींचते हैं।[57][58] माहिष्यों की विशिष्ट वर्ण स्थिति विद्वानों की चर्चा का विषय रही है।[59] यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि माहिष्य समुदाय जलिय कैवर्त समूह से अलग है, जो परंपरागत रूप से मछली पकड़ने से जुड़े हैं और उन्हें अलग से वर्गीकृत किया गया है।[60][61]
उनकी ऐतिहासिक प्रमुखता और उच्च वर्णों के साथ आत्म-पहचान के बावजूद, औपनिवेशिक प्रशासन द्वारा किए गए कुछ वर्गीकरणों, जैसे कि "दबाए गए वर्गों" की १९२१ की सूची में 'चासी-कैवर्त' को शामिल करना, समुदाय के संपन्न और ऊपर की ओर गतिशील वर्गों द्वारा दृढ़ता से अस्वीकार कर दिया गया, जिन्होंने ऐसे वर्गीकरणों को "उच्च जाति हिन्दू" स्थिति के उनके दावे के लिए हानिकारक माना।[35][62][63] बाद में, १९४६ में, कथित नुकसान का सामना करते हुए, एक जाति संघ ने "मध्यवर्ती और दबाए गए" जातियों के रूप में पहचान करके विशेष सुविधाओं की मांग की, जो अवसरों से उनके बहिष्कार को उजागर करता है, यह एक ऐसा कदम है जो निम्न स्थिति की सामान्य स्वीकृति के बजाय रणनीतिक राजनीतिक दांवपेंच को दर्शाता है।[64]
आधुनिक संदर्भ में, जबकि मंडल आयोग ने पश्चिम बंगाल राज्य के लिए १७७ "पिछड़े वर्गों" की सूची में 'चासी-कैवर्त' और 'माहिष्य' दोनों को सूचीबद्ध किया, स्थिति जटिल रही है। सेन आयोग ने 'चासी-कैवर्त' (पिछड़े के रूप में पहचाने गए) और 'माहिष्य' (पिछड़े के रूप में नहीं पहचाने गए) के बीच अंतर किया। वर्तमान में, ओबीसी स्थिति उन लोगों के लिए उपलब्ध है जो 'चासी-कैवर्त' के रूप में दस्तावेजित हैं। माहिष्य समूह कुल मिलाकर सामान्य श्रेणी में बना हुआ है,[65][35][62] जो पश्चिम बंगाल में सबसे बड़ी जाति का गठन करते हैं।[62]
उनकी शास्त्रीय उत्पत्ति, शासकों और भूमिधारकों के रूप में ऐतिहासिक प्रमुखता, कृषि और औद्योगिक दोनों क्षेत्रों में आर्थिक सफलता, महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रभाव, सामाजिक स्थिति, और मुख्य रूप से सामान्य श्रेणी के भीतर आधुनिक वर्गीकरण के आधार पर, माहिष्यों को व्यापक रूप से बंगाली हिन्दू सामाजिक पदानुक्रम में एक उच्च-मध्यम जाति (अग्रणी जाति समूह) के रूप में माना जाता है।[66][67][68][69][62]
सामाजिक-आर्थिक स्थिति
[संपादित करें]जबकि कई अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में पारंपरिक कार्य में शामिल हैं, एक पीढ़ी के भीतर माहिष्यों ने हावड़ा और कोलकाता के शहरीकृत क्षेत्रों में इंजीनियरिंग और कुशल श्रम के पक्ष में बड़ी संख्या में कृषि छोड़ दी। हावड़ा में, माहिष्य सबसे अधिक संख्या में और सफल व्यवसायी हैं। २०वीं शताब्दी की शुरुआत में जब अधिकांश भूमि और कारखाने कायस्थों के स्वामित्व में थे, तब की तुलना में १९६७ तक, जिले में ६७ प्रतिशत इंजीनियरिंग व्यवसायों का स्वामित्व माहिष्य समुदाय के पास था।[38] उदाहरण के लिए, जब सुभाष चंद्र बोस और बिरेन्द्रनाथ शासमल के बीच कोलकाता नगर निगम के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के पद के लिए लड़ाई हुई, जो तब बंगाल के राजनीतिक जीवन पर हावी थी, बोस ने कुशलता से जीत हासिल की।[70] हालांकि चित्तरंजन दास ने मूल रूप से शासमल की सेवाओं को नौकरी की पेशकश करके पुरस्कृत करने का प्रस्ताव दिया था, जब उन्हें पता चला कि यह चुनाव शहर के कायस्थ गुट को नाराज कर देगा, तो वे तुरंत पीछे हट गए। उनमें से एक ने तो यहाँ तक टिप्पणी की: 'क्या मिदनापुर का कोई केओट आकर कलकत्ता में शासन करेगा?'[a] शासमल ने बंगाल प्रांतीय कांग्रेस समिति (BPCC) की एक बैठक में अपने गुरु दास से दो प्रश्न पूछे: '(१) सुभाष बोस स्वराज पार्टी द्वारा कलकत्ता नगर निगम के सदस्य और उनके भाई शरत बोस एल्डरमैन चुने गए थे। BPCC एक परिवार के निगम पर प्रभुत्व स्थापित करने पर क्यों तुला हुआ था? (२) निगम के सर्वोच्च कार्यकारी पद पर, उन्हें बाईपास करके किसी अन्य व्यक्ति को नियुक्त करने का प्रस्ताव दिया जा रहा था। क्या यह इसलिए था क्योंकि उन्हें उनकी निम्न जाति के कारण तिरस्कार से देखा जाता था?' दास ने पहले प्रश्न पर नाराजगी व्यक्त की और दूसरे का अपर्याप्त उत्तर दिया जिससे शासमल संतुष्ट नहीं हुए। शासमल ने घोर अपमान और गुस्से में BPCC छोड़ दिया, और कोंताई और मिदनापुर में अपनी कानूनी प्रैक्टिस और स्थानीय राजनीति पर अपना नियंत्रण बनाए रखा।[71]
माहिष्यों की वित्तीय, सामाजिक और राजनीतिक सफलता के बावजूद, उन्हें कभी-कभी सामाजिक चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। ऐतिहासिक रूप से कृषि जड़ों से जुड़े होने के कारण, समुदाय ने शारीरिक श्रम से परहेज नहीं किया है, एक ऐसा गुण जिसे परंपरागत रूप से "उच्च जातियों" के कुछ वर्गों द्वारा कभी-कभी अलग तरह से देखा जाता है। यह गतिशीलता प्रमुख माहिष्यों द्वारा शहरी और राजनीतिक क्षेत्रों में navigating के उदाहरणों से स्पष्ट होती है, जिन पर पहले अन्य समूहों का प्रभुत्व था।[38][72]
१९८० के दशक के दौरान, राज्य में पिछड़े वर्गों को मान्यता देने में पश्चिम बंगाल सरकार की राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी थी।[5] मंडल आयोग ने पश्चिम बंगाल राज्य के लिए १७७ "पिछड़े वर्गों" की सूची में चासी-कैवर्त और माहिष्य दोनों को शामिल किया। १९८९ के बाद, आयोग के प्रस्तावों के लागू होने के बाद, निम्न मध्यम और निम्न वर्ग के माहिष्यों के एक वर्ग ने O.B.C. स्थिति के लिए कम तीव्रता वाला अभियान चलाया। हालांकि, संपन्न वर्गों के कुछ व्यक्तियों ने इसका विरोध किया, जिन्होंने इस पहल के खिलाफ अदालत का दरवाजा भी खटखटाया। १९९० के दशक के अंत में सेन आयोग इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि चासी-कैवर्त एक पिछड़ा वर्ग है और माहिष्य राज्य में पिछड़ा वर्ग नहीं है। २००० के दशक की शुरुआत तक, चासी-कैवर्तास को ओबीसी का दर्जा दिया गया। कोई भी व्यक्ति जो यह दस्तावेज प्रस्तुत कर सकता था कि वह चासी-कैवर्त जाति का था, तब ओबीसी स्थिति के लिए योग्य था। २०१० के दशक की शुरुआत से, माहिष्यों में से बेहतर-संपन्न लोग भी जाति के रूप में ओबीसी स्थिति के लिए अभियान चला रहे हैं, लेकिन माहिष्य नामक समूह अभी भी सामान्य श्रेणी में आता है और पश्चिम बंगाल की सबसे बड़ी जाति बना हुआ है।[73][74][35][62][75]
बारहवीं शताब्दी के अंत तक पार्थ चटर्जी ने माहिष्यों को दक्षिण-पश्चिमी बंगाल में एकल सबसे महत्वपूर्ण 'मध्यम-जाति' समूह माना, जहाँ वे बहुत अधिक संख्या में हैं, जिसमें मिदनापुर, २४ परगना, हुगली, हावड़ा जिले शामिल हैं; जबकि बीच और बीच ने उन्हें पहले दो जिलों के दक्षिणी भाग में प्रमुख जाति के रूप में मान्यता दी। नदिया और मुर्शिदाबाद अन्य दो जिले हैं जहाँ माहिष्य संख्यात्मक रूप से सबसे प्रमुख जाति हैं।[76][77][78][79]
उल्लेखनीय व्यक्ति
[संपादित करें]रानी राशमोनी, भारतीय ज़मींदार, व्यवसायी, परोपकारी, दक्षिणेश्वर काली मंदिर की संस्थापक[80][81]
दीवान मोहनलाल, हिंदू राजा और नवाब सिराजुद्दौला के प्रमुख सेनापतियों में से एक[82]
बिरेन्द्रनाथ शासमल, स्वतंत्रता सेनानी, बैरिस्टर और राजनीतिज्ञ, लोकप्रिय रूप से देशप्राण के नाम से जाने जाते हैं[83][84]
हेमचन्द्र कानूनगो, बम बनाना सीखने के लिए विदेश जाने वाले पहले क्रांतिकारियों में से एक, भारत के पहले अनौपचारिक झंडे के सह-निर्माता[85]
बसन्त कुमार बिस्वास, स्वतंत्रता सेनानी, सबसे कम उम्र के शहीदों में से एक, लॉर्ड हार्डिंग पर हत्या का प्रयास किया[86][87]
मातंगिनी हाज़रा, स्वतंत्रता सेनानी, भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान शहीद, लोकप्रिय रूप से "लेडी गांधी" के नाम से जानी जाती हैं[88][89]
सतीश चंद्र सामन्त, स्वतंत्रता सेनानी, समर्पित गांधीवादी, ब्रिटिश राज के दौरान तामलुक में एक समानांतर सरकार की स्थापना की[88][90]
सुशील कुमार धारा, स्वतंत्रता सेनानी, ब्रिटिश राज के दौरान तामलुक में एक समानांतर सरकार की स्थापना की[88][90]
बसन्त कुमार दास, स्वतंत्रता सेनानी, स्वतंत्रता कार्यकर्ता, राजनीतिज्ञ, भारत की संविधान सभा के सदस्य[91][92]
अनाथ बंधु पंजा, स्वतंत्रता सेनानी, बंगाल वॉलंटियर्स के सदस्य, जिला मजिस्ट्रेट बर्नार्ड ई. जे. बर्ज की हत्या के बाद शहीद हुए[93][94]
चारु चन्द्र भंडारी, स्वतंत्रता कार्यकर्ता, गांधीवादी राजनीतिज्ञ, वकील और बंगाल में सर्वोदय आंदोलन के प्रमुख नेता थे[95][96]
आलममोहन दास, अग्रणी उद्योगपति और इंडिया मशीनरी कंपनी के संस्थापक, दासनागर के नाम पर[97][98]
शरत कुमार रॉय, भारतीय अमेरिकी भूविज्ञानी और साहसी। उत्तरी ध्रुव के अभियान पर जाने वाले भारतीय मूल के पहले व्यक्ति[99]
प्रबोध कुमार भौमिक, प्रोफेसर, लेखक, कलकत्ता विश्वविद्यालय में नृविज्ञान के पूर्व डीन, लोढ़ा जनजातियों पर काम किया[100]
सौरिन्द्र मोहन सरकार, महानतम भारतीय वनस्पतिशास्त्रियों में से एक। आईएसएसी के सामान्य अध्यक्ष भी रहे[101]
तारक चंद्र दास, नृविज्ञानी, लेखक, कलकत्ता विश्वविद्यालय में नृविज्ञान के पहले प्रोफेसर[102]
- सुनील जानाह, वामपंथी फोटो पत्रकार और वृत्तचित्र फोटोग्राफर, कलकत्ता फिल्म सोसाइटी के सह-संस्थापक[35]
- कानन देवी, जिन्हें "बंगाली सिनेमा की पहली महिला" के रूप में जाना जाता है, उन्हें 1976 में दादासाहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।[103][104]
- निर्मलेन्दु चौधरी, अत्यधिक प्रशंसित संगीतकार, संगीतकार और गायक, पूर्वी भारत के लोक संगीत में बहुत योगदान दिया[105][106]
मणि लाल भौमिक, भारतीय अमेरिकी भौतिक विज्ञानी, उद्यमी, एक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेस्टसेलिंग लेखक और परोपकारी[107]
अनिल कुमार गैन, भारतीय गणितज्ञ और सांख्यिकीविद्, विद्यासागर विश्वविद्यालय के संस्थापक[108]
कप्तान सुरेश बिस्वास, भारतीय साहसी, एक रिंगमास्टर के रूप में ख्याति प्राप्त की, ब्राजीलियाई नौसैनिक विद्रोह को दबाने में सहायक थे[109]
पवित्र सरकार, भारतीय भाषाविद्, लेखक और शिक्षाविद, जापान सरकार से ऑर्डर ऑफ द राइजिंग सन जीता[110]
दिनेश दास, बंगाली कवि, स्वतंत्रता कार्यकर्ता, मार्क्सवादी लेखक[85][111]
अनिल घोरई, भारतीय कवि, उपन्यासकार और लघुकथा लेखक, २०१० में बंकिम पुरस्कार जीता[112][113]
अनिल बिस्वास, भारतीय राजनीतिज्ञ, सबसे प्रमुख मार्क्सवादी नेताओं में से एक, सीपीएम के पोलित ब्यूरो के पूर्व सदस्य[114]
आभा मैती, स्वतंत्रता सेनानी, राजनीतिज्ञ, पश्चिम बंगाल की शरणार्थी राहत और पुनर्वास मंत्री (१९६२-१९६७), १९७७ से १९७९ तक भारत सरकार में उद्योग राज्य मंत्री[115][116]
- शैलेन मन्ना, भारतीय फुटबॉलर, १९५३ में इंग्लिश एफए द्वारा दुनिया के दस सर्वश्रेष्ठ कप्तानों में शामिल होने वाले एकमात्र एशियाई फुटबॉलर[117]
सन्दर्भ
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The Khandaits were quasi military castes of Orissa. They formed the Paik militia forces of the local rajas and zamindars of Mayurbhanj and enjoyed rent-free lands as jagir. Abul Fazl describes Khandaits as "zamindars of the district of Midnapur.(P46); The Chasi Kaivartas were also a dominant ruling class in Midnapore.The kingdom of Tamralipta (Tamluk) ruled from time immemorial by Maurya dynasty and was seized by the Kaivarta house of Bhuiya Rays who became the zamindars of Tamluk. Ain-i-Akbari mentions that during the time of Akbar it was a zamindari held by khandait family.(P170)
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