मार्क्सवादी इतिहास-लेखन

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मार्क्सवादी इतिहास-लेखन (अंग्रेज़ी: Marxist historiography या historical materialist historiography) का तात्पर्य मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित इतिहास-लेखन से है।

मार्क्सवादी इतिहासलेखन या ऐतिहासिक भौतिकवादी इतिहासलेखन मार्क्सवाद से प्रभावित इतिहासलेखन की एक पद्धति है। मार्क्सवादी इतिहासलेखन के प्रमुख सिद्धांत ऐतिहासिक परिणामों के निर्धारण में सामाजिक वर्ग और आर्थिक बाधाओं की केंद्रीयता है।

मार्क्सवादी इतिहासलेखन ने मजदूर वर्ग, उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं और 'नीचे से इतिहास' की कार्यप्रणाली के इतिहास में योगदान दिया है। मार्क्सवादी इतिहासलेखन का मुख्य समस्यागत पहलू इतिहास की प्रकृति पर निर्धारित या द्वंद्वात्मक रूप में एक तर्क रहा है; इसे परिणामों को बनाने में व्यक्तिपरक और उद्देश्य कारकों के सापेक्ष महत्व के रूप में भी देखा जा सकता है।

मार्क्सवादी इतिहास आम तौर पर नियतात्मक होता है। यह इतिहास की एक दिशा देता है, जो इतिहास की एक अंतिम अवस्था के रूप में वर्गहीन मानव समाज है। मार्क्सवादी इतिहासलेखन, यानी दिये गये ऐतिहासिक सिद्धांतों के अनुरूप मार्क्सवादी इतिहास का लेखन, आमतौर पर एक उपकरण के रूप में देखा जाता है। इसका उद्देश्य इतिहास द्वारा उत्पीड़ित लोगों को आत्म-चेतना के लिए आगे लाना है और उन्हें इतिहास से रणनीति और रणनीतियों के साथ जोड़ना है। यह एक ऐतिहासिक पद्धति और एक उदार परियोजना दोनों है।

भारत में मार्क्सवादी इतिहास-लेखन[संपादित करें]

भारत में दामोदर धर्मानन्द कोसम्बी को मार्क्सवादी इतिहासलेखन का संस्थापक माना जाता है।[1] मार्क्सवादी इतिहासलेखन के सबसे वरिष्ठ विद्वान रामशरण शर्मा[1], रोमिला थापर[2], इरफान हबीबद्विजेन्द्र नारायण झा और क॰न॰ पणिक्कर हैं।[3] भारतीय इतिहास में एक बहस जो कि ऐतिहासिक भौतिकवादी मान्यता से संबंधित है, भारत में सामंतवाद की प्रकृति पर है। 1960 के दशक में डी॰डी॰ कोसंबी ने "नीचे से सामंतवाद" और "ऊपर से सामंतवाद" के विचार को रेखांकित किया। आर॰एस॰ शर्मा अपनी विभिन्न पुस्तकों में मोटे तौर पर कोसंबी से सहमत हैं। अधिकांश भारतीय मार्क्सवादियों का तर्क है कि सांप्रदायिकता की आर्थिक उत्पत्ति सामंती अवशेष है और "विश्व पूंजीवादी व्यवस्था" के तहत धीमे विकास के कारण हुई आर्थिक असुरक्षा है।[4]

आलोचना[संपादित करें]

यह आरोप हमेशा लगते रहे हैं कि भारत के स्वतंत्रत होने के बाद मार्क्सवादी इतिहासकारों ने भारत के इतिहास का पक्षपातपूर्ण लेखन किया है। डॉ. रमेश चंद्र मजूमदार, के एम पाणिक्कर, जदुनाथ सरकार जैसे इतिहासकारों के मतों की उपेक्षा कर इरफान हबीब और रोमिला थापर जैसे लेखकों के अधकचरे व संकीर्ण मतों को इतिहास बताने की कोशिश की गई। मुगल तुर्क मंगोल आदि विदेशी आक्रमण कारी शासकों का बचाव कर उन्हें श्रेष्ठ दर्शाने का कार्य मार्क्सवादी लेखकों ने किया। [5][6][7]

भीमराव अंबेडकर ने मार्क्सवादियों की आलोचना की, क्योंकि उन्होंने उन्हें जाति के मुद्दों की बारीकियों से अनजान या अनभिज्ञ माना। कई इतिहासकारों ने मार्क्सवादी इतिहासकारों पर भी बहस की है और भारत के इतिहास के उनके विश्लेषण की आलोचना की है। १९९० के दशक के उत्तरार्ध से हिन्दू राष्ट्रवादी विद्वानों ने विशेष रूप से भारत में मार्क्सवादी परंपरा के खिलाफ देश के 'शानदार अतीत' के रूप में उपेक्षा की है।[8] मार्क्सवादियों को मुसलमानों के समर्थन या बचाव के लिए जिम्मेदार माना जाता है, जो हिन्दू राष्ट्रवादी मान्यता में दुश्मन के रूप में हैं। ऐसी आलोचना का एक उदाहरण है अरुण शौरी की पुस्तक 'जाने-माने इतिहासकार : कार्यविधि, दिशा और उनके छल' (१९९८)।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. समाज-विज्ञान विश्वकोश, खण्ड-5, संपादक- अभय कुमार दुबे, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, द्वितीय पेपरबैक संस्करण-2016, पृष्ठ-1594.
  2. समाज-विज्ञान विश्वकोश, खण्ड-5, संपादक- अभय कुमार दुबे, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, द्वितीय पेपरबैक संस्करण-2016, पृष्ठ-1655.
  3. Bottomore, T. B. 1983. A Dictionary of Marxist thought. Cambridge, Massachusetts: Harvard University Press.
  4. Jogdand, Prahlad (1995). Dalit women in India: issues and perspective. पृ॰ 138.
  5. वामपंथी विचारधारा के समर्थकों के किए धरे का कच्चा-चिट्ठा खोलती एक किताब
  6. मार्क्सवादी इतिहासकारों ने इतिहास का पक्षपात पूर्ण लेखन किया
  7. भारतीय इतिहास पर नए नजरिये की जरूरत : साम्राज्यवादी और वामपंथी पूर्वाग्रहों की भरमार
  8. Marxism and Indian Academics

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]