महमूद ग़ज़नवी
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सुल्तान महमूद ग़ज़नवी | |
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शासनावधि | 998-1030 |
राज्याभिषेक | 1002 |
पूर्ववर्ती | सबुक तिगिन |
उत्तरवर्ती | मोहम्मद ग़ज़नवी |
जन्म | 2 नवम्बर 971 (लगभग) ग़ज़नी, अफ़ग़ानिस्तान |
निधन | 30 अप्रैल 1030 (उम्र 59 वर्ष में मुल्तान और पंजाब के जाटों से बार बार शिकस्त के चलते) ग़ज़नी, अफगानिस्तान |
समाधि | ग़ज़नी |
पिता | [[सबुक तिगिन]] |
धर्म | सुन्नी इस्लाम |
महमूद ग़ज़नवी (फ़ारसी: محمود غزنوی) मध्य अफ़ग़ानिस्तान में केन्द्रित गज़नवी राजवंश के एक महत्वपूर्ण शासक था जो पूर्वी ईरान भूमि में साम्राज्य विस्तार के लिए जाना जाता हैं।[1][2] गजनवी तुर्क मूल का था और अपने समकालीन (और बाद के) सल्जूक़ तुर्कों की तरह पूर्व में एक सुन्नी इस्लामी साम्राज्य बनाने में सफल हुआ। इसके द्वारा जीते गए प्रदेशों में आज का पूर्वी ईरान, अफ़ग़ानिस्तान और संलग्न मध्य-एशिया (सम्मिलित रूप से ख़ोरासान), पाकिस्तान और उत्तर-पश्चिम भारत शामिल थे। इसके युद्धों में फ़ातिमी ख़िलाफ़त (शिया), काबुल शाही (हिन्दू) और कश्मीर का नाम प्रमुखता से आता है। भारत में इस्लामी शासन लाने और अपने छापों के कारण भारतीय हिन्दू समाज में गजनवी को एक आक्रामक शासक के रूप में जाना जाता है।
वह पिता के वंश से तुर्क था पर उसनेफ़ारसी भाषा के पुनर्जागरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हाँलांकि गजनवी के दरबारी कवि फ़िरदौसी ने शाहनामा की रचना की पर वह हमेशा फ़िरदौसी का समर्थन नहीं करता था। ग़ज़नी, जो मध्य अफ़ग़ानिस्तान में स्थित एक छोटा-सा शहर था, इसकी बदौलत साहित्य और संस्कृति के एक महत्वपूर्ण केंद्र में बदल गया। बग़दाद के अब्बासी ख़लीफ़ा ने महमूद को फ़ातिमी ख़िलाफ़त के विरुद्ध जंग करने के इनाम में ख़िल'अत और सुल्तान की पदवी दी। सुल्तान की उपाधि इस्तेमाल करने वाला गजनवी पहला शासक था।
मूल[संपादित करें]
सबुक तिगिन एक तुर्क ग़ुलाम थे जिन्होंने ख़ोरासान के सामानी शासकों से अलग होकर ग़ज़नी में स्थित अपना एक छोटा शासन क्षेत्र स्थापित किया था। पर उनकी ईरानी बेगम की संतान महमूद ने साम्राज्य बहुत विस्तृत किया। फ़ारसी काव्य में महमूद के अपने ग़ुलाम मलिक अयाज़ से प्रेम का ज़िक्र मिलता है। जो कि काल्पनिक है इस मशहूर सुल्तान को बदनाम करने की महज़ साजीश है </ref> उर्दू में इक़बाल का लिखा एक शेर -
न हुस्न में रहीं वो शोखियाँ, न इश्क़ में रहीं वो गर्मियाँ;
न वो गज़नवी में तड़प रहीं, न वो ख़म है ज़ुल्फ़-ए-अयाज़ में।
(ख़म - घुंघरालापन)
सामरिक विवरण[संपादित करें]
- 997: काराखानी साम्राज्य।
- 999: ख़ुरासान, बल्ख़, हेरात और मर्व पर सामानी कब्जे के विरुद्ध आक्रमण। इसी समय उत्तर से काराख़ानियों के आक्रमण की वजह से सामानी साम्राज्य तितर बितर।
- 1000: सिस्तान, पूर्वी ईरान।
- 1001: गांधार में पेशावर के पास जयपाल तोमर जाट की आंशिक पराजय। जयपाल ने बाद में आत्महत्या कर ली।
- 1002: सिस्तान: खुलुफ को बन्दी बनाया।
- 1004: भाटिया (Bhera) को कर न देने के बाद अपने साम्राज्य में मिलाया।
- 1008: जयपाल तोमर के बेटे आनंदपाल तोमर को बड़े संघर्ष और अपनी बहुत सी सैन्य हानि के बाद हराया।
ग़ोर और अमीर सुरी को बंदी बनाया। ग़ज़ना में अमीर सुरी मरा। सेवकपाल को राज्यपाल बनाया। अनंदपाल कश्मीर के पश्चिमी पहाड़ियों में लोहारा को भागा। आनंदपाल अपने पिता की मृत्यु (आत्महत्या) का बदला नहीं ले सका।
- 1005: बल्ख़ और खोरासान को नासिर प्रथम के आक्रमण से बचाया। निशापुर को सामानियों से वापिस जीता।
- 1006: मथुरा के कुंतल जाट राजा सुखपाल तोमर और उसकी सहयोगी जाट खापों की सेना से युद्ध जिसमे बड़ी मुश्किल से हजारों सैनिक खोने के बाद मथुरा पर विजय प्राप्त हुईं और कृष्ण जन्मभूमि को नुकसान पहुंचाया।
- 1008: हिमाचल के कांगरा की संपत्ति कई राजाओं (उज्जैन, ग्वालियर, कन्नौज, दिल्ली, कालिंजर और अजमेर) को हराने के बाद हड़प ली।
ऐतिहासिक कहानियों के अनुसार खोखर जाट लोगों के आक्रमण और समर के बाद महमूद की सेना भागने को थी। तभी आनंदपाल तोमर के हाथी मतवाले हो गए और युद्ध का रुख पलट गया।
- 1010: ग़ोर, अफ़ग़ानिस्तान।
- 1011: थानेसर जाट राज्य।
- 1012: बग़दाद के अब्बासी खलीफ़ा से खोरासान के बाक़ी क्षेत्रों की मांग और पाया। समरकंद की मांग ठुकराई गई।
- 1013: Bulnat: त्रिलोचनपाल को हराया।
- 1014 : काफ़िरिस्तान पर चढ़ाई।
- 1015: कश्मीर पर चढ़ाई - विफल।
- 1015:- (हांसी) अपनी बहन की शादी शाहू जाटों से करवाई और युद्ध शांत हुआ
- 1017: कन्नौज, मेरठ और यमुना के पास मथुरा। कश्मीर से वापसी के समय कन्नौज और मेरठ का समर्पण।
- 1021: अपने ग़ुलाम मलिक अयाज़ को लाहोर का राजा बनाया।
- 1021: कालिंजर का कन्नौज पर आक्रमण : जब वो मदद को पहुंचा तो पाया कि आखिरी शाहिया राजा त्रिलोचनपाल भी था। बिना युद्ध के वापस लौटा, पर लाहौर पर कब्जा। त्रिलोचनपाल अजमेर को भागा। सिन्धु नदी के पूर्व में पहला मुस्लिम गवर्नर नियुक्त।
- 1023:लाहौर। कालिंजर और ग्वालियर पर कब्जा करने में असफल। त्रिलोचनपाल (जयपाल का पोता) को अपने ही सैनिकों ने मार डाला। पंजाब पर उसका कब्जा। कश्मीर (लोहरा) पर विजय पाने में दुबारा असफल।
- 1024: सिंध के खोखर जाटों की नौसेना के साथ भयंकर युद्ध जिसमे इसके बहुत से सैनिक जाटों द्वारा डुबो दिए गए और नावें जला दी गईं ।
- 1025-26: सोमनाथ: मंदिर को लूटा। गुजरात में नया राज्यपाल नियुक्त और पंजाब के तूर, खोखर जाटों से बचने के लिए थार मरुस्थल के रास्ते का सहारा लिया मगर सिंध में उसे जाटों ने घेर लिया और उसके हजारों तुर्क सैनिकों को मौत के घाट उतारकर सोमनाथ की धन संपदा का अधिकांश भाग खोखर जाट कबीले ने लूट लिया गजनवी को वहां से पलायन करना पड़ा|
- 1027: मुल्तान के खोखर जाटों पर 3 लाख की सेना लेकर हमला किया जिसमे जाटों ने इसकी बहुत सेना को मार डाला और इसे गजनी वापस जाना पड़ा। यह इसकी सबसे बड़ी असफलता रही।
- 1028, 1029: मुल्तान, सिंध,पंजाब क्षेत्र के खोखर तूर आदि जाटों से हुऐ कई युद्धों में उसकी सैन्य शक्ति क्षीण हो गईं ओर उसका सम्राज्य लगभग भारत के पश्चिम में रह गया।
1030: मृत्यु हो गईं
महत्व[संपादित करें]
भारत (पंजाब) में इस्लामी शासन लाने की वजह से पाकिस्तान और उत्तरी भारत के इतिहास में उसका एक महत्वपूर्ण स्थान है। पाकिस्तान में जहाँ वो एक इस्लामी शासक की इज्जत पाता है वहीं भारत में एक लुटेरे और क़ातिल के रूप में गिना जाता है। पाकिस्तान ने उसके नाम पर अपने एक मिसाइल (प्रक्षेपास्त्र) का नाम रखा है।
उसको फिरदोसी के आश्रय और बाद के संबंध-विच्छेद के सिलसिले में याद किया जाता है। कहा जाता है कि महमूद ने फिरदौसी को ईरान के प्राचीन राजाओं के बारे में लिखने के लिए कहा था। इस्लाम के पूर्व के पारसी शासकों और मिथकों को मिलाकर 27 वर्षों की मेहनत के बाद जब फ़िरदौसी महमूद के दरबार में आया तो महमूद, कथित तौर पर अपने मंत्रियों की सलाह पर, उसको अच्छा काव्य मानने से मुकर गया। उसने अपने किए हुए वादे में प्रत्येक दोहे के लिए एक दीनार की बजाय सिर्फ एक दिरहम देने का प्रस्ताव किया। फ़िरदौसी ने इसे ठुकरा दिया तो वो क्रोधित हो गया। उसने फिरदौसी को बुलाया लेकिन भयभीत शायर नहीं आया। अब फिरदौसी ने महमूद के विरुद्ध कुछ पंक्तियाँ लिखीं जो लोकप्रिय होने लगीं :
अय शाह-ए-महमूद, केश्वर कुशा
ज़ि कसी न तरसी बतरसश ख़ुदा
(ऐ शाह महमूद, देशों को जीतने वाले; अगर किसी से नहीं डरता हो तो भगवान से डर)।
इन पंक्तियों में उसके जनकों (ख़ासकर माँ) के बारे में अपमान जनक बातें लिखी थी। लेकिन, कुछ दिनों के बाद, ग़ज़नी की गलियों में लोकप्रिय इन पंक्तियों की ख़बर जब महमूद को लगी तो उसने दीनारों का भुगतान करने का फैसला किया। कहा जाता है कि जब तूस में उसके द्वारा भेजी गई मुद्रा पहुँची तब शहर से फिरदौसी का जनाजा निकल रहा था। फिरदौसी की बेटी ने राशि लेने से मना कर दिया। अलबरूनी उत्बी फारुखी फिर्दोशी महमूद गजनबी के दरबारी थे।
संदर्भ और विवरण[संपादित करें]
- ↑ Homa Katouzian, "Iranian history and politics", Published by Routledge, 2003. p. 128: "Indeed, since the formation of the Ghaznavids state in the tenth century until the fall of Qajars at the beginning of the twentieth century, most parts of the Iranian cultural regions were ruled by Turkic-speaking dynasties most of the time.
- ↑ C.E.Bosworth, "The Ghaznavids: 994–1040", Edinburgh University Press, 1963; p.4
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