मर्सरीकरण

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मर्सीकृत सूती धागे वाले रील

रूई के सूतों या वस्त्रों को जब दाहक सोडा (कॉस्टिक सोडा) के साथ उपचारित किया जाता है, तब उनमें उत्कृष्ट कोटि की, स्थायी रेशम सी चमक आ जाती है। ऐसे सूतों या वस्त्रों को मर्सरीकृत सूत या वस्त्र कहते हैं तथा मर्सरीकृत होने की प्रक्रिया को मर्सरीकरण (mercerizing) कहते हैं। इस प्रक्रिया के आविष्कारक एक अँग्रेज रसायनज्ञ मर्सर थे, जिन्होंने इसका आविष्कार 1844 ई में किया तथा 1850 ई में इसका पेटेंट कराया था। उन्हीं के नाम पर इस प्रक्रिया का नाम मर्सरीकरण पड़ा है। मर्सरीकरण से केवल चमक ही नहीं आती वरन् लगभग 15% मजबूती और रंजक ग्रहण करने की क्षमता बढ़ जाती है। मर्सरीकृत सूत के बने मोजे, बनियाइन, अन्य अंतर्वस्त्र, सीने के धागे, जूते के फीते और वायुयान पंखों के वस्त्र अच्छे होते हैं तथा अन्य अनेक कामों के लिये, जहाँ चमक एवं मजबूती आवश्यक होती है, इससे बनी वस्तुएँ अच्छी समझी जाती है।

परिचय[संपादित करें]

मर्सरीकरण दाहक सोडा के विलयन के प्रयोग से संपन्न होता है। ऐसे विलयन के उपचार से सूत फूल जाता है। फूलने के पश्चात् सूत का सिकुड़ना स्वाभाविक है, पर उसे सिकुड़ने नही दिया जाता। सिकुड़ने से चमक नहीं आती। सूत को खींचकर ऐसे बाँध रखते हैं कि वह सिकुड़े नहीं। जिस मशीन में यह क्रिया संपन्न होती है, उसमें दाहक सोडा, सोडा धावन, तनु अम्ल और अम्ल धावन के लिये अलग अलग पात्र होते हैं, जिनके बीच सूत क्रमश: पारित होता हुआ बाहर निकलता है। मशीन के बाहर भी सूत की पुन: धुलाई होती है, ताकि उससे अम्ल का पूर्ण निराकरण हो जाए।

मर्सरीकरण के लिये लंबे रेशेवाली रूई अच्छी समझी जाती है। इकहरी परत के सूत पर मर्सरीकरण से चमक नहीं आती, पर इससे सूत के रंजक ग्रहण करने की क्षमता अवश्य बढ़ जाती है। दोहरी परम के सूत पर ही चमक आती है। दोहरी परत के सूत का ही सबसे अधिक मात्रा में मर्सरीकरण होता है।

दाहक सोडा के अतिरिक्त अन्य अभिकर्मक भी मर्सरीकरण के लिये उपयुक्त हो सकते हैं। ऐसे अभिकर्मकों में सल्फ्यूरिक अम्ल या नाइट्रिक अम्ल भी हैं। पर इनसे रूई के अपघटन होने का भय रहता है। इनके सांद्रण के संबंध में बड़ी सावधानी बरतनी पड़ती है। एक दूसरा अभिकर्मक ट्राइटन बी, या टेट्रा ऐल्किल अमोनियम हाइड्रॉक्साइड, है, जो रूई को मर्सरीकृत करने के साथ घुलाता भी है। पर मर्सरीकरण के लिये सस्ता होने के कारण केवल दाहक सोडा ही बड़े पैमाने पर प्रयुक्त होता है। ऐसा समझा जाता है कि दाहक सोडा के मर्सरीकरण से सेलुलोस, ऐल्कली सेलुलोस बन जाता है। कुछ लोगों का मत है कि यह ऐल्कली सेलुलोस एक अधिशोषण संकर (complex) है। धोने पर यह ऐल्कली पदार्थ अपघटित होकर सूत से निकल जाता है। पुनर्जनित सेलुलोस रसायनत: सामान्य सेलुलोस सा ही होता है, पर ऐसा समझा जाता है कि उसकी आणविक अवस्था में परिवर्तन अवश्य हुआ है, जिससे उसमें चमक आ गई है।

विलयन में लगभग 13 से 14 प्रति शत दाहक सोडा पर्याप्त है, पर जैसे जैसे मर्सरीकरण आगे चलता है, सांद्रण में कमी होती जाती है। अत: मर्सरीकरण के लिये सर्वप्रथम 20 से 25 प्रति शत विलयन का उपयोग करना अच्छा होता है। यदि ताप नीचा हो, तो दुर्बल विलयन का भी उपयोग हो सकता है, पर उससे कोई विशेष लाभ नहीं होता। सोडा के साथ कुछ अन्य पदार्थों के डालने का भी सुझाव दिया गया है। इनमें से कुछ से सूत के फूलने में वृद्धि होती है, पर अधिकांश से फूलने में ह्रास ही होता है।

मर्सरीकरण से रूई के गुणों में कोई परिवर्तन नहीं होता। रूई के कुछ गुणों में वृद्धि अवश्य होती है। अवशोषण गुण 25 से 50% बढ़ जाता है। मर्सरीकृत सिकुड़ी रूई में सबसे अधिक अवशोषण क्षमता रहती है। रूई के सुखाने से अवशोषण में बाधा पहुँचती है। रंजक ग्रहण करने की क्षमता भी कम हो जाती है।

मर्सरीकृत सेलुलोस के लिये परिक्षिप्त सेलुलोस (dispersed cellulose) और सेलुलोस हाइड्रेट आदि नाम भी दिए गए हैं, पर ये नाम ठीक नहीं हैं। मर्सरीकृत रूई का एक्स-रे विवर्तन आरेख (deffraction diagram) सामान्य रूई के एक्सरे विवर्तन आरेख से भिन्न होता है। मर्सरीकृत सूत की पहचान उसके रंजक अवशोषण गुण से हा सकती है। सामान्य सूत की अपेक्षा यह अधिक गाढ़े रंग में रंगा जाता है। रंगीन मर्सरीकृत सूत की पहचान नील की (Neal's) बेराइटा अवशोषण रीति से की जाती है।

मर्सरीकृत सूत का उपयोग दिन दिन बढ़ रहा है। आज बहुत बड़ी मात्रा में ऐसे ही सूत के वस्त्र बन रहे हैं। इसका व्यापक व्यवहार गत 60 वर्षों में ही बढ़ा है।

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