मयमतम्
मयमतम् वास्तुशिल्प से सम्बन्धित एक बृहद् संस्कृत ग्रन्थ है। यह मय की प्रमुख रचना है। इसका रचना-काल चोल राजाओं का काल माना गया है। दक्षिण भारतीय वास्तु-परम्परा अथवा द्राविड रीति का यह मानक ग्रन्थ है। द्राविड परम्परा के प्रायः सभी ग्रन्थों का उपजीव्य यह ग्रन्थ अपने भीतर समग्र वास्तुशाख एवं शिल्पशाख को समेटे हुए है। भवनों के वास्तुशिल्प का वर्णन करने के अलावा, इसमें ग्रामों और नगरों की संरचनाओं का भी वर्णन है।
विद्वानों का मत है कि यह पुस्तक सबसे पहले ९वीं-१०वीं शताब्दी में तमिल में रची गयी थी। बाद में इसको संस्कृत में रचा गया। फ्रांसीसी शोधकर्ता ब्रूनो डागेन्स ने इस पुस्तक का संस्कृत से मलयालम में अनुवाद किया।
इस ग्रन्थ में 'वास्तु' के स्थान पर "वस्तु" पद का प्रयोग किया है। मय के अनुसार वस्तु ही मूल है और वस्तु से उत्पत्र पदार्थ "वास्तु" है। इन्होने पृथिवी को प्रथम वस्तु माना है। इसके अतिरिक्त प्रासाद (महल), यान एवं शयन भी वास्तु की श्रेणी में परिगणित हैं।
- अमरत्यश्चिव मर्त्याश्च यत्र यत्र वसन्ति हि।
- तद्रस्त्विति मतं तज्जैस्तद्धेदञ्च वदाम्यहम्।।
- भूप्रासादयानानि शयनं च चतुर्विधम्
- भूरेव मुख्यवस्तु स्यात्तत्र जातानि यानि हि॥ ( मयमत-२.१-२ )
अतः उन्होने वास्तुशाख के स्थान पर सभी जगह 'वस्तुशास्त्र' का प्रयोग किया है; जबकि अन्य ग्रन्थकार 'वास्तुशास्त्र' पद का प्रयोग करते हैं। इस ग्रन्थ का अन्य वैशिष्ट्य यह है कि नींव में गर्भन्यास है। प्रत्येक स्थान के लिये भवन के गर्भ में रखे जाने वाले पदार्थों एवं सम्पूर्ण भवन के गर्भ में रखे जाने वाले पदार्थों ( गर्भन्यास ) का स्वतन्त्र रूप से एवं प्रकरण के अनुसार विवेचन किया गया है।
असुरराज मय शैव मत में अपनी पूर्ण आस्था रखते हैं अतः मयमत ग्रन्थ पर शैव मत का अत्यधिक प्रभाव परिलक्षित होता है। प्रतिमालक्षण नामक अध्याय में यद्यपि सभी देवी-देवताओं की प्रतिमायें लक्षणसहित वर्णित हैं तथापि शिव की प्रतिमाओं एवं शिवलिङ्ग के लक्षण एवं निर्माण आदि पर विशेष प्रकाश डाला गया है। प्रो० कपिला वात्स्यायन ( मयमतम् ग्रन्थ की भूमिका, ब्रूनो डगेन्स द्वारा सम्पादित ) ने इस पर कामिकागम, मुख्यतः पूर्व कामिकागम का प्रभाव माना है। शैव सिद्धान्त पर आधारित इस ग्रन्थ में शैवागमों का प्रभाव परिलक्षित होता है; तथापि बुद्ध एवं जिन तथा अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमा का लक्षण एवं वर्णन ग्रन्थकार के अन्य दार्शनिक धाराओं के प्रति दृष्टिकोण का परिचायक है।
विषय-वस्तु
[संपादित करें]यह ग्रन्थ ३६ अध्यायों में विभक्त है। इसका प्रथम अध्याय संग्रहाध्याय, दूसरा वस्तुप्रकार, तीसरा भूपरीक्षा, चौथा भूपरिग्रह, पंचवाँ मानोपकरण, छठा दिक्परिच्छेद, सातवाँ पदविन्यास, आठवां बलिकर्म, नवांग्रामविन्यास, दसवाँ नगरविधान, ग्यारहवं भूलम्बविधान, बारहवाँ गर्भविन्यास, तेरहवाँ उपपीठविधान, चौदहवाँ अधिष्ठानविधान, पनद्रहवाँ पादप्रमाण-द्रव्यपरिग्रहविधान, अट्ठारहवाँ प्रासादोर्ध्ववर्ग, उन्तीसर्वाँ एकभूमिविधान तथा बीसर्वोँ द्विभूमिविधान है। इसके पश्चात् क्रमशः त्रिभूमिविधान, चतर्भूम्यादि बहुभूमिविधान, प्राकारपरिवारविधान, गोपुरविधान, मण्डप-सभाविधान, शालाविधान, चतुर्गृहविधान, गृहप्रवेश, राजवेश्मविधान, द्वारविधान, यानाधिकार, शयनासनाधिकार, लिङ्गलक्षण, पीठलक्षण, अनुकर्मविधान तथा प्रतिमालक्षण संज्ञक अध्याय हैं। ग्रन्थ के अन्त मे कूपारम्भ संज्ञक परिशिष्ट प्राप्त होता है।<ref>मयमतम्
१. संग्रहाध्याय- इस अध्याय का प्रारम्भ मङ्गलाचरण से होता है । इसमें सम्पूर्ण ग्रन्थ के वर्ण्य विषय का उल्लेख प्राप्त होता है।
२. वस्तुप्रकार- इस अध्याय में प्रथमतः वस्तु एवं वास्तु की परिभाषा दी गई हे। मय के अनुसार वह सभी स्थान, जहाँ देवता तथा मनुष्य निवास करते है, वस्तु है तथा वस्तु पर जिनका निर्माण होता है, वह वास्तु है। भृमि, प्रासाद, यान एवं शयन वस्तु हे। इनमें भी सर्वप्रधान भूमि है। अतः वर्ण, गन्ध तथा रसादि से भली प्रकार भूमि को परीक्षा करनी चाहिये। इसमे अनेक प्रकार की भूमियो के लक्षण एवं वर्णानुसार अनुरूपता का वर्णन किया गया है।
३. भूपरीक्षा: इस अध्याय में भूमि के प्रशस्त एवं अप्रशस्त लक्षणों का वर्णन किया गया है । इसमे आकृति, गन्ध, वृक्षादि, रंग, रस, जलप्रवाह, मद्री के प्रकार, भूमि से प्राप्त होने वाली वस्तु, भूमि के समीप-स्थित देवालय आदि, परिवेश आदि पर सूक्ष्म विवेचन प्राप्त होता है।
४. भूपरिग्रह: भूमि पर निर्माण से पूर्व उसका संस्कार आवश्यक है। चयनित स्थान को भूतादि बाधा से मुक्त करना, हल चलाना, बीजवपन, बलिकर्म तथा भूमिपरीक्षण आदि का वर्णन इस अध्याय मेँ किया गया है।
५. मानोपकरण: इस अध्याय में विभिन्न प्रकार के माप - परमाणु, रथरेणु, बालाग्र, लिक्षा, यूका, यव, अङ्गुल, वितस्ति, हस्त अथवा किष्कु तथा प्राजापत्य, धनुमुषटि एवं धनुर्ग्रह आदि एवं उनके भेद वर्णित है । इसके साथ ही उनके प्रयोग के स्थलों का भी उल्लेख किया गया है। इसके अनन्तर स्थपति, सूत्रग्राही, तक्षक एवं वर्धकि-संज्ञक शिल्पियों का लक्षणसहित वर्णन प्राप्त होता है।
६. दिक्परिच्छेद : सही दिशा के ज्ञान के विना समीचीन निर्माण सम्भव नही होता; अतः भूमि की दिशा के ज्ञानहेतु शङ्क का प्रयोग वर्णित है । इसके लिये उचित समय, भूमि को तैयार करना, शङ्कु-निर्माण, शङ्क से पड़ने वाली छाया से पूर्व आदि दिशाओं का निर्धारण एवं अपच्छाया का ज्ञान आवश्यक होता है। इसके अतिरिक्त इस अध्याय मे रज्जु-लक्षण, खातशङ्कु-लक्षण, सूत्रविन्यास तथा अपच्छाया का वर्णन किया गयाहे।
७. पदविन्यास: इस अध्याय मे वास्तु-पद-विन्यास का विशद् वर्णन प्राप्त होता है। इसमे बत्तीस पदविन्यासो की सुची; सकल, पेचक, पीठ, महापीठ, उपपीठ आदि कतिपय पदट्विन्यासो का वर्णन; वास्तुदेवों का वर्णन तथा उनके स्थानों का विवेचन किया गया है । पदविन्यासौं मेँ मण्दृकपद वास्तु ( चौसठ पद वास्तु ) एवं परमशायिन ( इक्यासी पद वास्तु ) प्रधान है, अतः उनका विस्तार से वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त वास्तुपुरुष का भी वर्णन किया गया है।
८. बलिकर्म: इस अध्याय मेँ वास्तुमण्डल के पदों में अधिष्ठित देवों की आहत्य बलि ८ व्यक्तिगत पुजा एवं हवनादि ) तथा साधारण बलि ( सभी देवो की सामुहिक पूजा एवं पूजा के सामान्य नियम ) वर्णित हे।
९. ग्राम-विन्यास : इस अध्याय र्मे ग्रामो के प्रमाण, विविध मापों पर एक दृष्टि, ग्रामादि के प्रमाण, आयादि-विचार, प्रामादि में ब्राह्मणों को संख्या, ग्रामो के नाम, मार्ग-व्यवस्था, ग्रामो के मङ्गल एवं पुर आदि भेद, द्रार-व्यवस्था, ग्रामो मे देवालय, ग्राम के प्रवेशद्रारों पर स्थापित देवता, ग्रामवास्तु के वर्ज्यं स्थान, उपवन आदि के लिये श्रेणिस्थान, गृहो के लक्षण, गृहादि के विन्यास में सम्भावित दोष तथा ग्राम का शिलान्यास आदि वर्णित है।
१०. नगर-विधान: इस अध्याय में नगर के प्रमाण एवं उसके विन्यास की चर्चा की गर्ह है। इसमे माप के अनुसार नगरों के विभिन्न भेद, नगरों के चारो ओर उनके आकार के अनुसार वप्र ( चारदिवारी ) का निर्माण, वर्ज्यं स्थान, मार्गविन्यास आदि का वर्णन प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त राजधानी का विशद् विवेचन, खेट आदि नगरों का विन्यास, दुर्गो के सात भेद एवं उनके विन्यास, नगरयोजना तथा बाजार आदि के विन्यास का वर्णन प्राप्त होता हे।
११. भूलम्ब-विधान : इस अध्याय मे भवन को आकृति के अनुसार भूलम्ब ( तल ) का वर्णन किया गया हे। इसमे तलो के अनुसार भवन के माप एवं भवन का सर्वाधिक माप वर्णित है।
१२. गर्भविन्यास: इस अध्याय में देवों, ब्राह्मणों तथा अन्य जातियों के भवनों मे शिलान्यास तथा नीव में रखी जाने वाली वस्तुओं का विशद् वर्णन प्राप्त होता है। इसके अन्तर्गत फेला ( पिटारी ), गर्भस्थापन ८ नीव के गर्त मे शिलान्यास-सामग्री रखना ), शिवालय का गर्भस्थापन, विष्णु, ब्रह्मा, षण्मुख आदि देवों के मन्दरो मे गर्भस्थापन, मनुष्यो के आवास का गर्भस्थापन, गर्भस्थापन का मन्त्र, वापी आदि का शिलान्यास तथा इष्टकाविन्यास वर्णित हे।
१३. उपपीठ-विधान: भवन के निर्माण मे उपपीठ ( कुर्सी ) का निर्माण उसकी ऊंचाई, शोभा एवं रक्षा-हेतु होता है। इसके ऊपर अधिष्ठान आदि स्थापित होते हे। इनके वेदिभद्र, प्रतिभद्र तथा सुभद्रभेद लक्षणसहित विस्तार से वर्णित है।
१४. अधिष्ठान-विधान: इस अध्याय मे अधिष्ठान के लिये भूमि तैयार करना, उसका माप, ऊचाई मे अधिष्ठान के विविध अंगों की योजना के अनुसार पादबन्ध, उरगवन्ध, प्रतिक्रम, पदकेसर, पुष्पपुष्कल, श्रीबन्ध, मञ्जबन्ध, प्रतिबन्ध तथा कलशाधिष्ठान योजना का वर्णन प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त अधिष्ठान के सामान्य लक्षण, उसके पर्याय, निर्गम-मान तथा प्रतिच्छंट्विधि का भी वर्णन किया गया है।
१५. पादप्रमाण-द्रव्यपरिग्रह-विधान: इस अध्याय में स्तम्भ के लक्षण, पर्याय, उसके प्रमाण, स्तम्भो के भेद, स्तम्भदण्ड का लक्षण, कलश का लक्षण, पोतिका का माप एवं उसके अंग, स्तम्भ के विष लक्षण, स्तम्भ के निर्पाणहत् काष्ट, प्रस्तर एवं इष्टका का संग्रह, इस हेतु चुने योग्य वृक्ष, शिला एवं इष्टका के लक्षण, त्याज्य वृक्ष, वक्ष-ग्रहण करने से पूर्व किया जाने वाला पूजन-कार्य तथा काष्टानयन, मुहूर्तस्तम्भ एवं इष्टका-निर्माण वर्णित है।
१६. प्रस्तरकरण : इस अध्याय में उत्तर से प्रारम्भ होकर वृतिपर्यन्त प्रस्तर के अंगो का वर्णन किया गया है। इसमें उत्तर वाजन, प्रमालिका, दण्डिका, वलय, गोपान, कायपाद्, वाजन, कपोत तथा प्रस्तर के ऊर्ध्वभाग का वर्णन प्राप्त होता हेै। इसके अतिरिक्त तुलाबन्ध, प्रस्तर का प्रमाण, लेप, विषम एवं सम मान, द्वार, वेदि, जालक तथा भित्ति का विवेचन किया गया है।
१७. सन्धिकमं-विधान : इस अध्याय में सन्धि को परिभाषा एवं सन्धि की विधि समझाते हुये सन्धि के भेद, सन्धि के नियम, मल्ललीला, सर्वतोभद्र, नन्ावर्त, स्वस्तिबन्ध, वर्धमान तथा सन्धि के अन्य भेदो का उल्लेख किया गया हे। इसके अतिरिक्त स्तम्भ की सन्धयो, शयित सन्धिं, विद्ध तथा कील वर्णित है। अध्याय के अन्त में सन्धि के दोषों का निरूपण किया गया है।
१८. प्रासादोर्ध्ववर्गाः : इसके अन्तर्गत भवन के शीर्षभाग, उसके अंगो तथा अलंकरणों का वर्णन किया गया है। इसके अन्तर्गत गललक्षण, शिखरो के भेद. शिखरो कौ आकृति, स्तूपिका कौ ऊचाई, लुपाओं की संख्या, पुष्कर, लुपा-प्रमाण, लुपाओं के पाच भेद, शिखर के अंगों के प्रमाण, आच्छादन, वलयसन्धि, घटिका, लुपा के ऊपर् आच्छादन, स्तूपिका को कील, ललाटभूषण,, स्तुपिका, लेप एवं सुधाकर्म, चित्रकर्म, मूरध्ने्टिका, स्तूपिकाकील, मूर््नै्टकास्थापन आदि वर्णित है। तदनन्तर आचार्य को दान एवं दक्षिणा देना, प्रासाद मेँ रत्न स्थापित करना, कर्मसमाप्ति, स्तूपिकाकोल के वृक्षो का विवेचन, सम्प्ोक्षण कर्म, अधिवास मण्डप, कुम्भस्थापन, वास्तुदेवता बलि, चक्षुमोक्षण, समप्रोक्षण, स्तुपिकाकुम्भ, दक्षिणादान, सम्प्रक्षण की आवश्यकता, सम्प्रोक्षणकाल तथा कलशस्थापन वर्णित है।
१९. एकभूमिविधान : इस अध्याय में एक तल के प्रासादो के चार प्रकार क प्रमाण वर्णित है। इसमें मुखमण्डप, भवनों के पर्याय, गर्भगृह का प्रमाण, स्तूपिकाप्रमाण, द्वार, नाल-प्रमाण, अलंकरण, मन्दिसे के भेद एवं विमानतल के देवता वर्णित है।
२०. द्विभूमिविधान: इस अध्याय में द्रितल प्रासाद के पाँच प्रमाण वर्णित है। इसके अन्तर्गत स्वस्तिक, विपुलसुन्दर, कृट, कैलासादि भेद, भवनों के भेद्, खण्ड भवन तथा तोरण वर्णित है।
२१. त्रिभूमिविधान: इसके अन्तर्गत त्रितलं भवन के पांच भेद्, स्वस्तिक, विमलाकृति, हस्तिपृष्ठ, मुखमण्डप, पुनः हस्तिप्ृ्ठ, स्तम्भतोरण, पुनः हस्तिपृष्ठ, भद्रकोष्ठ, वृत्तकूट, सुमङ्गल, गान्धार, श्रीभोग, कृटकोष्ठादि, धामभेद्, नालीगृह ( गर्भगृह ), वेदिका, तोरणादि-विधान एवं सोपान वर्णित है।
२२. चतुर्भूम्यादिबहुभूमिविधान: इस अध्याय में चतुर्भौम देवालय के पांच भेद - सुभद्रक, श्रीविशाल, भद्रकोष्ठ, जयावह तथा भद्रकूट वर्णित है। इसके अतिरिक्त कपोतपञ्जर, पुनः भद्रकूट, मनोहर, आवन्तिक एवं सुखावह का वर्णन है। चार तल के अतिरिक्त पांच तल, छः से ग्यारह तल, बारह तल, खण्डहर्म्य तथा कूटकोष्टादि का वर्णन प्राप्त होता हे
२३. प्राकार-परिवार-विधान : इसपें प्राकार या चारदिवारी की आवश्यकता, प्राकार का प्रमाण, प्राकार की भित्ति, आवृतमण्डप, भित्ति के शीर्षालंकार, अधिष्ठान की ऊचाई, परिवारालय-विधान, अष्ट परिवार, द्वादश परिवार, षोडश परिवार, बत्तीस परिवार, मालिकापंक्ति, पीठलक्षण, ध्वजस्थान, प्राकाराश्रित स्थान, शक्तिस्तम्भ, अन्य स्थान, विष्णु परिवार तथा वृषलक्षण वर्णित है!
२४. गोपुर-विधान : इस अध्याय मे अत्यन्त छोटे-छोटे, मध्यम तथा उत्तम प्रकार के भवनों या देवालयों को दृष्टि मेँ रखकर गोपुर-निर्माण पर प्रकाश डाला गया ह। प्रधान रूप से गोपुर के पाच भेद प्राप्त होते है, जो द्वारशोभा, द्रारशाला, दवारप्रासाद्, ्रारहरम्यं एवं गोपुर संज्ञक कहे गये हे । इनका प्रमाणसहित वर्णन प्राप्त होता है। इस प्रसंग में द्वारमान, अधिष्ठान आदि का प्रमाण, गोपुर के श्रीकर आदि पन्द्रह भेद, एकतल गोपुर, द्वितल, त्रितल, चतुस्तल, पञ्चतल, षट्तल तथा सप्ततल गोपुर का वर्णन किया गया है। तदनन्तर गोपुर का विस्तारमान एवं उनके कूट -कोष्ठादि अंगो का विवेचन, द्वार-विस्तारमान, गोपुर के अलंकरण प्राप्त होते है। तत्पश्चात् द्रारशोभा, गोपुर क श्रीकर, रतिकान्त, कान्तविजय भेद; द्रारशाला के विजयविशाल, विशालालय, विप्रतिकान्त भेद; द्वाप्रासाद गोपुर के श्रीकान्त, श्रीकेश तथा केशविशाल भेद; दरारहर्म्य गोपुर के स्वस्तिक, दिशास्वस्तिक तथा मर्दल संज्ञक भेदः दरारगोपुर संज्ञक गोपुर के मात्राकाण्ड संज्ञक भेद निरूपित है।
२५. मण्डप-सभा-विधान : इस अध्याय में मण्डप तथा सभा का लक्षण एवं भेद निरूपित है। सर्वप्रथम देवों, ब्राह्मणो एवं अन्य वर्ण के अनुकल मण्डप की चर्चा कौ गई है । इसके पश्चात् मनुष्य के अनुकल स्थान, मण्डप का प्रयोजन, मण्डप के नाम, उसके प्रमाण, स्तम्भमान, अधिष्ठान की ऊंचाई, उपपीट की ऊंचाई, मण्डप के लक्षण, मण्डप का अर्थ, प्रपालक्षण तथा रद्गलक्षण वर्णित है। मण्डप कर प्रकारो मे मालिका, मेरूक, विजय, सिद्ध एवं यागमण्डप वर्णित हैँ। यागमण्डप के सन्दर्भ मे कुण्ड के लक्षण तथा उसके भेदों - योनिकुण्ड, अर्धचन्द्र, द्वयस, वृत्त, षट्कोण, पद्म, अष्टा, सप्तास्र तथा पञ्चा का निरूपण किया गया हे। इसके अनन्तर सिद्ध, पदाक, भद्रक, शिव, वेद, अलंकृत, दर्भ, कौशिक, कुलधारण, सुखाङ्ग, सौम्य, गर्भ, माल्य, माल्याद्धुत, धन, सुभूषण, आहल्य, सुगाख्य, कोण, खर्वट, श्रीरूप, मङ्गल, मार्ग, सौभद्र, सुन्दर, साधारण, सौख्य, ईश्वरकान्त, श्रीभद्र तथा सर्वतोभद्र आदि मण्डपो का लक्षणसहित प्रमाणवर्णन किया गया है। मण्डप के मुखभाग की लम्बाई के पश्चात् पुनः मण्डपं के भेद, जलक्रीडा-मण्डप, मण्डप के अनुकूल वृक्ष, मुखमण्डप, मण्डप का गर्भस्थान, अलिन्द्र, मालिका आदि निरूपित है।
सभा-विधान के प्रसंग मे सभाओं के भेद एवं कूटलक्षण वर्णित हैं। सभाभेद मे मल्लवसन्त, पञ्चवसन्तक, एकवसन्तक, सर्वतोभद्र, पार्वतकुर्म, महेन्द्र, सोमवृत्त, शुकविमान तथा श्रप्रतिष्ठित वर्णित है।
२६. शाला-विधान: इसके अन्तर्गत शाला का विस्तार, उसकी लम्बाई, ऊंचाई, एकशाल गृह के सामान्य लक्षण का वर्णन प्राप्त होता है। तदनन्तर शाला के भेदो मेँ प्रथम दण्डक, द्वितीय दण्डक, तृतीय दण्डक, चतुर्थं दण्डक, पञ्चम दण्डक, मौलिक, स्वस्तिक तथा चतुर्मुख आदि वर्णित है। पुनः दण्डक आदि के सामान्य लक्षण वर्णित हें। द्विशाल भवनों के चतुर्मुख, स्वस्तिक, दण्डववक्त्र भेद; त्रिशाल भवनों के मेरुकान्त, मोलिभद्र भेद तथा त्रिशाल भवन का प्रमाण प्राप्त होता हे। चतुश्शाल भवनं के प्रमाण एवं भेद तथा उसके दर्घ्यं का प्रमाण वर्णित है। इनके भेदो मे प्रथम सर्वतोभद्र, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ तथा पञ्चम सर्वतोभद्र वर्णित है। इसके पश्चात् विमान आदि के लक्षण तथा वर्धमान के सात भेद वर्णित हैँ। नन्धावर्त संज्ञक चतुश्शाल गृह के पाच भेद, स्वस्तिक भवन, रुचक भवन, चतुश्शाल भवन की सामान्य विधि, सप्तशालादि, गर्भस्थान, वंशद्रार, विहारशाल, शालापाद-प्रमाण, आयादि लक्षण तथा खलूरी का निरूपण किया गया है।
२७. चतुर्गृह-विधान: दस अध्याय मे चतुश्शाल भवनो का विस्तार से निरूपण प्राप्त होता हे। इसमें प्रथमतः वाटभित्ति ( चारदिवारी ), खलूरिखा, भित्नाभित्न गृह, गृहविन्यास, मध्यमण्डल का प्रपाण, मध्यवेदिका, मध्यमण्डप का लक्षण, अत्नागार आदि स्थान, सुखालय, चतुश्णाल का सामान्य प्रमाण, अन्नालय, धान्यालय, धनालय, गृह के ऊर्ध्व भाग का वर्णन, वास्तुमण्डप-प्रमाण, गर्भस्थान तथा मुहूर्त-स्तम्भ निरूपित हैं। इसके पश्चात् भवन के सामान्य नियम, अलिन्दर, गृहस्वामी का स्थान, भोगविन्यास | चुल्ली( चृल्हा )-लक्षण, चूली की संख्या तथा पुनः भोगविन्यास वर्णित है। तदनन्तर वस्तुभेदों मेँ दिशिभद्रक, गरुडपक्ष, कायभार, तुलानीय; द्वारे का प्रमाण, गृहनिर्पाणकर्म का काल, द्रारस्थान, वासविन्यास एवं गृहारम्भ-काल निरूपित है।
२८. गृहप्रवेश: यह अध्याय गृहनिर्माण के पश्चात् गृहप्रवए से सम्बद्ध धार्मिकं कृत्यो का निरूपण करता है। इसमें अधिवास, कलशस्थापन, बलिविधान, स्थपति. निर्गमन, गृहपति एवं गृहिणी का प्रवेश आदि कर्म वर्णित है।
२९. राजवेश्म-विधान: इस अध्याय में राजवेश्म के प्रपाण, अधमवेश्म ( न्रोरे राजभवन ) का विन्यास, गोपुर, गृहविन्यास, परिखा, पुनः गृहविन्यास, प्रथम आवरण ( प्राकार ), द्वितीय आवरण, तृतीय आवरण, नगर, नगरभित्ति, राजवेश्म के गोपुर, वेश्मतल लम्बविधान, नरेन्रवेश्म, प्राकार, वेश्मविन्यास आदि वर्णित है । सौबल संज्ञक वेश्म का प्रथम आवरण, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थं तथा पञ्चम आवरण वर्णित हे। तदनन्तर अधिराज मन्दिर, नगर के भेद, हस्तिशाला, अश्वशाला, विभिन्न प्रकार के भवन, मन््रशाला, प्रसाधन कक्ष, अभिषेकशाला, तुलाभारस्थान तथा हिरण्यगर्भस्थान का विवेचन किया गया है। |
३०. द्वार-विधान: इस अध्याय में दरार के माप, योग ( चौखट ) का प्रमाण. कवाट, शुभ एवं अशुभ दवार, द्वार के स्थान, गोपुर-प्रमाण तथा गोपुर के प्रकारें मे एकतल गोपुर, द्वितल गोपुर एवं उनके रतिकान्त, कान्तविजय तथा सुमङ्गल भेद, तिल गोपुर तथा उनके मर्दल, मात्रखण्ड, श्रीनिकेतन संज्ञक भेद, सप्ततल गोपुर के भद्रकल्याण, सुभद्र तथा भद्रसुन्द्र संज्ञक भेद, षर्तल गोपुर, पञ्चतल गोपुर चतुस्तल गोपुर एवं उनके सामान्य नियम वर्णित है!
३१. यानाधिकार : इस अध्याय में यान एवं शयन के भेद, शिबिकाभेद, पीठा अन्य शिविकायं तथा रथ का वर्णन लक्षण एवं प्रमाणसहित प्राप्त होता है।
३२. शयनासनाधिकार: इसे लक्षण एवं प्रमाणसहित शयन , पर्यड़, आसन, सिंहासन, पूजा-पाट एवं आयादि का वर्णन किया गया है।
३३. लिङ्गलक्षण: इस अध्याय में सकल ( अभिव्यक्त अंग ), निष्कल ( बिना भग आदि के ) तथा मिश्र लिङ्ग का वर्णन प्राप्त होता है। सकल नेर ( प्रतिमा ). निष्कल ( लिङ्ग, पिण्डी ) तथा मिश्रमुख लिङ्ग होता है। इस प्रसंग मे शिलालक्षण उचित काल एवं विधि से शिलासंग्रह; इसका मनर लिङ्ग का प्रमाण, लिङ्ग का स्थान, नागर, द्राविड तथा वेसर लिङ्ग, हस्तमाप से लिद्गप्रमाण, द्रारादि क अनुसार लिङ्गमान, आयादि, लिङ्गलक्षण, सर्वतोभद्र आदि लि्गपमाण, सुरा्चित आदि लिङ्ग के भेद, आर्ष लिङ्ग, स्वयम्भू लिङ्ग, शिरोवर्तन, लक्षणो द्धरण, नागरलिङ्ग- द्राविड तथा वेसर लिङ्ग के लक्षणो द्धरण, सूत्र का व्यास एवं गहराई, सामान्य विधि. सूत्राग्रलक्षण, स्फाटिक लिङ्ग, मृण्मय लिङ्ग, लिङ्ग-स्थापन तथा लिङ्ग-स्थापन का फल निरूपित है।
३४. पीठलक्षण: इस अध्याय पे पीटलक्षण के प्रसंग में पीठद्रव्य, पीटप्रमाण, पीठ का आकार, पीठो के नाम, भद्रपीठ, पदमपीट, वञ्रपद्मपीट, महाव्जपीट , श्रीकरषीट पीटपदपीट, महावज्र तथा सौम्यपीठ तथा श्रीकाम्यपीट वर्णित हैँ । इसके अतिरिक्तः पीठों के सामान्य लक्षण, ब्रह्मशिला, नन्घावर्त शिला, प्रतिमाओं के पीट , पीटो कं मान सं प्रासाद का प्रमाण, बेर ( प्रतिमा) के प्रमाण से प्रासाद का प्रमाण, अष्टबन्ध ( गारा ) का संग्रहण तथा गर्भगृह मे बेर के स्थान निरूपित हे।
३५. अनुकर्म-विधान: ईइस अध्याय में अनुकर्म-विधान के अन्तर्गत भवन का जीर्णद्रार, लिङ्गजीरणेद्रार, पीठजीरणेद्धार, बेरजीर्णोद्धार, सामान्य विधि, ग्रामादिकों का जीर्णोद्धार, बाल ( अस्थायी लिङ्ग ) का स्थापन आदि वर्णित है।
३६. प्रतिमा-लक्षण: इस अध्याय में ब्रह्मा, विष्णु, वराह, त्रिविक्रम, नारसिंह, अनन्तशायी, महेश्वर, षोड़श मूर्तियां, सुखासनमूर्ति, वैवाहमूर्ति, सोमास्कन्दमूर्ति, वृषारूटमूरति, त्रिुरान्तकमूर्ति, नृ्तूर्तिया, चन्द्रशेखरमूर्ति, अर्धनारीश्वसर्ति, हरिहसमर्ति, चनद्रेशानुग्रहमूर्ति, कामारिमर्ति, कालनाशमूर्ति, दक्षिणामूर्ति, भिक्षारनमूर्ति, कङ्कालमूर्ति, मुखलिङ्ग, षण्मुख, गणाधिप, सूर्य, दिक्पाल - इन्द्र, अग्नि, यम, निक्रति, वरुण, वायु, कुबेर, चन्दर, ईशान, काम, अश्चिनद्रय, वसुगण, मरुद्गण, रुद्र, विद्येश्वर, क्षेत्रपाल, चण्डेश्वर, आदित्य, सप्तर्षि, सप्तरोहिणी, गरुड, शास्ता, मातृकाये, वीरभद्र, ब्रह्माणी, माहेश्वरी, कमारी, वैष्णवी, वाराही, इन्द्राणी, विनायक, मातृकाओं की स्थापना, चामुण्डी, परिवार, लक्ष्मी, यक्षिणी, कात्यायनी, दुर्गा, सरस्वती, ज्येष्ठा, भूमि, पार्वती, सप्तमाता, बुद्ध, जिन, सामान्य विधि, बेर के प्रमाण, जङ्गम बेर के प्रमाण तथा द्वारपाल की मूर्तियों के लक्षण प्रमाणसहित वर्णित है।
परिशिष्ट -इसमें कूप के निर्माण के विषय में विविध विद्वानों के मत उद्धृत हैं।
इस प्रकार विषयवस्तु की दृष्टि से मयमत ग्रन्थ में प्रथम 'वस्तु' ( अथवा वास्तु ) भूमि है। तदनन्तर ग्राम-नगरादि का स्थान आता है। इसके पश्चात् देवों एवं चारों वर्णों के लिये भूमि, भवन, यान तथा शयनासन का स्थान आता है। तीसरे एवं चौथे अध्याय मे भूमि के परीक्षण का वर्णन प्राप्त होता है। तदनन्तर माप के विभिन्न प्रकारं एवं इकाइयों का निरूपण किया गया है। चार प्रकार के शिल्पी - स्थपति, सतरम्राही, तक्षक तथा वर्धकि निर्माणकार्यं के अभिन्न अंग है; अतः इनका ग्रन्थ में विस्तार सं वर्णन किया गया है। निर्माणहेतु दिशा का सटीक ज्ञान एवं कार्य के अनुसार वास्तुपद विन्यास आवश्यक होता है। अतः ग्रन्थ मे इनका विवेचन प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त ग्राम, नगर, भवन, नीव में गर्भविन्यास, उपपीट, अधिष्टान, स्तम्भ, द्रव्यसग्रह, प्रस्तरकरण, सन्धिकर्म, कलश, छत एवं शिखर आदि का निरूपण किया गया हे। देवालय, राजभवन-मर्यादा, गोपुर, मण्डप, सभाग, शालगृह, अलिन्द्र, आंगन आदि वास्तु के अंग हैं। इनका भी विवेचन ग्रन्थ में प्राप्त होता है।
भवन कौ सम्पूर्णता यान-शयनादि उपस्करों के विना पूर्ण नहीं होती; अतः ग्रन्थकार ने इन्हे भी वास्तु का वर्ण्य विषय बनाया है। इसी प्रकार प्रासाद की परिकल्पना देवविग्रह से रहित अकलत्पनीय होती है। अतः ग्रन्थकार ने सकल ( प्रतिमा ) निष्कल ( लिङ्ग ) एवं मिश्र ( मुखलिङ्ग ) का लक्षणसहित प्रतिपादन किया है। महादेव शिव के प्रति अनन्य भक्ति होने के कारण ग्रन्थकार ने पौरुष लिङ्ग, स्वयम्प् लिङ्ग. धारालिङ्ग, स्फाटिक लिङ्ग आदि का अत्यन्त विस्तार से वर्णन किया है। अन्य देवी-देवताओं का भी विस्तार से वर्णन प्राप्त होता है। इस प्रकार मय न वास्तुशास्र के सभी पक्षों पर प्रकाश डाला है।
सन्दर्भ
[संपादित करें]इन्हें भी देखें
[संपादित करें]बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]- मयमतम् (संस्कृत विसिस्रोत)
- मयमतम् की हिन्दी व्याख्या (संस्कृत विसिस्रोत)
- मयमतम्
- मयमतम् (मयमुनि द्वारा रचित वास्तुशास्त्रीय ग्रन्थ)
- मयमतम् (हिन्दी व्याख्या सहित ; व्याख्याकार - डॉ शैलजा पाण्डेय)
- मयमतम्
- मयमतम् (मयमतम् का हिन्दी अनुवाद, बिना श्लोकों के)
- मयमतम् (अध्याय-१६ एवं १७)
- मयमतम् (अध्याय-१ से लेकर अध्यय-३६ तक का हिन्दी अनुवाद)