भ्रान्त चेतना

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मार्क्सवादी विचारधारा के अंतर्गत भ्रांत चेतना (False consciousness) को ऐसी अवस्था माना जाता है जिसमें सर्वहारा वर्ग को स्वयं यह ज्ञात नहीं होता कि उसके हित वास्तव में किस राजनीतिक दल-समूह, विचारधारा से जुड़े हुए हैं और इतिहास में उसकी वास्तविक भूमिका क्या है। वे ऐसी विचारधारा के प्रभाव में रहते हैं जो उनके हितों के विरुद्ध होती है। भ्रांत चेतना पैदा करके शासक वर्ग सर्वहारा के उत्पीड़न और शोषण की स्थितियाँ बनाये रखता है और सर्वहारा स्वयं उस शोषण को सही मानने लगता है। मार्क्स ने अपनी प्रसिद्ध कृति कम्युनिस्ट मैनिफ़ेस्टो में लिखा है कि किसी भी दौर के शासक वर्ग के विचार ही शासक-विचार होते हैं। यानी सत्तारूढ़ वर्ग के विचार ही सर्वाधिक प्रभावशाली विचार बन जाते हैं। इस सामाजिक चेतना तथा प्रभावशाली विचारों का संबंध भी भ्रांत चेतना से है क्योंकि सर्वहारा निजी चेतना के विकास के स्थान पर शासक वर्ग द्वारा विकसित चेतना को अपना लेता है। मार्क्स के अनुसार यह थोपी हुई अर्थात् झूठी चेतना होती है। कालांतर में सर्वहारा यह समझने लगता है कि सत्तारूढ़ वर्ग ने वास्तविकता के प्रति जो चेतना पैदा की है, वह उनके वर्ग हितों के अनुरूप नहीं है और फिर भ्रांत चेतना के स्थान पर वास्तविक वर्ग-चेतना पैदा हो जाती है।

परिचय[संपादित करें]

इस अवधारणा का विश्लेषण वर्ग-चेतना और विचारधारा की व्याख्या के अंतर्गत भी किया जाता है। वर्ग-चेतना वह दशा है जिसमें सर्वहारा स्वयं को विशेष वर्ग का सदस्य मानता है। मार्क्स ने इस वर्ग-चेतना को 'क्लास इन इटसेल्फ़' और 'क्लास फ़ार इटसेल्फ़' की श्रेणियों में विभक्त किया है। इसमें पहली श्रेणी वह दशा है जिसमें कोई सामाजिक समूह एक साझी आर्थिक स्थिति का अंग होता है और वह उस स्थिति को स्वीकार करके चलता है। स्थिति को स्वीकार करने और प्रतिरोध न करने की अवस्था के निर्माण में भ्रांत चेतना का सबसे बड़ा योगदान होता है, जबकि क्लास फ़ार इटसेल्फ़ वर्ग चेतना की वह दशा है जिसमें सर्वहारा किसी भी प्रकार की भ्रांत चेतना व विचारधारा से मुक्त होकर वास्तविक वर्ग-चेतना का विकास करता है और वह अपने ऐतिहासिक शोषण के बारे में सजग हो जाता है। मार्क्स के अनुसार यह परिवर्तन विशेष भौतिक परिस्थितियों के अधीन होता है जिसमें पूँजीवाद प्रधान होता है और पूँजीवाद के कारण ही उत्पादन पद्धति सामूहिक हो जाती है और इस सामूहिकता के कारण व्यक्तिवाद का विचार सर्वहारा की दृष्टि में महत्त्वपूर्ण नहीं रह जाता है।

मार्क्स के ग्रंथों में भ्रांत चेतना शब्द का व्यवहार नहीं मिलता। दरअसल, मार्क्स के ही अभिन्न सहयोगी एंगेल्स ने सर्वप्रथम इसका प्रयोग किया था। पर मार्क्स द्वारा प्रयुक्त विचारधारा तथा 'पण्य-पूजा' शब्दों के अर्थ इसी के निकट माने जाते हैं। मार्क्स ने मूलतः वर्ग की एक वस्तुगत धारणा प्रस्तुत की जो कि समाज के आर्थिक संबंधों पर टिकी व्यवस्था के वस्तुगत विवेचन पर आधारित थी। किसी भी व्यक्ति के सामाजिक वर्ग का निर्धारण समाज में मौजूद उत्पादन एवं सम्पत्तिगत संबंधों के आधार पर होता है। पर एक सामाजिक वर्ग का सदस्य होते हुए भी व्यक्ति की बहुत सारी निजी विशेषताएँ तथा निजी धारणाएँ होती हैं जो विचारों, मनोरचना एवं अस्मिताओं के रूपों पर आधारित होती हैं। ये मनोगत धारणाएँ ही किसी व्यक्ति को ऐसा वैचारिक ढाँचा उपलब्ध कराती हैं जिसके अंतर्गत व्यक्ति समाज में अपनी भूमिका को समझता है और अपने जीवन के प्रभावित करने वाली शक्तियों के बारे में राय कायम करता है। पर किसी भी वर्ग- विभाजित समाज में समाज के विशेषाधिकार प्राप्त तथा अधीनस्थ वर्ग के बीच द्वंद्वपूर्ण संबंध मौजूद रहते हैं। मार्क्स के अनुसार समूचा सामाजिक तंत्र इस प्रकार का होता है कि वह सर्वहारा की चेतना में बड़े व्यवस्थित तरीके से वास्तविकता की ग़लत, विकृत छवियाँ निर्मित करता है। अगर ऐसा नहीं किया जाएगा तो समाज का शोषित वर्ग अपने शोषण के वास्तविक कारणों का जान लेगा तथा दमन व उत्पीड़न की व्यवस्था को उखाड़ फेंकेगा। इसलिए राजनीति, धर्म, व्यापार, अध्यात्म आदि के स्तर पर ऐसी व्यवस्था खड़ी की जाती है जिससे भ्रांत चेतना तथा विचारधारात्मक वर्चस्व को पैदा किया जा सके।

उल्लेखनीय है कि मार्क्स ने विचारधारा का सिद्धांत अपनी पुस्तक द जर्मन आइडियालॅजी में प्रस्तुत किया है और विचारधारा को ऐसा माध्यम बताया है जो मनुष्य को अपनी सृष्टि तथा समाज को समझने में सहायता प्रदान करती है। मार्क्स के पूरे दर्शन में विचारधारा को अन्य चीजों से स्वतंत्र नहीं बल्कि उन पर निर्भर बताया गया है। ख़ास तौर पर किसी काल विशेष में भौतिक स्थितियों तथा उत्पान संबंधों पर विचारधारा का स्वरूप निर्भर होता है। इसीलिए मार्क्स ने अपनी इस रचना में पहले से चले आ रहे भाववादी दर्शन सम्प्रदायों का विरोध करते हुए लिखा : ‘चेतना मनुष्य के सामाजिक अस्तित्व को निर्धारित नहीं करती बल्कि सामाजिक अस्तित्व ही उसकी चेतना का निर्धारण करता है। उत्पादन के रूप बदलने के साथ नये वर्ग और स्वामित्व भी पैदा होते हैं।’ मार्क्स के ही शब्दों में : ‘हथकरघे वाले समाज में सामंत शासक होते हैं जबकि भाप आधारित मिलों के विकास के बाद औद्योगिक पूँजीपतियों के हाथ में सत्ता आ जाती है। वर्गों के इस रूपांतरण में विचारधारा एक वर्ग का दूसरे वर्ग पर वर्चस्व बनाये रखने में बड़ी भूमिका अदा करती है और उसी से भ्रांत चेतना का भी निर्माण होता है।’

मार्क्स ने पण्य-पूजा की अवधारणा का विकास अपने प्रसिद्ध ग्रंथ दास कैपिटल में किया है। इस अवधारणा के माध्यम से उन्होंने उन स्थितियों की व्याख्या की है जो पण्य- उत्पादन में लगे समाज में यथार्थ को धुंधला, अस्पष्ट तथा भ्रमपूर्ण बनाने में योगदान देती हैं। किसी वस्तु के बारे में नज़रिये तथा बोध का निर्माण केवल उसके मूल्य से किया जाता है और किन उत्पादन संबंधों के बीच उस वस्तु का उत्पादन हुआ, इसे अनदेखा कर दिया जाता है। जूतों की सिलाई के कारख़ाने में बने जूते का बाजार में केवल मूल्य देखा जाता है जबकि जूते बनाने वाले मजदूर के श्रम को अनदेखा कर दिया जाता है। मार्क्स के मुताबिक इस तरह का रहस्यीकरण सामाजिक उत्पादन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है और इसी के ज़रिये बाजार आधारित समाज दमन और शोषण पर आधारित उन मालिक-मजदूर संबंधों पर पर्दा डाल देता है, जिसपर वह स्वयं निर्भर होता है।

भ्रांत चेतना की अवधारणा को मार्क्स द्वारा प्रतिपादित आधार एवं अधिरचना की सैद्धांतिकियों से भी समझा जा सकता है। समाज की भौतिक दशाएँ ही आधार होती हैं और उनमें आने वाले परिवर्तनों से ही सामाजिक संबंधों में भी परिवर्तन आते हैं। जबकि अधिरचना में शैक्षणिक, वैधानिक, राजनीतिक संस्थाएं, मूल्य, चिंतन के तरीके, धर्म, विचारधाराएँ और दर्शनशास्त्र इत्यादि आते हैं। इन्हीं के माध्यम से भौतिक स्थितियों में मौजूद सामंत-किसान, मज़दूर-मालिक आदि शोषणपरक संबंधों की हिफ़ाज़त की जाती है और जब समाज के सभी सदस्य अधिरचना में मौजूद इन शोषणप्रद विचारों को स्वीकार कर लेते हैं तो उसे ही भ्रांत चेतना की अधीनता स्वीकारने के रूप में देखा जाता है। परवर्ती विचारकों जैसे कार्ल मैनहीम, एंतोनियो ग्राम्शी, लुई अलथुसे आदि ने विचारधारा तथा राजनीतिक संस्थाओं का विस्तार से विश्लेषण कर भ्रांत चेतना के बारे में प्रकाश डाला। फ्रेंच दार्शनिक लुई अलथुसे ने इसे श्रम-शक्ति के पुनरुत्पादन के जरूरी उपकरण के रूप में विश्लेषित किया है। अलथुसे के अनुसार श्रम शक्ति का पुनरुत्पादन दो चीजों पर निर्भर करता है। पहला, आवश्यक हुनर का पुनरुत्पादन और दूसरा, शासक वर्गीय विचारधारा व श्रमिकों के ख़ास समाजीकरण का उत्पादन जिससे तकनीकी रूप से दक्ष एवं आज्ञाकारी-पराधीन श्रमशक्ति का निर्माण होता है। अलथुसे ने यह भी कहा कि कोई भी वर्ग महज़ शक्ति-प्रयोग से अपना वर्चस्व नहीं कायम रख पाता बल्कि वर्गीय शासन के लिए भी विचारधारात्मक नियंत्रण करना होता है। अलथुसे के अनुसार शासकवर्गीय विचारधारा का पुनरुत्पादन ख़ास तरीके से होता है जिसे उन्होंने आइडियालॅजिकल स्टेट अप्रेटस का नाम दिया जिसमें जनसंचार माध्यम, कानून, धर्म, शिक्षा आदि सभी सम्मिलित हैं। आइडियालॅजिकल स्टेट अप्रेटस ही शिक्षा आदि के ज़रिये शासकवर्गीय विचारधारा का प्रसार कर अधीनस्थ वर्गों में भ्रांत चेतना पैदा करता है और उन्हें अधीनता की अवस्था में रखता है। इटली के वामपंथी विचारक ग्राम्शी ने भ्रांत चेतना तथा वर्ग चेतना को विचारधारा तथा प्रभुत्व के संदर्भ में विशेष तौर पर व्याख्यायित किया और कहा कि सर्वहारा अपने सांस्कृतिक-सामाजिक प्रतीकों का प्रयोग कर वर्चस्ववादी विचारधारा का प्रतिरोध कर सकता है और इस प्रकार इतिहास में शक्तिशाली वर्ग की विचारधारा की निष्क्रियतापूर्ण तरीके से अधीनता स्वीकार करने से इनकार कर सकता है।

सन्दर्भ[संपादित करें]

1. कार्ल मार्क्स (1971), द पावर्टी ऑफ़ फ़िलॉसफ़ी, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मास्को.

2. कार्ल मार्क्स (1977), कैपिटल, खण्ड-1, विंटेज, न्यूयार्क.

3. कार्ल मार्क्स और फ्रेड्रिख़ एंगेल्स (1970), द जर्मन आइडियालॅजी, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मास्को.

4. एंतोनियो ग्राम्शी (1971), सेलेक्शंस फ्रॉम द प्रिज़न नोटबुक ऑफ़ एंतोनियो ग्राम्शी, इंटरनैशनल, न्यूयार्क.

5. लुई अलथुसे (1971), लेनिन ऐंड फ़िलॉसफ़ी ऐंड अदर एसेज़, न्यू लेक्रट बुक्स, लंदन.

6. लुई अलथुसे (1971), आइडियालॅजी ऐंड आइडियालॅजिकल स्टेट एप्रेटस, न्यू लेक्रट बुक्स, लंदन.

7. कार्ल मैनहीम (1959) अ ाइडियालॅजी ऐंड यूटोपिया : ऐन इंट्रोडक्शन टू द सोसियोलॅजी ऑफ़ नालेज, ए हारर्वेस्ट बुक, एचबी 3, न्यूयार्क.