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भूमिज विद्रोह

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भूमिज विद्रोह तत्कालीन बंगाल राज्य (अब झारखण्ड एवं पश्चिम बंगाल) के मिदनापुर जिले के बाराभूम, धलभूम और जंगल महल क्षेत्र में स्थित भूमिज आदिवासियों द्वारा 1766-34 के दौरान में किया गया विद्रोह है। पहला भूमिज विद्रोह 1769 में बड़ाभूम और धलभूम में हुआ तथा 1798-99 में भी भूमिजों का बड़ा विद्रोह हुआ।[1] इसके बाद गंगा नारायण सिंह के नेतृत्व में 1831-33 में भूमिजों का एक संगठित विद्रोह हुआ। यह भारतीय इतिहास का पहला संगठित विद्रोह था।[2] इसे “चुआड़ विद्रोह” भी कहा जाता है तथा 1832-33 के विद्रोह को अंग्रेजों ने “गंगा नारायण का हंगामा” भी कहा है।[3] 1767 ईस्वी से 1833 ईस्वी तक, 60 से ज्यादा वर्षों में भूमिजों द्वारा अंग्रेजों के विरूद्ध विद्रोह किया गया। इस विद्रोह को “जंगल महल आंदोलन” भी कहा जाता है।[4]

1765 ईस्वी में दिल्ली के बादशाह, शाह आलम ने बंगाल, बिहार, उड़ीसा की दीवानी ईस्ट इंडिया कंपनी को दी थी। इससे आदिवासियों का शोषण होने लगा तो भूमिजों ने विद्रोह कर दिया।

बड़ाभूम राज

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बड़ाभूम परगना बंगाल स्थित एक बड़ा राज्य था, जिसका मुख्यालय बराबाजार था। बड़ाभूम राज्य की स्थापना भूमिज आदिवासियों द्वारा 12वीं-13वीं शताब्दी में किया गया था, और भूमिज स्वशासन व्यवस्था से शासन करती थी। जहां मुख्य रूप से भूमिज आदिवासी वास करते थे। जंगल महल के भूमिजों को चुआड़ भी कहा जाता था, जिनमे से कुछ जमींदार, सरदार घटवाल और पाईक बन गए थे।

1765 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दिवानी मिली, तब बड़ाभूम के तत्कालीन राजा विवेक नारायण सिंह ने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार नहीं की और अंग्रेजों के विरुद्ध 1769 के भूमिज विद्रोह, जिसे चुआड़ विद्रोह भी कहा जाता है, में चुआड़ो को सहयोग दिया। राजा विवेक नारायण सिंह की दो रानियां थीं। दो रानियों के दो बेटे थे। 18वीं शताब्दी में राजा विवेक नारायण की मृत्यु के बाद, दो पुत्रों लक्ष्मण नारायण सिंह और रघुनाथ नारायण सिंह के बीच उत्तराधिकारी के लिए संघर्ष हुआ। जिसमें ब्रिटिश शासन ने भी हस्तक्षेप किया।

पारंपरिक भूमिज प्रणाली के रिवाज के अनुसार, बड़ी रानी के पुत्र लक्ष्मण नारायण सिंह राजा के रूप में एकमात्र उत्तराधिकारी थे। लेकिन अंग्रेजों द्वारा छोटी रानी के पुत्र रघुनाथ नारायण को राजा के रूप में नामित करने के बाद एक लंबा पारिवारिक विवाद शुरू हो गया । स्थानीय भूमिज सरदार लक्ष्मण नारायण का समर्थन करते थे। लेकिन वह रघुनाथ द्वारा प्राप्त ब्रिटिश समर्थन और सैन्य सहायता के सामने खड़ा नहीं हो सका। लक्ष्मण सिंह को राज्य से बेदखल कर दिया गया। लक्ष्मण सिंह को उनकी आजीविका के लिए बांधडीह गांव के जागीर दिया गया था, जहां उनका काम सिर्फ बांधडीह घाट की देखभाल करना था। लक्ष्मण सिंह अपने अधिकारों को वापस पाने के लिए संघर्ष करते रहे। लक्ष्मण सिंह ने सुबल सिंह और श्याम गुंजम सिंह के साथ 1770 में विद्रोह किया था, जिसे चुआड़ विद्रोह कहा जाता है। इस विद्रोह को 1778 में दबा दिया गया था। 1793 में भू-राजस्व स्थायी बंदोबस्त के बाद बड़ाभूम परगना में लक्ष्मण सिंह ने एक बार बार फिर विद्रोह किया, उन्होंने 500 चुआड़ों के साथ पूरे क्षेत्र में हंगामा किया।[5] बाद अंग्रेजों द्वारा उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और मेदिनीपुर जेल भेज दिया गया, जहां 1796 को उनकी मृत्यु हो गयी।[6] लक्ष्मण सिंह के पुत्र गंगा नारायण सिंह ने बाद में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ भीषण विद्रोह किया।[7]

1798 में राजा रघुनाथ नारायण सिंह की मृत्यु के पश्चात, बड़ाभूम जमींदारी में फिर विवाद उत्पन्न हुआ। रघुनाथ नारायण की दो पत्नियां थीं, जिनमें पहली पत्नी (पटरानी) का पुत्र माधव सिंह (उम्र में छोटा) और दूसरी रानी का पुत्र गंगा गोविंद सिंह (उम्र में बड़ा) था। पटरानी का पुत्र होने के कारण सभी भूमिज माधव सिंह का समर्थन कर रहे थे। लेकिन अंग्रेजी अदालत ने गंगा गोविंद सिंह को यह कहकर राजा घोषित किया कि "जमींदारी पर पहला हक बड़े पुत्र का होगा, कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसकी मां पहली या दूसरी पत्नी थी"। इसके साथ ही माधव सिंह के स्थान पर कृष्णा दास को दीवान बना दिया गया, जिसका माधव सिंह ने चुआड़ों (भूमिजों) को एकजुट कर विरोध किया। बाद में, अंग्रेज़ सरकार द्वारा कृष्णा दास को हटाकर माधव सिंह को दीवान बनाया गया, लेकिन माधव सिंह अपने पद का दुरुपयोग करने लगा और उसका अत्याचार बढ़ने लगा। तब भूमिज आदिवासी किसान, पाइक, सरदार, घाटवालों ने गंगा नारायण सिंह की सहायता मांगी, और 1832 में दीवान माधव सिंह की हत्या के साथ ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ एक आदिवासी संगठित विद्रोह का आरंभ हुआ।

विद्रोह

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1832-33 के भूमिज विद्रोह की नीव 60 साल पहले ही रख दी गई थी, 1769 में धालभूम और बड़ाभूम में सर्वप्रथम भूमिज विद्रोह की शुरुआत हुई, जिसे चुआड़ विद्रोह की नाम से भी जाना जाता है। जो अंग्रेज़ों की विरुद्ध भारतीय इतिहास का पहला विद्रोह था।[8] 1771, 1778, 1784, 1787, 1792-93, 1798-99, 1805, 1816 और 1820 में भी भूमिजों का बड़ा विद्रोह हुआ। भूमिज विद्रोह (चुआड़ विद्रोह) पुरे जंगल महल क्षेत्र में 1768-1831 तक छिटपुट रूप से चला, लेकिन 1832 में गंगा नारायण की नेतृत्व में सभी भूमिज राजा, जमीनदार, सरदार, घाटवाल, पाइक, किसान संगठित रूप में विद्रोह किया। बड़ाभूम, धलभूम, कुईलापाल, धादका, पातकुम, शिखरभूम, सिंहभूम, पंचेत, झालदा, वामणी, बाघमुंडी, मानभूम, अंबिका नगर, अमियपुर, श्यामसुंदरपुर, फुलकुसमा, रायपुर और काशीपुर के सभी भूमिज (चुआड़) ने गंगा नारायण सिंह का समर्थन किया। चुआड़ विद्रोह के महानायक, दामपाड़ा के सरदार रघुनाथ सिंह ने भी उनका समर्थन किया। गंगा नारायण सिंह ब्रिटिश शासन और उसके शोषण नीति के खिलाफ लड़ने वाले पहले नेता थे, जिन्होंने सबसे पहले सरदार गोरिल्ला वाहिनी सेना का गठन किया था। जिस पर हर जाति का समर्थन था। जिरपा लाया को सेना का मुख्य सेनापति नियुक्त किया गया था। गंगा नारायण ने 2 अप्रैल, 1832 ई. को वनडीह में बड़ाभूम के दीवान और ब्रिटिश दलाल माधब सिंह पर हमला किया और उनकी हत्या कर दी। उसके बाद गंगानारायण ने सरदार वाहिनी के साथ मिलकर बड़ाबाजार मुफस्सिल का दरबार, नमक निरीक्षक का कार्यालय और थाने को आग के हवाले कर दिया।[9][10]

बांकुड़ा के कलेक्टर रसेल गंगा नारायण को गिरफ्तार करने पहुंचे, लेकिन सरदार वाहिनी सेना ने उसे चारों तरफ से घेर लिया। सभी अंग्रेजी सेना मारे गए। लेकिन रसेल किसी तरह जान बचाकर बांकुड़ा भाग गए। गंगा नारायण के इस आंदोलन ने एक तूफान का रूप ले लिया, जिसने छातना, झालदा, अक्रो, अंबिका नगर, श्यामसुंदरपुर, रायपुर, फुलकुसमा, शिल्डा, कुइलापाल और बंगाल के विभिन्न स्थानों में ब्रिटिश रेजिमेंटों को रौंद दिया। उनके आंदोलन का प्रभाव बंगाल में पुरुलिया, बर्धमान, मेदिनीपुर और बांकुड़ा, बिहार में पूरा छोटानागपुर (अब झारखंड), उड़ीसा में मयूरभंज, क्योंझर और सुंदरगढ़ जैसे स्थानों पर जोरदार था। नतीजतन, पूरा जंगल महल अंग्रेजों के नियंत्रण से बाहर हो गया था। एक सच्चे ईमानदार, वीर, देशभक्त और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में सभी ने गंगा नारायण का समर्थन करना शुरू कर दिया।[11]

अंततः अंग्रेजों को बैरकपुर छावनी से एक सेना भेजनी पड़ी, जिसे लेफ्टिनेंट कर्नल कपूर के नेतृत्व में भेजा गया। संघर्ष में सेना की भी हार हुई। इसके बाद गंगा नारायण और उनके अनुयायियों ने अपनी कार्ययोजना का दायरा बढ़ाया। बर्धमान के कमिश्नर बैटन और छोटानागपुर के कमिश्नर हंट भी भेजे गए लेकिन वे भी सफल नहीं हो सके और उन्हें सरदार वाहिनी सेना के सामने हार का सामना करना पड़ा।[12][13]

अगस्त 1832 से फरवरी 1833 तक , बिहार के छोटानागपुर (अब झारखण्ड), बंगाल के बांकुड़ा, पुरुलिया, बर्धमान, मेदिनीपुर, उड़ीसा के मयूरभंज, क्योंझर और सुंदरगढ़ और पूरा जंगल महल अस्त-व्यस्त रहा। अंग्रेजों ने गंगा नारायण सिंह को दबाने की हर तरह से कोशिश की , लेकिन गंगा नारायण की चतुराई और युद्ध कौशल के सामने अंग्रेज टिक नहीं पाए। बर्धमान और छोटानागपुर के आयुक्त गंगा नारायण सिंह से हारकर रायपुर (उड़ीसा) भाग निकला। इस प्रकार संघर्ष इतना तेज और प्रभावी था कि अंग्रेजों को भूमि बिक्री कानून, उत्तराधिकार कानून, लाख पर उत्पाद शुल्क, नमक कानून, जंगल कानून को वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा।[14][15]

उस समय खरसावां के ठाकुर चेतन सिंह अंग्रेजों की मिलीभगत से अपना शासन चला रहे थे। गंगा नारायण पोराहाट और सिंहभूम गए और ठाकुर चेतन सिंह और अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए कोल (हो) जनजातियों को संगठित किया। 6 फरवरी 1833 को गंगा नारायण ने खरसावां के ठाकुर चेतन सिंह के हिंदशहर थाने पर कोल जनजातियों के साथ हमला किया, लेकिन दुर्भाग्यवश 7 फरवरी 1833 को अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते हुए उनकी मृत्यु हो गई।

इस प्रकार 7 फरवरी 1833 ई. को एक पराक्रमी योद्धा, जिसने अंग्रेजों के खिलाफ लोहा लिया, भूमिज विद्रोह (चुआड़ विद्रोह भी) के महानायक, गंगा नारायण सिंह ने अपनी अमिट छाप छोड़ी और अमर हो गए। भूमिज विद्रोह के बाद, 1833 के नियमन XIII के तहत, शासन प्रणाली में व्यापक परिवर्तन हुए। राजस्व नीति में परिवर्तन हुआ और छोटानागपुर को दक्षिण-पश्चिम सीमांत एजेंसी के एक भाग के रूप में स्वीकार किया गया।

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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सन्दर्भ

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  1. Tiwari, Lalan (1995). Issues in Indian Politics (अंग्रेज़ी में). Mittal Publications. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-7099-618-7.
  2. जगदीश चन्द्र झा (१९६७). The Bhumij revolt, 1832-33: Ganga Narain's hangama or turmoil [भूमिज विद्रोह, १८३२-३३ (गंगा नारायण का हंगामा)] (अंग्रेज़ी में). मुंशीराम मनोहरलाल पब्लिसर्स प्राइवेट लिमिटेड. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788121503532.
  3. "1248929 | रांची : चुआड़ विद्रोह के महानायक शहीद रघुनाथ व गंगा नारायण को सम्मान देगी सरकार". web.archive.org. 2021-01-12. मूल से पुरालेखित 12 जनवरी 2021. अभिगमन तिथि 2022-11-11.सीएस1 रखरखाव: BOT: original-url status unknown (link)
  4. "Jungle Mahal Uprising, 1832-33". INDIAN CULTURE (अंग्रेज़ी में). अभिगमन तिथि 2024-01-12.
  5. Commission, Indian Historical Records (1979). Proceedings of the ... Session (अंग्रेज़ी में). The Commission.
  6. Jha, Jagdish Chandra (1967). The Bhumij Revolt, 1832-33: Ganga Narain's Hangama Or Turmoil (अंग्रेज़ी में). Munshiram Manoharlal.
  7. Kumar, Akshay (2021-06-18). "Bhumij Revolt & Santhal Rebellion | Jharkhand". Edvnce (अंग्रेज़ी में). अभिगमन तिथि 2022-11-11.
  8. Das, Shiva Tosh (1993). Svatantratā senānī vīra ādivāsī. Kitāba Ghara. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-7016-179-0.
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  10. Bengal (India), West (1985). West Bengal District Gazetteers: Puruliya (अंग्रेज़ी में). State editor, West Bengal District Gazetteers.
  11. Das, Binod Sankar (1984). Changing Profile of the Frontier Bengal, 1751-1833 (अंग्रेज़ी में). Mittal Publications.
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  13. Panda, Barid Baran (2005). Socio-economic Condition of South West Bengal in the Nineteenth Century (अंग्रेज़ी में). Punthi Pustak. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-86791-52-3.
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  15. Aquil, Raziuddin; Mukherjee, Tilottama (2020-02-25). An Earthly Paradise: Trade, Politics and Culture in Early Modern Bengal (अंग्रेज़ी में). Routledge. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-000-07180-1.