भुक्ति

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शासन की सुविधा के लिये गुप्त वंश के शासकों ने साम्राज्य को अनेक भुक्तियों में विभाजित किया था। ये भुक्तियाँ वर्तमान कमिश्नरी की भाँति थीं जिनमें कई 'विषय' या जिले होते थे। भुक्तियों का शासन 'उपरिक' नाम के अधिकारियों के हाथ में था जो अधिक शक्तिशाली हो जाने पर 'उपरिक महाराज' कहलाते थे।

परिचय[संपादित करें]

गुप्तोत्तर काल में शासन की इकाई के रूप में भुक्ति के उल्लेख अधिक नहीं मिलते। प्रतिहार साम्राज्य में ऐसे कुछ उल्लेख हैं किंतु उनकी संख्या अधिक नहीं है। परमार, गहड़वाल, चंदेल और चालुक्यों के साम्राज्य में अधिक विस्तृत नहीं थे, भुक्ति के उल्लेख नहीं मिलता। बंगाल में पालों के बड़े साम्राज्य के कारण भुक्ति के उल्लेख हैं। असम में भी भुक्ति का उपयोग संभवत: पालों के साथ दीर्घकालीन संबंध के कारण था। गुप्तोत्तर काल में सम्राज्य का बहुत बड़ा भाग सामंतों के अधिकार में होने के कारण केंद्र द्वारा शासित प्रदेश इतना बड़ा नहीं था कि उसे भुक्ति जैसी बड़ी इकाइयों में बाँटा जा सके।

राष्ट्रकूट वंश, जो गंगा के मैदान के संपर्क में रहा, अपने कुछ अभिलेखों में कुछ भुक्तियों के नाम देता है, किंतु वहाँ यह विषय का विभाजन था। जो वर्तमान तालुक या तहसील जैसा छोटा था और उसमें प्राय: केवल ५० से ७० तक गाँव होते थे।

कुछ स्थलों पर भुक्ति का शासन के विभाजन के विशिष्ट अर्थ में उपयोग नहीं मिलता; यथा ईदा अभिलेख में 'वर्धमान भुक्ति' के अंतर्गत दंडभुक्ति एक मंडल था। इसी प्रकार तीरभुक्ति नगर के नाम के रूप में भी प्रयुक्त हुआ है।

गुप्तोत्तर काल में भुक्ति का उपयोग सामंतों की जागीर के अर्थ में भी मिलता है। यह उपयोग भुक्ति के शाब्दिक अर्थ पर आधारित था। कई चाहमान अभिलेखों, कीर्तिकौमुदी और उपमिति भवप्रपंच कथा में भुक्ति का उपयोग इस अर्थ में है।

धर्मशास्त्रों में 'भुक्ति'[संपादित करें]

धर्मशास्त्रों में भुक्ति अथवा भोग का इसके शाब्दिक अर्थ के आधार पर एक विशिष्ट उपयोग मिलता है। किसी संपत्ति पर स्वामित्त्व के लिये आवश्यक हैं - भुक्ति और आगम (स्वत्व का अधिकार)। इसी कारण भुक्ति दो प्रकार की मानी गई है - सागमा और अनागमा। आगम और भुक्ति एक दूसरे पर अवलंबित और संबंधित हैं। बिना आगम के संपत्ति का भोग करनेवाला चोर के तुल्य कहा गया है किंतु स्वामित्व सिद्ध करने के लिये भुक्ति को अधिक महत्व दिया जाता था। संपत्ति का स्थानांतर लिखित और साक्षीयुक्त होने पर यदि भुक्ति रहित है तो संशयात्मक रहेगा। धर्मशास्त्रों में भुक्ति और आगम के तुलनात्मक महत्व और दीर्घकालीन भुक्ति की अवधि के संबंध में, जिससे स्वामित्व की प्राप्ति होती है, बड़ा मतभेद रहा है। उत्तरकालीन टीकाओं ने इन विरोधों को मिटाने को प्रयत्न किया है। पूर्वकालीन स्मृतियों ने २० वर्षो तक अनागम भुक्ति को स्वामित्व के लिये पर्याप्त माना है, किंतु उत्तरकालीन स्मृतियों ने इसका समय ६० वर्ष तक बताया है। प्राय: तीन पीढ़ियों तक के अनधिकारी भोग (त्रिपुरुष भोग) को स्वामित्व उत्पन्न करने में समर्थ कहा गया है। एक विवेचना मिलता है कि मानव स्मरण काल के भीतर ही भुक्ति को आगम की अपेक्षा होती है स्मार्तकाल के बाहर तीन पीढ़ियों तक का भोग पर्याप्त है। कुछ स्मृतिकारों ने चल संपत्ति के संबंध में स्वामित्व स्थापित करने वाले भोग की अवधि ४,५ या १ वर्ष की कही है जो वास्तव में भुक्ति के महत्व के स्वीकृत मात्र है।